Tuesday, May 26, 2020

तकब ०१/२०




१. दिए गए चित्र / तस्वीर पर कम से कम १० पंक्तियां व अधिक से अधिक १६ पंक्तियां किसी भी विधा में लिखिये और साथ ही उसका शीर्षक व अंत मे एक टिप्पणी अपने उदृत भावों पर अवश्य लिखिये।
२. रचना मौलिक व अप्रकाशित होनी चाहिए।
३. प्रतियोगिता के वक्त लिखी हुई रचना/पंक्तियों पर कोई टिप्पणी न हो। हां यदि किसी प्रकार का संशय हो तो पूछ सकते है। निवारण होते ही उन टिप्पणियों को हटा दिया जाएगा।
४. आप अपनी रचना किसी अन्य माध्यम में पोस्ट तभी कर सकते हैं जब प्रतियोगिता का परिणाम आ जाये और ब्लॉग में शामिल कर लिया गया हो।
५. प्रतियोगिता हेतु रचना भेजने की अंतिम तिथि ९ मई २०२० है।
६. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन हेतु अपनी रचनाएं भेज सकते है। परन्तु आग्रह है कि वे समय से पहले भेजे अन्यथा प्रोत्साहन का कोई औचित्य नहीं रह जाता।
धन्यवाद, शुभम !!!!

.
इस प्रतियोगिता के विजेता हैं  श्री गोपेश दशोरा 

संजीव वर्मा 'सलिल'
(कोई शीर्षक नहीं) 
जिंदगी को जिंदगी के नामकर
श्वास को मधु आस का पैगाम कर
भाग्य देवी अब नहीं दक्षिण रहे
द्वैत तजने मिल उसे अब वाम कर
भाग्य को मत वाम रख, हो दक्ष वह
मिला पग से पग चलें कर थामकर
नाम उसका जोड़ अपने साथ तू
नाम अपना विहँस उसका नाम कर
सुबह सूरज की तरह जो साथ हो
साथ उसके खुशनुमा हर शाम कर
संग उसके हार में भी जीत है
पहन ले भुजहार गाल ललाम कर
अन्य कोई दे नहीं पाए कभी
प्रीत अपनी सलिल तू बेदाम कर
(कोई टिप्पणी नहीं)


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
प्रोत्साहन हेतु
~ साथ तेरा ~
क्षितिज पर
हस्ताक्षर करती
सुबह की किरणे
गवाही दे रही है
तेरे मेरे साथ होने का
खामोश सागर में
लहरे कैद हुई है
देख समर्पण
आगोश में डूबकर
है भाव शून्यता का
रोमांच स्फ्रुटित
लेकिन तटस्थ ख्याल
कामनाओं का
हो रहा शृंगार
हो रहा भान आतिथ्य का
निहारते हुए
एक दूजे का बन संबल
मन के प्रांगण का
फिर समन्दर हो जाना
है ये पल विलय होने का

टिप्पणी : कभी यूं बैठकर साथी के साथ ख़ामोशी से सब कुछ कह जाने का उदृत भाव तस्वीर को देखते ही उभर आया ....
 
प्रजापति शेष
संग संग

देखा जो अकस्मात,
विस्मृत संध्या प्रातः।
यह पकृति अनवरत,
भ्रमित विगत आगत।
अनंत वीथियाँ,एक वातायन
एक भटकन, उभरा द्वेपायन।
हे! कृष्ण नीलाभ, पीताम्बर
कुसुमित,सुरभित, दिगम्बर।
नर, पशु, पतंग,खग, विहग,
कौन शेष ? बिम्ब से विलग।

टिप्पणी: निशब्द संक्रमण काल मे, एक प्रयास किया है बिना क्रियाओं के शब्द विन्यास का। एक मात्र सम्बोधन उस कृष्ण वर्ण के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसमे समस्त वर्ण,रंग,शब्द, क्रिया, काल को समाहित हो जाना है। )


ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
एक गीत से चित्राभिव्यक्ति (14 मात्रा हर पँक्ति में)
"साँची प्रीत"

तुम हमारे मीत,,, साथी
जिंदगी इक गीत साथी!
सूर्य सा जीवन उगालें
जिंदगी स्वर्णिम बनालें
स्वप्न-किरनें कामना सी,
प्रेम से जीवन सजालें!
हर कदम पे जीत जाती !
तुम हमारे मीत,,,, साथी!
कुछ पलों में भूल जाएँ !
हर दुखद सी विषमताएँ
सुखद पल को हम चुरालें
मन-कमल को यूँ खिलाएं!
गर मिलेगी प्रीत साँची
तुम हमारे मीत ,,साथी !
********************

टिप्पणी: मेरा भाव दो प्रेमी युगल की स्वप्निल भावनाओं को लेकर है,,,कुछ सुखद पल चिंता मुक्त सिर्फ दोनों के बीच सूर्य की आभा के समान हृदय मे प्रेम उदीप्त हैं,,,,उसी मनोभावों को गीत मे ढालने का प्रयास किया है धन्यवाद



नैनी ग्रोवर
तुम जो साथ हो

ढलती शाम रात में बदल जाएगी,
फिर इक नई नवेली सुबह आएगी...
छंट जाएंगे ये अंधियारे मेरे साथी,
फिर से हर साँस गुनगुनायेगी...
उदास हो गई है मेरे दिल की धड़कन,
तुम जो साथ हो तो,
ये फिर मुस्कुराएगी..
आओ बदलें हम, जीवन जीने का ढंग,
खुश होकर सृष्टि फिर से, प्रेम लुटायेगी..!

टिप्पणी: मेरा मानना है के अगर मानव जाति ने अपने जीने का ढंग अब भी ठीक नहीं किया तो ये नज़ारे भी हमसे सृष्टि छीन लेगी, हमें अब सम्भल जाना चाहिए और सृष्टि से खिलवाड़ बन्द कर देना चाहिए ।


Ajai Agarwal
तू मुझ में प्रिय फिर अंतर् क्या "
प्रोत्साहन के लिए ---
======================
साथ नहीं वो दे पाए ,कब सूना पन्थ हुआ उनसे ,
अनुगूँज मधुर वाणी की प्रति - पल रहती है उनकी, संग मेरे।
साँसों पे अवलम्बित काया थी, जो ,थक कर चूर हुई तो क्या ?
ये पन्थ अनोखा जीवन का ,मंजिल कहीं नहीं इसकी।
मैं भी न चलूं ,तू भी न चले ,राही मर्त्य पर राह अमर ,
इस पर वो ही चल सकता है ,जो चलने में स्वाद ढूंढता है।
रवि अपनी सिंदूरी आभा संग ,क्षितिज में लोप हुआ तो क्या ?
मुझ को दे चंदा का लिबास ,आँचल में तारे टांक गया।
तुझसे मिलने की चाहत में खाली होना साँसों के घट का ,
रंग -रूप का गर्व मिटा, क्षर काया संग -बेसुध होना पड़ता है।
जात पंथ के निर्मम बंधन ,सुंदर काया संग आड़ोलन ,
सब बिसरा जो चला गया ,वो अब मेरे मन में रहता है।
रवि की प्रखर किरणों में तू ,चंदा की शीतलता तुझसे
मलयसमीर सुगंधित है और सुमनों ने रंग लिया तुझसे।
बादल का सब आवारापन तूने मुझको ही सौंप दिया ,
बिजुरी सी साध मिलन की वो झुलसा कर उज्ज्वल कर देगी।
तू मुझ में प्रिय मैं तुझ में फिर ,काया साँसों का बंधन क्या ?
प्राची की नारंगी आभा या क्षितिजों का नीलम क्या ?

टिप्पणी: मैंने इस चित्र को देख यादों में कविता लिखी --जब हम साथ थे /



Madan Mohan Thapliyal
( प्रोत्साहन हेतु )
दु:सुप्त ( बुरा सपना )
********
हे दिवस्पति , ए, दिवास्वप्न है,
है दिवालोक या दस्यु लोक कोई ।
सोते हुए भी जागता मनुज आज,
है त्रस्त ,न उदय का, न अस्त का भान कोई ।
दु:सुप्त सम, दिष्टांत का तांडव चहुं ओर,
अहम् है निरर्थक , द्यूतक्रिड़ा में दीर्ण हर कोई ।
याचक हैं सब , मिट गया दंभ सारा,
किंकर्तव्यविमूढ़ मानव, न राजा रहा , न रंक कोई।
है विह्वल दृढ़प्रतिज्ञ भी, क्षीण सारा आमोद- प्रमोद,
पृष्ठ भाग में घना अंधेरा, नहीं दीखता आलोक कोई ।
दरपन में भी धूमिल छवि, दग्धा पर टिकी दृष्टि,
मृत्युंजय मंत्र का जाप करता आज हर कोई ।
दीर्घारण्य सा भविष्य आज, दत्तवर की है चाह,
न धर्म, न आस्था , जीवन -मरण का ज्ञान देता हर कोई ।

टिप्पणी: आज सारा विश्व जिस दौर से गुजर रहा है , वहां सब ठहर सा गया है। हर कोई चिंतित है, व्यथित है , समाधान दूर तक दिखाई नहीं देता।
 


जशोदा कोटनाला बुड़ाकोटी
परिवर्तन सुनियोजित है

जब रचा जा रहा था संसार तो
परिवर्तन के नियमों को
निरन्तर रच रहा था विधाता.....
जो परिवर्तित न हो सका
वो 'इतिहास' है.....
हाँ इतिहास .....
जो घट गया वो इतिहास बना
जो रच गया वो इतिहास है.....
न कोई इसे पहले बदल सका
न कोई आज बदल पायेगा.....
वैसे ही जैसे 'प्रेम'
जो पहले भी था
जो आज भी है.....
न प्रेम की प्रकृति बदली है
और न ही प्रवृत्ति.....
क्योंकि इस नश्वर संसार में
प्रेम ही शाश्वत है.....
ये वो इतिहास है
जो बार-बार रचकर इतिहास बनेगा
जो बार-बार होकर इतिहास रचेगा...।

टिप्पणी: प्रेम जीवन में उतना ही जरूरी है जितना साँस लेना मगर दुर्भाग्य से ये विकृत रूप में चाहा गया ! आज प्रकृति भी तो सिर्फ प्रेम ही चाहती है !


माधुरी रावत
तेरे संग


ये समंदर का किनारा
ये जादू भरी शाम
हाथों में तेरा हाथ है
होठों पे तेरा नाम
ये बोलती सी ख़ामोशी
जैसे छा रही मदहोशी
ऐसे में तेरी सरगोशी
आँखों से छलकते जाम
ये प्रकृति का मधुर संगीत
आ मिलकर सुनें मनमीत
हृदय से हृदय तक का गीत
गाएं मिल जीवन तमाम
तेरा साथ जो मिला है
दिल फूल सा खिला है
यही प्यार का सिला है
चाहे जो भी हो अंजाम

टिपण्णी: प्यार जीवन का सबसे उद्दात भाव है। जीवन में प्यार हो और उसका साथ हो तो उससे बेहतर कुछ नहीं।
 

उषा रतूड़ी शर्मा
गुफ्तगूं

स्याह रात की रोशनी में इक सपना पाला,
दूर छितिज में एक तारा तिमतिमाया
छुपकर बादलों में कोई मुस्कुराया
हाथ मे जब हाथ तेरा आया
सजन तन मन मे हर्ष का समंदर लहराया।
लब खनोश रहे, अहसासों ने दिल का राग गया
तुम मिले, हम मिले, कुछ यूँ दिल मिले
जब शाम का धुदलका गहराया
गुफ्तगूं होने लगी दिल ही दिल मे
जब प्रेम का ऐसा मौसम आया।
टिप्पणी ; हर वो पल जिसमे प्रेम हो उन्हें अपने दामन में समेत लेना चाहिए। उषा



गोपेश दशोरा
अस्तोदय

दूर क्षितिज पर सूरज ने,
एक बात हमें है समझाई,
विपदाओं से लड़कर ही तो,
एक नई सुबह फिर है आई।
ये अस्त हो रहा यहां अभी,
पर कहीं सुबह की लाली है,
उम्मीद का दामन ना छोडो,
बस रात ही है, ढल जानी है।
बरसों पहले भी इसी जगह,
कुछ प्रेम के धागे बांधे थे।
साथ तेरा पाकर ही तो,
सुख दूने, गम आधे थे।
आज फिर एक वादा है तुमसे
ये साथ रहे यूं ही कायम,
सुख हो दुःख हम डिगे नहीं
यह प्रेम रहे यूं ही कायम।

टिप्पणीः हमारे लिये जो सूर्य अस्त हो रहा है, दूनिया के किसी कौने वहीं उदय भी हो रहा है। मैने इसी बात को रिश्तो से जोड़ा है। थोड़ी की परेशानी आने पर आजकल लौग एक दूसरे का साथ छोड़ देते है वो ये भूल जाते है कि समस्या एक रात की तरह होती है, कितनी ही बड़ी क्यूं ना हो उसका अन्त निश्चित होता है, और किसी का साथ अगर हो तो वो समस्या से भरा समय भी आनन्द के साथ गुजर जाता है।


कुसुम शर्मा
कुछ अनकही बातें कह दूँ 

दो घड़ी साथ बैठो तो कुछ बातें कर लूँ!
कुछ तुम्हारी सुनूँ कुछ अपनी कह दूँ !
बहुत सी बातें जो अनकही रही
चलो मिल कर आज तुम से कह दूँ !
जो बिताये थे लम्हे एक दूसरे के साथ
चलो मिल कर उन्हीं लम्हों को ताज़ा कर दूँ !
माना तेरे मेरे बीच आने लगी हैं दूरियाँ
क्यों न उन्हीं दूरियों को नज़दीकियाँ कर लूँ !
चलो दो घड़ी साथ बैठो तो कुछ बातें कर लूँ!
बहुत हो गई अब शिकायतें
चलो बैठ कर कुछ
प्यार भरी बातें कर ले !
कुछ हुई भूल तुमसे कुछ हुई हमसे
चलो उन्हें भुलाकर
अपना ये रिश्ता ओर पक्का कर ले !
दो घड़ी साथ बैठो तो कुछ बातें कर लूँ!
कुछ तुम्हारी सुनूँ कुछ अपनी कह दूँ !
बहुत सी बातें जो अनकही रही
चलो मिल कर आज तुम से कह दूँ !

टिप्पणी: जब दो लोगों के बीच में दूरियाँ बढ़ने लगे तो उन्हें आपस में बैठ कर सुलझानी चाहिए मन से रखी बातें से उलझने बढ़ती रही है एक दूसरे को कह कर ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है !


डॉली अग्रवाल
मैं

हा मैं ही तो थी
जो छू कर देखना चाहती थी
बहुत करीब से
इश्क को ....
उन निगोड़े से एहसासों को
जो काला जादू करती थी
उतर जाना चाहती थी उस
अंधे कुँए में --
जिसका कोई ओर ना कोई छोर
चंद डुबकी
ओर बस वजूद खत्म
बस फिर एक अंतहीन यात्रा
इस जहाँ से उस जहाँ तक
ना कोई पड़ाव
ना कोई रास्ता
बस
अंतहीन यात्रा !! 

टिप्पणी -- प्रेम , ही तो है वो प्रथम स्पर्श जिसका एहसास मात्र अंतर्मन को झकझोर देता है ओर डूब जाता है हमेशा के लिए किसी में विलीन होने के लिए !

किरण श्रीवास्तव
"सूरज"

सूरज सा हो चमक तुम्हारा,
सागर सी गहराई हो,
आसमां सा हो विस्तार,
वेग पवन पुरवाई हो!
पुनः पुनः मै आता हूँ,
संदेश यही दे जाता हूँ,
नहीं कुछ भी स्थायी है,
कड़वा यही सच्चाई है!!
फिर दुख से क्या घबराना है,
जीवन क्यों व्यर्थ गंवाना है,
सत्कर्म करता ही जा,
डग आगे भरता ही जा!!!
करलो आज प्रतिज्ञा तुम,
कर्म तुम्हारा हो बेमिसाल,
प्रकृति का रखो अब ख्याल ,
धरती होगी तभी निहाल!!!!

टिप्पणी: रात्रि के घोर अंधियारे के बाद सूर्य उदित होता है और अपनें रोशनी से जग को रौशन करता है हमें भी इसी सकारात्मकता को अपनाना चाहिए!
 
प्रभा मित्तल
हम भी सुबह का सूर्य उगा लें !

दूर क्षितिज के पार
रोशनी को साथ ले
बादलों की ओट से
सूरज चमक रहा है।
नीड़ से अपने निकलकर
उग रही है भोर उजली
शांत निश्चल जलधि तीरे
कोहरा घना अब छँट रहा है।
किरणों ने दस्तक दी भली सी
बीत गई है शाम, बावरे !
रात भी अब ढल चुकी है
हम यहाँ सागर किनारे
बैठे विगत को क्यों पुकारें !
चलो ! सुबह का सूर्य उगा लें!
गुज़र गए जो पल अकेले
सो गए थे स्वप्न सजीले
बुझ न जाए दीप मन का,
साथ मिल उनको जगा लें।
चलो! हम सुबह का सूर्य उगा लें!
टूट रही वीणा के तारों को
नेह सधे सुर से सँभालें
साज को नई आवाज़ देकर
प्रीत का एक राग गा लें।
चलो! हम भी सुबह का सूर्य उगा लें!
समय चक्र है घूम रहा है
ये मौसम भी लेगा करवट
मन में आशाओं के दीप जलाकर
भावों में भर धीरज का मकरंद
जीवन को मीठा छंद बना लें।
चलो! हम भी सुबह का सूर्य उगा लें !

टिप्पणी: कुछ मन की कुछ जग की....समय कभी एक सा नहीं रहता है...धीरज और उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ना चाहिए।


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