Friday, March 4, 2022

तकब 04-22 , रचनाएँ परिणाम व समीक्षा


तकब 03 एवं 04 की डिजिटल पुस्तक से मेरी बात 
प्रतिबिम्ब की बात 
नमस्कार मित्रो!  तकब 03 एवं 04 के विजेताओं को हार्दिक बधाई! सभी प्रतिभागियों को शुभकामनाएं. तस्वीर क्या बोले समूह का उद्देश्य जहाँ हिन्दी से प्रेम व उसका प्रचार प्रसार करना है उसके साथ ही एक उत्कृष्ट सृजन करना व लेखक की प्रतिभा को निखारना भी है.  
कम प्रविष्टियों के साथ लेखन में गिरावट चिंताजनक विषय है. यह चिंता हमारे निर्णायक मंडल ने जताई है. मेरा सब से निवेदन रहेगा कि जब आप रचना लिखें उसे कम से कम दो – चार जरुर पढ़े. केवल लिखना है यह खाना पूर्ति न हो इसका विचार अवश्य करें. भावों के साथ शब्दकोश पर अपने लगातार वृद्धि करते रहिये. आपकी रचना पाठक को मजबूर करे पढने हेतु यह विश्वास स्वयं में पैदा करना होगा. प्रतियोगिता है तो हम उसमे सुधार नहीं कर सकते, हाँ समीक्षा के द्वारा अगर उसमे कोई राय सुझाव दिया गया है तो उसमें अवश्य कार्य करें.  
इस वर्ष से हमने सदस्यों द्वारा समीक्षा करने का जो निर्णय लिया है उसमे एक मजबूरी भी थी लेकिन एक उद्देश्य भी कि आप अन्य रचनाकारों की रचनाओं को पढ़ने और समझने  का प्रयास करें. कुछ गलत लगे तो उसे भी इंगित करें. केवल तारीफ समीक्षा नहीं होती उसमे आलोचना का भी स्थान होता है. सभी समीक्षाकार सदस्यों को भी शुभकामनायें.  
अब हम निर्णय आनलाइन सुनाते है. यह प्रक्रिया इसलिए जोड़ी गई है कि आप हमारे निर्णायक मंडल के सदस्यों को भी सुने. आगे हम प्रयास करेंगे की रचनाओ पर चर्चा भी करे और एक यादो सदस्यों को काव्य पाठ का मौका भी दे. लेकिन आप समीक्षा समूह में जरुर पढ़े.  निर्णायक मंडल के सभी आदरणीय सदस्यों का आभार करते हुए पुन: सभी सदस्यों व रचनाकारों को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं. सृजनता बनी रहे.  

शुभम प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

तकब 04 - 22 प्रतियोगिता

( इस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान श्री शिव मोहन जी एवं सुश्री यामा शर्मा जी ने साँझा किया है  )


मन मस्तिष्क
(विधा - ग़ज़ल)
अंशी कमल

सुनूँ दिल की या मति की मैं, समझ में कुछ न आता है।
इधर मति खींचती मुझको, उधर दिल ये डुलाता है।

कभी मति की अगर सुन लूँ, तो पछतावा मिले मुझको,
कभी जो मान लूँ दिल की, बहुत यह फिर रुलाता है।

सदा मति को रखूँ वश में, लगाऊँ दिल पे मैं अंकुश,
चलूँ जब राह मैं अपनी, तो अरि भी हार जाता है।

सुने दिल की सदा ही जो, करे हर काम मति से ही,
उसीके सामने तो फिर, जमाना सर झुकाता है।

रहें अनुकूल जब दोनों, तभी हो दूर हर मुश्किल,
अगर विपरीत हों दोनों, न इनसां चैन पाता है।

टिप्पणी: हमें मन व मस्तिष्क में सदैव सन्तुलन बनाये रखना चाहिए। किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें मन में धैर्यपूर्वक विचार करके मस्तिष्क की सहायता से कार्य करना चाहिए।


मन मस्तिष्क में
(प्रोत्साहन हेतु )
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

आकुलता - व्याकुलता संग
असंगतियाँ – विसंगतियाँ खेलती है
भाग्य – दुर्भाग्य, समय - असमय
परिस्थितियाँ पल - पल बदलती हैं
हमारे मन मस्तिष्क के केंद्र में ही
बुद्धि और चित्त विराजते हैं
चेतना, ज्ञान, अनुभव, व्यक्तित्व से
जीवन अपना सवारते है

हित – अनहित, हार – जीत
पाप – पुण्य, स्वार्थ – निस्वार्थ
प्रेम – विरह. आदर – निरादर
अपना – पराया, कर्म – धर्म
लोभ – दान, सत्य – असत्य
भला - बुरा, गुण – अवगुण
सब बैठकर मन और मस्तिष्क में
हमें इन्सान या जानवर बनाते है

यही उद्गम है यही विलय हैं
यहीं बसता प्राण हमारे भावों का
यहीं द्वंद्ध होता है
इच्छा और इच्छा शक्ति का
संकल्प और विचारो का
मंजिल और हौसलों का
वेदना और संवेदनाओं का
हाँ यहीं मन - मस्तिष्क में
उत्तर होता है असंख्य प्रश्नों का

टिप्पणी: मस्तिष्क में ही मन विराजता है जानता हूँ कोई निर्णय से पहले दोनों कितना लड़ते हैं. बस उन्हीं भावों को प्रस्तुत किया है.







मन मस्तिष्क - कलपुर्जा हुआ
(मुक्तक)
अलका गुप्ता 'भारती'

मस्तिष्क हावी मन बहे,
तकनीक कलपुर्जा हुआ।
जड़ भावनाऐं शून्य सी ,
दोयम सभी फर्जी छुआ।
जब युद्ध छेड़े मनुजता ,
सब रंग बिखरेंगे तभी_
संस्कार जागें कर्म के,
जुड़ तार मानव हर दुआ॥
भूला सरल मन आदमी ,
छल बल प्रभावी रंग हैं।
हैं चक्र सारे घूमते ,
भग्नावशेषित ढंग हैं।
संसार आह्लादित हुआ ,
सब व्यर्थ भोगे तामसी_
सत्संग से जुड़ भावना,
शुभ ओम कारी संग है ॥

टिप्पणी: आज मानव कोमल भावनाओं को छोड़ कर हर दृष्टि कोण में टैक्निकल होता जा रहा है।


मन और मति का द्वन्द
शिव मोहन


हर सिक्के के दो पहलू हैं, हर पहलू हैं प्यारे।
जिस भावों से देखो उनको ,वैसे लगते सारे।
मन भावों में बहता है ,तो मति बोले रुक प्यारे।
सोच समझ कर आगे बढ़ तू ,मन से ना तू हारे।
मन ना समझता तर्कों को ,बस दिल की सुनता हरदम।
मति बोले तू भावुक ना हो , रख हर पहलू सर्वप्रथम।
दोनों ही सच बोले हैं , बस कहने का है अन्तर।
दोनों की सुन निर्णय ले तू , मानवता का मन्तर।
ईश्वर ने दी शक्ति है बस मानुष को तो ऐसी।
मन मति को संतुलित करे जो, वो कहलाये विजयी।
हर सिक्के के दो पहलू हैं, हर पहलू हैं प्यारे।
जिस भावों से देखो उनको ,वैसे लगते सारे।

टिप्पणी: मनुष्य हमेशा मन और मस्तिष्क के द्वन्द में फंसा रहता है। दोनों अपनी अपनी ओर खींचते हैं,अपना कहा मानने को बोलते हैं। ईश्वर ने सिर्फ मनुष्य को ही संतुलन की शक्ति दी है। जिसने मन और मस्तिष्क में संतुलन बना लिया वो जितेन्द्रिय और विजयी कहलाता है।


मन मस्तिष्क
(द्वंद्व - हाइकु विधा)
किरण श्रीवास्तव

दिल दिमाग
सोचता आगे पीछे
आंखें है मीचे...!
मनअधीर
संसार है स्वप्निल
सोचे किंचित...!!
मगजमारी
किंकर्तव्यविमूढ़
मन भ्रमित...!!!
सही गलत
दिमाग समझाये
राहें दिखाये...!!!!
भाव-विभाव
संतुलन बनाये
खुशियाँ पाये....!!!!!

टिप्पणी: मन और मस्तिष्क दोनों एक सिक्के के दो पहलू है! दोनों के संतुलन से ही जीवन सुचारू रुप से चलता है...!



मन मस्तिष्क
यामा शर्मा

 
मेरे मन मस्तिष्क सरीखी समता को
तुम बाँध सको तो बाँध ही लो
जन्म-जन्म का पथ का राही
तुम जान सको तो जान ही लो
यह पथ तो एकाकी पथ है
ईश्वर की सुन्दर कृति है
शब्दों का कारीगर अनुपम
भावों से सुन्दर अभिव्यक्ति
यह विचार विवेचन का स्वर्णिम रथ है
तुम मान सको तो मान ही लो
मेरे मन मस्तिष्क सरीखी समता को
तुम बाँध सको तो बाँध ही लो।।।


टिप्पणी : यह रचना मनुष्य के जीवन पर लिखी गई है जो जन्म से अन्त तक अकेले ही संघर्षों से भरा है । साँसों के साथ ही शब्दों की अभिव्यक्ति हो पाती है जिसको मनुष्य मन मस्तिष्क में उतार कर भावों के साथ अभिव्यक्त करता है।


मन-मेधा
प्रभा मित्तल (प्रोत्साहन हेतु)

दिल का क्या है
कभी विशालमना
कभी सकुचाया थोड़ा
कभी रोया जी भर
कभी हर्षाया थोड़ा।
कभी बिंध गया
कभी बेंधा गया
कभी धीर धरा
कभी सही पीड़ा,
यौं रिश्तों के बंधन में है
मन का सहयोग बड़ा।
कभी क्लांत तन ,
कभी विचलित मन,
कभी जीता विवेक
तो कभी हारा मन।
जीवन के दुर्गम-पथ पर
प्रायः मन और मेधा में
यौं रहता है द्वंद छिड़ा।
मन तो है आत्मा से जुड़ा,
मस्तिष्क देह का अंग,
करता है तर्क-वितर्क बड़ा,
पथ से भटक न जाए मन,
सो सामंजस्य बिठाने को
सदा प्रहरी बन रहता खड़ा।।

टिप्पणी: प्रायः भावुक हृदय हमें सही-ग़लत का भेद नहीं समझा पाता,अतः किसी भी निर्णय तक पहुँचने के लिए मन की भावनाओं और मस्तिष्क के तर्क में सामंजस्य और ठहराव जरूरी होता है।




परिणाम
प्रभा मित्तल
नमस्कार, प्रिय मित्रगण !
पिछले लगभग दो वर्षों से देश में फैली महामारी के कारण बाहर जाना ,किसी से मिलना प्रतिबंधित सा ही था।मन डरा डरा रहता था।अब वायरस के हलके पड़ जाने से कुछ निश्चिंतता हुई है....फिर भी मेरा आग्रह है कि आप अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न बरतें,सैनिटाइजर और मास्क का प्रयोग अवश्य करते रहें।हाँ ये सच है कि मन तो हर बंधन से स्वतंत्र होना चाहता है लेकिन मस्तिष्क बराबर सावधान करता है,....यही तो है मन और मस्तिष्क का जोड़।
तकब 4/22 का चित्र भी 'मन मस्तिष्क' ही दिया गया था।हालांकि यह विषय बड़ा वृहद् था फिर भी आप सभी प्रतिभागियों ने अपने - अपने विचार रखे।हमें कुल सात रचनाएँ मिली हैं,जिनमें से दो निर्णायक मण्डल से हैं। अतः कुल पाँच रचनाओं में से हमें उत्कृष्ट रचना चुननी है। निर्णायकों से प्रतिभागियों को मिले वोटों की संख्या इस प्रकार है........
प्रथम स्थान के लिए मिले वोट ....
1.अलका गुप्ता 'भारती'......1
2.शिव मोहन...........2
3.यामा शर्मा..........2
--------------------------------
द्वितीय स्थान के लिए मिले वोट......
1.अंशी कमल .......1
2.यामा शर्मा ........2
3.शिव मोहन........2
------------------------------
इस प्रकार वोटों की संख्या के आधार पर सुश्री यामा शर्मा अपनी श्रेष्ठ रचना 'मन मस्तिष्क' और शिव मोहन जी अपनी श्रेष्ठ रचना 'मन और मति का द्वंद' की प्रस्तुति के साथ चार-चार वोट लेकर समान रूप से प्रथम स्थान प्राप्त कर विजयी रहे।मेरे व निर्णायक मण्डल की ओर से सुश्री यामा शर्मा और शिव मोहन जी को हार्दिक बधाई व अनन्त शुभकामनाएँ।

श्री शिव मोहन

सुश्री यामा शर्मा




समीक्षा

प्रभा मित्तल
प्रिय मित्रों, 

कुछ स्वास्थ्य कारणों से मैं समीक्षा नहीं लिख पा रही थी, इसीलिए तकब के नियमों में कुछ बदलाव किया गया, ताकि प्रतिभागी भी समीक्षा लिखने में अपना योगदान दे सकें। लेकिन इस बार ये मेरे ही हिस्से में आ गई।मैं इतनी योग्य तो नहीं फिर भी प्रयास करूँगी कि आप सबकी रचनाओं के साथ न्याय कर सकूँ।आपके सृजन में नीहित भावनाओं को समझने में मैं कहाँ तक पहुँच पायी हूँ...ये तो आप रचनाकार ही बता सकेंगे...कहीं कुछ कमी रही हो तो मुझे जरूर बताइएगा ताकि मैं अपने लेखन में सुधार कर सकूँ।
तो लीजिए प्रस्तुत है आप सबकी रचनाओं की समीक्षा-----


1.यामा शर्मा ---- 'मन मस्तिष्क'----!
अपनी कविता 'मन और मस्तिष्क' में यामा जी के कहने का आशय है कि..... यह सत्य है कि मनुष्य का सारा जीवन संघर्ष करते हुए ही व्यतीत होता है।लेकिन यह भी सच है कि यह मनुष्य- जीवन तो ईश्वर की सबसे सुन्दर रचना है,जिसमें निहित मन और मस्तिष्क उसका दिया अनुपम उपहार है।जिससे मनुष्य सोच-विचार कर भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता रखता है।यदि मनुष्य मन और मस्तिष्क में उठने वाली भावनाओं और विचारों के बवंडर में साम्य बैठाकर इस सच्चाई को समझ ले कि जीवन-पथ के इस संघर्ष में कोई उसके साथ न होगा और अपने सारे दायित्वों को पूरा करते हुए,इस भवसागर से उसे अकेले ही पार उतरना है।तो सचमुच ही वह बड़ी सरलता से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में सफल हो सकेगा।चित्र पर सुन्दर भावाभिव्यक्ति। मनमोहक कविता है--'मन मस्तिष्क'।उत्कृष्ट सृजन के लिए पुनः बधाई यामा जी,शुभकामनाएँ !!

2. शिव मोहन --- 'मन और मति का द्वंद्व' ---!
बहुत ही सुन्दर और सरल शब्दों में मन और मस्तिष्क की महत्ता को समझाया है शिव मोहन जी ने अपनी कविता...'मन और मति का द्वंद्व' में.....वे कहते हैं...मन और मस्तिष्क एक दूसरे के पूरक ही हैं।मन अगर भावनाओं में बहकर कुछ करना चाहता है तो मस्तिष्क उसे नियंत्रित करता है।मन तो अपने में ही मगन रहता है वह तो कोई तर्क समझने को तैयार नहीं,जबकि मस्तिष्क उसे पुनः पुनः अपनी बात पर विचार करने को कहता है।ईश्वर ने केवल मनुष्य को ही मन-मस्तिष्क में उठते दोहरे विचारों में संतुलन रखने की शक्ति दी है...जो अपनी भावनाओं को संतुलित कर उन पर विजय पा सके, वही सच्चे अर्थों में जितेन्द्रिय मनुष्य है। बड़ी ही सरलता से अपनी बात रखी है शिव मोहन जी ने।विजयी होने के लिए बहुत बधाई आपको हार्दिक शुभकामनाएँ !!


3. अंशी कमल --- 'ग़ज़ल '---!
दुविधा में हैं अंशी कमल जी..मन और मस्तिष्क में किसकी सुनें यही निर्णय नहीं कर पा रही...ग़ज़ल के द्वारा अपने मन के भाव व्यक्त कर रही हैं... मन और मस्तिष्क में किसकी सुनूँ किसकी नहीं यही निर्णय नहीं कर पा रही..बुद्धि से काम लें तो कई बार मन को पछताना भी पड़ता है,पर हर बार मन सही ही हो ये भी जरूरी नहीं।इसलिए मन और बुद्धि में संतुलन बना कर रखा जाए,यानी समझदारी से काम लिया जाए तो शत्रु भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।मन और मस्तिष्क के द्वारा धैर्यपूर्वक विचार करके कठिन से कठिन कार्य में भी सफलता प्राप्त की जा सकती है।अतः केवल भावनाओं में न बहें अपितु किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले उस पर मनन अवश्य करें।सही कहा अंशी जी ।ग़ज़ल के द्वारा चित्र को चरितार्थ करने की एक अच्छी कोशिश।हार्दिक शुभकामनाएँ !!


4. प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी ---- 'मन मस्तिष्क में '--- ! (प्रोत्साहन हेतु)
अपनी प्रस्तुति ...मन मस्तिष्क में...प्रतिबिम्ब जी का कहना है कि मन तो मस्तिष्क से ही जुड़ा है वह मस्तिष्क में ही अन्तर्निहित है।किसी भी निर्णय तक पहुँचने के लिए दोनों परस्पर तर्क-वितर्क करते हैं। जीवन में समय के साथ-साथ परिस्थितियाँ भी बदलती रहती हैं, अतः सुख-दुःख,अनुकूल-प्रतिकूल समय में उन परिस्थितियों का सामना कैसे किया जाए... उस उचित निर्णय तक पहुँचने के लिए मन और बुद्धि में विचार - विमर्श चलता रहता है...यही समय है जब मनुष्य परिस्थितियों का दास बन कर हौसला हार जाता है या प्रतिकूल परिस्थिति में भी विवेक से काम ले अपनी कमज़ोरियों पर विजय प्राप्त कर लेता है। इसी चित्त और चेतना में विचार उपजते भी हैं और यहीं विलय भी होते हैं और कभी समझौते के रूप में निकल कर सामने आते हैं।कहने का तात्पर्य यह है कि यहीं प्रश्न बनते हैं तो उनका समाधान भी हमें यहीं मिलता है।अतः मन और मस्तिष्क को एक-दूसरे से पृथक करके नहीं देखा जा सकता ये दोनों तो एक-दूसरे के पूरक ही हैं।
अनुपम प्रस्तुति प्रतिबिम्ब जी।आपकी अभिव्यक्ति के साथ मैं न्याय कर सकी या नहीं...आप ही तय करेंगे।प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुति देने के लिए हृदय से आभार...साधुवाद !


5.अलका गुप्ता 'भारती'--- मन मस्तिष्क (कल पुर्ज़ा हुआ) ---!
अलका जी ने 'मन मस्तिष्क(कल पुर्ज़ा हुआ)' में अपनी भावनाओं को मुक्तक के रूप में प्रस्तुत किया है... वे कहती हैं....मन की क्या कहें,आजकल तो मस्तिष्क का ही बोलबाला है,हर काम तकनीक से होता है...उसके लिए तो मस्तिष्क से ही काम लिया जाता है,तो वहाँ मन की कोमल भावनाओं की जगह कहाँ।या यौं समझ लीजिए कि आज युग का मशीनीकरण हो गया है।संस्कार और सरलता सब पीछे छूट गए हैं ,भौतिक जगत में सभी कुछ तो छिन्न-भिन्न हो रहा है। इसे बनाए रखने के लिए मनुष्य को ही प्रयास करना होगा।सच ही है अलका जी इस तकनीकी युग में मन की कहाँ चलती है...।सर्वथा भिन्न भावाभिव्यक्ति। कोशिश की है आपके शब्दों को समझने की,आंशिक रूप से भी यदि आपके मन तक पहुँची हूँ तो बताइएगा। हार्दिक शुभकामनाएँ!


6.किरण श्रीवास्तव--- मन मस्तिष्क (द्वंद्व) हाइकु विधा ---!
किरण जी ने हाइकु विधा में अपने विचार रखे हैं,कहती हैं कि मन और मस्तिष्क एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,दोनों ही बराबर विचार-विमर्श करते हैं।हाँ मन थोड़ा भावनाओं में बहने लगता है,लेकिन मस्तिष्क उचित-अनुचित में भेद स्पष्ट कर भावनाओं पर नियंत्रण रखता है। कहने का तात्पर्य है कि मन और मस्तिष्क के बीच संतुलन बनाकर चलने से ही हम किसी महत्वपूर्ण निर्णय तक पहुँच सकते हैं।
हाइकु विधा में अपनी बात को स्पष्ट करना और पाठक के लिए उसे पूरी तरह से समझ पाना दोनों ही मुश्किल काम हैं।मैंने रचयिता के मन तक पहुँचने का प्रयास तो किया है...मगर कितना ये आप ही बताएँगी किरण जी... हार्दिक शुभकामनाएँ।


7.प्रभा मित्तल--'मन-मेधा'--! (मेरी ये रचना प्रतियोगिता के लिए नहीं है।)
मैंने अपनी रचना 'मन-मेधा' में....कठिन विषय 'मन-मस्तिष्क' को साधारण से शब्दों में उतारने का प्रयास किया है... जीवन के कठिन रास्तों पर चलते समय मन और मस्तिष्क में बराबर द्वंद्व चलता रहता है। कहाँ रुकें कहाँ मुड़ें ये तय करना जब कठिन हो जाता है तो मस्तिष्क ही हमें राह दिखाता है।मैं ऐसा समझती हूँ कि भावुक हृदय हमें सही-ग़लत का भेद नहीं समझा पाता,अतः किसी भी निर्णय तक पहुँचने के लिए मन की भावनाओं और मस्तिष्क के तर्क में सामंजस्य और ठहराव जरूरी होता है।
आप सभी प्रतिभागियों ने अपनी रचनाओं में दिए गए चित्र को अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार व्यक्त करने का पूरा प्रयास किया है... सभी के लिए बधाई व हार्दिक शुभकामनाएँ।
निर्णायक मंडल के सभी सम्माननीय सहयोगी गुणीजनों का हार्दिक धन्यवाद, आभार।प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुति के लिए प्रिय प्रतिबिम्ब जी का हृदय से आभार व साधुवाद।आप सभी अपना मार्गदर्शन व सहयोग बनाए रखिएगा।
सस्नेह शुभकामनाएँ !
प्रभा मित्तल.

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Wednesday, March 2, 2022

तकब 03 - रचनाएँ, परिणाम व समीक्षा





इस प्रतियोगिता की विजेता हैं सुश्री अंजना कंडवाल



प्रतीक्षा
(प्रोत्साहन हेतु)
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल


मौसम और प्रकृति की गोद में 
मन मेरा अब, इतराने लगा है 
चाह के संग चाहत के फूल
आसमां सी उंचाई छू महकने लगे हैं 
न जाने किस किस कोने से निकल
बीते पल और अगनित बीते बातें 
तेरे अहसास से लिपट कर
'प्रतिबिम्ब' को गुदगुदाने लगी हैं 

मन, मयूर सा फिर नाच रहा है 
शायद कोई गीत पुराना गा रहा है 
थिरक रहे रोम - रोम तन के
मन मेरा फिर तुझे ही बुला रहा है 

तुमसे दूर होना, अकेला होना
कभी मुझे अच्छा लगा है?
इन खाली पड़ी कुर्सियों को और मुझे
तुम्हारी ही प्रतीक्षा है, प्रतीक्षा है.

टिप्पणी:  प्रकृति से प्रेम ओर अपने प्रेम से प्रेम - इन खाली कुर्सियों को देख बस प्रेम रंग अंगडाई लेने लगा ... यूं ही शब्द भाव जुड गए.


मन-मयूरा
विष्णु पद छंद में
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार

नभ में छाए बदरा कारे,,,,,,,,,बुँदिया बरसेगी |
छनन छनन छन गिरती बुँदिया,धरती सरसेगी ||

नभ में इंद्रधनुष जब छाए,,,,,,हर्षित मन -मोरा |
लुक छिप जाए नील गगन में,,,छाए घनघोरा ||

सूनापन जब लगता घर में,,,,,,,मन-मयूर नाचे |
प्रकृति सुहानी देख अनोखी,,,,मुग्धा बन जाते ||

जीवन की एकरसता में सब,,,मन ठहरा रहता|
नव बसंत की आशा में तब,,,मन चंचल लगता ||

जीवन और प्रकृति समरस हैं,,परिवर्तन चाहे |
मन की “वीणा “गीत सुनाए,मन-मयूरा थिरके ||

टिप्पणी: प्रकृति व जीवन में समरसता होती है,,,मौसम के कई रूप जीवन के ही स्वरूप है जब जीवन में सुख की बारिश,,तथा नव बसंत जैसा हर्ष उल्लास छा जाता है तब मन का मयूर मदमस्त हो थिरकने लगता है,,साथ में एकरस जीवन भी मानव प्रकृति में आनंद खोजता है,,,बस इन्हीं सब भावों को छंद में पिरोने का प्रयास किया है,, जयहिंद जय श्री राम


प्यासा मन का मयूर
शिव मोहन


ये चारों ओर कुहांसा है,
मन का मयूर अब प्यासा है।
ये सागर भी एकाकी है ,
पर्वत भी राह जोटाता है।

तुम आ जाओ मेरे पास प्रिये,
ये मन मयूर की आशा है।
कुछ बात करें बीते पल की ,
कुछ विचरण हो अपने पल का।

ठहरे ना रहो तुम पर्वत से ,
मिलना तो अब सागर सा है।
कुछ दूर हमारे साथ चलो ,
हम सारी कहानी कह देंगे।

तुम समझ ना पाये आँखों से ,
अब दिल का हाल सुहासा है।
आकर बैठो मेरे पास प्रिये,
ये मौसम भी रूमानी है।

दिले हाल सुने एक दूजे का ,
अब जीवन यही जरा सा है।
अब सात रहो सातों जन्मों ,
ईश्वर से की अभिलाषा है।

ये चारों ओर कुहांसा है
मन का मयूर अब प्यासा है।

टिप्पणी: शान्त सागर और शान्त खड़े पर्वत और किनारे पे रखी दो कुर्सियाँ खुद व खुद प्रियतम को अपने पास बुलाने और कुछ समय बिताने पर कुछ लिखने को प्रेरित करते हैं।


पीड़ भरा मन मयूर मेरा
नैनी ग्रोवर


मरुथल की जलती रेत पर,
छाँव की तलाश में,
भटकना चाहता है,
पीड़ भरा मन मयूर मेरा....
गगन में शाम ढले,
थक कर सो जाने की आस में,
डूबते सूरज की भांति,
डूब जाना चाहता है,
पीड़ भरा मन मयूर मेरा...
पपड़ी से सूखे होठों को,
आसुओं से भिगो के,
लेके नाम तेरा,
पुकारना चाहता है तुझे,
पीड़ भरा मन मयूर मेरा...
होके दीवाना,
दर-बदर खाते हुए ठोकरें,
ढूंढना चाहता है तेरे वादों को,
पीड़ भरा मन मयूर मेरा...

टिप्पणी : अधिक कुछ सोचा नहीं, बस हाज़िरी लगा रहीं हूँ..!


स्मृति नर्तन मनमयूर संग
आभा अजय अग्रवाल

मन अंबुद की रेती पर -
यूं ही रख छोड़ी हैं ; दो कुर्सियाँ
रिक्त ?
नहीं !
रिक्त प्रतीति वाली:
स्मृतियों के बादल
बैठे हैं पलोथी मार इनपे -
चंदा-चंदनियाँ झुटपुटी साँझ -
व्यतीत पलों के स्मृति पयोधर !
शब्दसागर की उछलती उच्श्रिंख़ल -
तरंगों का , मौन अभिसार !
बादल बरसे या न बरसे
मनमयूर पीहू-पीहू गुनगुनाता तो है !
देख भानु को सागर अंक समाते
छप-छपाक-छिपती सिमटती
छाया कुर्सियों की
रोकती है यादों की पलोथी को
कि ,न खोलना तुम पद बंधन
कि , इस छाया में -
नख व्रीड़ा उत्कीर्ण है आज भी
कि , है साक्षी !रेती का हर कण
हृदयों में लिखे सगुनाक्षर का ,
कि ,संकोच की सिंदूरी आभा से -
हुए जाते है ,ललाम कपोल ,उष्ण कर्ण
झंकृत !हृदय वीणा के तार आज भी :
बस !
मन अंबुद की रेती पर -
यूं ही रख छोड़ी हैं ; दो कुर्सियाँ
रिक्त ?
ना “
कि , सनद रहें वो पल ;
बतियाते थे हम —-
जायेंगे मानसरोवर तो >
झील किनारे !
शिव से बतियायेंगे ॐ*
यूं ही कुर्सी डाल के ॐॐ

टिप्पणी: विगत की अनमोल स्मृतियों के पयोधरऔर उनपे नर्तन करता मन मयूर ,यही है जीवन का हासिल 


मन से मन का संवाद
( प्रोत्साहन के लिए )
मदन मोहन थपलियाल


( प्रयास है कुछ साझा कर पाऊं। सीखने की ललक ही हमें अपने मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाती है। रचनाकार स्वतंत्र है, मन के उद्गारों को उद्धृत करने के लिए। यहां विषय जरा हटकर है, चित्र पर भाव प्रकट करना, जो सरल भी है और कठिन भी। बहुत मुश्किल होता है किसी रचना को रचनाकार की भावनाओं से आंकना, फिर भी इस पाठशाला में बहुत कुछ सीखने और समझने को मिलता है। सभी तटस्थ होकर लिखें। मैं आपके माध्यम से अपनी लिखी रचना पर आपकी स्वतंत्र टिप्पणी को आमंत्रित [स्वतंत्र आह्वान] करता हूं, जहां श्रेय आपका होगा और शब्द मेरे। साथ ही आ. प्रतिबिंब जी से आज्ञा चाहता हूं कि निर्णायक को भी समझने का अवसर सभी रचनाकारों को मिले, कल की वार्ता में एक पुरानी बात निकलकर सामने आई, कि कहीं किसी को कोई बात आघात न पहुंचाए, इसलिए निर्णायक होने के नाते मैं खुद यह दायित्व अपने ऊपर लेता हूं। हर कमी को बताने के लिए आप पूर्ण स्वतंत्र हैं। हिंदी साहित्य का सही मान सम्मान हो, यही हम सबका उद्देश्य होना चाहिए। )

मन से कह दो, मन की सुन लो-
कहो मन से मन की बात ,
नाच उठे मन मयूर, मन से हो जब मन का संवाद।

क्षुद्र भाव न पालो मन में, अकिंचित् न करो-
विध्वंस की बात -
मन ही मंदिर, मन पुजारी, अखंड देश की हो बात-
उदय हुआ रवि पूरब में, खत्म हुई तमस भरी रात,
न मन हो जाओ, सुनो न मन की, हो मन से मन का- संवाद।

गहन निशा में चमकते उडगण, चांदनी से करते बात-
अंधकार ही पथप्रदर्शक,
नाचते व्योम पथ में मयूर सम, मन में न कोई अवसाद,
शून्य हो जाओ तन, मन से, शून्य से हो संवाद।

न हो मन विचलित अकांड - ताण्डव से-
एक थे, एक हैं सब, मानव हमारी जात
भीजे तन - मन समस्त भुवन का, ऐसी हो स्नेह वरसात,
मन मयूर थिरके हर धड़कन में, ऐसा हो संवाद।

आकर्षण हो दीप का,न हो मृत्यु किसी शलभ की-
क्षितिज के पार तक बहे बयार , बने प्रेम की सौगात-
न टूटे हिय किसी का, न हो सशंक की कोई बात -
समशंकु सा हो जीवन, मन से हो मन का संवाद !

टिप्पणी: मन की पवित्रता ही मानव को मानव बनाती है नहीं तो मानव अन्य जीवों की तरह व्यवहार करता है। न मन होना ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है।


मन मयूर नाचे
अलका गुप्ता 'भारती'

स्वप्न सुहाने ..अंतर वाँचे।
होय मगन मन मयूर नाचे॥
थपक घरौंदे नवल सहेजे।
बड़े झमेले अटकल भेजे।
सकल चातुरी बुद्धि झकोरे,
ढहते प्रयास अनेक सांचे ॥
आकृष्ट किये दृश्य मनोहर,
लोभ लालसा ..माया भर ।
उलझे उलझे प्रश्न फँसाते,
मृग कस्तूरी भरे कुलांचे॥
अंतर्व्यथा से खींच पाँखें,
तोड़ हताशा दुर्बल शाखें।
एकांत किरण आशा झाँके।
पाप पुण्य का घेरा जाँचे॥
तम आँके ..बेचैन कुहासे,
आशंकित ..सर्पों के डासे।
हैं ईश्वर के .. नृत्य इशारे।
प्रकृति सदा अविभूत स्वराचे॥

टिप्पणी: जब स्वप्न साकार होते प्रतीत होते हैं तब ही अंतर्मन अविभूत हो कर मयूर की भांति नृत्य करने लगता है और इसी उपरान्त प्रकृति और स्वयं के द्वारा अनेक क्रिया प्रतिक्रिया होती हैं


एक बार फिर
किरण श्रीवास्तव


एहसासों में कमी
आंखों में नमी ,
बढ़ती ख्वाहिशें
भागती जिंदगी पर
थोड़ा अंकुश लगाते हैं,
चलो एक बार फिर मुस्कुराते हैं..!
इन वादियों में बैठकर
कुछ तुम्हारी सुनते हैं
कुछ अपनी सुनाते हैं
पुरानी यादों में खोकर
गीत खुशी के गाते हैं
चलो एक बार फिर मुस्कुराते हैं..!!
कभी तुम्हारे प्यार के
बारिश में भीग
नाचने लगता था
मन मयूर..
आज फिर उसी पल को
दोहराते हैं ,
चलो एक बार फिर मुस्कुराते हैं ....!!!

टिप्पणी: आज के दौर में आगे बढ़ने का होड़ है लोग भाग रहे हैं! लोगों में प्यार तो है पर एक दूसरे के लिए टाइम का अभाव है! इन खाली कुर्सियों को देख यही भाव मन में आया....!


मोरा मन मयूर
मीता चक्रवर्ती

रिमझिम रिमझिम जब बदरा बरसे
बूंदों सा खिल के मनवा हरसे
ऐसे मौसम में पिया मिलन को
व्याकुल मोरा मन मयूरा तरसे
ओस में भीगी भीगी सी पुर्वैया
धूप कच्ची सी , शीतल छैया
होकर के मस्त मगन झूमे गाए
मन मयूरा मोरा, आज बन के गवैया
मिट्टी की सौंधी सी सुगंध जब आए
फूल फूल पर भंवरे सब गाए
नाचे मोरा मन मयूरा तब झूम के
इंद्रधनुषी सप्त रंग छा जाए

टिप्पणी: मौसम का असर हमारे मन मयूर पर किस तरह से पड़ता है यही बात मैंने अपनी कविता के माध्यम से कहना चाहा है ।


मन मयूर
अंजना कंडवाल


सुवासित बहती मन्द पवन
क्षितिज पर मिलते धरा गगन
नीले अम्बर के आँचल में
खेल रहे हैं मेघ सघन

और तलहटी में करती कल-कल
एक नदी की धारा निर्मल
रवि किरणे अठखेली करती
बहती रहती है अविरल।

नदी तट पर आसन्द लगाये
ऋतु बसन्त भी तुझे बुलाये,
मन मयूर देखो नाच उठा है।
कोकिल मिठें राग सुनाये।


टिप्पणी:- आज प्रथम बार शामिल हो रही हूँ, समयाभाव के कारण हाज़री मात्र है।

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परिणाम
तकब 3/22,
प्रिय मित्रों नमस्कार !
मौसम बदल रहा है,सर्दी जा रही है,महामारी का आतंक भी लगभग कम हो गया है,अतः वातावरण खुशनुमा होने लगा है। बदलते मौसम में प्रकृति हमें अपने रूप दिखाकर लुभाती रही है। आखिर मनुष्य का मन और उसका सोच-विचार भी तो इसी से जुड़ा है।प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता हमारे मन और मानवीय व्यवहार को तय करती है।तकब 3/22 का चित्र "मन मयूर" भी प्रकृति के साथ जुड़कर हमारे मन के सुप्त भावों को जगाने आया। इस पर आप सभी प्रतिभागियों ने अपने मनोभावों को यथाशक्ति अभिव्यक्त भी किया।हमें कुल दस रचनाएँ प्राप्त हुईं,जिनमें से तीन प्रोत्साहन स्वरूप निर्णायक मण्डल से आई हैं।निर्णायकों से कुल सात प्रतिभागियों में प्रथम व द्वितीय स्थान के लिए मिले वोट इस प्रकार हैं.........
प्रथम स्थान के लिए मिले वोट.......
1.अंजना कंडवाल....2
2.अलका गुप्ता 'भारती'.....1
3.ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार....1
4.शिव मोहन.......1
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द्वितीय स्थान के लिए मिले वोट......
1.अंजना कंडवाल....1
2.अलका गुप्ता 'भारती'....1
3.किरण श्रीवास्तव....1
4.नैनी ग्रोवर....1
5.मीता चक्रवर्ती....1
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वोटों की संख्या के आधार पर तीन वोट लेकर सुश्री अंजना कंडवाल अपनी उत्कृष्ट रचना 'तस्वीर क्या बोले' की प्रस्तुति देकर प्रथम स्थान प्राप्त कर.....विजयी हुईं।मेरे व निर्णायक मंडल की ओर से अंजना कंडवाल जी को हृदय से बधाई व अनन्त शुभकामनाएँ !!


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समीक्षा
प्रस्तुति – प्रभा मित्तल
तकब 3/22 की सभी रचनाओं की समीक्षा सुश्री किरण श्रीवास्तव कर रही हैं। मैं उनका हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ एवम् उनके इस सुन्दर सहयोग के लिए आभार प्रकट करती हूँ। तो लीजिए आपके समक्ष आप सभी की रचनाओं की समीक्षा लेकर उपस्थित हैं.....
समीक्षक.........किरण श्रीवास्तव
आप सभी प्रतिभागियों और तकब समूह के सम्मानित सदस्यों को मेरा प्यार भरा नमस्कार  
यहाँ सभी प्रतिभागी एक से बढ़कर एक हैं। रचनाओं की समीक्षा करना मेरे लिए तो बहुत मुश्किल है! पता नहीं मैं न्याय कर पाऊंगी कि नहीं मैं अपने आपको इस काबिल नहीं मानती, पर कोशिश कर रही हूँ, और त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ!  
हमारे माननीय 'प्रतिबिंब बड़थ्वाल' जी जो इस समूह के सृजन कर्ता हैं,जिनके प्रोत्साहन और इस समूह के जरिये अलग-अलग रचनाकारों की रचनाओं को पढ़ने और उनसे कुछ सीखने का अवसर मिलता है ,और आगे भी मिलता रहे इसी उम्मीद के साथ,उन्हें पुनः पुनः धन्यवाद  

सर्वप्रथम प्रथम स्थान प्राप्त कर विजेता बनी, अंजना कण्डवाल जी.....
इनकी रचना का शीर्षक है "तस्वीर क्या बोले" बड़े ही सुंदर शब्दों से अलंकृत है इनकी रचना..लिखती हैं-प्रकृति का इतना मनोरम दृश्य सुगंधित समीर ,कल-कल करती नदियां, बादलों का लुकाछिपी ,कोयल का गान, मंद बयार ... किरणों की अठखेलियां , नदी तट पर आसन लगाकर मानो तुम्हें बुला रही हो, और इस एहसास से ही मन मयूर प्रफुल्लित हो नाच उठा है ... वाकई तस्वीर यही बोल रही है! इस उम्दा रचना के सृजन के लिए हार्दिक बधाई आपको!

पहली रचना प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी की है, शीर्षक है, "प्रतीक्षा "(प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुति)
मन की गति अति तीव्र होती है! प्रकृति का मनमोहक रोमांचक दृश्य हो ,साथी साथ न हो, तो अहसासों को उद्वेलित करने वाली अतीत की अनगिनत बातें, मन को गुदगुदाती है, साथी की कमी महसूस होती है ,मन कल्पनाओं में डूब जाता है, प्यार भरे क्षण याद आतें है तो मन मयूर नाचने लगता है, उस समय खाली कुर्सियों की तरह मन का खालीपन तनिक भी नहीं भाता है....| इस सुंदर प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई आपको और धन्यवाद !

दूसरी रचना है "मन मयूरा"हमारी ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार जी की। इन्होंने विष्णु पद छंद में,,,,चित्र पर सुन्दर प्रस्तुति दी है जो हमेशा की तरह लाजवाब है ! ये लिखती हैं-
प्रकृति व जीवन में समरसता होती है...मौसम के कई रूप जीवन के स्वरूप है ,जब जीवन में सुख की बारिश..तथा नव बसंत जैसा हर्ष उल्लास छा जाता है तब मन मयूर मदमस्त हो थिरकने लगता है..साथ में एकरस जीवन भी मानव प्रकृति में आनंद खोजता है,....!

तीसरी रचना है शिव मोहन जी की रचना -- "प्यासा मन मयूर "--
लिखते हैं -शान्त सागर और शान्त खड़े पर्वत और दो खाली कुर्सियां खुद व खुद प्रियतम को अपने पास बुलाने और मान मनुहार को आतुर हैं गलतफहमियों का कुहासे ने प्रेम रूपी बादल को ढ़क दिया है बारिश की बाट जोहने के कारण मन मयूर प्यासा है.....! बहुत सुन्दर रचना आपकी....

अगले पड़ाव पर हैं 'नैनी ग्रोवर' जी... 'शीर्षक है"पीड़ा भरा मन मयूर" ये लिखती हैं-मानव अपनी जीवन यात्रा में विभिन्न अवस्थाओं को जीने के बाद परमात्मा से मिलन की चाह रखता है ,और उसमें एकाकार हो जाना चाहता है...!शीर्षक के अनुरूप रचना में पीडा़ का एहसास....सुंदर अभिव्यक्ति आपकी 

अगले पायदान पर है आदरणीया आभा अजय अग्रवाल जी (प्रोत्साहन हेतु) "स्मृति नर्तन मन मयूर संग" में लिखती हैं- रिक्त दिखने वाली कुर्सियां रिक्त नहीं हैं, उस पर स्मृतियों के बादल उमड़- घुमड़ कर मानस पटल पर अंकित उन सभी यादगार पलों को तरोताजा कर रही हैं ... व्यतीत पलों की स्मृतियाँ शब्द सागर की उछलती तरंगों का मौन अभिसार मन को गुदगुदाती हैं, बादल बरसे या न बरसे मन मयूर पीहू- पीहू गुनगुनाता तो है.... ह्रदय वीणा के तार झंकृत हैं, आज भी...खाली कुर्सियां प्रमाण है उन पलों का।.......इस सुंदर सोच और सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार  


अगली रचना है 'मदन मोहन थपलियाल' जी की (प्रोत्साहन हेतु) शीर्षक है "मन से मन का संवाद "लिखतें हैं-
मन से कह दो ,
मन की सुन लो -
कहो मन से
मन की बात ,
नाच उठे मन मयूर ,
मन से हो जब मन का संवाद !
क्या बात कही है हमारी आंतरिक सोच और खुद से वाद-विवाद और अंतर्द्वन्द के बाद का निर्णय वाकई मन को प्रफुल्लित कर देता है! मन मंदिर के समान है ,मन कभी गलत हो ही नहीं सकता ! जब भी हम झूठ बोल रहे होते हैं और उसको सत्य साबित करने के लिए साम ,दाम ,दंड, भेद ,सब इस्तेमाल करते हैं,तब हमारी अंतरात्मा आहत होती है क्योंकि वह सिर्फ सत्य और सत्य जानती है..इसलिए हम गलत बोलकर गलत सोचकर वातावरण के साथ साथ अंतरात्मा को भी दूषित करतें हैं, इसलिए जो भी बोलें सोच समझ कर बोलें ,सही बोलें, सार्थक बोलें ! हम सब एक ही ईश्वर की संतान हैं! धर्म जाति के नाम पर द्वन्द्व न करें! मन की पवित्रता ही मानव को मानव बनाती है! इसलिए बात हो तो एकता और अखंडता की बात हो, प्रेम और सद्भावना की बात हो,मन को इतना मजबूत बनाओ की छोटी-छोटी मुश्किलों से विचलित ना हो पूरी मानव जाति एक हो सब का दुःख-सुख एक हो प्रेम की बरसात चहुँ ओर होती रहे और मन मयूर नाचता रहे..! सार्थक ,संदेश देती इस सुंदर ,रचना के लिए हार्दिक बधाई !और धन्यवाद  

अगली रचना है हमारी प्यारी अलका गुप्ता 'भारती' जी की "मन मयूर नाचे" के अंतर्गत यह लिखती है -मनुष्य लोभ लालसा...माया में घिरा रहता है, और अपनी चाहतों को पूरा करने के लिए दर-दर भटकता है, जैसे मृग कस्तूरी की खोज में जंगल- जंगल भटकता है जब स्वप्न साकार होते प्रतीत होते हैं तब ही अंतर्मन अभिभूत हो कर मयूर की भांति नृत्य करने लगता है और इसी उपरान्त प्रकृति और स्वयं के द्वारा अनेक क्रिया प्रतिक्रिया होती हैं सही कहा बहुत ही सुंदर रचना आपकी.बहुत - बधाई एवं शुभकामनाएं आपको। 

आगे मैं किरण श्रीवास्तव इस बार तस्वीर पर आधारित मेरी रचना "एक बार फिर" में मेरा सोचना है कि पहले लोग छोटी-छोटी खुशियों में भी बड़ी खुशियां ढूंढ लेते थे लोग एक दूसरे के लिए साथ ज्यादा समय बिताते थे ...आज लोग भौतिकता की चकाचौंध ,दिखावे में ज्यादा खुश होते हैं । प्यार होते हुए भी लोग समयाभाव का रोना रोते हैं.....।

आगे हैं मीता चक्रवर्ती जी तस्वीर पर आधारित इनकी रचना "मोरा मन मयूर" में लिखती हैं -
जब मौसम खुशगवार होता है तब इसका असर बेशक हमारे दिल दिमाग पर पड़ता है। इंद्रधनुषी ख्वाब हमारे तन-मन को मदमस्त कर देता है और मन मयूर झूम उठता है ! बहुत उम्दा लिखती हैं..लिखते रहिये बहुत-बहुत बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं आपको !

समीक्षिका
किरण श्रीवास्तव


सुन्दर व सार्थक समीक्षा के लिए हार्दिक धन्यवाद किरण श्रीवास्तव जी....आपके सहयोग की आभारी हूँ।आपको बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनाएँ।

मेरा सभी सदस्यों से आग्रह है...अधिक से अधिक रचनाकार इसमें हिस्सा लेकर समूह को गतिमान रखें।बेहतरीन प्रयास और सुन्दर रचनाओं द्वारा समूह में प्रस्तुति देने के लिए मैं सभी प्रतिभागियों को धन्यवाद और बधाई देती हूँ।
निर्णायक मण्डल के सभी सहयोगी गुणीजनों का हृदय से धन्यवाद... आभार।प्रोत्साहन के लिए प्रस्तुति हेतू प्रिय प्रतिबिम्ब जी,श्री मदन मोहन थपलियाल 'शैल' जी, व सुश्री आभा जी का हृदय से आभार !!

सस्नेह शुभकामनाएँ !
प्रभा मित्तल
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