प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~ हकीकत ~
कहने को तेरे शहर मैं रौनक बहुत है
मगर बदल जाती है ये तस्वीर लम्हा लम्हा
यूं तो सागर में लहर खिलवाड़ करती है
मगर साहिल संभाल लेता है नौका डरते डरते
पंछी अपनी जागीर समझ आते जाते है
मगर एक आहट डरा जाती है उन्हें उठते बैठते
ये खड़े मकान देते तो गवाही वक्त की है
मगर पता उन्हें भी इतिहास दोहराता है धीरे धीरे
किरण आर्य
~आसमान चाहतो का~
सागर का किनारा
शाम की लालिमा
बड़ी बड़ी इमारते
थमी सी लहरों में
डोलती सी कश्ती
विचारों में मग्न
शांत सा मन
डूबता उतरता
सागर की लहरों सा
हिलोरे खाता
कभी गगनचुंबी
इमारतों से टकराता
उड़ते हुए परिंदे
बेकल मन को देख
मुस्कुराते
कानो में उसके कह जाते
सब भूल भरो एक उड़ान
हमारी तरह
और छू लो आसमां
चाहतो का अपनी
भगवान सिंह जयाड़ा
-------जिंदगी एक कश्ती------
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जिंदगी भी एक डगमगाती कश्ती सी बन गई है,
साहिल के एक छोर से दूसरे छोर की दौड़ रह गई है,
शहरों को जोड़ने वाले इस कौतुहल भरे रास्तों में,
डगमगाती कश्ती और सहमें हुए दिलों की मजबूरी,
बस मंजिल को हासिल करने की तम्मना दिल में,
यह जिंदगी एक रोमांस और शंघर्ष से कुछ कम नहीं है,
रुक गए तो जिंदगी थम जायेगी चले तो मंजिल मिल जायेगी,
इस लिए कर हौसला ऐ मुसाफिर मंजिल को पाने का,
नहीं तो जिंदगी की यह दौड़ सदा के लिए रुक जायेगी
मीनाक्षी कपूर मीनू
इन्सां की भटकन
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
लम्बी ऊँची इमारतें
बाहर व् भीतर से
सजी हुयी
मगर...
इनके भीतर
बसा इंसान
कितना भिन्न है
बाहर से सजा-धजा
भीतर से खोखला है
आज के धर्म-कर्म
की तरह ,,,
नाव भी है नाविक भी
मंजिल भी
मगर ,,,,,,
कश्ती फिर भी
है फंसी ....
मंझदार में है
सबकी
उठो चलो...
ऐ मुसाफिर
जागो ..
समझ अपना
राजधर्म
समेट लो
फरेबी कर्म
कर्मठ तुम इन्सान बनो
मिल जायेगी
मंजिल ...
आडम्बर होंगे
आर-पार
मनस्वी....
तर जायेगी
नाव ...
कर लोगे तुम
भवसागर पार ...
"जीवन एक कश्ती"
कोई पार जाता
कोई हार जाता
कोई है जो सागर मे
गोते लगाता...
ये जीवन की नइया
तभी पार होगी
कुशल मांझी हाथों में
पतवार होगा...
हो जीवन की कश्ती
गर मझधार में तो
दिखे ना तुम्हें जब
कोई भी किनारा
फिर भी खुदी को
बुलन्दी पे रखना...
डूबेगी ना तेरे
जीवन की नइया
अगर हौसला और
करम साथ होगा...!!!!!
प्रभा मित्तल
~~ सागर किनारे ~~
सागर किनारे बैठकर,
मन में सुकून सा भर देतीं
किनारों से अठखेलियाँ करतीं
आती-जाती लहरों को,
दूर तलक निहारना,
मुझे अच्छा लगता है।
पानी पर भागती कश्तियाँ
डेरा डाले जहाज
अट्टहास करती तरंगें
यहाँ - वहाँ इतराते
डुबकियाँ लगाते जलचर
आसमान छूने की कोशिश में
ऊँचे से ऊँचा उड़ते नभचर।
घंटों देखती पर जी नहीं भरता
जिस दिन न जा पाती तो
ड्रॉइंग रुम की खिड़की से
बाहर ताकती रहती
कब दिन गुजर जाता
पता ही नहीं चलता ।
देखते ही देखते अब
युग बदल गया है
गगनचुम्बी इमारतें
समुद्र को बाँधने की
नाकाम कोशिश में
जलधारा से बातें करतीं हैं।
इस पार जीवन बसता है
उस पार रोटी की तलाश।
मन में अपार भटकन है
जो कल था वो बीत गया
आज यहाँ सब सम्भव है
क्षितिज पाने की चाह में
गगन से बातें करने को
हर प्राणी सुबह - शाम
नौकाओं का सम्बल ले
पानी पर सफर करता है।
ये हर दिन का खेला है
प्रगतिवाद का मेला है
गुमसुम सा हर आदमी
भीड़ में भी आज अकेला है।
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
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