Thursday, October 22, 2020

तकब २ / २०







१. दिए गए चित्र / तस्वीर पर कम से कम १० पंक्तियां व अधिक से अधिक १६ पंक्तियां किसी भी विधा में लिखिये और साथ ही उसका शीर्षक व अंत मे एक टिप्पणी अपने उदृत भावों पर अवश्य लिखिये।
२. चित्र पर रचना नई, मौलिक व अप्रकाशित होनी चाहिए।
३. प्रतियोगिता के वक्त लिखी हुई रचना/पंक्तियों पर पसंद के अलावा कोई टिप्पणी न हो। हां यदि किसी प्रकार का संशय हो तो पूछ सकते है। निवारण होते ही उन टिप्पणियों को हटा दिया जाएगा।
४. आप अपनी रचना किसी अन्य माध्यम में पोस्ट तभी कर सकते हैं जब प्रतियोगिता का परिणाम आ जाये और ब्लॉग में शामिल कर लिया गया हो।
५. प्रतियोगिता हेतु रचना भेजने की अंतिम तिथि २२ अक्तूबर २०२० है।
६. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन हेतु अपनी रचनाएं भेज सकते हैं। आग्रह है कि वे समय से पहले भेजे अन्यथा प्रोत्साहन का कोई औचित्य नहीं रह जाता।
धन्यवाद, शुभम !!!!

इस प्रतियोगिता के विजेता है  "सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी
हार्दिक शुभकामनायें 

प्रजापति शेष
व्यंजन

कहाँ भटकी है
कहाँ अटकी है
कहाँ लटकी है
किस की लटकन।
कुछ उलझा सा
कुछ सुलझा सा
कुछ अलगा सा
उसका चितवन।
कहीं बिखरा है
कहीं सुथरा है
कहीं निखरा है
मन का उपवन।
कोई पढ़ता है
कोई लिखता है
कोई गुणता है
भाषा का व्यंजन ।

टिप्पणी: कितने भी शब्द हों, चित्र को पूर्ण परिभाषित नहीं कर सकते। वैसे ही श्री (स्त्री) को शब्दों में, काव्य में, साहित्य में लिखना असम्भव है। हर शब्द कभी कम या कभी अधिक भारी पड़ता है, बिना तुला के ही स्पष्टतः। व ये आव्हान, ये ललकार ! एक रेगिस्तानी कैसे दृष्टिगौण कर सकता है? निःस्वाद निरर्थक ही सही व्यंजन परोस दिया है शब्दो का।


Pushpa Mishra Tripathi
ख़ामोशी


कई बार चीखती है खामोशी
ह्रदय में चुभ रहे दर्द के कांटे
सहचर बन जाती दोनों आंखें
नीरसता उर की पीड़ा जानती है ....
सब कुछ होते हुए भी कुछ तो कमी
तभी तो मेरी आंखों में नमी सी है
समाज की क्रूरता को लेकर
उस वक़्त मैंने बहुत कुछ खोया था
नहीं मिला जो खो दिया मन का चैन
कहीं छिपे उस मर्मभेद को
या फिर दब जाती मेरी आवाज़
दुनियादारी के शोर में ,
आपाधापी के होड़ में ;
और खामोश हो जाती है
चीखती , बोलती , रोती खामोशी ।

टिप्पणी : चित्र में स्त्री मन को दर्शाते भाव पर केंद्रित कविता लिखी गई है। जब एक स्त्री सामाजिक रूढ़िवादी परंपरा की जंजीरों को तोड़ आगे बढती है तो चरों ओर से कई हाथ उसे रोकने को तत्पर रहते हैं उस समय वह कितनी वेदनाओं से गुजरती है इसी पर आधारित मन के भाव कविता के रूप में प्रेषित है।
 

विश्वेश्वर प्रसाद सिलस्वाल
अबला

भ्रम था वो,
पूजी जाती नारी जहाँ
देव करते वास वहाँ ।।
भ्रम था वो
उठे हाथ मुझे पूजने को
थे उठे मुझे नोचने को ।।
भ्रम था वो
लक्ष्मी रुपेण मुझे सींचने को
भिंचे हाथ गर्भ निचोड़ने को । ।
भ्रम था वो,
नारी,बाला,भार्या, माला हूँ,
निर्बल, खिलौना अबला हूँ,
हाँ बस अबला हूँ मैं । ।

टिप्पणी: चित्र नारी का अबला रुप प्रदर्शित करता है।जहाँ नारी को पूजा जाता था आज हिंसक अनैतिक प्रवृत्ति ने खिलोना मान नारी के शरीर को गर्भ रुप से ही निचोड़ना प्रारंभ कर दिया है। बस अबला रुप ही चित्र की कहानी दर्शाती है।


Meena
ये हाथ

पुरुषों की रगों में दौड़ती
मर्दानगी की रवानगी
और तेज हो रही है
हिंसात्मक होते हाथों
की लंबाई बढ़-सी रही है
ये हाथ कभी बालों से
चेहरे को नोंचने तक
के लिए तैयार हैं
बच्चे से पिता, पिता से दादा तक
ये हाथ केवल एक मर्द रहा
जिस औरत पर उठा
वह शांत चित्त रही
शांति की तैयारी
स्त्रीत्व में ऐसी भड़की
कि अब अपनी रक्षा की
बारी में है
इसलिए ऊपर से मौन
और भीतर से खुलती जा रही नारी है

टिप्पणी : तस्वीर में जितने हाथ दिखाए गए हैं वे पितृसत्ता का प्रतीक हैं और औरत उस मर्दानगी को झेल रही है। लेकिन अब वो इस पितृसत्ता से लड़ने को भी धीरे धीरे तैयार हो रही है।



सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी
लड़की का होना

यही होना था शायद
एक तस्वीर ही बन जाना था तुम्हें,
गुनाह है एक लड़की का होना,
इस अभिशिप्त समाज में,
छोटे से माँस का टुकड़ा हो या लोथड़ा,
गिद्दोँ की नज़र से बच नहीं पाती है,
कभी घूरती नज़रों से तो कभी,
क्रूर पंजों से नोची जाती है,
सिसकती रहती है, किसी अधूरी स्वास की तरह,
भटकती रहती है, किसी अधूरी लाश की तरह,
मर जाये तो, अधूरी रात में,
चुपचाप जला दी जाती है,,
कुछ मोमबत्तियाँ उस तस्वीर के इर्द-गिर्द जलाई जाती हैं,
कुछ चेहरों पर लगी कालिख,मखमली कपड़ों से पोछी जाती है,
खबरों मेरे ये खबर जोरों से, कुछ दिनों तक चलाई जाती है,
फिर वो लड़की किसी ख्वाब की तरह भुला दी जाती है।।

टिप्पणी: स्त्री शब्द मात्र डेढ़ शब्दों से मिलकर बना है, पर इस शब्द की गरिमा अनंत है, और स्त्री स्वयं एक पूर्ण वेद है। जो स्थान उसका होना चाहिए, उसे मिल नहीं पा रहा,आज की सामाजिक स्थिति स्त्री के लिए बहुत ही निराशाजनक हो गई है, वह सुरक्षित है जब तक वो चुप है, चाहे उसे उस चुप्पी के लिए कितनी ही बड़ी कीमत क्यों न हो चुकानी पड़ रही हो। शोषण है, अनाचार है, अत्याचार है, व्याभिचार है, और वो लाचार है। अगर वो हिम्मत करके आवाज़ देना भी चाहे तो रसूखदार क्रुर पंजे उसका मुँह दबोच देते हैं उसकी आँखरी साँस निकलने तक।


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
मर्द नहीं नामर्द हो ......
(प्रोत्साहन हेतु )

नारी के अस्तित्व पर
तुम्हारी आपराधिक मानसिकता
नपुसंकता का द्दोतक है
हाड़ मांस पर तुम्हारी
वासना से भरपूर नज़र
नीचता का परिचायक है
संस्कारहीन पालन पोषण
दुष्कर्म कुकृत्य की बन पहचान
पुरुष शब्द पर धब्बा हो
उम्र तुम्हारी सीमा नहीं
हर उम्र के लिए नरभक्षी हो
तुम पुरुष नहीं दानव हो
पाप का घड़ा भर गया
तुम्हें जलना मरना होगा क्योंकि
तुम मर्द नहीं नामर्द हो

टिप्पणी: इन भीभत्स घटनाओं से मन खिन्न है। बहुत बार लिखा भी। अंगुली उठा उठा, मोमबत्ती जला कर थक गए। अब इन राक्षसों को जलना /मरना होगा – अंत करना होगा।




डॉली अग्रवाल
फितरत

कल कुछ ख्वाहिशों की मौत हुई थी
देर तलक दिल मातम बनाता रहा
ऐतबार मुँह ढांप कर कांधा देने पहुँचा ही था
कि --
फितरत ने ऐतबार को पहचान लिया
इससे पहले हसरतें उठती ओर कुछ कहती
फितरत ने ऐतबार को अलग कर दिया
ये देख
एहसासों ने सब्र को साथ ले खुद को कमरे में बन्द कर लिया ...
उफ़्फ़फ़फ़ क्या गजब हुआ
ख्वाहिशों की मैय्यत पर ऐतबार जार जार हुआ

टिप्पणी: हद से ज्यादा ख्वाहिश और किसी पर ऐतबार हमेशा तकलीफ देता है !



यशोदा दिग्विजय अग्रवाल
नारी की आकांक्षा
........
एक स्त्री के लिए
प्रेम से बढ़कर भी
कुछ हो सकता है,
तो वो है सम्मान
या रिस्पेक्ट..।
क्षणिक हो सकता है
प्रेम ..पर
सम्मान नहीं होता
क्षणिक..वो क्यों
दिखावटी हो सकता है
प्रेम....पर
सम्मान नहीं
एक दिलचस्प बात
कि ईश्वर ने स्त्री को
ऐसी शक्ति दी है
जिससे वह
पढ़ सकती है
किसी भी पुरुष के भावों को
और पुरुष द्वारा
दिया गया
सम्मान भाव को
स्थापित कर लेती है
अपने मन में वह स्त्री
शायद इसी लिए
स्त्री से दिखावा करना
संभव नहीं..।

टिप्पणी..नारी की अभिलाषा और कार्य क्षमता का विश्लेषण..रचना मन में स्वतः विस्फोटित हुई




ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
नारी-अस्मिता पर प्रहार 
दोहा छंद में चित्र अभिव्यक्ति ,,,,
*******************************


पुरुष नहीं,कापुरुष हैं,,जो करते व्यभिचार!
कामुकता की हबस में,करते बलात्कार!!
*
माता- देंह को ध्वस्त कर,कहाँ रहे तुम मर्द ?
जन्मे जिनके गर्भ से,,,,,,,,,उसको देते दर्द!
*
नारी ,जननी बेटियां,,,,,,दुर्गा का अवतार!
दानवता के वेश में,,,,,,करते नर व्यभिचार!
*
कहीं बेटियाँ लुट रहीं,गली- गली मे आज!
द्रुपद-सुता की लाज पर,है घृतराष्ट-समाज!!
*
धर्म,संस्कृति हिंद की,धुमिल हो रही नाथ !
कब आवोगे कृष्ण हरि,नारी बनी अनाथ !!
*
नर की जननी है सदा,शक्ति रूप साकार !
कब समझोगे कापुरुष,,,,,पुत्री बनती नार!
*
नर से उत्तम नारि है,,,,,करे सृष्टि विस्तार!
ईश की भी पूज्यनीय,,,,,प्रभुता अपरंपार!!

टिप्पणी: आजकल नारी-अस्मिता से खेल रहे बलात्कारी पर मेरी कविता है ,,साथ नारी -महिमा का वर्णन भी ,,नारी को भोग्या न समझकर शक्ति का स्वरूप समझना चाहिए,,,क्योकि कापुरुषों के भी पुत्री व बहन के साथ भी ऐसा हो सकता है,,



किरण श्रीवास्तव
नारी

यूं तो
सब ये कहते हैं -
नर से नारी भारी है,
पर हर युग में यह अबला
रही सदा बेचारी है....!
चहुओर बैठे दु:शासन-
ताक लगाए मौके की,
चीर हरण होने से रोके
अब ना कोई गिरधारी है...!!
ईश्वर से होती है तुलना -
ममता इसकी अपरंपार,
पर कोख में नहीं सुरक्षित
ऐसी ये अवतारी है...!!!
पुरुषों सेअब नहीं ये पीछे-
हर क्षेत्र में परचम लहराए ,
पर कोमल फूलों सी काया
टूटे तो मुरझाती है....!!!!
हे! अधम पुरुष यह सोच जरा -
मानवता को क्यों रखें ताक,
मां बेटी और बहन तुम्हारी
वह भी तो एक नारी है ....!!!!!

टिप्पणी: आए दिन दिल दहलाने वाली घटनाओं से महिलाओं में असुरक्षा की भावना बलवती हो रही है!कुपुरुषों की मानसिक विकारता सोचनीय है!





नैनी ग्रोवर
रस्ता बना ही लूँगी

जिस और चल पड़ूँगी, रस्ता बना ही लूँगी,
तिनकों से ही सही पर, घरोंदा सजा ही लूँगी...
तन से कमज़ोर सही मैं, मन से कभी ना हारी,
हौंसलों से अपने, अपनी किस्मत बना ही लूँगी...
छाँव हूँ मैं ममता की, ओढ़नी हूँ लाज की,
रह कर मर्यादा में भी मैं, तूफ़ानों को हरा ही लूँगी...
ना चाँद की चाहत है, ना सितारों को छूना है,
धरती की पुरवाई को मगर, साँसों में समा ही लूँगी...!

टिप्पणी: एक औरत के दिल में बसने वाले भाव, जिन्हें वो पूर्ण करना चाहती है..!


Ajai Agarwal
षड्यंत्र -
(प्रोत्साहन के लिए )
...........
स्त्री को वस्तु ,
बनाता बाजार ;
दीखता है तुम्हें !
ये षड्यंत्र ?
शरीर से परे -
स्त्री मन का भूगोल
पढ़ने की सामर्थ्य हो
तो भी -
चाहत नहीं ;
स्त्री को उठना होगा
स्त्री के लिए
पर नहीं
वो स्त्री विमर्श के
लोभ में फंस गयी ;
स्त्री वहीं की वहीं
रह गयी ;
अपने उबलते इतिहास को
भाप बना देखती !

टिप्पणी: कलम उठती नहीं अब स्त्री विमर्श पे ,अब घर-घर संघर्ष करना होगा ,नारी के पुरुषत्व को बचपन से ही जगाना होगा और करना पड़ेगा लड़कों के भीतर की स्त्री को जागृत --हर बच्चा अर्धनारीश्वर का स्वरूप हो --माँ तुझपे आ पड़ा है सारा बोझ समाज को दिशा देने का।



Mita Chakraborty
दामिनी


पापा की परी तो , हो ही लड़कियों
अब तुम्हे झांसी की रानी भी है बनना
नापाक इरादों से बढ़ते हाथों को
मिला दे खाक मे वो दामिनी भी है बनना ।
फूलों सा सुकोमल हो दिल भले ही
चट्टान सा बुलंद , पर हौसला रखना
छू न पाए आंखों से भी कोई जिस्म को तुम्हारे
अपनी आँखों मे वो अंगार ,वो शोला रखना ।
मलाल न करना कभी, खुद पर अभीमान करना
अपने हाथों मे ही अपनी इज्ज़त अपना स्वाभिमान रखना
मासुमियत का तुम्हारे कर न सके कोई सौदा यहां
इन्सान की शक्ल मे उन गीद्धों की भी पहचान रखना ।

टिप्पणी: समाज मे आजकल बहु बेटियों के साथ जो दुरव्यवहार हो रहा है, उससे उन्हें कोई और नही लड़कियां खुद ही खुद को बचा सकती हैं ।बस अंदर से कोमल होने के बावजूद उन्हें खुद को सशक्त करना है । सिर्फ आर्थिक ही नही शारीरीक और मानसिक तौर पर भी उन्हें स्वालंबी बनना है।


Snehprabha Khare
*नारी-मंथन*
**********
सूख गये भाव सब,मथता रहा भाल है।
चहूँ ओर घूम रहे, भेड़ियों की चाल है।
सपने बिखर गये ,दुनिया उजड़ गयी,
तार तार जिंदगी का, बड़ा बुरा हाल है।।
कहतें है लोग मुझे, पूजिता सुपावन है।
ऋषियों के तप की ये, नारी लुभावन है।
घर को बनाती है तू , देती संस्कार सभी,
दुनिया की प्यारी सी, अनोखी मुस्कान है।।
हँसती हूँ खेलती हूँ , प्यार में ही पलती हूँ।
दिन रात डर डर , सपने सजाती हूँ।
गली गली घूमते हैं, मानसिक ये रोगी से,
स्वपन को मिटाते हैं , रो कर बनाती हूँ।।
शरणागत हूँ सांवरे , करदो नैय्या पार।
नही सुरक्षित बालिका, विवश हुई सरकार।
कहीं सियासत में फसी नारी की ये जात ,
कहीं जला कर मारते , दुखिया अबला नार।।

टिप्पणी: आजकल नारी पर आए दिन होने वाले बलात्कार पर मेरी कविता है सबला,दुर्गा,जगतजननी,नाम जैसे दिखावा है गली गली लड़की होने का दुःख झेल रही है यही नारी विमर्श का मंथन है
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मीनाक्षी कपूर मीनू
पाक चेहरा
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बिखरी हुई लटों में
सिमटा हुआ सा चेहरा
उलझी हुई जिंदगी को
सुलझाता हुआ ये चेहरा
प्रत्याशा में रहता खुशी की..
एक मासूम चेहरा
अनगिनत गलतियों को
भुलाता हुआ ये चेहरा
सबको खुशियाँ दे कर
दर्द छुपाता हुआ ये चेहरा
चारों तरफ से उठते हुए
हाथों को ......
नकारता हुआ चेहरा
रीति रिवाजों की आड़ में
घूंघट में ढका ये चेहरा
आह .. फिर अपनो/बेगानो
के हाथ ही घूंघट में ही
तार-तार हुआ चेहरा
पलटवार आवश्यक है
अब समझता हुआ चेहरा
धीरे धीरे खुद को
समझाता हुआ ये चेहरा
अभी हिम्मत कम सही
मनस्वी .....
एक दिन ऐसा भी आएगा
जब पलट हाथ घुमा
खुद को भी बचाएगा
ये चेहरा....
सबके साथ ही
अपनी उलझन को भी
सुलझाएगा ये चेहरा
देखना एक दिन
ऐसा भी आएगा मनस्वी
जब सच मे दिल से
मुस्कुराएगा ये चेहरा
मनस्वी ....बहुत ही प्यारा है
मासूम पावन ये चेहरा......

टिप्पणी:  मासूम नारी मन सबकी उलझन सुलझाता है , खुद उदास रह कर सबको हंसाता है मगर खुद प्रतिदिन अनगिनत हाथों के अदृश्य प्रहार अपने तनमन पर सहन करता है मगर वह दिन दूर नहीं, जब नारी मन कठोरता का आवरण ले सबको पलट कर जबाब देगा , और मन से मुस्कुराएगा उसका पाक दामन लहलहायेगा ।



प्रभा मित्तल
नारी की व्यथा-कथा

घर बाहर के अंकुश लगते,
भोला बचपन बीत रहा था।
स्त्री होकर जन्म लिया है,
इसका बिल्कुल भान न था।
आस-विश्वास के रंगों से
जीवन का कैनवस भरती थी।
दहलीज लाँघते सपने थे,
पर बाहर की आँखें चुभती थीं।
देवी की मूरत कहकर श्रद्धा से,
जो पूजा घर में बैठाते हैं।
गर कन्या जन्मे घर में तो
वही जन मातम पसराते हैं।
'बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ'
ये तो केवल कोरे नारे हैं।
वंश-वाहक बेटे की चाहत ने
कितने ही कन्या-भ्रूण मारे हैं।
शिक्षा-सम्मान की खोखल में
अपराध दिनों-दिन बढ़ रहे।
दहेज़ की आग कम न हुई,
स्त्री पर सब ताने कस रहे।
भरी सभा में अपमानित कर
द्रौपदी के वस्त्र खींचे गए।
सीता सी पावन सन्नारी पर
धोबी से आरोप मढ़े गए ।
इस पुरुष प्रधान समाज में
नारी पर सदैव हुआ अनाचार।
वही कापुरुष आज भी उसकी
अस्मिता पर कर रहा है प्रहार।
अश्लीलता,छेड़-छाड़ ,उत्पीड़न
नारी केवल बनी भोग-व्यापार।
फाँसी भी रोक न पाई इसे,हो रहा
ज़ुल्म,गैंग-रेप और बलात्कार।
इन वहशी दरिंदों की नज़र में--
नारी केवल देह है, प्राण नहीं।
जबरन पकड़कर भोग लिया,
क्षत-विक्षत किया,फेंक दिया।
मर्मान्तक पीड़ा झेली औरत ने
सबकी कड़वाहट का वार सहा।
बदनामी के दाग लगे माथे पर,
मर्द फिर भी बेख़ौफ़ बेदाग रहा।
सुनते आए हैं--
"नारी को पूजा जाता है जहाँ
देवता बसते हैं वहाँ",पर जब
स्त्री का आँचल होता तार-तार
वही देव तब चले जाते हैं कहाँ ?
शक्ति की पूजा वाले इस देश में
बच्चियों पर हो रहे अत्याचार।
समाज के इस घिनौने कुकृत्य ने
कर दिया पूरी मानवता को शर्मसार।
अरे अभागे,
देह की ताकत से जिसको
तुमने बार-बार कुचला है,
वो नारी भी कमज़ोर नहीं
अबला नहीं वो सबला है।
ममता का मंदिर है नारी।
भोग्या नहीं,वो भक्ति है।
परिवार की धुरी वही है
बोझ नहीं वह शक्ति है।
टिप्पणी: आज हमारे समाज में जब स्त्री पढ़-लिखकर,ऊँचे से ऊँचे पदों पर कार्यरत है..तो भी अपने को सुरक्षित नहीं पाती है।इ स तथाकथित पुरुष की दरिंदगी ने नन्हीं-नन्हीं बच्चियों को भी नहीं बख़्शा है।फाँसी का डर भी नहीं है इसे।समाज में गंदगी बढ़ती जा रही है। पुरुष की ऐसी कुत्सित मानसिकता कहाँ जाकर थमेगी....कुछ समझ में नहीं आता।
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