यही सच्चाई है
सोच ज़रा तू ध्यान से
इसी बात में तेरी भलाई है,
ये जग तो पराया ठहरा,
काया भी साथ ना दे पाई है..
बेफिक्र हो लहराना तेरा यूँ,
किसी भी काम ना आएगा,
करले कुछ भले कर्म बन्दे,
वरना पछताता रह जायेगा,
सुंदरता पे अकड़ना छोड़ दे,
देख मुझको, यही सच्चाई है..
कर्मों का हिसाब जब होगा,
जवाब ना फिर सूझेगा तुझे,
गोरा रंग, नीली नीली आंखे,
पहचान कौन बुझेगा तुझे,
त्याग अब इन इच्छाओं को,
आखिर यहां से होनी विदाई है..!!
नैनी
टिप्पणी.. कूड़ बुध्दि हूँ, बस इतना समझ आया के इंसान का अंजाम आखिर यही होता है, अपना शरीर भी साथ छोड़ देता है, बस कर्मों का निशान रह जाता है ..!!
सोच ज़रा तू ध्यान से
इसी बात में तेरी भलाई है,
ये जग तो पराया ठहरा,
काया भी साथ ना दे पाई है..
बेफिक्र हो लहराना तेरा यूँ,
किसी भी काम ना आएगा,
करले कुछ भले कर्म बन्दे,
वरना पछताता रह जायेगा,
सुंदरता पे अकड़ना छोड़ दे,
देख मुझको, यही सच्चाई है..
कर्मों का हिसाब जब होगा,
जवाब ना फिर सूझेगा तुझे,
गोरा रंग, नीली नीली आंखे,
पहचान कौन बुझेगा तुझे,
त्याग अब इन इच्छाओं को,
आखिर यहां से होनी विदाई है..!!
नैनी
टिप्पणी.. कूड़ बुध्दि हूँ, बस इतना समझ आया के इंसान का अंजाम आखिर यही होता है, अपना शरीर भी साथ छोड़ देता है, बस कर्मों का निशान रह जाता है ..!!
एक प्रबोध गीत
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ये दुनिया है रैन बसेरा,,,,अंत समय छुट जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा,सब यही रह जाएगा !
न तेरा न मेरा, साथी,,,,,,,,,,खाली हाथों जाएगा !!
चाहे जितना, जाल विछाले
चाहे कितना,,,,माल कमाले
रूप रंग सब ,,,,,,,नश्वर जानें
अंत समय पछताएगा,,,,,,,,,,,,,,,,,,
न तेरा न मेरा, साथी,,,,,, ,,,,खाली हाथों जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा,सब यहीं रह जाएगा !!
भाई बहन ,,;व कुटुंब कबीले
मतलब के सब यार ,,,,रंगीले
लपट झपट कर भइय्या रोवे,
मलता हाथ रह जाएगा,,,,,,,,,,,,,,,
न तेरा न मेरा साथी,,,,,,,,,, खाली हाथों जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा, सब यहीं रह जाएगा !!
माटी का ,,,,ये बना हिंडोला
जिसमें सोता, प्राण अकेला
जिस दिन टूटा ,माटी खोला,
प्राण-विहग उड़ जाएगा, ,,,,,,,,,,,,,,,
न तेरा न मेरा साथी,,,,,,,,,,,,, खाली हाथों जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा,सब यहीं रह जाएगा !!
*********************************
साहित्यकार
टिप्पणी.. ~~~शरीर नश्वर है मृत्यु सत्य है मनुष्य इस सच्चाई को जान नही पाता !,,,,ये कंकाल इसी सत्य का उद्घाटन कर रहा है,,,,,
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ये दुनिया है रैन बसेरा,,,,अंत समय छुट जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा,सब यही रह जाएगा !
न तेरा न मेरा, साथी,,,,,,,,,,खाली हाथों जाएगा !!
चाहे जितना, जाल विछाले
चाहे कितना,,,,माल कमाले
रूप रंग सब ,,,,,,,नश्वर जानें
अंत समय पछताएगा,,,,,,,,,,,,,,,,,,
न तेरा न मेरा, साथी,,,,,, ,,,,खाली हाथों जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा,सब यहीं रह जाएगा !!
भाई बहन ,,;व कुटुंब कबीले
मतलब के सब यार ,,,,रंगीले
लपट झपट कर भइय्या रोवे,
मलता हाथ रह जाएगा,,,,,,,,,,,,,,,
न तेरा न मेरा साथी,,,,,,,,,, खाली हाथों जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा, सब यहीं रह जाएगा !!
माटी का ,,,,ये बना हिंडोला
जिसमें सोता, प्राण अकेला
जिस दिन टूटा ,माटी खोला,
प्राण-विहग उड़ जाएगा, ,,,,,,,,,,,,,,,
न तेरा न मेरा साथी,,,,,,,,,,,,, खाली हाथों जाएगा !
जिसको तूने अपना समझा,सब यहीं रह जाएगा !!
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साहित्यकार
टिप्पणी.. ~~~शरीर नश्वर है मृत्यु सत्य है मनुष्य इस सच्चाई को जान नही पाता !,,,,ये कंकाल इसी सत्य का उद्घाटन कर रहा है,,,,,
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल प्रोत्साहन
हेतु
सुन इंसान ..
देख नहीं सोच
आधुनिकता की दौड़ में
वक्त से
आगे निकलने की होड़ में
खुद को तूने
कितना उलझा लिया है
मैंने भी
अपने से ही और
हर रिश्ते से
कर लिया था किनारा
कल और कल के लिए
आज को जीना छोड़ दिया था
आज कंकाल बन कर जाना
तब भी हाड़ मास का पुतला था
मौत ने जिसे दिया झुठला
बस आज यही कहना है
खुद भी जी और अपनों को भी
जीने दो बन कर इंसान
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
टिप्पणी : इंसान को आज में जीना और अपने लिए और अपनों के साथ जरूरी है न कि बीते कल और आने वाले कल के लिए.
सुन इंसान ..
देख नहीं सोच
आधुनिकता की दौड़ में
वक्त से
आगे निकलने की होड़ में
खुद को तूने
कितना उलझा लिया है
मैंने भी
अपने से ही और
हर रिश्ते से
कर लिया था किनारा
कल और कल के लिए
आज को जीना छोड़ दिया था
आज कंकाल बन कर जाना
तब भी हाड़ मास का पुतला था
मौत ने जिसे दिया झुठला
बस आज यही कहना है
खुद भी जी और अपनों को भी
जीने दो बन कर इंसान
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
टिप्पणी : इंसान को आज में जीना और अपने लिए और अपनों के साथ जरूरी है न कि बीते कल और आने वाले कल के लिए.
ज़िन्दगी
सवालों के कटघरे में
जवाबों को तलाशती ज़िन्दगी
मुर्दा सी अधखुली आंखों में
एहसास ढूढ़ती ज़िन्दगी
शतरंज की बिसात पर
नाकाम हसरतों को दांव पर लगाती ज़िन्दगी
आधी - अधूरी कहानी के
किरदारों सी उलझती ज़िन्दगी
और क्या ?
कहा है ज़िन्दगी !!
टिप्पणी : मायूस ज़िन्दगी से उठते कुछ सवालों को लिए ज़िन्दगी , जिसकी मौत निश्चित है फिर भी उलझा हुआ है हर एक !!
सवालों के कटघरे में
जवाबों को तलाशती ज़िन्दगी
मुर्दा सी अधखुली आंखों में
एहसास ढूढ़ती ज़िन्दगी
शतरंज की बिसात पर
नाकाम हसरतों को दांव पर लगाती ज़िन्दगी
आधी - अधूरी कहानी के
किरदारों सी उलझती ज़िन्दगी
और क्या ?
कहा है ज़िन्दगी !!
टिप्पणी : मायूस ज़िन्दगी से उठते कुछ सवालों को लिए ज़िन्दगी , जिसकी मौत निश्चित है फिर भी उलझा हुआ है हर एक !!
अलका गुप्ता
***********
"कंकाली मुक्तक "
^^^^^^^^^^^^^^
~~(1)~~
देख लो..कंकाल..ये पड़े..बेताल से !
जीर्ण शीर्ण रुंड मुण्ड काय बेहाल से !
गाएं अब ये क्या भला गीत जिंदगी के !
शेष..निःशेष कंकड़ ये कल्वित काल से !!
~~(2)~~
भूल पाते क्यों नहीं पुरातन कलंकित बातों को !
याद रखना ही उचित है स्वर्ण सी सिर्फ यादों को !
उखाड़ कर गढ़े मुर्दे कोइ लाभ तो होता नही..
सार्थक करलो हौसलों से पूर्ण नेक इरादों को !!
~~(3)~~
सकारात्मक..मन जैसा ।
करें ..हम ..सत्कर्म वैसा।
बोझ न जीवन बन जाए ...
करें सुमंगल.. कुछ ऐसा !!
नोट _
कंकाल को देख कर विचार आया कभी यह भी एक इंसान होगा ! यानि एक मनुष्य का जो आज है कल उसी की तरह व्यर्थ हो जाएगा ...
दूसरे मुक्तक में...यही विचार प्रेषित करना चाहा है इस जीवन काल में आज समाज और देश के लिए इतिहास की गौरव शाली बातों से सबक लेकर हितकारी करें ..न कि अपने पूर्वजों की गलतियों को याद कर उन्हे कुरेद कर आज की पीढयों को उनके दोषारोपण से लाँच्छित करें !
तीसरे में यही कि आज कुछ अच्छा उचित करें जिसको हमारी आत्मा स्वीकार करे सच्चे मन से ।
***********
"कंकाली मुक्तक "
^^^^^^^^^^^^^^
~~(1)~~
देख लो..कंकाल..ये पड़े..बेताल से !
जीर्ण शीर्ण रुंड मुण्ड काय बेहाल से !
गाएं अब ये क्या भला गीत जिंदगी के !
शेष..निःशेष कंकड़ ये कल्वित काल से !!
~~(2)~~
भूल पाते क्यों नहीं पुरातन कलंकित बातों को !
याद रखना ही उचित है स्वर्ण सी सिर्फ यादों को !
उखाड़ कर गढ़े मुर्दे कोइ लाभ तो होता नही..
सार्थक करलो हौसलों से पूर्ण नेक इरादों को !!
~~(3)~~
सकारात्मक..मन जैसा ।
करें ..हम ..सत्कर्म वैसा।
बोझ न जीवन बन जाए ...
करें सुमंगल.. कुछ ऐसा !!
नोट _
कंकाल को देख कर विचार आया कभी यह भी एक इंसान होगा ! यानि एक मनुष्य का जो आज है कल उसी की तरह व्यर्थ हो जाएगा ...
दूसरे मुक्तक में...यही विचार प्रेषित करना चाहा है इस जीवन काल में आज समाज और देश के लिए इतिहास की गौरव शाली बातों से सबक लेकर हितकारी करें ..न कि अपने पूर्वजों की गलतियों को याद कर उन्हे कुरेद कर आज की पीढयों को उनके दोषारोपण से लाँच्छित करें !
तीसरे में यही कि आज कुछ अच्छा उचित करें जिसको हमारी आत्मा स्वीकार करे सच्चे मन से ।
"जीवन- मृत्यु"
-----------------------------------------
देखके मुझको क्यों घबराया,
जीवन क्या है.?समझ में आया,
सबकी गति यही है प्यारे,
जिंदा तब तक वारे न्यारे...!
खाया पीया जमा किया,
मेरा- मेरा यही किया,
इतना तो तू सोच ले प्यारे
आया था तू खाली हाथ-
खाली हाथ ही जायेगा,
आन बान और शान
तुम्हारा यही धरा रह जायेगा...!!
बीत गया गर समय तुम्हारा,
पीछे फिर पछतायेगा,
कुछ भी जुगत लगाओगे
पर वापस ना वो आयेगा,
सद्गुण और सत्कर्म
तुम्हारा ही जिंदा रह पायेगा....!!!
टिप्पणी-
शरीर नश्वर है सर्व विदित है।इंसान को अच्छे कर्म जरूर करनें चाहिए ताकि लोगों के दिलों में जिंदा रहे....।
-----------------------------------------
देखके मुझको क्यों घबराया,
जीवन क्या है.?समझ में आया,
सबकी गति यही है प्यारे,
जिंदा तब तक वारे न्यारे...!
खाया पीया जमा किया,
मेरा- मेरा यही किया,
इतना तो तू सोच ले प्यारे
आया था तू खाली हाथ-
खाली हाथ ही जायेगा,
आन बान और शान
तुम्हारा यही धरा रह जायेगा...!!
बीत गया गर समय तुम्हारा,
पीछे फिर पछतायेगा,
कुछ भी जुगत लगाओगे
पर वापस ना वो आयेगा,
सद्गुण और सत्कर्म
तुम्हारा ही जिंदा रह पायेगा....!!!
टिप्पणी-
शरीर नश्वर है सर्व विदित है।इंसान को अच्छे कर्म जरूर करनें चाहिए ताकि लोगों के दिलों में जिंदा रहे....।
अटल सत्य
सब देख मुझे क्यूं डरते है,
डर तो जिन्दा इन्सानों से।
जो अपना-पराया करते है,
हर बात पे सौदा करते है।
मैं तो बस एक निरा कंकाल,
भीतर-बाहर सब एक समान।
ना जीव जगत से मोह मुझे,
ना लोभ लाभ का मुझे ज्ञान।
ना मेरा कोई धर्म यहां,
ना जात पात ना वर्ण कोई।
ये तो बस महज खिलौने है,
है जिनमें उलझा हर कोई।
रे मानव! तू क्या देखता है?
तेरे अन्दर भी मैं ही हूं।
बाहर से कितना भी सज ले,
अन्दर का पंजर मैं ही हूं।
है नहीं सत्य का ज्ञान तुझे,
बस बना बावरा फिरता है।
मैं अटल सत्य पहचान मुझे,
जो पहचाने वो तिरता है।
टिप्पणीः आज का मानव सांसारिक
चकाचैंध में इतना उलझ गया है कि उसे वास्तविकता का कोई ज्ञान ही नहीं है। धर्म, जाति, पैसों के चक्कर में वो यह भूल गया है कि अन्त
सभी का एक ही है।
पिंजर -वज्र या कंकाल ;
-------------------------
देह नहीं विदेह नहीं ,हूँ तेरा ही पिंजर मैं।
मोह- मद में डूबी जो ,उस देह का अवलम्बन मैं।।
मानुस तू मिटटी का लोंदा ,मोह जलधि से घिरा हुआ।
पिंजर मैं आलंब न होता ,तेरा कुछ आकार न होता।।
एक ही झिरमिर में बरखा की ,मिट्टी गल कीचड़ बन जाती।
मैं -मेरा सब घट का पर्दा ,अंदर खाली -मीन पियासी।।
देह तुझे यह मृगतृष्णा सी , भटकाती कह मैं और मेरा।
नाव फंसी है बीच भंवर में ,क्या होगा ये भान नहीं कुछ।।
ये तन विष की वल्लरी है रे ,माखी सम गुड़ में लिपटा तू।
आत्मा मुक्ति को ही तरसे , 'मैं ' लालच भंवर में घूमे।।
पिंजर भी कब साथ रहेगा ,ये भी तो क्षण-भंगुर रे।
चाबुक जम (यम ) की जब पड़ेगी ,पिंजर भी मिट जाएगा।।
अंतिम सत्य वो ज्वाल रथ है ,ख़ाक बचेगी बाकी रे।
अनदेखी आत्मा जायेगी ले कर्मों की थाती रे।|
सच्चा मन हो ,सच्चे करमा ,सच्चा यदि अंतर् होगा।
जाननहारा सब जानेगा ,बाहर नहीं कहना होगा।।
पिंजर से तू ना डर मानुष ,भूत - भविष्य तो मैं ही हूँ।
दधीचि सम मेरा वज्र बनाले,
कंकाल मान न डर तू रे ।। आभा।।
टिप्पणी :- -----"कंकाल" हमारी असलियत -इसे मैं मेरा की देह का रोगी शरीर दे विटामिन डी की कमी वाला भुरभुरा कंकाल बना लें या फिर दधीचि की सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय तपस्या देकर -आसुरी शक्तियों के लिए आयुध बना लें -ये हम पे निर्भर है-
-------------------------
देह नहीं विदेह नहीं ,हूँ तेरा ही पिंजर मैं।
मोह- मद में डूबी जो ,उस देह का अवलम्बन मैं।।
मानुस तू मिटटी का लोंदा ,मोह जलधि से घिरा हुआ।
पिंजर मैं आलंब न होता ,तेरा कुछ आकार न होता।।
एक ही झिरमिर में बरखा की ,मिट्टी गल कीचड़ बन जाती।
मैं -मेरा सब घट का पर्दा ,अंदर खाली -मीन पियासी।।
देह तुझे यह मृगतृष्णा सी , भटकाती कह मैं और मेरा।
नाव फंसी है बीच भंवर में ,क्या होगा ये भान नहीं कुछ।।
ये तन विष की वल्लरी है रे ,माखी सम गुड़ में लिपटा तू।
आत्मा मुक्ति को ही तरसे , 'मैं ' लालच भंवर में घूमे।।
पिंजर भी कब साथ रहेगा ,ये भी तो क्षण-भंगुर रे।
चाबुक जम (यम ) की जब पड़ेगी ,पिंजर भी मिट जाएगा।।
अंतिम सत्य वो ज्वाल रथ है ,ख़ाक बचेगी बाकी रे।
अनदेखी आत्मा जायेगी ले कर्मों की थाती रे।|
सच्चा मन हो ,सच्चे करमा ,सच्चा यदि अंतर् होगा।
जाननहारा सब जानेगा ,बाहर नहीं कहना होगा।।
पिंजर से तू ना डर मानुष ,भूत - भविष्य तो मैं ही हूँ।
दधीचि सम मेरा वज्र बनाले,
कंकाल मान न डर तू रे ।। आभा।।
टिप्पणी :- -----"कंकाल" हमारी असलियत -इसे मैं मेरा की देह का रोगी शरीर दे विटामिन डी की कमी वाला भुरभुरा कंकाल बना लें या फिर दधीचि की सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय तपस्या देकर -आसुरी शक्तियों के लिए आयुध बना लें -ये हम पे निर्भर है-
प्रभा मित्तल ~~~~~~
~~ झूठी माया ~~
~~~~~~~~~~~~~
झूठे जग के बन्धन सारे,
निश्चय झूठी जग की माया।
सत्त्व अमर अन्तर का तजकर,
पोष रहे क्षण भंगुर काया।
मानस चञ्चल औ अस्थिर धी,
तिस पर भी कुछ काम न आया।
पाप निरत निर्लज्ज निपट बन,
शुद्ध सनातन सत्य गँवाया।
लुप्त हो गई मन की शान्ति,
तिस पर भी क्लान्ति की छाया।
जो कुछ पाया था धरणी पर,
छोड़ चला कुछ हाथ न आया।
ये तेरा ये मेरा रटते - रटते,
यौं सारा जीवन व्यर्थ गँवाया।
प्राण - पखेरू उड़ जाएगा,
विस्मृत होगी कञ्चन काया।
अस्थि - पंजर जल जाएगा,
संग न देगा अपना भी साया।
किस मद में डूबा है बन्दे !
क्यों तूने पुरुषार्थ भुलाया।
कब अन्तर में तूने करुणा का
पावन निर्मल स्रोत बहाया।
अवलम्बन ले प्रभु का जागो,
विस्तृत जिसने विश्व बनाया।
मूक-बधिर सा क्या लख रहा पगले !
कण-कण में व्याप रही उसी की छाया।
श्रद्धा से सद्धर्म वरण करें सब, सत्कर्म करें,
तब ही समझो जीवन सफल बनाया।
टिप्पणी :- (तेरा- मेरा करते करते मोह माया के जाल में फँसकर मनुष्य सारा जीवन व्यर्थ ही गंवा देता है।जो कुछ सञ्चय किया यहीं रह जाता है,साथ जाता है केवल पुरुषार्थ,सद्धर्म और सत्कर्म।जिस दिन प्राणी ये समझ जाएगा जीवन तर जाएगा।)
~~ झूठी माया ~~
~~~~~~~~~~~~~
झूठे जग के बन्धन सारे,
निश्चय झूठी जग की माया।
सत्त्व अमर अन्तर का तजकर,
पोष रहे क्षण भंगुर काया।
मानस चञ्चल औ अस्थिर धी,
तिस पर भी कुछ काम न आया।
पाप निरत निर्लज्ज निपट बन,
शुद्ध सनातन सत्य गँवाया।
लुप्त हो गई मन की शान्ति,
तिस पर भी क्लान्ति की छाया।
जो कुछ पाया था धरणी पर,
छोड़ चला कुछ हाथ न आया।
ये तेरा ये मेरा रटते - रटते,
यौं सारा जीवन व्यर्थ गँवाया।
प्राण - पखेरू उड़ जाएगा,
विस्मृत होगी कञ्चन काया।
अस्थि - पंजर जल जाएगा,
संग न देगा अपना भी साया।
किस मद में डूबा है बन्दे !
क्यों तूने पुरुषार्थ भुलाया।
कब अन्तर में तूने करुणा का
पावन निर्मल स्रोत बहाया।
अवलम्बन ले प्रभु का जागो,
विस्तृत जिसने विश्व बनाया।
मूक-बधिर सा क्या लख रहा पगले !
कण-कण में व्याप रही उसी की छाया।
श्रद्धा से सद्धर्म वरण करें सब, सत्कर्म करें,
तब ही समझो जीवन सफल बनाया।
टिप्पणी :- (तेरा- मेरा करते करते मोह माया के जाल में फँसकर मनुष्य सारा जीवन व्यर्थ ही गंवा देता है।जो कुछ सञ्चय किया यहीं रह जाता है,साथ जाता है केवल पुरुषार्थ,सद्धर्म और सत्कर्म।जिस दिन प्राणी ये समझ जाएगा जीवन तर जाएगा।)
कंकाल रूपी आदमियत
---------------
देख तुझे यूँ
सहम सा गया ..
फिर अचानक
कुछ स्मृत कर
ठहर सा गया ..
कभी देखूं तुम्हे
तो कभी निहारूं
मैं खुद को..
मैं भी तो तू
आज हो नही गया..
क्यों डरूँ मैं
हाँ , क्यों डरूँ मैं तुमसे
मैं भी तू आज
तू भी तो मैं आज
हो सा गया ....
हाँ ,,, मनस्वी ,,, हाँ
बस नज़र गहराने
की देर है ,,,
फिर अंदर की
चमड़ी गलाने की
फिर क्यों डरूँ मैं
हाँ ,क्यों डरूँ मैं
मैं अब तू ,,
तू मैं हो गया
सबकी नजर
पारखी नज़र
घर संसार में
दुनियादारी में
पिसता मैं ^आदमी^
आज कंकाल सा
हो तो गया ... ( मनस्वी )
---------------
देख तुझे यूँ
सहम सा गया ..
फिर अचानक
कुछ स्मृत कर
ठहर सा गया ..
कभी देखूं तुम्हे
तो कभी निहारूं
मैं खुद को..
मैं भी तो तू
आज हो नही गया..
क्यों डरूँ मैं
हाँ , क्यों डरूँ मैं तुमसे
मैं भी तू आज
तू भी तो मैं आज
हो सा गया ....
हाँ ,,, मनस्वी ,,, हाँ
बस नज़र गहराने
की देर है ,,,
फिर अंदर की
चमड़ी गलाने की
फिर क्यों डरूँ मैं
हाँ ,क्यों डरूँ मैं
मैं अब तू ,,
तू मैं हो गया
सबकी नजर
पारखी नज़र
घर संसार में
दुनियादारी में
पिसता मैं ^आदमी^
आज कंकाल सा
हो तो गया ... ( मनस्वी )
टिप्पणी ...आज का मानव अपनी भागदौड़
भरी ज़िंदगी बहुत से अभावो में , प्रभावों
में और मुश्किलो से गुज़ार रहा है कि चाहे अमीर हो या गरीब सबकी अपनी अपनी दोहरी
ज़िंदगी है जो कहीं उसकी असलियत को कोट पैंट में तो कहीं सादा कपडों में ढकने की
कोशिश करती है और कामयाब भी होती है लेकिन इस मानव मन का क्या करें वह दूसरों से
तो ढके मगर खुद की नज़रों से कैसे बचें जो उसे देख रही है कंकाल की शक्ल में गलता
सड़ता हुआ .. 😢फिर भी है सभ्य शालीन मुस्कान से लिपटा हुआ ।
तेरा ही साया हूँ मै
———————
देख के मेरी परछाईं ,क्यो मानव भयभीत हुआ !
तेरा ही तो साया हूँ मै, मुझसे क्यो अंजान हुआ !
हाड़ मास का पुतला बन कर, इस जग मे तू आया !
भरा अग्न और नीर जब तुझमें, तब ही तो तू इंसान कहलाया !
पहना के चोला मानव का , तू इस जग मे भरमा गया !
तेरे मेरे के चक्कर मे, पड़ कर ख़ुद को ख़ुद से भूल गया !
पंच तत्व का तेरा शरीर, पंच तत्व मे मिल जायेंगा !
नाते रिश्ते छूट जायेंगे, कोई काम न आयेगा !
क्या लाया था, क्या ले जाये ,
साथ तेरे इस जग से कुछ न जाये ,
अब भी समय बचा है प्यारे, छोड इस मोह माया को !
जप ले राम नाम अब तू , गर भव सागर से तरना हो !
न कर अभिमान अब ख़ुद पर , गर परमात्मा से मिलना हो !
मोक्ष मिलेगा तुझको मै मिट्टी बन जाऊँगा !
कंकाल हूँ तेरा तेरे साथ ही जाऊँगा !
टिप्पणी :- मनुष्य जब तेरे मेरे के चक्कर मे पड़कर अपने वास्तविकता को भूल जाता है तो उसका कंकाल उसे वास्तविकता का भान करवाता है कि वो क्या है जिसे वो अपना समझ रहा है वो उसका है ही नही , पंच तत्व का शरीर पंच तत्व मे विलीन हो जायेगा केवल उसके अच्छे या बुरे कर्म ही उसके साथ जायेंगे ! परमात्मा के नाम लेने से ही उसको इस जीवन से मुक्ति मिल सकती है !
———————
देख के मेरी परछाईं ,क्यो मानव भयभीत हुआ !
तेरा ही तो साया हूँ मै, मुझसे क्यो अंजान हुआ !
हाड़ मास का पुतला बन कर, इस जग मे तू आया !
भरा अग्न और नीर जब तुझमें, तब ही तो तू इंसान कहलाया !
पहना के चोला मानव का , तू इस जग मे भरमा गया !
तेरे मेरे के चक्कर मे, पड़ कर ख़ुद को ख़ुद से भूल गया !
पंच तत्व का तेरा शरीर, पंच तत्व मे मिल जायेंगा !
नाते रिश्ते छूट जायेंगे, कोई काम न आयेगा !
क्या लाया था, क्या ले जाये ,
साथ तेरे इस जग से कुछ न जाये ,
अब भी समय बचा है प्यारे, छोड इस मोह माया को !
जप ले राम नाम अब तू , गर भव सागर से तरना हो !
न कर अभिमान अब ख़ुद पर , गर परमात्मा से मिलना हो !
मोक्ष मिलेगा तुझको मै मिट्टी बन जाऊँगा !
कंकाल हूँ तेरा तेरे साथ ही जाऊँगा !
टिप्पणी :- मनुष्य जब तेरे मेरे के चक्कर मे पड़कर अपने वास्तविकता को भूल जाता है तो उसका कंकाल उसे वास्तविकता का भान करवाता है कि वो क्या है जिसे वो अपना समझ रहा है वो उसका है ही नही , पंच तत्व का शरीर पंच तत्व मे विलीन हो जायेगा केवल उसके अच्छे या बुरे कर्म ही उसके साथ जायेंगे ! परमात्मा के नाम लेने से ही उसको इस जीवन से मुक्ति मिल सकती है !
खनकती सभ्यता में आदमी
_____________________
हाड़ मास का पुतला से कंकाल बनने तक
जितना भी समय रहा
लगाया खुब दौड़
अपने लिऐ
और इस खनकती सभ्यता में
डूबा रहा इतना
कि ले न सका था कभी खबर अपनो की
कभी नही गुनगुना पाया प्रेम गीत
.
मेरे बन्धु !
मेरे कंकाल बनने के ठीक पहले
मुझे पता चला कि
जो दुसरों के लिऐ कुछ नही कर सकता
वह कंकाल ही तो है
आज मै कंकाल बन चुका हुँ .
मेरे बन्धु !
इस खनकती सभ्यता में
तुम भी मत उलझ जाना .
(टिप्पणी :- - इस खनकती सभ्यता में आदमी उलझ कर अपना कर्त्तब्य भुल जाता है | अपने सगे सम्बन्धियों को भुल जाता है |)
_____________________
हाड़ मास का पुतला से कंकाल बनने तक
जितना भी समय रहा
लगाया खुब दौड़
अपने लिऐ
और इस खनकती सभ्यता में
डूबा रहा इतना
कि ले न सका था कभी खबर अपनो की
कभी नही गुनगुना पाया प्रेम गीत
.
मेरे बन्धु !
मेरे कंकाल बनने के ठीक पहले
मुझे पता चला कि
जो दुसरों के लिऐ कुछ नही कर सकता
वह कंकाल ही तो है
आज मै कंकाल बन चुका हुँ .
मेरे बन्धु !
इस खनकती सभ्यता में
तुम भी मत उलझ जाना .
(टिप्पणी :- - इस खनकती सभ्यता में आदमी उलझ कर अपना कर्त्तब्य भुल जाता है | अपने सगे सम्बन्धियों को भुल जाता है |)
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/