Thursday, July 2, 2015

२६ जून २०१५ का चित्र और भाव



बालकृष्ण डी ध्यानी 

~अब भी आग बाकी है ~

अब भी आग बाकी है
मेरे सारे वो जजबात बाकी
उड़ी है राख थोड़ी थोड़ी मगर
दिल में अब भी अंगार बाकी है

देखो जल ना पाये वो
पूरी तरह बुझ ना पाये वो
चलना है उस पथ मेरे क़दमों को
सत्य की राह छूट ना पाये वो

ज़रा ज़रा अब लाल हुआ है वो
रक्त कहीं ये जम ना जाये वो
बहते रहे गर्म वो इन धमनियों से
कमाल खून का जिगर दिखा जाये वो

ये विशवास बाकी रहे
मेरा ये हिन्दुस्तान बाकी रहे
चढ़ेंगे यूँ ही सर माँ क़दमों में तेरे
ये देश भक्ति की आग जलती रहे

अब भी आग बाकी है ...............



Kiran Srivastava 
"आग"
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है ये आग
प्रतिशोध का...
नफरत का...
जलना...
खाक हो जाना
तब्दील राख में
अंततः कुछ न मिलना
यही है अंत
यही है परिणाम !!
तो क्यूं ना हम
समझें वजूद को
जीवन की सार्थकता को
सच्ची राहों पर चलते हुए
बचा कर रखें
उस उष्मा को
उस ताप को जो
आ सके काम
देश हित में
राष्ट्र हित में....!!!!!



नैनी ग्रोवर 
--- चिंगारी---

खामोश हुए शोले, मग़र चिंगारी अभी भी बाकी है,
फिर ज़िन्दगी से लड़ने की,
तैयारी अभी भी बाकी है..

ठहर जा चन्द रोज़, ऐ नामुराद गर्दिशे-दौरा,
आज़मा लिया सबको मग़र,
यारी अभी भी बाकी है...

ओढ़ के सफ़ेद चादर, बन तो गए कौए हैं हँस,
फितरत पर बदलेगी कैसे,
अय्यारी अभी भी बाकी है..

बदलती है तो बदल जाए, नज़र मेरे रहनुमा की,
अगले ही मोड़ पे "नैनी"
बागे-बहारी अभी भी बाकी है..!!



कुसुम शर्मा 
----नफ़रत-----

रूह भी विचलित
करुण रुदन से
हाहाकार मचा चहुँ ओर
नफ़रत की आग से
आतंकित हुआ संसार।

ह्रदय भी पीड़ा से
व्यथित हो रहा
देख के पशुवत व्यवहार
काम क्रोध मद लोभ के चलते
जीवन का हो रहा संहार !!


भगवान सिंह जयाड़ा 
----चिता के शोले----

पंच तत्व में मिल जाता है सबका यह शरीर,
यही इस मायाबी जीवन की कटु सत्यता है,
कोई जला दिया जाता है इन दहकते शोलों में,
किसी को इस मिट्टी में दफनाया जाता है,
गरूर की आग में जलता रहा जिंदगी भर,
जलना तो इस आग में था ही एक दिन,
मिर्ग तृष्णा में भटकता रहा जिंदगी सारी,
आखिर जीवन भर हाथ कुछ भी न आया,
मुट्ठी बाँध कर आया था इस जग में हर कोई,
खाली हाथ गया,न कुछ खोया और न कुछ पाया,


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~राख ~

नही जानता
ये सपने है या फिर
कोई अरमान
ये कोई जीवन है या फिर
कोई अलाव

आग इंसान के भीतर
जिन्दा रहती है सदा
होश सँभालने से लेकर
अंतिम सांस लेने तक

कभी सुलगती आग
जीवन को अनमोल बना देती है
कभी अन्दर की आग मनुष्य को
जीते जी जला डालती है

अंत होना ही है एक दिन
इच्छाओ का या जीवन का
'प्रतिबिंब' इसमें राख होते है
वो तमाम सुख और दुःख भी


प्रभा मित्तल 
~ अंगार ~
इन अंगारों की क्या बात करूँ
ये तो एकदिन बुझ ही जाएँगे
जो आग लगी है सीने में,बताओ
उन लपटों का अब क्या होगा

वक़्त का एक छोटा सा कतरा
बिन पूछे ही दिल में आकर
पत्थर बनकर ज़ख्म दे गया
जाने धड़कन का अब क्या होगा

अरमानों की भीड़ लगी है
और मन सन्नाटों में घूम रहा
यादों का ताप न सह पाई
वो शाम सिसक कर गा रही,
साँसो का साज तो टूट रहा-
नग़मों का मेरे अब क्या होगा।


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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