#तकब१ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #१ ] मित्रो लीजिये इस समूह के पुन: शुरआत के साथ पहली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है १. इस चित्र में है दो चित्र लेकिन दोनों में सम्बन्ध स्थापित करते हुए, कम से कम ८ पंक्तियों की रचना का सृजन करे. हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. २. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. रचना को शीर्षक अवश्य दे. ३. प्रतियोगिता एक सप्ताह चलेगी यानि १० मई २०१६ की रात्रि तक. ४. केवल अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखीजाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा. ५. चयन प्रक्रिया को बीच में सूचित किया जाएगा. ६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो. विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले. |
इस प्रतियोगिता के विजेता है : सुश्री नैनी ग्रोवर
१.
नैनी ग्रोवर
~ स्पर्श ~
भाव स्पर्श का,
अब भी वही है,
बस, अहसास बदल गया..
कभी मेरे हाथ में,
तुम्हारा हाथ था,
आज तुम्हारे हाथ में,
मेरा हाथ है,
देखो तो,
सवेरा कितनी जल्दी,
रंग बदल गया...
अब डर नहीं,
के तुम गिर जाओगे,
अब, भरोसा है,
मुझको उठाओगे,
देने की जगह,
पाने की चाह में,
ढल गया...
जीवन के इस,
पड़ाव पर,
इस शरीर के,
उतार पर,
छुअन तुम्हारे
हाथ की,
सौगात लगती है
रब की ज़ात की,
खुशियाँ आज,
झोली में हैं,
कल का क्या है,
वो तो कल गया...!!
२.
बालकृष्ण डी ध्यानी
~एक छत है~
एक छत है
और वो एक कहानी है
बहती जाती वो रवानी है
संपर्क और वो एक पल का संयोग
वो छूना तेरा वो छूना मेरा
बस प्रेम था वो बस ये प्रेम है
एक छत है
और रिश्तों की वो किश्तें हैं
समय ने समय में बंटे वो हिस्से हैं
कभी स्पर्श हुआ था मेरे हाथों का
अब पकड़ा है तूने मुझे अपने हाथों में
बस प्रेम था वो बस ये प्रेम है
एक छत है
और आता है वक्त फिर लौट उसमें
दोहराने अपनी बात वो तुझ से मुझ से
बस अहसासों का वो समंदर है
डूबा है जो उस में वो ही है उभरा उस से
बस प्रेम था वो बस ये प्रेम है
३.
मदन मोहन थपलियाल
~ 'अहसास' ~
थाम के उंगली,
न जाने क्या कुछ कह गई,
निर्झर झरने सम,
हृदयपटल में बह गई.
सपने बुनने हुए शुरू,
छोर का दूर तक पता नहीं,
कब गुजरे दिन जिन्दगी के,
वक्त कुछ लगा नहीं.
झुर्रियों भरे अहसास को थाम,
माथे में बिजली सी कौंध गई,
उलझ के रह गई भावना,
बात ज्यों की त्यों रह गई.
हकीकत से दो-चार होना ही पड़ता है,
'शैल' दिल की हर धड़कन ए कह गई
४.
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~रिश्ता...पानी या खून ?~
"बूढ़ी माँ को
घर से निकाल रखा है
अजीब शौक है बेटे का
कुत्ते को पाल रखा है"
...... ये कही पढ़ा था..
माँ की रूह रूह में
भरा है
बच्चे के लिए वात्सल्य
उसके जन्म से लेकर
खुद के इस संसार से
अलविदा होने तक....
माँ पिता के दिल में
सिवाय ममता और
आशीर्वाद के
कुछ होता भी है कहाँ?
बुजुर्गो की
शारीरिक मानसिक शक्ति
कम होते ही
वो खून
तब क्यों पानी हो जाता है
आखिर इन्सान
अपने खून में रचे बसे
उस स्पर्श को
कैसे भूल जाता है
आज इंसान
उनके प्रति संवेदना
और सम्मान के विरुद्ध
उन्हें खुद से अलग कर
स्वयं शान शौकत को
अपनाता है
और बुजुर्गो को तब
केवल तिरस्कार मिलता है.
सच है
उम्र के आख़री पड़ाव में
यूं अकेले हो जाना
अपनों का मुंह मोड़ लेना
दुसरे पर निर्भर बुजर्गो को
तब कुंठा और
निराशा का घेर लेना
लेकिन वृद्धावस्था
कोई बीमारी नही
यह तो जीवन की अवस्था
और
हमारा ही भविष्य है
बुजुर्ग तो
अतीत के प्रतीक
और है अनुभव के भंडार
दया नही
श्रद्धा उनके प्रति, है हमारे संस्कार
वृद्धावस्था को
उनकी सुखी बनाए, ऐसे हो विचार
संवेदना भर स्वयं में,
सम्मान कर, करे उनका आदर
हाथो में हाथ लेकर उनका
सेवा भाव का देकर परिचय
उनकी सेवा अभिशाप नही
है कार्य पुण्य का
५.
किरण आर्य
~रिश्तों का सच~
स्नेह प्रकृति का हिस्सा है
अपनत्व इसमें रचा बसा है
जीवन चक्र घूमता
स्नेह के इर्द गिर्द
हाथ थाम एक दूजे का
चलते है रिश्ते
कुछ लौकिक कुछ अलौकिक से
कुछ जन्म से है हाथ थामे
कुछ हमने जो जाने पहचाने
थाम कर जिनकी ऊँगली
उम्र के हर पड़ाव तक जीवन
गिरता है संभलता है चलता है
उसका चलना
बहती नदी के संगीत सा
उसके चलने में बसा है
कलरव पक्षियों सा
उसका चलना करता
जीवन को गुंजायमान
पहले यूं चलना ही
मुक्ति की राह करता प्रशस्त
पहले चलता था जीवन
बचपन में वयस्कों की
ऊँगली थाम कर
उम्र के अंतिम पड़ाव पर
थाम लेता था उसी हाथ को वो
समय बदला मिजाज़ बदले
और बदल गई फिर फितरत उसकी
बदल गया मन और जीवन
थाम लेते थे जो हाथ बचपन को
वहीँ हाथ जब चाहते साथ
खाली रह जाता उनका बढ़ा हाथ
हाथ को न मिलता साथ
६.
अलका गुप्ता
~~~बस एक चाह~~~
मुठ्ठियों ने नन्ही नन्हीं
जकड़ लिए थे अहसास
भींच लिए थे ममत्व जाल में
सारे क्रिया कलाप ||
तन मन का हिस्सा थे तुम |
मेरे बच्चे..तेरे हित..मेरे आस !
मात-पिता हम कहलाए ...
समझ स्वयं को बड़ भाग ||
नन्हे नन्हे डग ये चल कर..
नाम कमाए..दौलत का भंडार |
बस एक चाह थी..जीते तू...
जग सारा...यह संसार ||
आज से नहीं थे कोई ..
मेरे भाव लाचार |
एक चाह उमड़ी है ..बस
अंत समय. हो तेरा साथ ||
सशक्त हाथ...थाम मुझे ...
सुला दें .धर काँधे अर्थी मेरी
चिता की..चिर शैय्या पर
सुखद निद्रा साथ ||
७.
डॉली अग्रवाल
~ममता का मोल~
तेरे नन्हे हाथो ने जब मुझे छुआ
मन के कोने से निकली दुआ
ऐ मेरे मौला
करम तू करना , इस फरिश्ते पर
पीड़ा जो हमने झेली वो इसका नसीब ना हो
बस सुकून ही सुकून बरसे , दिल खुशियो से भरा रहे ...
बस ये खवाहिश है दिल की --
कल जब झुकने लगु तो --लाठी तुम बन जाना
मैंने सर्वस्व वारा तुमपे , बस कुछ लम्हे हमे देना तुम ....
बुढ़ापे में हमें अपना लेना तुम
८.
ज्योति डंगवाल
~तुम्हारे साथ~
मेरे अंश
जब छुये तूने
अपने नर्म हाथों
मेरे मेहनतकश हाथ
फिर जगी एक तमन्ना
करूँ कोई भी जतन
तुझे हो कभी कोई कमी ना
भरे जब डग तेरे कदम
तू गिरे न थाम लूँ मैं हरदम
तेरी बुलंदी को हाथ मेरा उठता
खोती हूँ मैं जब यादों की प्राचीर
याद आता है मुझे हर बार
माँ तुम्हारे हाथों की छुअन
घेर बाँहों का आलिंगन
मेरे लिए किये सज़दे हज़ार
मिंट में लिपटा हुआ प्यार
तुम्हे छोड़ हम
हुए नीड़ के पंछी
आओ छोड़ के अब
दो मुझे फिर सुवास
फिर अपने हाथो को
मेरे हाथों में थमा दो
कल तुम घुमाते थे मुझे
आज मुझे वो लम्हा चुराने दो
असल में जी रही हूँ घुटती साँसों तले
जी लूँ मैं कुछ पल कककहे जो तेरे लगे
समेटे हुए कुछ सुखद अहसास
मेरे कल और आज तुम्हारे साथ ...
९.
Raj Malpani
~~~ वो हाथ ~~~
आज पकड़ इन हाँथों को सिखा है बहोत कुछ ......
इन हथ को पकड़ चलना सिखा है तुमने
इन हाथ से गोद में उठाया है तूजे
इन हाथो से ही खिलाया है तूजे
इन हाथो से ही पिठा है तूजे
इन हाथो से ही आशीर्वाद दिया है तूजे
इन हाथो ने ही आगे बड़ने का हौसला दिया है तूजे
पर आज वही हाथ ....... कमज़ोर होने लगे है
उमर भर बस तेरी ही परवरिश करते करते ये हात झुकने लगे है
अब है तेरी बारी जितना थमा था तुमने इस हाथ को
बस चौथाई वक़्त बीता देना ....... इस बुढ़ापे को सँवर देना तुम
१०.
Kiran Srivastava
"कर्त्तव्य"
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अंगुली थामें चलना सिखाया
जीवन का हर पाठ पढाया
अच्छे बुरे का भेद बताया
संस्कार का बीज रोप कर
जीवन को समृद्ध बनाया
माँ बाप ने फर्ज निभाया !!!!
अब अपनी बारी है आयी
उनकी वृद्धावस्था आयी
जिन हाथों ने दिया सहारा
उन हाथों को थामें रखना
देते दुआ नहीं ये थकते
सच इनमें हैं ईश्वर बसते
इनको न असहाय बनाये
सेवा सहानुभूति दर्शाये
जीवन के अन्तिम पडाव में
खूब प्यार और ध्यान लुटाये
सभी यही सोच अपनाये
वृद्धाश्रम में ताला लगवायें!!!!
११
प्रजापति शेष
~मेरी चाहत~
जब मैं सोता था,
माँ जगती थी रातों में,
खो जाता हूँ,
अक्सर उन बातों में,
फिर निकल नही पाता,
उलझ जाता हूँ
स्वप्निल रास्तों में,
एक एक परते खुलती है
सुनहरे जंगल की,
मैं खो जाता हूँ
जड़ों में ,फूलों में,
फलों में ,पातों में
इन हाथों की पकड़
तब भी मैं चाहता था
शेष आज भी है
मेरी चाहतों में,
१२.
मीनाक्षी कपूर मीनू
~स्नेहिल रिश्ता ~
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
रिश्ता ,,
मेरे खून का
रिश्ता ,,,
मेरे गरूर का
प्यारा सा ,,
तुतला कर बोला
माँ ,,,
बस शरू हो गया
सफर ,, वात्सल्य का
सहला कर
नन्हे हाथों को
चलना सिखाया
अहसास क्या होता है
अहसास करवाया
संस्कार दिए
रीति रिवाज़
त्योहारों से
आत्मसात करवाया
धीरे धीरे
रिश्तों की छाँव में
पल कर तुम
बढ़ते गए
और हम भी ,,
वक्त ने पलटा खाया
तुम्हारे कोमल हाथ
हमारे बन गए
और ,,,,
हमारे सिकुड़ने लगे
हल्की हल्की
झुर्रियों से
सब बदला
लगा कहीं तुम भी
न बदल जाओ
मगर ओ मेरे खुदा ( प्रभू )
मेरे प्यार की छाँव
में पला बढा रिश्ता
आज रिश्ते निभाना
जान गया ,,
थाम मेरे हाथ
इस कलयुग के
मंजर में
सतयुगी स्नेह
बरसा गया
जीते रहो
मेरे बच्चे ,,,
खुश रहो ,,
बस अब कोई
गम नहीं
मनस्वी ,,
मैं ,,, तुम में
और
तू ,,, मुझ में
समा गया ,,,
समर्पित,,,
स्नेह भाव को ,,
सकार भाव को ,,
१३.
Pushpa Tripathi
~रिवाजों का चलन~
मैंने मुद्दत से अपनी माँ
का हात नहीं छुआ
मगर हात माँ के मेरे
लिए दुआ माँगती है .. !!
फरिश्ता हुआ करती है माँ
दिल को छूआ करती है माँ
मैं कितना ही दूर हो जाऊं
ख्याल मेरा रखती है माँ ...!!
**************************
बच्चे सब बड़े हो गए
परिवार एक साथ
अब , कहीं दूर हो गए
बदलने लगे अब साझा चूल्हे का रिवाज़।
दौलत की हबस ने
माँ बाप को छोड़कर
बच्चों के मन ने कर लिया हिसाब
बुजुर्गों का हाथ पकड़
साथ रखने का रिवाज़
जो चलन था ..... बँट रहा !!
१४.
दीपक अरोड़ा
### थामे रखूंगा तेरा हाथ ###
पहले थामा तूने
अब मैं थामू तुझे
तू है मेरा पालनहार
ये गर्व है मुझे
वक्त बदले पर न बदला
ये रिश्ता हमारा
पहले तू था मेरा
अब मैं तेरा सहारा
तेरी परछाई बनकर
चलूंगा तेरे साथ
न दूर जाउंगा पल भर को
थामे रखूंगा तेरा हाथ
१५.
भगवान सिंह जयाड़ा
----ममता का कर्ज--
----------------------------
नहीं भूला तेरे हाथों का वह स्पर्श,
जिन हाथों ने मेरी उंगली थामी थी,
हाथ नहीं वह ,जन्नत थे मुझ को,
जिस में मेरी हर खुशी समाई थी,
अब सायद थक गए हाथ तेरे माँ,
उस जन्नत का बोझ उठाते उठाते,
बहुत थक गई अब तू सहारा देते देते,
तेरे बुजुर्ग हाथों का सहारा बन जाऊं,
यूँ ममता का कोई मोल तो नहीं होता,
पर हाँ ममता के बदले ममता दे जाऊं,
हाथ तेरा सदा रहे सिर पर मेरे यूँ ही,
चाहे मैं आसमा को भी क्यों न छू लूँ,
तेरे हाथों की दी हुई इस जन्नत में माँ
तेरी ममता की मूरत मैं कभी न भूलूँ,
१६.
प्रभा मित्तल
प्रभा मित्तल
~~~सम्बल~~~
पाकर प्रथम स्पर्श तुम्हारा
भूल गई मैं दुःख सारा,
आँचल में समेटे क्षीर-सिंधु
औ सीने में ममता की धारा।
नयनों में भर नेह प्रबल
बिसराया मैंने जग सारा।
बे-बात बिन आँसू के रोना
और मन्द-मन्द मुस्काना
जाने किन सपनों से डरकर
सिहर - सिहर जग जाना
नन्हीं मुट्ठी में कस आँचल
गोदी में सिमट-सिमट जाना।
तन कर रहने की कोशिश में
ठुमक-ठुमक कर चलना और
मेरी अँगुलि का सम्बल ले
गिर -गिर कर उठ जाना।
तुम्हारी भोली क्रीड़ाओं ने
मन मोह लिया था मेरा।
मेरे आँगन गूँजी किलकारी
डाला था खुशियों ने डेरा।
मखमल से कोमल मन में
मेरा अटल विश्वास समेटे
जाने तुम कब बड़े हो गए
मैंने ये भी न पहचाना।
चाहा मैंने क्षितिज छुओ तुम
उड़ो गगन में पंख लगा कर
ले अपने सपनों की गठरी
उन राहों पर बढ़ते जाओ,
उन्नति को सोपान बनाकर
सुयोग्य बनो और यश पाओ।
सतरंगी रंगों से भर अपने
श्रेयों से जीवन महकाओ।
आज जमाना वहाँ खड़ा है
जहाँ हमने ही पहुँचाया है
यादें रह जाती हैं झोली में
दिन महीने गिनते-गिनते
वक़्त बेरहम निकल जाता है।
नहीं कूकती कोयल यहाँ अब
काक -पिक नहीं शोर मचाते
नहीं गूँजते भ्रमर भी क्योंकि
ध्रुपद-मल्हार तुम नहीं सुनाते।
आकुल मन राह तुम्हारी
ताक रहा है,कब आओगे -----
जीवन-मरु में फिर बहे
वो बासन्ती बयार कब लाओगे ?
ये मन आज अकेला है
अब सन्ध्या की बेला है
चाहत बस कुछ और नहीं ,
जी भर देख सकूँ तुमको
कुछ पल साथ बिता लेना,
शिथिल हो रहे तन-मन पर
नेह का मरहम लगा देना।
और चला-चली में होऊँ जब
अपने हाथों की मजबूत पकड़ से
मेरे बूढ़े हाथों को थाम,
वैतरणी पार करा देना।
१७.
कुसुम शर्मा
~ तु क्यों बदल गया ~
--------------
तेरी नन्हीं-नन्हीं
अंगुलियों को पकड़ कर
चलना सिखाया जिसने
आज क्यों ?
उन्हीं हाथो को ठुकराया तूने
जिसकी पनाह में बचपन बीता
तेरी हर इच्छा पर उनका जीवन बीता
आज क्यों ?
इतना बेबस हुआ
जो उन्हें थाम न सका
जिनकी हर सुबह और रात
तेरे और तेरे सपनों के साथ
आज क्यों ?
उन से तू अंजान हुआ
तेरे सपने पूरे होते ही
तू क्यों बेजान हुआ
जिस ने न्योछावर किया
अपना सारा जीवन
आज उसी को तूने
क्यो बेबस और लाचार किया
तेरे सुख के लिए दुख उठाये जिन्होंने
आज अपने सुख के लिए वृद्धाक्षम बनाये तूने
क्यो तू उनका तिरस्कार करे
जो बोयेगा वो काटेगा
तेरा आने वाला पल
भी ये जाँचेगा
जिसने थामा तुझे निस्वार्थ से
आज तू भी थाम हाथ उसी भाव से !!
१८.
रोहिणी शैलेन्द्र नेगी
"कोमल स्पर्श"
वो पल बार-बार आता है,
आँखों को चैन दिलाता है,
यादों में रम-सा जाता है,
उँगलियों का कोमल स्पर्श,
पुतलियों को छलकाता है ।
थी पहले मैं अपरिचित,
कुछ भी न था निश्चित,
आशाओं का लबादा ओढ़े,
कर लिया था सुनिश्चित ।
आँचल में छुपाए रखा,
सीने से लगाये रखा,
लोगों की नज़रों से सदैव,
तुझको बचाये रखा ।
आज प्रतिफल दिख रहा है,
साथ तू जो अब खड़ा है,
है वही स्पर्श कोमल,
धमनियों के संग जुड़ा है ।
मैं निरीह-जर्जर सही,
फिर भी मुझे सहलाता है,
बस यही अद्भुत स्पर्श,
ममत्व का बोध कराता है ।
१९.
Ajai Agarwal
''अभिलाषा ''
-------------
प्रेम यौवन का नव स्वर्ग
सृजन अहसासों का
मृदुल हथेली की इस छुवन में
मौन मुखरित प्राण पुलकित
नन्ही सी ये हथेली
अहसासों की अनमोल पोटली
माँ-पिता ही सृजनकर्ता ;
अर्थ इसका अब मैं जानी
है यही अभिलाष मेरी -
उम्र की सीढ़ी चढ़ें वो ,
हो हिचकियों से हिलकोर तनमन
हाथ थामें परिवार उनका
पर -पर हम कभी ये ना जताएं -
हाथ उनका हमने है थामा
कि ,अब
तुम हो हमारे आश्रितों में
है यही अभिलाष मेरी
हर शिशु ये धारणा ले
पितु मात को अहसास ये दे -
क्या हुआ जो क्षीण काया
अनुभवों की शक्ति तुम हो
हौसला तुम ही हमारा
विश्वास और संस्कार तुम से
एक ये अभिलाष सबकी ,
पितु मात का संबल बनेगी
आज भी मेरी हथेली
झुर्रियों वाले हाथों में होगी
बुजुर्ग फिर बेघर न होंगे
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