Thursday, January 20, 2022

तकब ०१ / २२ - रचनाएँ व परिणाम

तकब ०१ / २२
आप सभी से आग्रह है कि नियमों का पालन अवश्य करें, जिसके लिए उन्हें पढ़ना भी जरूरी है।
१. प्रस्तुत चित्र पर आप अपनी रचना कम से कम १० पंक्तियां ( अधिकतम २० पंक्तियाँ) किसी भी विधा में लिखिये और साथ ही उसका शीर्षक व अंत मे एक टिप्पणी अपने उदृत भावों पर अवश्य लिखिये।
२. चित्र पर आपकी रचना नई, मौलिक व अप्रकाशित होनी चाहिए।
३. प्रतियोगिता के वक्त लिखी हुई रचना/पंक्तियों पर पसंद के अलावा कोई टिप्पणी न हो। हां यदि किसी प्रकार का संशय हो तो पूछ सकते है। निवारण होते ही उन टिप्पणियों को हटा दिया जाएगा।
४. आप अपनी रचना किसी अन्य माध्यम में पोस्ट तभी कर सकते हैं जब प्रतियोगिता का परिणाम आ जाये और ब्लॉग में शामिल कर लिया गया हो।
५. प्रतियोगिता हेतु रचना भेजने की अंतिम तिथि १० जनवरी २०२२ है।
६. निर्णायक मंडल के सदस्य अपनी रचनाएं भेज सकते हैं (यदि वे केवल प्रोत्साहन हेतु लिख रहे हैं तो पहले से इंगित कर दें). निवेदन यह है कि वे समय से पहले भेजें अन्यथा प्रोत्साहन का कोई औचित्य नहीं रह जाता।
धन्यवाद, शुभम !!!!
आपका अपना प्रतिबिम्ब




इस प्रतियोगिता कि विजेता है 
सुश्री मीनाक्षी कपूर 'मीनू'
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं मीनू जी 


~जीवन रंग~
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
(प्रोत्साहन हेतु)

सुख-दुःख, पतझड़-बसंत, हैं जीवन रंग
आना-जाना, लोभ- मोह, चलता सब संग

धर्म-कर्म, पाप-पुण्य, है जीवन की राह
छोटा-बड़ा, द्वेष-राग, बनतो बिगड़ती चाह

हार-जीत, शुभ-अशुभ, बनते जीवन के घेर
अपना-पराया, अच्छा-बुरा, है समय का फेर

त्याग-इर्ष्या, लुटना-लुटाना, बढ़ते जब अरमान
दोस्त--दुश्मन, सत्य-असत्य, तब होती पहचान

नियत-नियति, बिम्ब-प्रतिबिम्ब, सत्य जीवन के
सोच-विचार, ज्ञान-अज्ञान, है उजाले अंधकार के

टिप्पणी: इस चित्र को देख जीवन के विभिन्न आयाम बरबस ही ध्यान आ जाते हैं.... बस उन्हें ही संक्षिप्त शब्द भावो में जोड़ा है





~गति का कोई शेष कहां~
आभा अग्रवाल (Ajai Agarwal)
(प्रोत्साहन के लिये)

पतझड़ का चंचल झोंका
झकझोर चला सुकुमार द्रुमों को ,
शिशिर आया शिशिर आया
लो राग विटप-विटप ने गाया।
देने शीत ऋतु का संदेश
हरित द्रुमों ने बदले वेश ,
रूपहली धरा , सुनहले गाछ
पल्लव -पल्लव सोना आज ।
पत्ते लाल सुनहले मनोहर
निशि -वासर के पाहुन सारे
चंद दिनों में झड़ जाएँगे
नग्न तरु सब हो जाएँगे ।
पतझड़ आयी सोना रूपा सी
लो प्रवास को हरित चला ,
गति का कोई शेष कहां
फिर आने को अशेष चला ।
जीवन -प्राण ,वस्त्र आत्मा का
सुख-दुःख लूम के ताने-बाने हैं ,
इक दूजे का संबल हैं दोनों
पर इक दूजे से अनजाने हैं ।
पतझड़ है पयाम बसंत का
दुःख में सुख की रेख छिपी ,
झरें पात तब अंकुर फूटें
गति का कोई शेष कहां 

टिप्पणी: 
दिये गये चित्र में ऋतु परिवर्तन की आहट को …सुख दुःख की अनथक लहरों से जूझते मानव जीवन की गति में आरोपित करते हुए कुछ शब्द 






~ प्रकृति व मानव ~
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार


मनु-जिंदगी दुख-सुख समाहित,, एक उपवन है!
हर रूप में मिलता हुआ,,,,,, ये एक मधुवन है!

पतझड़ सरीखी जब हुई,,,,जब अंत की बेला,
आया बसंती रूप यौवन ,ज्यों बाग- चंदन है!

धरती गगन में,है प्रकृति अद्भुत अनोखी सी,
सुख दुख निभाते प्रेम से,करते सम्मिलन हैं !

ये जिंदगी ,,,,,भगवान का उपहार समझलो,
हँसती रही भी जिन्दगी, पर अंत रूदन है!

सत्कर्म ही है साथ जाता,,,,,सब यहीं रहता,
करते रहो शुभ कर्म जग में,ये आवागमन है!

आया अगर पतझड़,,कभी,तो लालिमा होगी,
सूखा चमन वीरान तो,,सुखमय बसंतागमन है!


टिप्पणी: प्रकृति मानव जीवन की सहचरी है दुख-सुख
निशा-प्रभात,,मिलन-विछोह सब प्रकृति में व्याप्त है इसी भाव को मन में रखते हुए चित्र अभिव्यक्ति प्रस्तुति किया है,,,जयहिन्द जय श्री राम


~रंग ज़िन्दगी के~
मीता चक्रवर्ती

ज़िन्दगी मौसम सी हर घड़ी रंग बदलती है
भोर सुहानी सी कभी सिन्दुरी सी शाम ढ़लती है
फूल खिलते हैं बंसत के , मौसम ए पतझड़ आते हैं
फूलों पर कभी और कभी कांटों पर जिन्दगी चलती है ।

ज़िन्दगी एक सफर है, कई कई मोड़ से मुड़ती है
किसी मोड़ पर जिन्दगी मिलती है जिंदगी से और फिर बिछड़ती है
रुत बदलते रहते हैं, और राह बदलते रहते हैं
आंधी से कभी और कभी तूफ़ानों से जिंदगी गुजरती है।

टिप्पणी: इन मौसमों की तरह जिंदगी के भी कई रंग होते हैं , कभी खुशी तो कभी ग़म लाती है जिंदगी कभी आंसू तो कभी मुस्कान है जिंदगी



~नवरंग~
मीनाक्षी कपूर मीनू


नव वर्ष की बेला में , नव कल्पना की पलक झपकी
आस रूप ले *मन बदलने को*प्राकृत रूप में टपकी
अज़ब सा खुशनुमा मंजर .... आंखों के सामने आया
उस सूखे पेड़ पर अचानक ही एक अंकुर नज़र आया
न जाने कब से ये तरुवर .......ठूंठ बन कर खड़ा था
यूं लगता था जैसे कोई इंसान पत्थर..... बन पड़ा था
फिर अचानक ही ......उस पत्थर में दरार नज़र आई
उफ्फ मनस्वी .........दरार में मानो आर्द्रता भर आयी
ओस की नन्ही बूंदों ने जैसे .....अपनी जगह हो बनाई
उस सूखे तरुवर पर अब फिर से..... हरियाली है छाई
हुआ अंकुरण ..... एक पत्ता , फिर अनेकों नज़र आये
धीरे - धीरे भर गया पतों से , और लालिमा भी गहराई
अलपक निहारती रह गयी मैं ..... सुंदरता इतनी भायी
मनस्वी ..भूल गयी मैं कि ..कभी पतझड़ भी थी आयी
सोच ने अचानक रूप बदला ,पहन लिया इंसानी चोला
पाया खुद को भी तरु सा , पलछिन का किवाड़ खोला
प्रकृति सा ही तो है मानव जीवन ,इससे ही सीखा जीना
सुखदुःख के भी है आते मौसम , बस सीखो आंसू पीना
हर शाम सूरज भी तो ढलता है , उदय की नई आस संग
मनस्वी.. खुशी की डोर पकड़ों , जीवन में भर दो नवरंग

टिप्पणी .. मौसम की आवाजाही ( कभी पतझड़ की तो कभी बसंत) ऐसा ही तो है मानव जीवन , कभी ज़िन्दगी हमें अनगिनत कष्ट देती है इतने कि हम जीने की आस भी छोड़ देते हैं लेकिन फिर अचानक ही कुछ ऐसा होता है सब बदल जाता है और हम धीरे धीरे फिर लौट आते है अंधकार से जीवन रूपी प्रकाश की ओर ठीक उसी तरह से जैसे पतझड़ के बाद प्रकृति एक नए रंग में रंग जाती है और जीवन के उतार चढ़ाव के बीच मानव को नव जीवन का संदेश देती है ।




~प्रकृति और जीवन~
किरण श्रीवास्तव

बसन्त जीवन में आता है
हर्षोल्लास भर जाता
तन-मन होता है हरा-हरा
खुशियों से जैसेभरा भरा..... ,
चहुंओर खिले बगिया मन का-
अपना लगे जहां सारा...!

पर कुछ भी कहा स्थाई है,
यह जीवन की सच्चाई है,
जरा वय के आगम से ही
जर्जर तन अकुलाता है ,
पतझड़ के एहसास से ही
पत्ता पत्ता मुरझाता है.... !!

कुछ भी कहाँ ठहरता है
चक्र सदा चलता रहता
रुकता नहीं किसी की खातिर
एक आता है दूजा जाता,
हर रूप बदलती काया है
सब ईश्वर की ही माया है.....!!!

टिप्पणी- प्रकृति और हम, एक दूसरे के पूरक हैं और परिवर्तन दु:ख- सुख का परिचायक है |






~गुजरते पल~
अलका गुप्ता 'भारती'
(आधार छन्द- वीर/आल्ह (मापनीमुक्त मात्रिक)
विधान- 31 मात्रा, 16-15 पर यति, अंत में गाल।
विशेष : वीर/आल्ह = चौपाई + चौपई/जयकरी
समान्त- आर, अपदान्त।)


गुजरते पल गुजर जाएंगे ,
समय पल पल यही रफ्तार।
सिमट कर पृष्ठ इतिहासों में ,
स्मृतियों संग झलकते सार ॥
लपका चला जाये पुनः जो,
दोहरा स्वयं को इतिहास ।
करें ग्रहण कर्मठ विवेक से,
पढ़ें पाठ अनुभव आसार ॥
न रुका है कभी जो रुकेगा,
समय चक्र पहिया है यान ।
अभियान निरंतर ईश यही ,
चलता गह अनुपम विस्तार ॥
सीखो सदा समय से चलना,
वक्त से ..करने ..सभी कर्म।
कर्तव्य समाज देश हित ही,
सार्थक धर्म कर्म आधार ॥
सदुपयोग हो वक्त का सदा,
पुरुषार्थ सहित जग कल्याण ।
ऋषि मुनियों की भूमि 'भारती',
कहती..सदा.. वेद साभार॥

टिप्पणी:
ईश का काल चक्र निरंतर घूमता रहता है हम मनुष्यों को उसी के अनुरूप चलना चाहिए ।




~रंग या बेरंग~
वर्षा थपलियाल

प्यारा था हर रंग
जब तक थी उम्र सलोनी
और मासूम ख्यालों का संग
बढ़ती उम्र ने आँखों को
बेशक कमज़ोर किया
पर हर रंग को बारीकी से
समझने - परखने का वक्त दिया
लाल रंग में लिपटे
इश्क़, वफ़ा, रिश्ते, साथी
बदल कर कब रह गए
दर्द, चुभन, तिरस्कार, तन्हाई
बदल गई तस्वीर, रंग फीका पड़ने लगा
मन की आँखों से बस इतना ही दिखा
रंग हो या बेरंग, तस्वीर ही तो है
कोरे कागज़ पर शुरू होती है
कोरे कागज़ पर ही खत्म।।


टिप्पणी: जीवन के अनमोल अनुभव कितना कुछ सिखाते हैं, वक्त बदलता रहता है, कभी अपना रंग तो कभी एहसास। बस! इसी बदलाव को शब्द देने की एक कोशिश..


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/