रोहिणी शैलेन्द्र नेगी
"जड़"
बढ़ने दो मुझे, इन माटी के कणों में,
मुट्टठी बनकर मज़बूती से जकड़ने दो,
जितना सींच सको, सींच लो मुझको,
धरा की गहराइयों को पकड़ने दो,
ये जीवन जो जी रहे हो, देन है तुम्हें,
मेरी जड़ों से अपनी जड़ें करो विकसित,
ये शाख़, ये पत्ते, ये टहनी, ये तने,
सब तुम्हारे लिए, है तुम्हें समर्पित ।।
कुसुम शर्मा
"जड़े पाप की"
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जड़े पाप की फैल रही है फलित हो रहा पाप है !
त्राहि त्राहि अब जग है पुकारे, कुपित बना संसार है !
धरती माता ढ़ोल रही है पाप पुण्य से तोल रही है !
हर कोई अब रह निहारे ,अब तो आओ सर्जन हारे !
क्यों तुमने यह रह भुला दी , क्यों विपत्तियों की वर्षा कर दी !!
अब तो हर जगह हो रहे अत्याचार है ,कही वर्षा की मार है !
कही पे धरती का प्रहार है कही पर बामो की बौछार है !
हर तरफ मचा हाहाकार है , इससे कौन बचाएगा
अगर तू नहीं आएगा !
हर कोई अब रह निहारे ,अब तो आओ सर्जन हारे !!
हम तो मंद मूढ़ अज्ञानी , तुम्ही तो हो परमेश्वर ज्ञानी !
मिट्टी की यह देह है बनाई , फिर अग्नि से ज्योत जगाई !
इस ज्योत के जागते देखो भाई, मानव में आ गई चतुराई !
कलयुग की छाया भी आई, फिर दोनों ने आग लगाई !
चोरी लूटपाट करके फिर पाप की संख्या बड़ाई !
पाप पुण्य पर हो गया भरी , अब तो दया करो बनवारी !
हर कोई अब रह निहारे ,अब तो आओ सर्जन हारे !!
नैनी ग्रोवर
__ अपनी जड़ें__
अपनी जड़ों को साथ ले उड़ जाऊँ,
या यहीँ मैं पतझड़ सी, उजड़ जाऊँ..
खून की नदियाँ बहा दी हैं, इस इन्सां ने,
क्यूँ ना अब मैं, रूठी माँ सी बिगड़ जाऊँ..
मेरे अपनों ने ही, छलनी किया है सीना,
क्या मैं भी, किसी दूजी धरती पे मुड़ जाऊँ..
मैं कुदरत हूँ दीवानों, कुछ तो इज़्ज़त करो मेरी,
मत करो मजबूर इतना, के बारहा भड़क जाऊँ ..!!
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~ जड़ ~
जड़ जड़ में बसा आधार
फलता फूलता बनता सुखी परिवार
जैसा भी दिखे हम बाहर
आधार हमारा संस्कृति और संस्कार
पृथ्वी का बरसता अनंत प्यार
संरक्षण प्रकृति का करे हम रोज विचार
भारतीय सभ्यता का हो प्रसार
विकास संग पर्यायवरण सुरक्षा का हो प्रचार
Pushpa Tripathi
~मैं घना विशाल~
वृक्ष मैं हूँ घना
समृद्ध हरिताभ का बना
संतुलन बनाता
धरती पर जीवन
पशू पक्षी मानव
हर तरह जीवन में
मैं संरक्षण प्रदान करता
पर अब कई वर्षों से
मेरा संतुलन टूट रहा
मानव स्वार्थ हित से
मुझे काट रहा है
जड़ से मुझे उखाड़ रहा
आया हूँ तुमसे हाल बताने
आकश तुम साथी, दशा छिन्न जताने
बताओ ! बताओ !
क्या होगा आगे
पत्थर सिमेंट ईंट की धरती पर
बनते विशाल गगनचुम्बी इमारते
मरते हम वृक्ष … बरसते गरजते तुम
सुन ओ आकाश मेरे साथी
प्रकृति पर दुष्परिणाम
प्रकृति का बुरा हाल
मैं घना विशाल ...मुझे संभाल !
भगवान सिंह जयाड़ा
-------जड़ और अतीत----
जड़ हमारी अतीत हैं ,
इसे न कभी कमजोर होने दो ,
पहिचान है इन से हमारी ,
कभी न इन को हिलनें दो ,
फल फूल है हम इस पेड़ के ,
जड़ हमारी शस्कृति हैं ,
पनपती रहे डाल इसकी ,
इस को न कभी मुर्झानें दो ,
हरी डालें हमको पैगाम देती है ,
सींचो सदा जड़ को पानी से ,
शस्कृति स्वच्छ रहेगी तब ,
वह फल फूलों से भर देती है ,
स्वच्छ पर्याबरण और शस्कृति ,
सदा एक दूसरे के ही रूप है ,
इनके रहने न रहनें पर ही ,
जीवन में छाँव और धूप है ,
प्रभा मित्तल
~ वृक्ष ~
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मैं वृक्ष, जिसने पाला पोसा
बड़ा किया मानव को
अपने रक्त बीज फलों से
सींच - सींच खुशहाल बनाया
धूप हवा पानी पर रह कर
खड़ा रहा दिन रात
जाड़ा गरमी वर्षा सहकर
अपनी छाँव तले बिठलाया
जो दे सका दिया इस जग को
तब भी क्या पाया मैंने--
उसने ही मेरा दोहन कर डाला ।
परहित जीना परहित मरना
यह सीख मिली थी मुझको ।
फिर भी जाने क्यों सजा मिली-
पहले मेरी शाखें काटी
फिर तन पर वार किया
धरती से अम्बर तक का दिल रोया
पर जिद्दी मन तो मानव का था
जड़ें उखाड़ भूमि से भी पृथक किया
जब त्याग दिया जीवन भी
तब भी मनुज ने काम लिया।
मेरी जननी मेरी धरती
विलग हुआ कहाँ जाऊँगा
संसार चक्र है चलता रहेगा
कोई बीज मेरा फूटा फिर से
तो नव जीवन पा जाऊँगा।
सुन, रे मानव मन ! तू चेत जरा,
अब तो समझ से काम ले,
गर नहीं रहा मैं , तब
प्रदूषण बढ़ता ही जाएगा, इस
विकास की आँधी के अंधे युग में
तू कैसे फिर जीवन पाएगा।
बालकृष्ण डी ध्यानी
जब आज ना रहेगा
सब कुछ इस में समाया है
इस की ही तू वो माया है
खेल रचा एक बीज ने
अंकुरित हुआ तब ये फल आया है
जड़ और तना का ये साया है
पत्तों से आयी तब घनी छाया है
फूलों ने ली उसमे अंगड़ाई है
मीठे फलों की बहार तब देखो आयी है
पृथ्वी की ये सब चतुराई है
हरयाली ओढ़े घटा छन छन आयी है
चार मौसम का वो यंहा गहना है
पेड़ों के संग ही हमे अब तो रहना है
इंसान तू कितना हरजाई है
सीखा जिस से उसकी जान गंवाई है
पेड़ ना रहेंगे तू भी ना रहेगा
बता तू कल किस को कहेगा
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/