Wednesday, November 27, 2013

20 नवम्बर 2013 का चित्र और भाव




बालकृष्ण डी ध्यानी 
कल कि मुस्कान में

अल्प अल्प
जलकर उन्मुक्त हुआ वो
पल था जो अंधकार में
अब प्रकाशित हुआ है वो
मन का अंधेरा मन के आकाश में

इने-गिने थे वो बिंब मेरे
जब वो अकेले जले और बुझे थे
साथ मिला जब साथ का उन्हें
आज वो अनेका अनेक जले हैं रहा में

किंचित, थोडा कुछ नही है
वो जो पल मिला था हमे आज में
सब तो वंही था सब वंही हैं अब
जब साथ दिया मैंने और आपने

चन्द पल में जल जाना है
वस्तु सा खुद को नही सजाना है
कुछ थोडा नियत मिला है
व्यर्थ ही उसे ना फिजूल गवाना है

मोम बन पिघल हम गये
कल हम रोशनी बस तेरे नाम में
कल कोई हमे याद करे ना करे
हम मिलेंगे उस कल कि मुस्कान में … ३



जगदीश पांडेय
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से
सखी तुम्हारे मिलनें से
प्रेम पंखुडी खिलनें से
आज जमीं पे मेरे पाँव नही
लबों के तुम्हारे हिलनें से
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से

छोड न देना तुम साथ प्रिये
बीत न जाये कहीं रात प्रिये
दिल रोशन हुवा तुमसे सखी
आज जुदाई की शाम ढलनें से
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से

इस जहाँ को हम पाठ पढाएँ
सब को प्रेम भाव सिखलाएँ
घबरा न जाना सखी कहीं तुम
मुसिबतों के न हिलनें से
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
एक लौ बनकर ....

तुम जलो मैं जलू
आओ रोशन दुनिया करे

ये आग तेरे मेरे मन की
आओ जला दे रोशनी बनकर

अँधेरा मन का दूर करे
आओ जल उठे प्रेम बाती बनकर

हौसले विश्वास संग 'प्रतिबिंब'
आओ जल उठे अब एक लौ बनकर



अलका गुप्ता 
आओ ! मिलकर सब ज्योति से ज्योति प्रज्वलित कराएँ |
द्वंद सारे ..अंतर्मन के..समिधा सी वलिवेदी पर चढाएँ ||

भूलकर वैमनष्य भाव सारे ..परस्पर प्रेम ज्योति जलाएँ |
बाँट कर सब ओर उजाला मोम सा बेशक हम पिघल जाएँ ||

दूर धरा से अंधकार ये ..अज्ञान सारा डटकर दूर भगाएँ |
आलोकित कर मानवता को नया सा इतिहास लिख जाएँ ||



नैनी ग्रोवर ----
किसी की राहों से, कभी अन्धेरा मिटा के देखो,
कभी एक लौ से, दूसरी लौ तो जला के देखो..

मिलता है कितना सुकूं, ठिठुरती सर्द रातों में,
हमारे तपते हाथों से, हाथ मिला के तो देखो...

यूँ दूर वहाँ से, क्या पूछते हो हाल हमारा आप,
खुद चले आओ, या हमको बुला के तो देखो....

मिल जायेंगी सारी ही खुशियाँ, ज़माने भर की,
किसी बच्चे को पालने में कभी, झुला के तो देखो../


नैनी ग्रोवर 2
ये लौ जली है प्रीत की,
प्रेम के संग, रीत की,
लगती है मेरे मन के जैसी,
ज्यूँ बाट हैं तकती मीत की ....

संग_संग जागे मेरे सारी रात,
चुप_चुप जले, ना करे कोई बात,
उम्मीदों का धागा जलता जाता,
जैसे धुन हो किसी बिरह के गीत की....

मिटा के स्वयं को भी, अँधेरे से लडती है,
हमारे मन में कल की आस ये गड़ती है,
मिलता है सहारा, जब आँख इसपे पड़ती है,

निशानी लगती है, कल आने वाली जीत की ....


भगवान सिंह जयाड़ा 
एक दूजी लौ से लौ जब जलेगी ,
निश्चित यह एक ज्वाला बनेंगी ,
तब दुगना बढ़ेगा इस का प्रकाश ,
जागेगा मन में पक्का बिश्वास ,
दूर हटेगा नफरत का अन्धकार ,
जागेगा सब के दिलों में प्यार ,
बस प्रीत रुपी लौ बुझने मत दो ,
यूँ जोत से जोत सदा जलने दो ,
फैले जगत में एक ऐसा प्रकाश ,
कभी न बुझे,बने जीवन की आश ,
एक दूजी लौ से लौ जब जलेगी ,
निश्चित यह एक ज्वाला बनेंगी


सुनीता पुष्पराज पान्डेय
दीप जलाया मन मे मैने तुम्हारे प्यार का ,
दीप जला आस्था और विश्रास का ,
कुल दीपक बन दोनो चमके ,
दीप जलाती हुँ भगवन के चरणो मे अरदास का ,
दीप जले मेरे घर आँगन मे फैले उजियारा हर ओर,
दीये जलाउं इतने मिट जाये अधियारा सारे जग का ।


Pushpa Tripathi ____ मन के भीतर लौ जला लो ____

लौ जला लो ----- मन के भीतर
अंधकार और मिटे अज्ञान
प्रज्वल प्रकाश कई किरणों से
क्रमशः .. क्रमशः .. भीतर ज्ञान l

मोम की बाती ....... पिघले तन मन
ज्योति कण कण --- सारा आकाश
ज्ञान ही जीवन ----- ज्ञान ही मोती
है ये जीवन --- सब मोम समान l

अगर मगर की बात न पूछो
गलती अपनी खुद ही जानो
मिल जायेगा सूक्ष्म में बिंदु
जग को 'पुष्प ' तुम --- खोज निकालो l



सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 
दीपहुँ दीप जराओ साधो,
तम जग दूर सिधाओ ....
प्रीतहुँ रीत सु-गीत सुनावो,
पग-पग मीत बिठाओ .....
रे मन तिसना, मन घर बसना,
किस विधि ठौर निकारूँ ,
ये आपन, निज दूजो साधन,
सूत महीन निखारूँ !! "सूर्यदीप"

किरण आर्य 
एक लौ प्रीत की मन में जगी
जिंदगी है तेरे प्रेम से सजी
दिल में प्रेम के दीप है जले
नैनों में इन्द्रधनुषी स्वप्न पले
तुम साथ हो जो मेरे सजना
रूह है संवरे महके मन अंगना
तुम दूर रहो या समीप मेरे
मन रहे रंगा एहसासों से तेरे

किरण आर्य 
अँधेरा मन का जब है डराता मुझे
तब ईष्ट का मन है ध्यान करे
एक लौ विश्वास की मन में जले
जो मन के अंधेरों को है दूर करे
ईष्ट मेरे मन मंदिर में है बसे
लौ जो है जले तम को है हरे
तम जो है अंधियारा करे
वो लुप्त हो मन रोशन करे
एक लौ जो मन ज्योति जले
ईष्ट के मनन से रूह रोशन करे

अर्थात - दीप से दीप प्रज्ज्वल कर इस जग से अन्धकार का नाश किया जा सकता है। मीठी वाणी से, प्रेम भरे सम्बोधन से, त्याग से, हर जगह आपके मित्र बन सकते हैं। लेकिन मन की इस वासना, तृष्णा का मैं क्या करूं जो मेरे मन में अपना घर बना चुकी है, उसे उसके ही घर से किस प्रकार निकालूँ , जो ये समझती है कि ये भी मेरा है और दूसरों के संसाधन भी मेरे ही हैं और उनका संग्रहण एक पतले से धागे (अज्ञान) से बनी पोटली में करती जा रही है. (सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी) २५ नवंवर २०१३।

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Wednesday, November 20, 2013

14 नवम्बर 2013 का चित्र और भाव



जगदीश पांडेय 
क्यूँ छेंड दिये बीते वक्त के तार
कि यादें कंपन्न हजार करनें लगे
एक उम्र बीती है भुलानें में तुम्हें
क्यूँ साँसों में मेरे फिर से बजनें लगे

नासमझ थे वो मेरे झंकृत मन से
सुना दो धुन आज वो कहनें लगे
निकला जो सुर बाद जुदाई के आज
मोती आँखो से अश्कों के बहनें लगे
क्यूँ छेंड दिये बीते वक्त के तार
कि यादें कंपन्न हजार करनें लगे

Pushpa Tripathi
 - सुर सुनहरे बन पड़े .......

धुन सुन मन से जो निकली
आवाज बन गई सुर ध्वनि
कितने रंगों में 'पुष्प '
बन गई गीत नई .......
तार तार बज पड़े
खिल उठी आवाजे मेरी
ह्रदय की सजी प्रेम बेला में
प्रियतम सरगम सुर बजे ……
पुकारती यादों का मिलन
साँझ सकारे चल पड़े
हर युग में संगम हो अपना
संगीत मधुरतम बन पड़े …!!!


नैनी ग्रोवर 
शाम ढले, जब मैं बैठूं, खोल दरीचे,
ना जाने कौन दूर से, मन को खींचे,
ह्रदय से निकलती है, किसकी पुकार,

डूब रहा क्षितिज में, सुनहरी सूरज,
गूँज रहे सृष्टि में, बांसुरी के स्वर,
बज रही है पाँव में पायल की झंकार,

ये नीर भरी नदिया, जैसे इठलाती है,
सृष्टि ही संग इसके, गुनगुनाती है,
छा जाती है तब, मेरे मन में भी बहार... !!


बालकृष्ण डी ध्यानी 
सरगम

धुन बनी है वो
गीत तेरे नाम का
स्वर लहरी धूम कि
मन के उस सोच कि
धुन बनी है वो.................................

विस्तार हुआ है वो
दस्तक दी है दिल के द्वार पर
सात सुरों का पैमाना
छलके मन के मीनार पर
धुन बनी है वो.................................

कौंदी थी वो अचानक
सरगम कि उस तार पर
दो शब्द उभरे उभरे मेरे
मापक बन उस सितार पर
धुन बनी है वो.................................

धुन बनी है वो
गीत तेरे नाम का
स्वर लहरी धूम कि
मन के उस सोच कि
धुन बनी है वो.................................


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
....अपना सा संसार----
गूंजते रहे गीत व् संगीत के स्वर
बहती रहे हर सुर से प्रेम बयार
छू ले अंतर्मन को सुरों की झंकार
महकते रहे रिश्तो के बोल मधुर
सौहार्द का संगीत अब जाए निखर
देश भक्ति का भाव बन जाए डगर
'प्रतिबिम्ब' गा रहा जिंदगी का सफ़र
मिला लो सुर, अपना सा होगा संसार


Pushpa Tripathi 
…… पुष्प तराने बन गए ……

न जाने कितने रंगों में
गीत सुहाने बन गए
भोर की मधुर किरणों में
जीवन तराने बन गए l

गुजरा समय यादों के झरोखे
स्वप्न सुनहरे शाम तले
मीठी बातों में सुर लहरी
जीवन घर घर में गूंज रहे l

नाचे है धरती और गगन
'पुष्प ' की बगिया में फूल नए
महकी सांसे घुलती यादें
धुन .... धुन मिल गुन, गीत नए l


सुनीता पुष्पराज पान्डेय 
छेड़ी जो तूने प्रेम की सरगम पिया
गा उठा फिर मेरा बावरा मन पिया
तुम मेरे सुर मै तेरी आवाज पिया
तू मेरी वीणा मै तेरी झंकार पिया
तू मेरी नैया मै तेरी पतवार पिया
तू मेरा जीवन मै तेरा संगीत पिया
तू मेरा माली मै तेरे बागोँ की कोयल पिया


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Thursday, November 14, 2013

7 नवम्बर 2013 का चित्र और भाव




नैनी ग्रोवर 
वो पुरानी कॉपी के खाली पन्ने,
जिसमें बस रखती थी मैं तुम्हारी यादें,
ना जाने कहाँ खो गयीं,

समय जाने कहा बहा ले गया,
वो मोर पंख, वो सूखे हुए गुलाब,
ना जाने कितने सुहाने पल बेहिसाब,
बस एक कोरा कागज़ बो गयीं...
वो यादें ना जाने कहाँ खो गयीं...

वो सुबह के सूरज में तेरा चेहरा,
बंदिशों में भी खिलता चाँद का सेहरा,
डर-डर कर भी मुस्कुराती हुई आँखें,
आज भरी बरसात की तरह रो गयीं....
वो यादें ना जाने कहाँ खो गयीं ....



बालकृष्ण डी ध्यानी 
वो मेरी खुली किताब

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़
पुरानी है वो मेरी कहानी है वो
उसमे दबे हैं मेरे सारे अहसास

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

गीत है कभी वो कभी गजल है
कविता और कहानी सा उसका स्वभाव
हर अर्क में छपी है वो
छपी है मगर वो कुछ ना लिखी है वो

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

उसमे बिता पल मेरा रूठा है
मेरी साँस का हिस्सा छूटा है
कलम मेरी जिंदगी की बड़ी थी उसमे
चली थी मगर वो पर सब कुछ धुला धुला सा

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

कर रही है वो किसी कफ़न आराम
सुर्ख सूखे पत्तों का वो लेकर साथ
ता उम्र उसने साथ दिया था मेरा
अफ़सोस वो रह गयी बस बिलकुल साफ़

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़
पुरानी है वो मेरी कहानी है वो
उसमे दबे हैं मेरे सारे अहसास



सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 
कुछ पन्ने इस डायरी के खाली रखे हैं ...
शायद कभी तुम लौट कर आओ ...
और कुछ कहो…
तो मैं तुम्हारे लफ़्ज़ों को पिरोकर
एक गीत लिख सकूं .... कुछ कह सकूं ...

ठहर सी गई है ज़िंदगी और
हो गई है इन कोरे कागज़ों सी ...
रूखी, बेज़ान .... बेरंग ..
तुम थे तो कुछ रंग बिखरे थे ...
तुम थे तो कुछ चेहरे भी निखरे थे ...
तुम नहीं .. तो लफ्ज़ नहीं ..
गीत नहीं ...रंग नहीं ....
और मैं ... मैं भी नहीं रहा ....
बदल गया, बिखर गया और रह गया ...
इन कोरे कागज़ों सा



कवि बलदाऊ गोस्वामी
काल के वितान में निरापद
मै खाली किताब हूँ।
लिखने वाले लिखें
पन्नों पर मेरे,
अटूट इतिहास की ऋंखला।

आने वाले तुम्हारे वंशज
समझ सकें युग के
निर्दय तलवार का,
कट्टरता,क्रुरता,अन्याय के
प्रहार की गाथा।
हे आदिकवि के वंशज!
लिख दो
कराह रही धरती की पुकार।
शायद कल जो आये
समझ सके दर्द भरी वेदना।
और तब सृजन करे,
मानव इकाई की मंगलमय व्यापक्ता



भगवान सिंह जयाड़ा 
मेरी जिन्दगी की किताब के
कुछ पन्ने यूं खाली रह गए
कुछ बदली जिन्दगी ऐसे यहाँ
जिन्दगी के हर गम सह गए,

जिन्दगी एक खुली किताब हो
खाली पन्नों का गम ना करो
भर जायेंगे सब बक्त के साथ
मन में यूं सच्चा बिश्वाश भरो ,

संयोज कर रखे है अभी भी
खाली पन्ने इस किताब के
सायद वो हशीन लहमे फिर
मुड़ कर आएं मेरी जिन्दगी के ,

जिन्दगी की किताब के हर पन्ने
स्याह अक्षरों से तब मैं सजा दूंगा
न रहे कोई पन्ना खाली किताब का
जीवन की इबादत इस में लिख दूंगा ,

हर एक इबादत होगी खुशियों भरी
जिंदगी यूँ खुशियों भरी बना दूंगा
जिस को पढ़ कर खुश हों जाएं सभी
मैं हर पन्ने को इस तरह सजा दूंगा,

जिन्दगी की किताब का कोई पन्ना
कभी भी खाली न रह पाये किसी का
हर पन्ने पर लिखीं हो ऐसी इबादत
जिसे पढ़ ,मन खुश हो हर किसी का ,


जगदीश पांडेय
मैँ एक अमिट कहानी हूँ
कह रही खुद की जुबानी हूँ
इतिहास के पन्नों में लिखी
वीरों के लहू की रवानी हूँ

न पढनें वाले न समझनें वाले
न जानें कहाँ सब सो गये
गुमनाम हो गई गरिमा अब
शब्द अपनें में सब खो गये

चाह कर कोई न पढ पायेगा
पापियों के हाँथ न छुवा जायेगा
अच्छा हुवा मिट गई अपनें आप
बचा ली लगनें से एक शाप

अगर मुझे लिखना चाहते हो
अगर मुझे पढना चाहते हो
तो रोक लो खुद को मलिन होनें से
अपनें वंश अपनें देश को कुलिन होनें से

मन से अपनें तुम छल कपट त्याग दो
चमन के संगीत में अमन का राग दो
अन्यथा मुझे तुम यूं रिक्त ही रहनें दो
रिक्तता का अभिशाप अब सहनें दो

मंजूर होगा मुझे यह सुनना अब
मैं बिन लिखा पन्ना हूँ
मैं बिन लिखा पन्ना हूँ
मैं बिन लिखा पन्ना हूँ



सुनीता पुष्पराज पान्डेय 
जब होश संभाला था
तब से हुई तुम संग यारी
कहाँ सबको भाई प्रीत हमारी
जो भाव न समा पा हृदय मे
सब तुम मे उडेल दिये, सखी
तुम थी मेरी ऐसी हमजोली
सब कुछ चुप -चाप सुना,
जब जी चाहा पलटे पन्ने
बीते पल्लो को दोहरा लिया
जब भी रोना आया सखी
आयी तुमसे बाँते चार कही ,



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~तेरे मेरे अहसास ~

लिखने लगता हूँ जब कुछ
हाँ तुम्हारे लिए ही
दिल बहुत कुछ कहना चाहता है
लेकिन शून्य हो जाता मस्तिष्क
रुक जाती है वो उठी कलम
दिल में अहसास रूबरू होने लगते है
हर पल तब खास लगने लगते है
जी उठता है हर पल तुम संग
अब तुम ही कहो कैसे लिखूं
उन पलो से कैसे में
खुद को दूर कर लूं
कैसे कलम अपनी चलाऊँ

देखो न, आज फिर
ये पन्ना खाली रह गया
तेरे मेरे अहसास
आज फिर
इन सफ़ेद पन्नो पर
नही उतर पाए क्योंकि
ये पवित्र है ये सत्य है
लिखना चाहूं भी तो
इन पन्नो पर वे दिख नही सकते


अलका गुप्ता 
अन्तः करण कि आवाज थी ...कहाँ ?
कभी ...आत्मा कि अनसुलझी पुकार ||

नित नए... अवसाद समेटे हुए ....
या कभी....विवादित से हुए वो छार ||

डायरी में रहे क्यूँ शेष ये कोरे पन्ने |
सिकुड़े से कुछ गुंजले पीले से कोर ||

थी... क्या व्यथा ...ऐसी ...जो ..
उभर ना सके थे शब्दों के अभिसार ||

मिल न सके ...क्यूँ ....स्मृतियों के ...
बेचैन से लिखित ...........कोई छोर ||

आज जो रुक गए आकर ..आवक ...
कोरे पन्नो पे पलटते अँगुलियों के पोर ||

उकसा रहा मन विकल कोरे इन पन्नों से |
कोरे रह जाने के अनसुलझे से तार ||

आंदोलित करते रहे पुरानी डायरी के ...
अनलिखे...... ये .....शब्द सार ||

या आवाक है हटात ...व्यर्थ रहा ..
जीवन यूँ ही रहा ....कोरा सा ... सार ||



Pushpa Tripathi 
ये वक्त के गुमनाम खाली पन्ने

जब ---- डायरी भर जाती है … ख्यालों से
तब ----- कुछ पन्ने शेष नहीं रहते
सब ----- बातें मन की उतर आती है पन्नों पे
कब ---- रहता है काबू ये अल्प शब्दों मे
और ----- मन भी बिछ जाती है कागज के टुकड़ों पे l
पर ..........
जब कभी तुम रूठे
टूटे सब बिखरे नजर आये
ये वक्त के हाथों
पन्ने - पन्ने अधूरे नजर आये
सूखी स्याही में कुछ भी नहीं बचा
बस ....... खारे पानी ही पानी नजर आये
ये डायरी भी कमाल की
सब खाली खाली बिखरी
बेजान नजर आये
ओह्ह …… ये वक्त के खाली बेनाज पन्ने
अब -------- तो यह दिल की बात नहीं सुनता l


किरण आर्य
मन की किताब का
हर पन्ना रंगा
तेरे ही एहसासों से
तेरे साथ की खुशबू
महकाए हर पन्ने को
तुझसे अलग जब
देखने बैठी
दिल की किताब को
हर पन्ना उसका रीता
कोरा सा नज़र आया
तेरे ना होने के
एहसास से ही
ये दिल है घबराया
दिल में प्रीत का एहसास
और है गहराया
और दिल को हमने अपने
फिर ये समझाया
तुम दूर सही
फिर भी दिल के पास हो
हमदम मेरे
हर पल में बसे
खुशनुमा से एहसास हो


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Thursday, November 7, 2013

27 अक्टूबर 2013 का चित्र और भाव




नैनी ग्रोवर 
ये सुबह की सुनहरी किरणें,
धरती को सजाती हैं,
कण-कण में उजाला भरती हुईं,
ठंडी पवन संग, लहराती हैं..

अलसाई अँखियाँ नींद भरी,
इसे देख कर मदभरी हो जाती हैं,
पनघट पर सब सखियों की,
हंसी बड़ी ही सुहाती है ...

ले काँधे पे हल निकले,
किसान जब अपने घर से,
संग संग उनके चलती जातीं,
ज्यूँ राह उन्हें दिखातीं हैं...

छोटे-छोटे मासूम बच्चे,
लिए हाथ में बस्ता, तख्ती,
आने वाले भविष्य हमारे,
जब स्कूल को जाते हैं,
हर ह्रदय को पुलकित करतीं,
आस नयी एक बंधाती हैं... !!


सुनीता पुष्पराज पान्डेय 
पेड़ो की ओट से
छन कर आती हुयी भोर की किरणे
लगती है रुपसी ने सोने के गहनो से श्रंगार किया हो ,
चमक के आगे आँखे चकाचौँध सी हो जाती है,
देख कर मन प्रफुलित हो जाता है ,
सुबह की पहली किरण को क्या शब्दो मे बाँधा जा सकता है


कवि बलदाऊ गोस्वामी 
प्रभात फूटा
निशा छटा
दिशाओं की कपोलों पर रवि रशिम
छा गयी;
और पत्तों की झुरमुट से आकर
धरती को उष्णता देने लगी|
मानो एक पुरुष-सा
वह रवि!
जिसकी प्रत्येक रशिमें धरा को
उपजाऊपन बनाती,
अनूअर_____
धरती पर आ रही|
आज मुझे मिल गया
वह प्रकाश,
जिसके प्रकाश में
खेलता-खाता है जग सारा|


बालकृष्ण डी ध्यानी 
वो प्रभात मेरा

चली आ रही है
पूर्व से किरण एक
मन आगन के
अंधकार को करने दूर

प्रकाशित करेगा
वो तन मन अब मेरा
प्रातःकाल का वो सूरज मेरा
अब गड़ेगा वो गहना

शुरू कर दिया है उसने
अब झलक अपना दिखाना
आरंभ में ही अस्र्णोदय जी
अब गाने लगे वो तराना

नाच उठे पक्षी गगन और भोर
चहक ने लगी सृष्टी चाहों ओर
मेरे देश का सबेरा उस दिन आयेगा
एक भी जीव जिस दिन भूख ना सोयेगा

चली आ रही है
पूर्व से किरण एक


ममता जोशी 
ये धरती प्रभु ने कितनी सुन्दर बनायीं
कहीं फूलों को खिलाया ,कहीं इन्द्रधनुष से सजाई,

नदी ,झरने ,पहाड़ जंतु ,वनस्पति अपार,
चाँद की शीतल चांदनी ये सब प्रभु के उपहार.

घने पेड़ो से छन छन कर सुबह जब धूप आती है,
तब इनायत उस प्रभु की मुझ तक पहुँच जाती है ,..


भगवान सिंह जयाड़ा 
स्वर्णिम किरणों के संग आई नई भोर ,
एक मनमोहक लालिमा छाये चहुँ ओर ,

नए दिन की नई उमंग यह संग है लाई ,
नया उत्साह नई ऊर्जा हर प्राणी में आई ,

मंद मंद उष्णता से धरती को महकाए ,
पक्षियों के कलरव से दिशाएं चहकाए ,

अंगड़ाती कलियों के संग भौरे मंडराते ,
मधुर गुंजन से अपने गीत प्यार के गाते,

भोर की किरणें हम को कुछ सिखती हैं ,
नयें दिन में नयें सृजन की राह दिखाती है ,

कुदरत के यह निजाम भी कितने न्यारे ,
कभी न भूलें आना यह सूरज चाँद सितारे , ,

स्वर्णिम किरणों के संग आई नई भोर ,

जगदीश पांडेय 
निकल आई रवि किरणें माँग उषा की
भरनें को
अपनें तेज स्वरूप से देखो तम निशा की
हरनें को
आसमाँ भी पुलकित हो रहा देख अद्भुत
संगम को
वसुंधरा भी शर्म से लाल हुई देख पुलकित
हमदम को
छुप के दरख्त से झाँक रही सूरज की लाली
चली बयार ठंडी झूम रही खेतों की बाली
काश बदल जाये फिजा ये आब-ओ-हवा
हिन्द का दिन और ये रात काली काली


किरण आर्य 
भोर की एक
अलसाई किरण
पेड़ो के झुरमुट
में से झांकती
कह रही सुप्रभात
आया नया सवेरा
लेकर सुनहरा उजास
भर लो दामन में
खुशियाँ
ओस के कण सी
जो है बिखरी
नर्म घास पर
देखो उम्मीद
हो रही है रोशन
जैसे दमकती
सूर्यकिरण ..........

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/