#तकब – ६/१८
मित्रों इस बार एक और चित्र आपके समक्ष. आपके रचनात्मक सहयोग की चाह लिए.
नियम :
१. आपके भाव नए, शीर्षक के साथ व् टिप्पणी रूप में अपनी सोच को संक्षिप्त रूप में लिखिए.
२. किसी भी काव्य विधा में कम से कम १० और अधिकतम २० पंक्तियों में आपको अपने भावों को रखना है. अगर आप किसी नई विधा में लिख रहे हैं तो अवश्य उसका जिक्र करे.
३. कृपया किसी भी सदस्य की रचना पर टिप्पणी रूप में अपनी टिप्पणी न लिखे. यदि आप पोस्ट के संबंध में कोई बात पूछना चाहते है तो अवश्य पूछे लेकिन समाधान के बाद टिप्पणी को हटा लिया जायेगा.
४. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन रूप में लिख सकते है.
५. आप अपनी रचना को परिणाम घोषित होने व ब्लॉग में पोस्ट होने के बाद ही आप अन्य स्थानों पर पोस्ट कर सकते है.
६. रचना पोस्ट करने की अंतिम तारीख २७ जुलाई २०१८ है.
शुभकामनाएं !!!!!
इस प्रतियोगिता की विजेता है सुश्री नैनी ग्रोवर
Deepchand Shankarlal Mahavar~चल आ ज़िन्दगी~
चल आ ज़िन्दगी एक खेल खेलते हैं,
थपेड़े उलझनों के आ संग झेलते हैं।
थोड़ा और पीछे मुश्किलों को ठेलते हैं।
रोटियाँ चंदा मामा की सी बेलते हैं।
मात दें मायूसी को कभी दाव दें खुशियों को,
चाँद तारों से फिर आ लुकाछिपी खेलते हैं।
चल आ ज़िन्दगी एक खेल खेलते हैं।
कैद से निकल गुन्चे की
जहाँ में खुश्बू सा फैलते हैं।
कभी स्याह तो कभी सुर्ख
सात वो इंद्रधनुष के तो कभी,
भंवरे के काले रंग से खेलते हैं।
चल आ ज़िन्दगी एक खेल खेलते हैं,
थपेड़े उलझनों के आ संग झेलते हैं।
प्रतिबिम्ब बड़थ्वालआप
~प्रेम अहसास ~
[ प्रोत्साहन हेतु ]
अहसासों की लकीरे खींचती
तब बन लहर प्रेम की बहती
साथ तुम्हारा बन लिपटती
प्रेम सुधा तब खूब बरसती
अंग अंग में प्रेम कर समाहित
किंचित भी मैं भयभीत नहीं
तेरा मेरा मिलन है प्रयाग सा
प्रीत का इन्द्रधनुष बनता जाता
कण कण प्रेम से हो सुशोभित
तन मन हो तरंगित निमंत्रण देते
आसमा पर स्पंदन हस्ताक्षर करते
दुनिया विस्मित हो देखती जाती
टिप्पणी : प्रेम हो तो मन मयूर सा नाचने लगता है उसका मन धरती आकाश सब जगह उड़ने लगता है नाचने लगता – चित्र पर उड़ते हुए जो इस जोड़े को महसूस हो रहा है उसे उदृत किया है
Ajai Agarwal
"प्रीत का अग्निपथ" -प्रोत्साहन हेतु -
++++++++++++
मेघदूतम् की व्यथा में , यक्ष की शापित कथा से ,
प्रीत की लागी जो लागी ,धीरज बंधाने विरहिणी को ,
अलकापुरी का पूछते पथ ,संकल्प स्वप्नों के लिये ,
हाथ में हम हाथ डाले ,उड़ चले थे बादलों में।
प्रीत के आलोक में ,लय से मिला लय गीत गाते,
मन प्राण का विश्वास लेके ,धैर्य से जीवन सजाते,
साधना के बंध खोले ,अंबर में दीपों को सजाते,
कर्म पथ पे बढ़ चले थे ,प्यास को तृप्ति बनाते।
चक्षु पथ के स्वप्न अपने ,दोनों ने मिलके थे सँवारे ,
यक्ष की उस वेदना की तड़प को दिल में सजाये ,
बाँध मुट्ठी में अकल्पित ,बादलों से पूछ कर पथ ,
हठ करें और जीत जाएँ ,शून्य को जागृत बनाएं।
बादलों की क्यारियों में ,तड़ित की क्षण भर हंसी को ,
मेघ जी भर के रोया ,प्रीत का ये अग्निपथ है ,
वेदना की घाटियों में ,यक्ष के वो रुदन के स्वर ,
विष्णु ने बलि को दबाया ,भूधर ने कानों में कहा था।
ढूंढते रहते सभी हम ,प्रीत को अर प्रेयसी को ,
चपला सा मन -करुणा का तन ,यक्ष का सन्देश जीवन,
पथ का अगर हो भान हमको ,नींद में भी जागृति हो ,
शलभ के झुलसे परों में प्रीत की आभा हो उज्ज्वल।।आभा।।
टिप्पणी --आषाढ़ में हाथों में हाथ डाले बादलों की क्यारियों में उन्मुक्त घूमते युगल को देख अचानक मन ने कहा कहीं ये "मेघदूत" के यक्ष -यक्षिणी तो नहीं --जीवन यक्ष और बादलों के बीच झूलता सा प्रीत को ढूंढता ,कभी यक्ष शापित तो कभी उसकी प्रेयसी -
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
आनंदवर्धक छंद ,,आधारित रचना
2122, 2122, 2122,212 ( मापनी मात्रिक)
सीमांत-अन,,,जैसे मगन,जगन,पवन,चमन आदि
पदांत--सा हो गया
प्रथम युग्म एक जैसा,,,चार युग्म मे प्रथम पँक्ति अतुकांत,,द्वितीय मुखड़े की तरह तुकांत,,किंतु मापनी सही हो,,,
गीतिका ( चित्र अभिव्यक्ति )
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"पहला-पहला प्यार"
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मीत से पहली मिलन पे,,,मन मगन सा हो गया/
प्रीत के अभिसार का मधुमय जगन सा हो गया//
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ये लगन है प्यार की,जो ख्वाब बनकर छा गई,
उड़ चले हम साथ तेरे,,,,,मन पवन सा हो गया //
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कल्पना मन की रँगीली,प्रात ज्यों खिलतीं किरन,
चल हमारे सँग साथी,,,,,मन गगन सा हो गया//
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यार के पहली नज़र की ,कामना -स्वप्निल जगी,
आस्मां में घर बनाऊँ,,,,,,,मस्त मन सा हो गया//
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प्रेम इक ऐसी महक,जो तन- बदन कर दे सुमन,
फैलती ख़ुशबू अनोखी,,मन चमन सा हो गया//
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संदर्भ---प्रीतम से प्रथम बार मिलन से उद्वेलित भावनाओं का काल्पनिक चित्रण,,मन मे उठती भाव-तर्ंगे,,मगन मन,पवन सा उड़ता स्वप्निल मन,तथा प्रिय-मिलन से सुवासित तन ,,धरा के यथार्थ से दूर मायावी संसार मे विचरण करने लगता है,,,
किरण श्रीवास्तव
--हाइकु विधा--
"ख्वाबों की दुनियां"
❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤
हाथों में हाथ,
जीवन भर साथ
प्यार अपार !
बेकाबू मन,
अरमानों के पर
ऊंची उड़ान !
खुला गगन,
मधुमय बसंत
ठंडी बयार !
स्फुटित कली,
किरणों का दुलार
कोयल गान !
क्षितिज पार,
अपनी हो दुनियां
अपना जहां......!!!!!
❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤
टिप्पणी---
प्यार में मन साथी संग कल्पनाओं की दुनियां में विचरण करनें लगता है, सारे ख्वाब पूरे होते से प्रतीत होतें हैं।
जशोदा कोटनाला बुड़ाकोटी
~एक ख्वाब~
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कभी तुम आते
जब मैं आसमां को
तकते-तकते
नींद के गहरे आगोश में
खो जाती
तुम मेरे चेहरे पर आयी
लट को हटाने
चुपके से आ जाते
कभी तुम आते
जब साड़ी का पल्लू
कमर में खोंसे
चाय का कप रखकर
बस मुड़ने भर को होती
तुम उँगली डुबो कर
चख कर कहते.....
अब तक चाय बनानी
आई नहीं तुम्हें....
कभी तुम आते
जब पसीने में लथपथ
होके बैठ उसको
पोंछने का ख़याल भर
जहन के कोने में लाती
माथे के छलकते पसीने को
तुम अपनी उंगलियों के
पोरों से हटा कर
एक ठण्डी फूँक से
सारी तपन मिटा देते
कभी तुम आते
सुबह आँख खुलती
और तुम्हारा चेहरा
सामने पाकर उसमें ही
उलझ सी जाती कुछ
तुम मुस्कुरा के पूछते
क्या चाहिए और....?
मैं बरबस ही कह देती
मुझको चाँद लाके दो.....
कभी तुम आते
जब बहुत थकी
बहुत उलझी
अपने ही जज़्बातों
सवालातों को ज़ब्त
करते-करते
अपने ही आँसुओं को
अन्दर पीती होती
और तुम कह देते.....
.....तुम सुधरोगी नहीं
तुम बस कभी तो
आ जाते.....
न कुछ कहते
न कुछ सुनते
दो पल ठहर कर
मुझे देखते
पलकें झपका कर
समझा देते.....
..... मैं आ गया
टिप्पणी :-------आकाश पर विचरण करते युगल को देखकर यही आभाष हुवा ..... पहला प्यार यूँ ही सतरंगी आसमान पर विचरण करता है..... समय के अन्तराल में ...... कही खो जाता है.... स्त्री ... वही ठगी रह जाती है
Madan Mohan Thapliyal
स्वप्निल अभिलाषा
( प्रोत्साहन हेतु )
स्वप्न है शून्य सा -
शून्य में निर्वाक तैरता मन
देह है सिथिल शव सदृश
अब भी, अचल है सब धरा पर
जितना बुना उतना उलझ गया स्वप्न-
मकड़ी के जाल सा
लाखों मील का सफर पल में -
फिर भी अधूरी लालसा
वो तो सुप्त है, अविचल है
शांत श्मशान सा अब भी धरा पर
साथ हो, प्रेम का उन्माद हो-
हो गगन का सफर
तमन्ना हो छोर छूने की मगर
निश्चित ही निश्शंक होकर
स्वप्न बुनता कोई धरा पर
स्वप्न विस्तार है व्योम सदृश
रक्तिम आभा व्योम की तैरते मेघ पर
सरल, सरस है गगन पथ -
बाधा है नहीं कोई -
फिर भी बेचैन है कोई धरा पर
बादलों में तैरना, स्वर्णिम आभा से खेलना
है सुखद अनुभूति प्रेरणा स्रोत सा
उलझनों में उलझता मन तत्व ज्ञान सा
चाह फिर भी अधूरी ,संकित मन है धरा पर ।।
मनुष्य अनिश्चितता के भंवर से खुद को जितना दूर रखना चाहता है उसका मन उसे और भी उलझा देता है ।
कुसुम शर्मा
~उडान ~
——-
कौन रोकेगा मुझे अब मेरी उड़ान से !
फौलादे जिगर लाई हूँ मैं चट्टान से !
मत देखो मेरे जिस्म के घावों को
मिली है यह सौग़ात इसी जहान से !
नाज़ुक दिल को ये दुनिया छलती रही !
कभी अपनाती रही कभी दुतकारती रही !
अब सीख लिया मैंने भी पत्थर दिल बनना !
चट्टानों को छेद कर आगे बढ़ना
कौन रोक पाया है नदी को समुन्दर में मिलने से !
कौन रोकेगा मुझे मेरी उड़ान से !
न डर कुछ खोने का न ख़ुशी कुछ पाने की !
न चिंता हार जाने की न उम्मीद दुनिया जीत लेने की !
है लक्ष्य सिर्फ़ अपनी मंज़िल को पाने की !
कठिनाइयों क्या बिगाड़ लेगी मेरा
सीखा है मैने गिर कर सँभलना !
आसमा भी न रोक पायेगा मुझे मेरी उड़ान से !
हारना न सीखा मैंने इस जहान से !
कौन रोकेगा मुझे अब मेरी उड़ान से !
फौलादे जिगर लाई हूँ मैं चट्टान से !!
टिप्पणी ;- मन में गर ठान लो अपने लक्ष्य को पाने की तो राह में चाहे कितनी मुसीबतें क्यों न आये आख़िर में मंज़िल मिल ही जाती है !!
प्रभा मित्तल
~~क्षितिज के पार~~
कब से बैठी सोच रही हूँ
क्या लिखूँ.......
लिखूँ तेरी मेरी उसकी बात
या अपने मन की बात कहूँ....
बचपन की चाहत ऐसी ...
पंख लगाकर उड़ जाऊँ,
नभ में विचरण करती
आकाशगंगा में नहाऊँ।
सूरज चाँद सितारे देखूँ
जलधर से जल भर लाऊँ।
पंछियों संग हिल-मिल
पर्वत पर्वत दौड़ लगाऊँ।
पर सच के ठोस धरातल पर
सपनों का पन्ना पलट गया,
जीवन का ताना बुनते बुनते
वक़्त भी अपना बीत गया।
दीवारों से छनती नेह की बूँदे
देती रहीं चाहतों की थपकियाँ,
अहसास ही तो सँभले रहे हैं
सहकर वक़्त की नादानियाँ।
उम्मीदों से न मुँह मोड़ें हम
जिन्दगी दे रही ये सदा,
कुहरा जमीं का छँट रहा है
न हो कहीं आवरण की घटा।
आसमान की छाती पर
यौं तो बादलों का पहरा है,
प्राची से झाँक रहा सूरज
किरणों का कंचन गहरा है।
हाथ थाम कर संकल्पों का
आशाओं का विश्वासों का,
चलों चलें क्षितिज के पार
बना लें एक नया संसार।
--प्रभा मित्तल
(जीवन में आशा और विश्वास का होना सर्वोपरि है,तभी जीवन सफलतापूर्वक जिया जा सकता है।)
अलका गुप्ता
**उड़ चलें आ..पार छितिज हम**
प्रीत की उड़ान हो ।
खुला आसमान हो॥
हों न कोइ बंदिशें ।
पूरी हों ख्वाहिशें ॥
उड़ चलें आ.. पार छितिज हम ॥
मधुर वीणा सी तन-मन झंकार ।
अरि ये जग अपना...
चल दूर..बसायें संसार ॥
उड़ चलें आ..पार छितिज हम ॥
एक हैं धरा-आकाश जहाँ !
ऊँच न कोई नीच वहाँ ।
छोड़ यह संसार चले !
अमानुष ये व्यवहार गले !!
हाथों में हम.. हाथ लिए।
स्वप्न सौगातों के अभियान लिए ।
दूर छितिज तक जाएँगे ।
अलख ..नव-श्रंगार जगाएँगे ।
तेरा मेरा कोइ अलग राग नहीं ।
ढपली अपनी का अनुराग नहीं ।
एक स्वर में एक राग में
साथ-साथ गाएंगे हम ।
अल्लाह ईश्वर भेद नहीं !
एक न्याय अपनायेंगे हम !
उड़ चलें आ..पार छितिज हम ॥
नोट :- प्रेषित चित्र से हमें लगा आज का युवा मन सारी सड़ी गली मान्यताओंं को त्याग कर एक नवीन संसार की स्थापना करना चाहता है जहाँ किसी भी प्रकार का जाति धर्म भेद भाव का स्थान न हो !
नैनी ग्रोवर
~तुझ संग~
अम्बर को छूने की चाह नहीं,
बस तुझ संग उड़ना चाहूँ मैं,
सृष्टि के सतरंगी इन रंगों में,
बिन आकार ही घुलना चाहूँ मैं...
तेरा हाथ हो, जब मेरे हाथों में,
हो शाम की खुशबू मेरी साँसों में,
तब हल्के अंधेरे की इस ओट में,
बन पवन सी बहकना चाहूँ मैं...
जहाँ ना कोई कसम हो, ना कोई वचन हो,
बस ह्रदय से ह्रदय का एक नमन हो,
छोड़कर पीछे इन सारी रस्मों को,
उस जगत को चुनना चाहूँ मैं..
अम्बर को छूने की चाह नहीं,
बस तुझ संग उड़ना चाहूँ मैं...
टिप्पणी:- ये मात्र एक कल्पना नहीं, एक प्रेमिका जब सारे संसार को तज कर अपने प्रीतम के घर दुल्हन बन के जाती है तो कुछ इसी प्रकार के स्वस्प्न उसके ह्रदय में पल रहे होते हैं, वो अपने पति के लिए बाकी सभी सम्बंध भुलाने से भी नहीं चूकती....
मीनाक्षी कपूर मीनू
स्वप्निल संसार
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स्वप्निल आभा
निखरा तन-मन
अंतर से नीर
बहा छन-छन
दो अजनबी से
मिले थे कभी
घर संसार में
फिर रच बस गए
एक नया ही
संसार ...
आज अपना है
यूँ लगता है जैसे
कोई सपना है
संग तुम्हारे उड़ने लगे
रंग बिरंगे सपने
बुनने लगे
*मनस्वी*
खुशियों के फूल
खिलने लगे
मैं और तुम
*हम* होने लगे
टिप्पणी.. शादी के पवित्र बंधन में बंधे युगल एक नया घर संसार बसाते है और स्वप्निल आशा किरण उनके पवित्र प्रेम को नवांकुरित करते हुए उनके नवजीवन प्रदान करती है ।
मीनाक्षी कपूर मीनू ।
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