प्रिय स्नेही मित्रों
सप्रेम नमस्कार!
पिछली प्रतियोगिता का परिणाम आने ही वाला है। तब तक आप इस नई प्रतियोगिता के लिए सोचना शुरू कीजिये। आप सभी से आग्रह है कि नियमों का पालन अवश्य करें, जिसके लिए उन्हें पढ़ना भी जरूरी है।
तकब ०३ /२०
१. दिए गए चित्र / तस्वीर पर कम से कम १० पंक्तियां व अधिक से अधिक २० पंक्तियां किसी भी विधा में लिखिये और साथ ही उसका शीर्षक व अंत मे एक टिप्पणी अपने उदृत भावों पर अवश्य लिखिये।
२. चित्र पर रचना नई, मौलिक व अप्रकाशित होनी चाहिए। एक निवेदन है कि जितना संभव हो रचनाओं मे हिंदी के शब्द ही प्रयोग मे लाएँ।
३. प्रतियोगिता के वक्त लिखी हुई रचना/पंक्तियों पर पसंद के अलावा कोई टिप्पणी न हो। हां यदि किसी प्रकार का संशय हो तो पूछ सकते है। निवारण होते ही उन टिप्पणियों को हटा दिया जाएगा।
४. आप अपनी रचना किसी अन्य स्थान पर पोस्ट तभी कर सकते हैं जब प्रतियोगिता का परिणाम आ जाये और आपकी रचना को ब्लॉग में शामिल कर लिया गया हो।
५. प्रतियोगिता हेतु रचना भेजने की अंतिम तिथि २५ नवंबर २०२० है।
६. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन हेतु अपनी रचनाएं भेज सकते हैं। आग्रह है कि वे समय से पहले भेजे अन्यथा प्रोत्साहन का कोई औचित्य नहीं रह जाता।
धन्यवाद, शुभम !!!!
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
इस प्रतियोगिता की विजेता हैं
सुश्री कुसुम शर्मा
कुसुम शर्मा
~लोगों के मस्तिष्क में बैठी यह बीमारी हैं~
उभर सके न जिससे हम ऐसी यह महामारी है !
लोगों के मस्तिष्क में बैठी यह बीमारी है !!
बीमारी से बच भी जाए आर्थिक मार भी भारी है !
लॉक डाउन के चक्कर में निकली जान हमारी है!!
महामारी व घर काम के चक्कर में अटकी जान हमारी है !
सोच समझ भी शून्य हो गई ऐसी स्थिति हमारी है !!
शुरू हुई यह चायना से विश्व भर में फैल गई !
मौत का तांडव मचाया हर व्यक्ति को बन्दी बनाया !!
डबल्यूएचओ ने भी क्या ख़ूब साथ निभाया!
दे कर न सही ख़बर विश्व में तांडव करवाया !!
मुँह में मास्क, छह फुट की दूरी !
बार बार हाथों को धोना है ज़रूरी !!
जाने कितने बेघर हुए सड़कों पर वह सोते है !
इस बीमारी के डर से नही आर्थिक तंगी से वो रोते है!!
कई डर से पागल हो गए खुद से बातें करते है !
देख कर यह स्थिति हम मन ही मन रोते है !!
कहते है जाको राखे साईंया मार सके ना कोई!
आया जो संसार में एक दिन तो उसको जाना !!
मान लें इस सत्य को मानव!
तो फिर क्यूँ इस बीमारी से घबराना !!
टिप्पणी: यह हमारे यहाँ की स्थिति है इस बीमारी के देश में प्रवेश करते ही जाने कितने लोग बेघर हो कर सड़कों पर अभी तक रह रहे हैं लाँकडाउन में जाने कितने घरों में चूल्हा तक नहीं जला ! जाने कितने लोग इसके डर से ही मर गये जाने कितने इस चिन्ता में पागल हो गए घर का बिल कैसे भरेंगे ! सही बात है बीमारी से इन्सान लड़ सकता है पर आर्थिक तंगी से कैसे लड़े !
पुष्पा त्रिपाठी
~कोरोना के युद्ध में विश्व जितेगा~
कोलाहल जीवन का थमा थमा सा है
चिकित्सकीय संसाधन अब गिरफ़्त सा है
दम तोड़ते लोग निरंतर संक्रमित संख्या
मौतों का बढ़ता आंकड़ा अब रफ़्तार सा है।
मजदूर दूर-दूर से भूखे-प्यासे घरों को लौट रहे
कितने खौफ़नाक मंज़र यहां तबाही ने कमर तोडे
मंदी की यह जबर्दस्त मार अब उभरा उभरा है
विकास औ कामकाज की गति अब अवरुद्ध सा है।
इसके हजारों पाँव, लाखों बाहें मौत की मंजिल थामे
कौन कहाँ कब कैसे चला जाये कौन जाने ?
पांसों में एक वायरस टहल रहा सांसों में अवरोधक
आवाज में खौफ़नाक मंज़र अब दिखा -दिखा सा हैं।
सुरक्षित हम जीवनरसमास्क पहन कर घूम रहे
अस्त्र शस्त्र के बिना निरंतरजारी यह विश्वयुद्ध जीत रहे
ख़त्म होगा यह कहर हम जानते है मगर फिर भी तो
यह हिटलरी शासन हर तरफ अब दिखा - दिखा सा है।
टिप्पणी : पूरी दुनिया कोरोना वायरस के खिलाफ जंग लड़ रही हैं। इस संक्रमण ने सम्पूर्ण विश्व की आर्थिक व्यवस्था को चरमरा दिया है। भारत में इसे रोकने के लिए बहुत प्रयास किए जा रहे हैं यह किसी हिटलरी शासन और युद्ध से कम नहीं है।
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~संस्कृति संस्कार से मिलन~
(प्रोत्साहन हेतु)
भूल गए थे हम कुछ
नहीं, भूल गए थे बहुत कुछ
हमारी पहचान खोने लगी थी
पाश्चात्य संस्कृति का मुखौटा ओढ़
हम जंक फूड के शौकीन हो गए थे
हाँ ये है कड़वा सच
हम भूल गए थे
प्रवेश करते ही हाथ मुंह धोना
भूल गए हाथ जोड़ करना नमस्ते
छूट रहा था
सयुंक्त परिवार, स्वयं का परिवार
बढ़ रही थी दूरियाँ, गुम हो रहा था प्यार
छूट रहा था
एक दूजे का साथ व विचार विमर्श
लेकिन
वक्त का खेल, पुन: किया स्वीकार सहर्ष
कोरोना की महामारी से चाहे घबराकर
अपना लिये फिर हमने अपनी संस्कृति-संस्कार
कोरोना से डरना न अब, खुद से करना प्यार
टिप्पणी: मानता हूँ कि कोरोना कि महामारी ने जान के नुकसान के साथ जीवन जीना दुर्लभ कर दिया लेकिन इस बीमारी का यह असर दुनिया भर में हुआ या हो रहा है। लेकिन इसमें मुझे सकारत्मक पहलू भी दिखाई दिया कि कुछ संस्कृति संस्कार से जुड़ाव जो छूट रहा था उसे हम पुन: जीवन में उतार रहे है। शायद समझ जाये हम लोग।
प्रगति मिश्रा
~दैव! दैव! कोरोना-समस्या ने पुकारा~
दैव! दैव! कोरोना-समस्या ने पुकारा
'मास्क' और सामाजिक दूरी का प्रण लोगों ने स्वीकारा।
'हेल्थ-हाइजीन' एवं 'सैनिटाइजर' को बार-बार निहारा।।
पर साहब! यहाँ समस्या
कोरोना से उत्पन्न समस्या से है,
इस 'लॉकडाउन' में गए रोज़गार से है।
बचपन से सहेजी डिग्रियाँ और प्रशस्ति पत्र
उस प्रतिभा के गवाह हैं
जिनके एवज में कभी नौकरी पाई थी,
लेकिन वे एक संदूक में कैद हो कर रह गए है।
इस वैश्विक महामारी से, तब भी लगता था डर,
पर, अब तो बेरोजगारी ने ही बना लिया है घर।
योग्यता अब भी उन्मुक्त आकाश में है
पर लगता है कि जैसे आय पर ताला जड़ गया है।
एक तो कोरोना का कहर, दूसरे बेरोजगारी की मार
मध्यवर्गीय परिवार तो मानो जद्दोजहद से भर गया हैं ।
खैर, समस्याएँ आती हैं तो आए
घिरे गड़गड़ाती घोर घटाएं, अंतरद्वंद को न भरने देंगे,
'कोविड' को भगाकर ही हम दम लेंगे।
स्वस्थ व समृद्ध देश बना कर ही हम दम लेंगे।।
टिप्पणी: हम भारतवासी कोरोनावायरस की सामान्य समस्या या ज्ञान पर ही ध्यान देते हैं,पर इन सामान्य समस्याओं के अतिरिक्त व्यक्ति विशेष समस्याएँ भी हैं जो कि लोगों को जद्दोजहद में डाले हुए हैं । उनमें से एक है - बेरोजगारी की समस्या। आज करीब ढ़ाई करोड़ अतिरिक्त लोग बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे हैं जिनकी पारिवारिक स्थिति दयनीय है । इस कविता के माध्यम से मैं आप सबका ध्यान उसी ओर आकृष्ट करना चाहती हूँ। धन्यवाद। आभार। सादर।
यशोदा दिग्विजय अग्रवाल
~सीठा त्यौहार~
बीत गई
फीकी दीपावली
उत्साहविहीन
सुविधा विहीन
यंत्रवत जीवन जिया ..
एक मशीन की तरह
सुबह से शाम तक
रात में भी सोने के पहले
एक चिंतन कि
कल की कल-कल
मन में असंतोष
खुशियाँ सारी समाप्त,
मास्क पहनने
और हाथ धोने में
बची खुची कसर
चढ़ गई बनकर भेंट
इस कहर भरी
विदेशी विषाणुओं रचित
महामारी कोरोना की भेट
घर पर रहकर मानव
महज निसहाय 'औ'
किस्से -कहानी तक
रह गया सीमित
यह महोत्सव दीपावली का
रस्म अदाई हो गई है..
टिप्पणीः चित्र के आधार पर आत्मिक अवलोकन सिखा गई हमें अल्प सुविधा में जीना है और अपने आपको स्वस्थ रखना है...।
किरण श्रीवास्तव
"करोना"
रक्तबीज सा है विस्तार
नहीं समझ आए निस्तार..
कितनों को तू लील गई
होठों को भी सील गई,
दिल दूरी ना अब सह पाए
मन मचले रिश्ते तड़पाए ...!
ना मिलना तो मजबूरी थी
ऐसे ही क्या कम दूरी थी...
काम धंधे चौपट कर डाला
शादी पार्टी ना मिर्च मसाला,
माफ करो तुम अब हम सब को
लौट जाओ अब अपने घर को।
टिप्पणी: विज्ञान के विभिन्न चमत्कारों से दुनिया चकित थी, लोग चंद्रमा पर पहुंचने का ख्वाब देख रहे थे परंतु ,एक वायरस ने सबको धरातल पर ला दिया| जिस नियम संस्कार को लोग भूल चुके थे वही एकमात्र बचाव का कारण बना......!!!!
विजय लक्ष्मी भट्ट शर्मा
~करो ‘ना’~
वक्त की चाल,बड़ी बलवान यहाँ
हम मद में चूर,अहम मे गुम
वक्त चलता,अपनी चाल
दिखाता तमाशा ,एक वायरस
मुँह चिड़ाता,रोज तेरी उम्र चुराता
तेरे शान से ,ऊँचे घमंडी
मस्तक पर ,एक छोटी सी
लकीर छोड़ ,आइना दिखाता
तुझको ही तेरी,असलियत बताता
क्या पाया तूने,इतना कमाया तूने
गरीब की रोटी छीनी
मुँह बंद अब ,खोल चड़ा
तेरा कमाया ,काम ना आया
तू भी तो चैन से ,खा ना पाया
करोना नाम ले,यमराज खड़ा
अब तो हे मनु ,अपने अहम को
करो ‘ना’
मिल मिल रहो ,अब तेरा मेरा को
करो ‘ना’
भाग ही जाएगा ,एक दिन फिर
सबक सिखाता
ये करोना।
टिप्पणी: मेरी कविता करो ‘ना’ याद दिलाती है की हम कितने स्वार्थी हो गये, सिर्फ़ अपना फ़ायदा सोचने लगे और इस बीमारी कारोना ने दिखा दिया की कोई भी वस्तु जरुरी नहीं , आपका पैसा रुतबा किसी काम का नहीं , ये बीमारी ना अमीरी ग़रीबी देखती है ना ही कोई रुतबा फिर किस बात का घमंड जब जाना ख़ाली हाथ।
मीता चक्रवर्ती
~कोरोना~
बदलने चले थे हम प्रकृति को
मानव की मानवीय प्रवृत्ति को
माडर्न कहलाने चले थे , भूलाकर
अपने संस्कार और संस्कृति को
बहती नदियों को हमने रोक दिया
पेड़ पौधे लगाना छोड़ दिया
ईंट कांक्रीट रुपी इन दानवों ने
अरण्य को हमारे लील लिया
किया खिलवाड़ जो प्रकृति से
खामियाजा उसका ही भर रहे
नही दोष केवल ही कोरोना का
हम भी इस महामारी के जिम्मेदार रहे
अब हमे ही इसे भगाना होगा
संस्कार अपना अपनाना होगा
दूर दूर रहकर ही सही
साथ अपनों का निभाना होगा ।
टिप्पणी: ये जो महामारी फैली हुई है विश्व भर में, इसका वाहक भले ही कोई वायरस हो पर हम मानव भी कहीं न कहीं इसके जिम्मेदार हैं। हमने अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के साथ बहोत खिलवाड़ किया है शायद इसी का परिणाम हम चुका रहे हैं ।
सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी
~सुना तुमने? ~
सुना तुमने ?
सुना ही होगा, इसी धरती के जो हो,
गुलजार साहेब ने भी बता दिया अब तो...
“महामारी लगी है”
और वो महानायक जो रोज़, आपको चेता रहा है कब से,
दूध का जला है साहेब, सुन लो उसकी भी..
पर ये भूलने भी नहीं देता... ये बुरा लगता है..
क्यूंकि भूलने की आदत जो है हमारी,
बस यही बात पसंद नहीं आती हमें...
ये भूलने नहीं देता..
पर कुछ तो है जो हमें नहीं भूलना चाहिए था,
उन त्रिशंकु मजदूरों का पलायन, रूदन, रोदन, मर्दन,
इनको सड़क पर भूखे, पैदल चलते हुए देख ऐसा लगा,
इनसे इनका घर छीन लिया हो,
और कह दिया हो...कि यहाँ रहना है कि वहाँ, ये तुम पर है..
बस फर्क ये था कि ये बंटवारे की घड़ी नहीं थी..
गुलजार साहेब, प्लग निकाल चल तो दिए थे सब,
पर भूख धूप-पानी खाकर नहीं बुझती,
कुछ पहुंच पाए, कुछ रास्ते में ही रह गए थे, डिस्चार्ज होकर,
ये कैसे भूल गए हम..
कोई महानायक नहीं आएगा ये याद दिलाने...
सुना तुमने ??
टिप्पणी: मेरी ये कविता सिर्फ और सिर्फ मेरी भड़ास है.. इसलिए यहाँ प्रतियोगिता के लिए नहीं है.. विषय आपने दिया...तो मन किया की यहाँ अपनी कुछ मन की कह दूँ... धन्यवाद...
प्रभा मित्तल
~ कोरोना-काल ~
प्रगति प्रयोग के अतिक्रमण पर
कुपित प्रकृति का प्रकोप बरपाया
कोरोना ने आ धमकाया,रे मानव!
ठहर जरा,धीमी कर अपनी चाल।
तभी संक्रमण की दहशत फैली ..
अपनों से मिलने की आज़ादी गई-
अब कोविड प्रकोप से कैसे बच पाएँगे.
सोचा न था ऐसे भी दिन आएँगे
आगे बढ़ते - बढ़ते अचानक
सब पीछे को सिकुड़ जाएँगे।
सूनी सड़कों पर विचरेंगे पशु,
घरों में बंद रहेंगे हम,
बागों में पंछी चहचहाएँगे।
कोयल-कौेए,चिड़िया तोते
हमको पिंजरे में बंद देख, हँसेंगे
और हम भीतर रहकर भी डरपाएँगे।
मास्क बिना न जीवन होगा,
खुली हवा में होकर उन्मुक्त
साँस लेने को भी तरस जाएँगे।
बाज़ारों में सूनापन पसरा
और त्यौहारों में धूम नहीं,
स्वजनों बिन कैसे खुशी मनाएँगे...।
कैसी ये महामारी फैली..
स्कूलों की हो गई छुट्टी,अब
बच्चे सब कैसे पढ़ पाएँगे।
ये वक़्त की हुंकार है--
मौत का सौदा करने आया है कोरोना!
सो जरूरी है हमारा संस्कारों में लौटना,
सादगी और सभ्यता ही हमें बचाएँगे
तभी देश-काल-वातावरण शुद्ध हो पाएँगे!
मास्क और दूरी अपनाकर कोरोना को भगाएँगे।
शीघ्र ही हम सब फिर से हिल-मिल जी पाएँगे।
टिप्पणी: आज प्रगति प्रयोग और आधुनिकता का अतिक्रमण हो रहा है। इसीलिए कोरोना -काल ने मनुष्य को समझा दिया कि इतना तेज न भाग.. चाल कुछ धीमी कर। अब प्रकृति बदला लेगी। क्योंकि मनुष्य ने प्रकृति की स्वाभाविकता नष्ट कर दी है। वापिस अपनी जड़ों को पहचान...उन्हें अपनाने का समय आ गया है, तभी कोरोना से मुक्ति मिलेगी।