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७ अंतिम तिथि २२ जनवरी २०१८ है।
शुभम
बालकृष्ण डी ध्यानी ..
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बदल रहा है
बदल रहा है ऐ पल
पल पल आज और कल
कोहरा है धुंध है या...वो
प्रदूषण का बढ़ता असर
असर डला रहा है वो
हम पर अब रह रहकर
अब भी बेफिक्र है आंगतुक
जा रहा है वो किधर
किधर है पर्यावरण
और किधर को चले हम
ना समझ है हम अब भी
जो अकेले पड़े हम
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
हाइकु विधा ( तांका ) में चित्र अभिव्यक्ति,,,,इसमें पाँच पँक्ति होती हैं,,हाइकु में ही 77 वर्ण तुकान्त के साथ बढ़ जाते हैं,,,
चित्र अभिव्यक्ति
" शीत लहर"
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शीत ने छीना
खुशी चैन- पत्तों की
उदास तरु
हरियाली खोकर
किया है पतझर //
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वृक्ष सहमे
कोहरे का कहर
जीवन हुआ
ठहरा ठहरा सा
छाई बर्फ-चादर //
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शीत लहर
छा गया है कहर
हर प्रहर
वृक्ष हरे पत्तों में
काँपते थर-थर //
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बलदाऊ गोस्वामी
हम जिससे प्रेम करते हैं
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प्रेम का अटूट रिश्ता
होता है पूजनीय
अगर इसमें अंधविश्वास
किया जाय
तो हम जिससे प्रेम करते हैं
वह उपयोग की चीज बनकर
रह जाती है
और फिर परिणाम
भयंकर खतरनाक होता है |
अक्सर सोचता हूँ
वर्षों पहले
जिस पेड़ से
जिस नदी से
प्रेम के अटूट रिश्ते खातिर
बनाऐ जिसे पूजनीय हम
और अपनी संस्कृती बताये
क्या आज
उस रिश्ता में
अंधविश्वास करने का परिणाम
बंजर भूमी है |
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किरण श्रीवास्तव
"ऋतु परिवर्तन"
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धुंध विकराल ,
प्रकृति बेहाल!
क्षीण हरियाली है,
शीतलहर मतवाली है।
राहें वीरान ,
व्यथित इंसान !
मन में विश्वास है,
धुंध छटने की आस है ।
दिल में उल्लास .
नव ऋतु आगाज !
मनज मद मस्त है,
आने वाला जो बसन्त है।
टिप्पणी-- प्रकृति परिवर्तन शील है। माघ मास की शीत लहर से पूरी प्रकृति बेहाल हो जाती है ।पेड़ो के पत्ते गिर जातें है । मानव जीवन शैली भी प्रभावित हो जाती है। पर बसन्त आगमन मन को ऊष्मा प्रदान करता है।
Prerna Mittal
|| मनोदशा||
मौसम के साथ-साथ जूझ रहा हृदय
क्या मौसम दिल का दर्पण है?
कभी खिल उठा धूप की तरह
चहकता, दिन रात गुनगुनाता
सुकून से बाँहो में भरता ज़िंदगी को
तो कभी मुरझा गया विषाद से
यह कैसा कोहरा सा छा रहा ?
खोया हुआ सा, अंधा-बहरा सा उदासीन
ज़िन्दगी से उखड़ा-उखड़ा सा।
पल-पल में रंग बदल लेता है।
रोशनी थी अभी, अभी बादल लहराया काला
घर की बत्ती जलानी पड़ेगी शायद ?
घबराहट सी, अंधेरा है कुछ हो न जाए!
बिजली कौंधने लगी क्रोधित
भय-मृत्यु क्या-क्या लाएगी?
एक पागल विचार की तरह अचानक
क्या ये दिल संभल पाएगा?
अरे! बारिश, एक शीतल हवा का झोंका
एक उलझन, पानी, जिंदगी, रोमांस
एक दुविधा, एक संघर्ष, कैसी अनुभूति
कौन जीतेगा ?
समझौता हो गया, बर्फ गिरने लगी
एक खालीपन या एकांत,
नहीं, एक अपनापन कहीं गर्म रज़ाई में
अच्छा लग रहा है।
फिर एक तूफान
समुद्र की लहरें सीमाएँ तोड़तीं
दिल में उमड़ते भाव, कैसी भ्रांति,
सुनामी या सैलाब
प्रकृति बाहर या अंदर
बात एक ही है।
टिप्पणी: बाहर का मौसम मनोदशा पर बहुत प्रभाव डालता है और कभी हम अपनी मनोदशा के अनुसार मौसम की व्याख्या करते हैं। जैसे "आज मौसम ही ऐसा है कि बहुत आलस्य आ रहा है" ☺
मीनाक्षी कपूर मीनू
आज फिर
****
आज फिर ....
अचानक
मन भर आया
चली फिर
तुम संग
बन हरियाली छाया
हाँ.... तुम ही तो हो
जो वर्षों से मुझे
देते आये संबल
कभी अपनी काया से
कभी मीठी छाया से
अपने आगोश में
छुपा के ...
पोंछ मेरे आंसू
अपनी आर्द्रता से
मेरे सूखे मन को
हल्के से सहला देते
और.. और.. मैं...
सुबक उठती
तुम्हारी हरित कांति में
फिर ..फिर..
तुम धुंध की गहरी चादर में
मानो ... छुपा देते मुझे
प्रकृति की गोद में
तत्पश्चात ....
प्रकृति की कोख से
पुनर्जीवित सी ' मैं '
' मनस्वी ' ....
खिल उठती
नवजीवन पा
दुआ को उठते
हाथ ज्यूँ
मुस्कुराने लगते
पात यूँ....
टिप्पणी .... आज के वातावरण में मानव मन और तन शिथिल हो चुका है और प्रकृति से विमुख भी ... फिर भी जब मानव मन भीड में भी अकेलापन महसूस करता है तो प्रकृति माँ बन उसे अपने आगोश में छुपा कर उसको शीतलता देकर उसके अंदर एक नई ऊर्जा भर कर नवजीवन प्रदान करती है ।
Madan Mohan Thapliyal
आवर्तन
🔮🔮🔮
क्या कहूं
कुहासा या धुंध
आलौकिक है
आर्जव है, आमंत्रण है
आरंभ है जीवन का
मेरी मनस्थिति की तरह
धुंधला और
आद्रता से भरपूर
पार देखना
सरल भी नहीं
अघोषित स्वप्न की तरह
कभी आल्हाद, कभी आर्तनाद
आरस पर आरूढ़
रवि किरणों पर टिका भविष्य
कब अंतर्धान हो जाएगा
आसा और निराशा का संगम
यही दस्तूर है
नियति भी यही
इसी उधेड़बुन में कट जाती है
एक उम्र
कब उदय हुआ, कब अस्त
गहराया था पलभर के लिए
मेरी कहानी मुझे ही सुना गया
डॉली अग्रवाल
कोहरा
लबादा ओढे ओस का
निमंत्रण देता भोर को
रात की कालिमा विसरित करता
अपने होने का एहसास दिलाता
सहला देता मेरे ख्वाबो को
नई किरणों की आस लिए
नयी राहो का आयाम खोल
मुझे मजबूती से जकड़े हुए
रूबरू मंज़िलो से कराते हुए
जीवन का संचार लिए
मुझे से मुझे मिलाते हुए
ओस का लबादा ओढे
नैनी ग्रोवर
राह
कुहासे से टुकटुक झांकती है,
पगडंडियों पे गाती जाती है,
यूँ ही पेड़ों से ये लटकती है,
सबके पैरों पे सर पटकती है,
इक अकेली राह...
युगों-युगों तक, खड़ी रहती है,
पर किसी से कुछ ना कहती है,
गुमसुम से इस सर्द मौसम में ये,
जाने किसकी बाट तकती है,
इक अकेली राह...
आ-आ के चले गए मुसाफ़िर,
कोई भी तो ना ठहरा पलभर,
रोज़ अपनी मुट्ठी में सुबह भर,
अपनी ही ओट में आप सिमटती है,
इक अकेली राह....!!
टिपण्णी... लोग कहते हैं राहें चलती हैं, मेरा मानना है के राहें तो वहीं रहती हैं, लोग आते जाते रहते हैं, कोई रुकता नहीं बस गुज़र जाते हैं ।
Ajai आभा अग्रवाल
अंजन रंग रंगी वसुधा
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प्रभाती में निशा का भान
लुप्त हैं आज अरुण के बाण।
फैला कोहरे का केश जाल
भ्रांत है आज सूर्य विशाल।
अश्रु संग बहा आज अंजन
कपोल रंगे धुऐं के रंग।
विस्मित मैं ! यादों के संग
रंगा इंद्रधनुष ,सलेटी रंग।
किरणें खेलें आंखमिचौली
हवा में खुनक बड़ी मतवाली।
जागृत वसुधा यूँ ! स्वप्नीली
ज्यूँ अलसायी दुल्हन नवेली।
आज न ओढ़ूँ , इंगूरी साड़ी
अभ्रक सा धूम्र रंग ; मन भाया।
"पी" के नयनों का आलोक
मद भरे नयनों से संजोग।
आज मैं रंगी नयनों के रंग
मानिनी हिम ठिठुरन सी मौन।
अंजन फिर , लिया नयन में डार
पुलिन में करती मुक्त विहार।
निमिष भर चलती जब बयार
सिहर जाता दुल्हिन का गात।
तुहिन कण पलकों पर वार
दिया अंजन ने , अलकों को उपहार।
कुहर का ये स्वप्निल संसार
प्रकृति का है अनुपम श्रृंगार।
उच्छ्वासें यादों की बयार
मूर्छित सपनों का संसार
विरति ये चांदी रंग परिधान
सृष्टि की आभा है साकार।।
टिप्पणी: अभ्रक के सलेटी रंग से - अंजन भरे नयनों का रंग -जब क्षितिज के इंगूरी कुमकुम से बातें करता है -तो प्रकृति कोहरे की चादर पहन श्रृंगार के संयोग- वियोग दोनों भावों में डोलती है- धुवें रंग का झीना आँचल ओढ़ !---कोहरा मेरे जीवन को ऊर्जा देता है।
प्रभा मित्तल
...सुबह होने को है...
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पौ फटने को है
या साँझ ढली है
धुंध हर जगह है
घुटन गली-गली है।
ओस में नहाए पौधे
हरे - भरे खड़े, कहीं
मुरझाए से जल रहे
पाले की मार पड़ी है।
धुआँ-धुँआ सा छा रहा
दृष्टि बाधित हो रही
श्वासों में आते जाते
हवा दूषित घुल रही है।
कंक्रीट के जंगल भी
कोहरे की बारिशों में
भीग रहे उदास से औ
राहें सूनी दिख रही हैं।
सूरज के आते ही
कुहासा छँट जाएगा
प्रकृति नटी मुस्काएगी
पेड़ों में खलबली है।
होगी चहल-पहल
धूप भी लगेगी भली,
मन पर पड़ी बर्फ भी
मानो पिघल रही है।
मधुमास की प्रतीक्षा में
मौसम ठिठुर रहा है।
सुबह होने को है
अभी तो रात ढली है
विश्वास की डोर से
यौं हर आस बंधी है।
टिप्पणी: (अन्तस् में कितना भी कोहरा घना हो, घोर निराशा में भी कहीं न कहीं उजाले की किरण मनुष्य में विश्वास बनाए रखती है ...सूरज निकलेगा...फिर सुबह होगी।)
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~ परिवर्तन ~
समय परिवर्तन का पक्षधर है
कभी वसंत तो कभी पतझड़ है
जानता हूँ तुम अंगुली उठा रहे हो
मेरे अस्तित्व पर, मेरी आस्था पर
लेकिन
तुम और केवल तुम ही जिम्मेदार हो
प्रकृति से सदा तुम खिलवाड़ करते हो
तुम केवल मतलबी स्वार्थी हो, हत्यारे हो
पहचानों अपने कृत्यों को, अपने स्वार्थ को
शायद
समझ जाओ तुम, आज कल का भविष्य है
वर्तमान में अपनी आवश्यकताओ की खातिर
कितने पाप तुम बड़ी निर्दयता से करते हो
परिवर्तन के नाम पर मेरा शोषण करते हो
हाँ
तुम्हे संभलना होगा अपनी पीढ़ी कि खातिर
प्रकृति को समझ और उसे प्यार देना होगा
पेड़ पौधों सहित धरती को मान देना होगा
जल, थल, नभ को समझ कर्म करना होगा
टिप्पणी: अकेला होना, मौसम कि मार - यह दर्द इन्सान तो झेलता है लेकिन पेड़ पौधे से हमारी अनदेखी उन्हें आज बिन मौसम उनके अस्तित्व को हिला देती है
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