Wednesday, January 13, 2016

५ जनवरी २०१६ का चित्र और भाव



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~ हकीकत ~
कहने को तेरे शहर मैं रौनक बहुत है
मगर बदल जाती है ये तस्वीर लम्हा लम्हा
यूं तो सागर में लहर खिलवाड़ करती है
मगर साहिल संभाल लेता है नौका डरते डरते
पंछी अपनी जागीर समझ आते जाते है
मगर एक आहट डरा जाती है उन्हें उठते बैठते
ये खड़े मकान देते तो गवाही वक्त की है
मगर पता उन्हें भी इतिहास दोहराता है धीरे धीरे


किरण आर्य 
~आसमान चाहतो का~

सागर का किनारा
शाम की लालिमा
बड़ी बड़ी इमारते
थमी सी लहरों में
डोलती सी कश्ती
विचारों में मग्न
शांत सा मन
डूबता उतरता
सागर की लहरों सा
हिलोरे खाता
कभी गगनचुंबी
इमारतों से टकराता
उड़ते हुए परिंदे
बेकल मन को देख
मुस्कुराते
कानो में उसके कह जाते
सब भूल भरो एक उड़ान
हमारी तरह
और छू लो आसमां
चाहतो का अपनी





भगवान सिंह जयाड़ा 
-------जिंदगी एक कश्ती------
-----------------------------
जिंदगी भी एक डगमगाती कश्ती सी बन गई है,
साहिल के एक छोर से दूसरे छोर की दौड़ रह गई है,
शहरों को जोड़ने वाले इस कौतुहल भरे रास्तों में,
डगमगाती कश्ती और सहमें हुए दिलों की मजबूरी,
बस मंजिल को हासिल करने की तम्मना दिल में,
यह जिंदगी एक रोमांस और शंघर्ष से कुछ कम नहीं है,
रुक गए तो जिंदगी थम जायेगी चले तो मंजिल मिल जायेगी,
इस लिए कर हौसला ऐ मुसाफिर मंजिल को पाने का,
नहीं तो जिंदगी की यह दौड़ सदा के लिए रुक जायेगी




मीनाक्षी कपूर मीनू

इन्सां की भटकन
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

लम्बी ऊँची इमारतें
बाहर व् भीतर से
सजी हुयी
मगर...
इनके भीतर
बसा इंसान
कितना भिन्न है
बाहर से सजा-धजा
भीतर से खोखला है
आज के धर्म-कर्म
की तरह ,,,
नाव भी है नाविक भी
मंजिल भी
मगर ,,,,,,
कश्ती फिर भी
है फंसी ....
मंझदार में है
सबकी
उठो चलो...
ऐ मुसाफिर
जागो ..
समझ अपना
राजधर्म
समेट लो
फरेबी कर्म
कर्मठ तुम इन्सान बनो
मिल जायेगी
मंजिल ...
आडम्बर होंगे
आर-पार
मनस्वी....
तर जायेगी
नाव ...
कर लोगे तुम
भवसागर पार ...



Kiran Srivastava
"जीवन एक कश्ती"


 कोई पार जाता
कोई हार जाता
कोई है जो सागर मे
गोते लगाता...
ये जीवन की नइया
तभी पार होगी
कुशल मांझी हाथों में
पतवार होगा...
हो जीवन की कश्ती
गर मझधार में तो
दिखे ना तुम्हें जब
कोई भी किनारा
फिर भी खुदी को
बुलन्दी पे रखना...
डूबेगी ना तेरे
जीवन की नइया
अगर हौसला और
करम साथ होगा...!!!!!


प्रभा मित्तल 
~~ सागर किनारे ~~

सागर किनारे बैठकर,
मन में सुकून सा भर देतीं
किनारों से अठखेलियाँ करतीं
आती-जाती लहरों को,
दूर तलक निहारना,
मुझे अच्छा लगता है।

पानी पर भागती कश्तियाँ
डेरा डाले जहाज
अट्टहास करती तरंगें
यहाँ - वहाँ इतराते
डुबकियाँ लगाते जलचर
आसमान छूने की कोशिश में
ऊँचे से ऊँचा उड़ते नभचर।

घंटों देखती पर जी नहीं भरता
जिस दिन न जा पाती तो
ड्रॉइंग रुम की खिड़की से
बाहर ताकती रहती
कब दिन गुजर जाता
पता ही नहीं चलता ।

देखते ही देखते अब
युग बदल गया है
गगनचुम्बी इमारतें
समुद्र को बाँधने की
नाकाम कोशिश में
जलधारा से बातें करतीं हैं।

इस पार जीवन बसता है
उस पार रोटी की तलाश।
मन में अपार भटकन है
जो कल था वो बीत गया
आज यहाँ सब सम्भव है

क्षितिज पाने की चाह में
गगन से बातें करने को
हर प्राणी सुबह - शाम
नौकाओं का सम्बल ले
पानी पर सफर करता है।

ये हर दिन का खेला है
प्रगतिवाद का मेला है
गुमसुम सा हर आदमी
भीड़ में भी आज अकेला है।



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Sunday, January 3, 2016

९ दिसम्बर २०१५ का चित्र और भाव




प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
आखिर कब तक ?

एक स्वपन देखा था
मित्र और सृजन
हिन्दी का प्रतीक बने
बस एक प्रयास भर था
शुरुआत अच्छी थी
सहयोग भावो का
निरंतर मिलता गया
लेकिन शायद
प्रतिभा अब चमक उठी
नाम कहीं और मिलने लगा
सम्मान की अपेक्षा
स्वार्थ पूर्ण होने की
घोषणा करता चला गया
और फिर
समय एक बहाना बन गया
समूह दम तोड़ता
लेकिन फिर जी उठता
क्योंकि एक दो सदस्य
समर्पित है भावो के साथ
कितने प्रतिभाशाली
न अहम् न समय की सीमा
उनके सहयोग समर्पण की
साँसों के साथ चलता समूह
पर आखिर कब तक ????
अब निर्णय उनको ही लेना है
कब तक साथ चलना है
इंतजार मुझे भी है



भगवान सिंह जयाड़ा 
-----मन का द्वन्द हाँ या ना ----
--------------------
हाँ या ना की उलझन में फंस कर रहा गया ,
निर्णय की कशोटी पर सदा पिछड़ सा गया ,
अजीबोगरीब एक उलझन मन में बन गई ,
हाँ कहूं कि ना कहूं दिल में बात फंस गई ,

जज्ज्बात में बुराई का साथ नहीं देता ,
कड़वी सच्चाई का कोई यहाँ साथ नहीं देता ,
है कुछ चाहनें वाले अपने अभी भी यहाँ ,
बरना हौसला कुछ कहने का कभी ना होता ,

इस लिए कर लो पक्का दिल को अपना ,
हाँ या ना में मत उलझावो अब अपना सपना ,
अब मन का द्वन्द मिटा के करो सही फैसला,
जगावो अपने मन में एक नयाँ जीवंत हौसला,



डॉली अग्रवाल 
मन की पीड़ा -- हां ना घूमती ज़िन्दगी

ये लो आज वो फिर पिट गयी
रोटी शायद कहि से जल गयी
मार खा दूसरी रोटी बना लाई
सात फेरे लिए थे , आज चक्कर में आ गयी
वो उसकी पत्नी थी
शायद सारे धर्म उसके हिस्से आ गए थे
सुबह की मार ,रात का दुलार
ये सोच वो जीती रही
अब कहाँ जाउंगी
अकेली नहीं रह पाउंगी
इस तनहा सी ज़िन्दगी के
कितने दावेदार हो जायँगे
घर की दहलीज पार की तो
जाने कितने मर्द खड़े हो जायँगे
ये सोच जीती चली गयी
कल की लक्षमी आज कामवाली हो गयी
रात का मनुहार , सुबह की गालियां हो गयी
लड़की शायद इसलिए ही आज भारी हो गयी !!



मीनाक्षी कपूर मीनू 
"शायद हाँ ,शायद नहीं"
*************
ओह ...
क्यों होता है ऐसा
उसके साथ ही
लोगो की भीड़
से घिरी वह
लेकिन लगता है
अकेली है
समझ सकेगा
कोई उसको कभी
शायद हाँ
शायद नहीं ....
भरी आँखों से
हंस रही है वह
दुनिया को धोखा
दे रही है
खुद को
गुमराह करके
दूसरों को राह
दिखा रही है
लेकिन कब तक
आखिर कब तक
इस तरह जी
सकेगी वह
अपने आंसू पी
सकेगी वह
आखिर वह भी
इन्सां है
उसमें भी जां है
अपनी उदासी को
अपना साथी
बना कर
कब तक जी
सकेगी वह
कब तक
आखिर कब तक
मनस्वी ...
जी सकेगी भी
या नहीं
शायद हाँ
शायद नहीं ......

Kiran Srivastava
 "दुविधा"

क्या करुं क्या ना करुं
जीवन कैसे निर्वाह करुं...?
दुविधाएं अंबार यहां पर
हां ना पर है जोर कहां पर
मन पे हावी दिल होता है
दिल पे हावी है दिमाग...
मानव हर पल ही भटका
हां ना में अटका रहता
जब निर्णय ले भी लेता
फिर भी चैन सदा खोता
लाभ-हानि का खटका रहता
मन उसमें ही अटका रहता
फिर भी निर्णय तो लेना है
जीवन में आगे बढना है...!!!!!


प्रभा मित्तल
~~कैसे कह दूँ ..हाँ या ना~~
~~~~~~~~~~~~~~~~
कभी लगता है .. हाँ है,
कभी लगता है..नहीं है,
झाँक रही है ज़िन्दगी
टिमटिमाती आँखों से
आस की डोर से बँधी
'हाँ' और 'ना' के बीच
एक पेंडुलम की तरह।

पल छिन महीने बीत रहे हैं
जूझ रहे हैं नियति से,
और हँस रहे हैं हम
अपनी ही तक़दीर पर।
काट रहे हैं
वक़्त की ही लकीर को
वक़्त की धार पर चलकर।

ताकि कुछ वक़्त पा सकूँ
सुकून से अपने सुकून का
आ सकूँ यहाँ
गुज़ारने एक पल वक़्त का
फिर तुम ही बता दो
मैं कैसे कह दूँ ..हाँ' या 'ना'।

कैसे बह जाने दूँ
समय की धार में यूँ ही,
सहेज कर रखा था जो
बीता एक जमाना,
नहीं भूलेगा इस सृजन का
रचा वो इतिहास पुराना।

साँस जब तक है
आस भी बाकी है
उम्मीद नहीं छोड़ी है
लौट आने की चाह में
विश्वास अभी बाकी है।

'ना' की कोई गुँजाइश नहीं,
बस साथ बनाए रखना तुम
'हाँ' हम फिर आएँगे।
इन तस्वीरों में प्राण फूँकने
हम फिर फिर आएँगे।



किरण आर्य 
तय है चलना

कभी हो जाते हालात कुछ ऐसे
की चाहते चढ़ जाती है बलि
कर्मों की
जिन्दगी कर्म प्रधान ही तो है न
कर्मों के चक्र से बंधी
दौडती निरंतर जिन्दगी
और उसके साथ हम भी
ये दौड़ अनवरत् अंधी सी
सघन गलियारों से गुजरती
सुबह से रात तक
नजरिये अलग अलग
कर जाते खड़ा आसानी से
कटघरे में
मूक मौन मन बेबसी पर अपनी
मुस्कुराता फीकी सी हंसी
लेकिन साथ चलने का जज्बा
हाँ और न से परे
तय है चलना साथ थाम हाथ
भ्रम भ्रांतियों से परे
मौका अवसर और विश्वास जरा सा
और कदम होंगे साथ
थमें भी और बढ़ते हुए भी
इंतज़ार के साथ आस का दीप
रहे ज्वलंत
बस ये है दुआ और आशा भी


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/