#तकब३ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #३ ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है
१. इस चित्र में है दो चित्र - दोनों में सम्बन्ध स्थापित करते हुए, कम से कम १० पंक्तियों की रचना का सृजन करे शीर्षक सहित.
यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
२. इसमें एक शर्त है हर रचनाकार को रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है कि आपने रचना में उदृत भाव किस कारण या सोच से दिया है,
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए.
४. प्रतियोगिता २४ मई २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६.आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
[ इस बार के विजेता है - श्री गोपेश दशोरा जी ]
१.
मदन मोहन थपलियाल "शैल"
~किस्मत का लेखा ~
कहते हैं ज्ञानी पंडित,
सब है किस्मत का लेखा,
कौन बनाता कौन बिगाड़ता,
क्या है सच, किसने देखा .
सदियाँ बीत गईं,
अपनी उल्झन सुलझा न सके,
हैं विदूषक ज्ञान के हम,
किस्मत का लेखा मिटा न सके.
एक ओर सलीके से गुंथी बेंणी ,
नागिन सी लहराए,
खुश है बाला , भाग्य पर अपने इतराए.
दूजी के नैनों में घोर विषाद,
केशों का श्रृंगार नहीं,
एक दूजे में उलझे हैं सब,
दिखता कोई प्रतिक्रम नहीं .
एक सी उमर है दोनों की,
एक भाग्य पर इतराती इठलाती,
नृत्य कर अंगना में,
अपने जीवन को धन्य बनाती.
दूसरी वैराग्य सा कुंठित मन,
निष्प्राण सा जीवन धन,
हास परिहास नहीं दूर तलक,
आठों पहर नयनों में रुदन.
एक ओर बाला के पैरों में घुंघरू,
मन मयूर तरंगित होता है,
दूसरी ओर क्षितिज पे टिकी निगाहें,
कुछ भी स्मरण नहीं होता है.
कहीं स्वच्छंद छंद सा जीवन,
कहीं न आस जीवन की,
कहीं ताल देती ध्वनि पग की,
कहीं विस्मृत लय जीवन की.
सदियों से यों ही भ्रमित है मानव,
कहता है लेख विधाता की,
कैसे दोष दें नारायण को,
अपने कर्मों का फेर है ए,
नहीं लेख विधाता की!
टिप्पणी :
भाग्य क्या है, भाग्य कौन निर्धारित करता है, आजतक एक उलझन के सिवाय कुछ नहीं है . जैसा है सब ठीक है. .
२.
बालकृष्ण डी ध्यानी
~नारी का मन~
पुरुष-मन रिसता
नारी का सम्मान
क्यों नहीं पढ़ पाता पुरुष
नारी का मन ...
सिर्फ देह से पहचाना
सदियों से उसकी
प्रखरता, बौद्धिकता, सुघड़ता
और कुशलता को परे रख
उसके रंग, रूप
यौवन, आकार, उभार
और ऊंचाई के आधार
पर परखा गया
नारी का मन ...
वही नारी फिर खड़ी
दहलीज पर
दिवस के मुहाने पर
खुद को संबोधित
आकर्षक लफ्जों को संग
अपनी हथेलियों में पकड़े
आज भी वह
अर्थ तलाश रही है इनके
अब भी उन अकेली रातों में
नारी का मन ...
अस्तित्व के असंख्य प्रश्न
आंदोलनों और जागरूकता बाद भी
उतना ही गंभीर और चिंताजनक
जितने सदियों पहले था
बस प्रश्नों के चेहरे बदल गए
और उनके परिधान बदल गए हैं
प्रश्नों का वो मूल स्वरूप
आज भी यथावत और अपूर्ण समाधान
नारी का मन ...
ना बलात्कार, ना अत्याचार
ना हत्याएं बंद ना हिंसा
अपहरण ना आत्महत्या कम हुई
लगातार आंकड़ें बढ़ रहे
प्रशासनिक शिथिलताएं बेबसी
और आँखें दिखा रही है
शर्मा भी नहीं पा रही है
उस बेबसी का
नारी का मन ...
सकारात्मक सोच कमी
सारी हदें पार
समाज में व्याप्त
नकारात्मकताएं कहीं ना कहीं
आकर घेर ही लेती
मुस्कुराने की तमाम कोशिशों को
भारी पड़ती
एक मासूम और मार्मिक चीख
नारी का मन ...
वह चीख
देह के छले जाने
आसमान को चीरने की ताकत रखती
पर उन तक नहीं पहुंच पाती
उसके सम्मान और सुरक्षा का
जो जिम्मेदार हैं
कदम-कदम सामाजिक बेशर्मी
मन में घुट कर रह जाती
नारी का मन ...
दिन-प्रति-दिन
चीखते प्रश्नों की बढ़ती भीड़
उत्तरों का गंतव्य सदियों से लापता
कभी-कभी लगता
बढ़ती विकृतियों का कारण
सामाजिक सोच
जो जन्म से लेकर मृत्यु तक
नियमों के खाकों में जकड़ देती
पुरुष देख-सुन नहीं पाता
स्त्री के भीतर कितना
दर्द रिसता
भावनात्मक वेदना में फंसा
नारी का मन ...
प्रसव पीड़ा कितनी सघन
देखने-महसूसने के बाद भी
मां के मन दुखा देते हैं
आत्मिक स्तर स्त्री-सम्मान
अनुभूत करने की कमी
नारी का मन ...
पुरुष इतना निर्दयी
नासमझ नहीं होता
दर्द और प्रताड़ना
फर्क को पहचान ना सके
मनोवैज्ञानिक सामाजिक कारणों
का आभाव तलाशा और उपचार
अब तक ना हो पाया
नारी का मन ...
पुरुष मन भी भीगता
पुरुष भी पसीजता,पुरुष भी पिघलता
बस उसके मन के किसी कोने में
एक तार झनझनाने की देर
स्त्री-सम्मान , औरत का आदर
पुरुष बस इतना ही तो दूर
स्त्री अवांछनीय शारीरिक दूरी बढ़े
और यह 'दूरी' कम हो
नारी का मन ...
टिप्पणी :
पुरुष-मन और नारी के मन के बीच फंसी नारी की वेदना अपने से बुझती और अपनों को और परायों को अपना बनाती ये नारी की वेदना
३.
Sunita Pushpraj Pandey
~नारी व्यथा~
नारी मन की व्यथा देख
जिया रहा अकुलाय
मन में नासूर पर पैरो में झाझर
चेहरे पर मुस्कान फिर भी दिल है घायल
बन कर अदाकारा सारे जग को लुभा रही है
घर आ झूठी लोरी गा
खाली पालना हिला खुद को बहला रही है
वैधव्य की चिता पर सूनी माँग सजा
हर रोज सेज गैरो की सजा रही है
खुद से रो रही है खुद ही गा रही हैं
त्याग अबला का चोला सबला बन
गुनगुना रही है
दूसरों की आरजू को तकदीर मान
मौत नही आती बस इसलिए जीये जा रही है।
टिप्पणी :
भाग्य की विडंबना बिगड़े में कोई साथ नही देता चारो ओर सिर्फ घनघोर अंधेरा उजाले की एक किरण की तलाश में जीये जा रही है
४.
Ajai Agarwal ( आभा अग्रवाल )
''आज मैं दुःख को वरूँगी '''
-----------------------------
सुख दुःख दोनों मेरे अपने
सुख दुःख की निशा दिवा में
पनपे मेरा यह जीवन
झूम के नाचूं मै मयूर सी
और कभी आंसू झम झम
हंसी रूदन मेरे संग यूँ ही
छाया साथ ज्यूँ कदम - कदम
पूर्ण कहाऊं तब ही जब
हंसती रोती सी दिखती हूँ
कभी बादलों से ओझल चंदा
फिर चंदा से ओझल बादल
हंसी रुदन मेरे आंचल में
मैं इनको जीती प्रति पल
बाबुल के आंगन की चिड़िया
नाचे गाये ,धूम मचाये
सौरभ से भर दे अंगने को
उषा सांझ की लाली बिखराये
प्रिय के नेह पगे आमन्त्रण ने
तारों सी जगमग चूनर पहना दी
कुमकुम चूर्ण उड़ा कर पी ने
केसर सा जीवन महकाया
कैसा कोमल मृदु स्पंदन !
मेरे उर में धड़क रहा यह
मृदुल और हुई कुछ मैं
उदर में नन्ही परी है ; सुनकर !
पर , तुमने ये क्या कुचक्र रचाया
नन्ही कली सांस न ले पावे
मुझको ही बंधक बनाया ?
तोड़ती हूँ मैं ये बंधन ,
आज मैं दुःख को वरूँगी
ये सृजन अब हक है मेरा
राह कितनी कंटकित हों
मैं आज -अभिशापों को वरूँगी
आज मैं विद्रोहिणी -
रो लिया जितना था रोना
पोंछ आंसू धारणा की ,
जन्म लेगी बिटिया मेरी
मेरे सर का ताज होगी ,
मेरे अंगने के हिंडोले
पे इसी का राज होगा
नाचती अर खिलखिलाती
जब वो मुझे अम्मा कहेगी
दुःख सभी कपूर होगें
अश्रु दुःख ज्वाला हरेंगे ||आभा ||
टिप्पणी
हाल ही में दिल्ली में गोविन्दपुरी में दो दिन की बच्ची को कोई फेंक गया सड़क पे ,उसी वेदना का स्वर |
५.
Prerna Mittal
~ प्रतिक्रिया ~
सभी के जीवन में खट्टे-मीठे क्षण हैं आते,
कभी - कभी कुछ अत्यंत कड़वे भी हो जाते ।
कुछ स्वीकारते, हँसते - गाते, मुस्कुराते चलते,
कुछ नकारते, रोते - झींकते, कुड़कुड़ाते जीते ।
सुख में आनंदित, दुःख में शोकाकुल होना,
यह तो प्रकृति है, सहज और अपेक्षित है ।
पर सरल नहीं है, प्रतिकूलता को अपनाना,
सभी चाहते जग को अपने अनुसार चलाना ।
चुनौती है सुख और दुःख में समरूप रहने की,
अनुमोदन कर, मुस्कान भर जीने की व जीने देने की ।
दुर्दिनों से मत घबराओ,
सौभाग्य पर ना इतराओ ।
कुसमय का करो, कमर कसकर आमना-सामना,
सुसमय पर आमोद-प्रमोद, दिल खोलकर हर्षाना ।
स्वर्ग और नर्क दोनों इसी धरती पर,
भोगते क्या, यह निर्भर है तुम पर ।
टिप्पणी :
चित्र में एक नवयौवना ख़ुश है व मस्ती में झूम रही है वहीं दूसरे चित्र में एक युवती बेहद दुखी प्रतीत हो रही है । प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी समय अनुकूल होता है तो कभी प्रतिकूल परंतु दोनों ही परिस्थितियों में उसकी प्रतिक्रिया उसके जीवन की दशा तथा दिशा निर्धारित करती है ।
६.
डॉली अग्रवाल
~मन की कसक~
क्या सारे सपने
टूटने पर
आवाज करते है ?
क्या सारे दर्द
सिसकिया लेते है ?
क्या सारे सच
उलाहना देते है ?
मुझे नहीं लगता ------
में पायलिया बाँध
नाचती हूँ ,
अँधेरी सी राहों में ,
खुशियो को पिरोती हूँ
प्यार के धागों में
कभी - कभी खुद को
उकेरती हूँ
इन उजड़े हुऐ कोरे कागज पर ---
क्योकि
मुर्दो के शहर में जीना है
इसलिए - खुद को खुद से मिलाना है !!
टिपण्णी
-- भटकती मृगतृष्णाये जीवन की
हसरत फिर भी बाकी जीवन की !!
७.
नैनी ग्रोवर
~लाडो~
पैरों में पहने पायल,
माथे पे बिंदिया सजाये,
छम-छम नाचे, बिटिया रानी,
स्वर्ग सा, घर हो जाए..
भर आँखों में, सपने सुहाने,
कजरा जब वो लगाती है,
लिए खुशियाँ, झोली में अपनी,
माँ मन्द-मन्द मुस्काती है,
अपनी चंचल हँसी से लाडो,
बाबुल की गलियाँ महकाए...
फिर आई रस्मों रिवाज़ की आंधी,
हो गई बिटिया पल में पराई,
बाबुल ने सब कुछ है लुटाया,
जब बैठ डौली में पी घर आई,
नव जीवन में धरती पाँव,
कभी शर्माए कभी घबराए...
अचानक फिर एक गाज गिरी,
दिल टूटा अँखियाँ भरीं-भरीं,
उजड़ने लगी, प्रीत की बगिया,
रहने लगी वो डरी-डरी,
करे प्रार्थना प्रभु से निसदिन,
कोई गलती, उससे ना हो जाए..
दिन रात के ताने, सोने ना दें,
दहेज़ तो देखो, क्या है लाई,
दो कौड़ी का सामान है भेजा,
कौन करे है ऐसी विदाई,
चूर-चूर हुआ नाज़ुक सा दिल,
हर पल वो तो मरती जाए..
रोते-रोते सो गई लाडो,
बांचे सपने में, बाबुल की चिठ्ठिया,
हाँ की है विदाई, तेरी मैंने,
नहीं की है दिल से पराई बिटिया,
जागी सुबह, लिए इक मुस्कान,
समेटा अपना, सब का सब सामान,
शिक्षित हूँ मैं, नहीं कमज़ोर किसी से,
क्यूँ कर कोई मुझे सताये...!!
टिप्पणी:
दहेज़ की खातिर हंसती खेलती लड़की पे ज़ुल्म, और लड़की का दर्द सहते हुए भी, एक मजबूत फैंसला ...
८.
Kiran Srivastava
(सुख-दुख)
सुख में जब तुम नाचे रे मन
दुख में आखिर रोये क्यूं.....
जीवन दुख-सुख का है अनुभव
दोनो जीवन में है संभव
सुख में जब भूले हम दुख को
फिर दुख में याद सताये क्यूं...
मेहनत लगन धैर्य अनुशासन
जीवन में बहुत जरूरी है
घडी परीक्षा की जब आयी
तब तुम आखिर सोये क्यूं.....
सुख आकर जब चला गया
तब दुख का फिर रोना क्या
इसको भी कल जाना है तो
इससे फिर घबराये क्यूं.....
सुख में जब तुम नाचे रे मन
दुख में आखिर रोये क्यूं...!!!
टिप्पणी-
जीवन परिवर्तनशील है,सुख-दुख आनी-जानी है!
हमें सुख में बहुत खुश और दुख में हताश नहीं होना चाहिए!
९.
गोपेश दशोरा
~तब और अब ~
मेरे पेरों की थिरकन, जो रम्भा की याद दिलाती थी,
मुस्कान मेंरे अधरों की, जो कल-कल गीत सुनाती थी।
वो दिवस जरा तुम याद करो, जब पहरो बैठा करते थे,
गीतों में मेंरों भावों को, तुम अपलक निरखा करते थे।
मेरे घूंघरू की झनकारों को, अपना जीवन माना था,
आती जाती सांसो को, तुमने ही सरगम माना था।
मेंरे भावों की आभाओं को, तुमने ही साकार किया,
मेंरे सपनों को आशाओं को, तुमने ही आकार दिया।
विश्वास पे तेरे छोड़ सभी, तुझको अपना वर माना था,
रिश्ते नातों को तोड़ सभी, मुझको तेरे घर जाना था।
क्या हुआ अचानक यूं तुमको, बेसुरे हुए सब सुर मेरे,
घूंघरू बांधे तो यूं बोला, जैसे तुमको गणिका घेरे।
मेरे जिन भावो पर रीझे, वो भाव तुम्हे अब खलते है,
रोते रहते है रात-दिवस, ये दाव कहां अब चलते है।
मोड़ के मेरे जीवन को, इस तरह से तुमने तोड़ दिया,
ज्यों फूल तोड़ के डाली से, वन में ही उसको छोड़ दिया।
टिप्पणीः
जिन खुबियों को देख कर या पसन्द करके एक पुरूष जब किसी स्त्री से विवाह करता है, तो वे ही खुबिया बाद में परेशानी का सबब बन जाती है। एक औरत को ही हमेशा समझोता करना पड़ता है।
१०.
किरण आर्य
.......किस्मत......
संस्कारो का लादकर बोझा
शौक को फिर मिली उड़ान
संगीत स्वरों पर थिरकता मन
आज नृत्य बना मेरी पहचान
किस्मत को सिरहाने रख
स्वप्न से किया मिलन
अपना समझ उस दैत्य को
कर दिया सब कुछ समर्पण
धोखा खा बाजारू हुआ तन
मन बेचने मजबूर हुआ अंतर्मन
रूठे गए सपने, संस्कार हुए नग्न
समाज बहरूपिया, तार तार जीवन
पुलकित हुआ सौन्दर्य मन का
मातृत्व का किया जब वरण
दुःखो की बाँध पोटली
ममता से भर ली अपनी झोली
वक्त की परछाई में
कली से बन फूल खिल रहा यौवन
बिखर जायेगी पंखुड़ियों सी
सोच कर यह हृदय कर रहा रुदन
व्यथित तन हो रहा कंपित
जिस्मफरोशी से मन आतंकित
रौंद लेगा फिर एक दानव
बिटिया के लिए माँ का मन आशंकित
पल पल मरती आत्मा उसकी
खुद के लिए घृणा का आभास लिए
चिन्ताओ का कैसे हो निवारण
जी रही वह परतंत्रता का चरित्र लिए
टिप्पणी:
एक प्रतिभा का मजबूरी और किस्मत को समर्पण और फिर अपनी बच्ची की किस्मत में भी वही भविष्य दिखने की आशंका का दर्द
१२.
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~अर्श से फर्श तक~
रूप की अप्सरा बन, मुद्राओ का करती चयन,
लबों पर ओढ़ मुस्कान, बाते करते उसके नयन
नृत्य तरंगित है मनोहरी, गायन का स्वर करुण
हर थाप पर नियंत्रण, रोज बिकता उसका यौवन
मर्यादा का कर उलंघन, असुर कपाल करता संचालन
मन हार झेल यातना, बस करती रोज गंगा स्नान
दुःख के भारी पर्वत, हृदय चीरते संकीर्ण उद्बोधन
नाम काम में समर्पित, रह गया याद बस संबोधन
काल खंड देते गवाही, तिरस्कृत होती शिथिल काया
प्रखर लालसा होती छिन्न, दुःखों का मंडराता साया
वेदना की असंख्य चीखें, डराती फिर उसे अपनी छाया
अंतर्चेतना की परतों पर, अंकुश लगाकर फलती माया
रुदन भाव का समावेश, कठिन फिर जीवन यापन
उतर रही अश्रु धारा, अपवित्र देह कर रही संताप
समाज से हो त्रिस्कृत, करूण स्वर फिर गुंजायमान
तहजीब हो गई निवस्त्र, नगरबधू अब बनी अभिशाप
टिप्पणी:
वैश्यावृति के पेशे से जुड़े लोगो का एक उम्र के पश्चात जीवन दूभर हो जाता है उनके सुख और दुःख के सफर को चंद शब्दों में कहने का प्रयास किया है....
१२.
Laxmi Rawat
~इक दिन था~.
इक दिन था
हंसती थी में
गुनगुनाती थी में
सजती थी में
सवंरती थी में
सपनों में सपनें देखती थी में
रातों को जागती दिन में सोती थी में
आज भी रातों को जागती दिन को सोती हूँ में
आज भी सजती सवंरती हूँ में
फर्क सिर्फ इतना है की
पहले खुद के लिए सजती थी मैं
पहले खुद के लिए संवरती थी मैं
आज औरों के लिए हंसती हूँ मैं
आज पेट के लिए सजती हूँ में
टिप्पणी:
रचना में मैंने दो भाव देखे पहले चित्र में एक खूबसूरती जिसमे उमंग ख़ुशी सब है ,दूसरे में भी खूबसूरती है ... खूबसूरत आँखे है मगर ढेर सारा दर्द लिए लगा जैसे वो अपने अच्छे दिनों को याद कर रही है
१३.
भगवान सिंह जयाड़ा
----नारी तेरे कितने दर्द----
अबला तू सबला बन जा अब ,
तोड़ फेंक अब पांवों की बेड़ी ,
शक्ति रूपणी नारी कब तक ,
घिसती रहोगी यह नाजुक एड़ी ,
छोड़ दे अब उन महफिलों को ,
जहां नवाबों ने तुझे खूब नचाया ,
दे कर झांसा धन ,दौलत का ,
तेरी आबरू की दौलत को लुटाया ,
नोच दे उन कातिर आँखों को ,
जिन्होंने तुझ पर जुल्म बरपाया ,
बन कर भेड़िया जिन जालिमों ने ,
तुझ को नोच नोच कर खाया ,
हर शिशकति आहें कब तक ,
जुल्म सदा यूँ सहती रहेंगी,
इन आँखों में दर्द के यह आंशू ,
कब तक यूँ ही पोछती रहोगी ,
धर रूप चंडी का तुम कभी ,
अपनी आबरू की रक्षा करो ,
जालिम जमाने की वह निगाए ,
उन पर काल बन कर टूट पडो ,
पोंछ दे अब बिवसता के आंशू ,
कर हौसला नई जिंदगी जीने का ,
दुःख दर्द सब बिसरा दे दिल के ,
कर हिम्मत जीवन जहर पिने का ,
मन मौज और स्वछन्द जी अब ,
जगा खुद में एक दृढ शक्ति को ,
टिप्पणी
-आज कल के माहौल को देख कर ,जहां कदम कदम पर नारी को अबला समझ कर , उस के साथ कई जुर्म हो रहे है ,यही पिरेरना पर आधारित मेरी इस कबिता के भाव है ,जिस में नारी शक्ति को जगाने का आवाहन किया है,,धन्यबाद
१४.
अलका गुप्ता
~~~~~~~~~
ठिठके हैं पाँव
~~~~~~~~~
इम्तेहान सख्त सा सख्त अजमाइश भी ।
जिस्म और रूह की सरसरी पैमाइश भी ।।
लेती है जायजा हर....निगाह मगरूर सी ।
कसौटी हो औरत ..ज्यूँ ...चश्मेबद्दूर सी ।।
ठिठके हैं पाँव दर पे क़ातिल नसीब के ।
चढ़ गए पायल में घुँघरू उस गरीब के ।।
देखे हैं मंजर-ए-खौफ...हर बार यहाँ ।
संदिग्ध है इंसान.. तेजाबी वार यहाँ ||
बेशब्र तिरी ही ख्वाहिशों का तमाशा बनी |
जली कभी शोलों में कभी रक्काशा बनी ||
ठिठके हैं पाँव दर पे क़ातिल नसीब के ।
चढ़ गए पायल में घुँघरू उस गरीब के ।।
कर मुआयना बेगैरत सी हैवानियत का ।
बोता है बीज .. हर बार अपने ईमान का ||
देख खुदा का नूर है....सदाओं में...उसकी ।
पहचान लो माँ को अपनी..सूरत में उसकी ।।
टिप्पणी
मैं तो कहती हूँ हर औरत की अपनी तकदीर उसके हालात केजिम्मेदार ...ये समाज है उस समाज का अपना नजरिया है ...उसको ये समाज या ख़ास कर पुरुष वर्ग अपनी ही नजर से देखता है और जो ठप्पा चस्पा करना चाहता है वही जड़ देता है ...वरना एक रक्काशा का दिल भी कितना पवित्र हो सकता है यह तो वही जानती है या उसकी मजबूरियाँ ...मेरा मानना है अंदर से औरत सिर्फ एक माँ ही है...बस उसके कुछ हालतों का जिकर ही कर सकी हूँ अपनीइस कोशिश में..
१५.
कुसुम शर्मा
~मन की व्यथा~
मन को व्यथा बताऊँ कैसे,
इसको अब समझाऊँ कैसे !
आज जिसे धिक्कार रहे ,
कल को वो अपनाये कैसे !!
सारे नाते छूट चुके है ,
वो हमको अब भूल चुके है !
जो करते थे प्यार सदा ,
वो हमसे अब रूठ चुके है !!
दुनिया ने ठुकराया है ,
हमको कलंक बताया है !
पुरूषो की इस दुनिया मे
तन का मोल लगाया है !!
मन के अरमाँ हम क्या जाने ,
सिंदूर की किमत क्या पहचाने !
जब पाव मे घुँघरू बन्द दिये ,
चूड़ी बिन्दिया क्या जाने !!
कोई तन का मोल लगाये ,
कोई हमको बेच के खाए !
कोई हमे नचाए ,
कोई नोच के खाए !!
यही है भाग्य हमारा ,
कैसे इसे ठुकराये !!
टिप्पणी :-
एक वैश्या के मन की व्यथा जो खुद को समझा रही है कि उसकी इस दुनिया मे प्रेम वर्जित है कोई उसे अपना नही बना सकता !!
१६.
Raj Malpani
-- औरत की गाथा--
ब्याहने की उम्र जो आई
अनजाने से ब्याह दी गयी.
एक ही रात में इज्जत लुट गयी
ता-उम्र जिसकी खातिर कैद रही.
अगले दिन ये खबर हुई..
की एक अय्याश ने मांग भरी..
मजबूरी में मैंने अपने
सभी खजाने लुटा दिए
जिस्म के भूखे हैवान को
हवस के साधन जुटा दिए
जो औरत के हक की खातिर
नारे रोज़ लगाते हैं...
भेष बदल कर अँधियारे में
वो भी अक्सर आते हैं...
यही सोच ममता का आँचल
खुद ही मैने तार किया...
पतझड़ मे जो कली खिली थी
उसको जिंदा गाड़ दिया...
लाश जिस्म की मेरी
अब भी बिस्तर पे ही सजातीं हूँ
बोझ बड़ा खलता है दिल को
फिर भी अक्सर हँसती हुँ
टिप्पणी:
मैं नहीं जानता कि सबने क्या मन में रख कर इन रचनाओ को लिखा लेकिन मेरे विचार से यह एक सशक्त विषय है. (चित्र)पहली से मेरा तात्पर्य पत्नी और दूसरी से बाहरी स्त्री या वैश्या से है... सचमुच यदि पहली में इतना आकर्षण या क्षमता हो तो दूसरी की नौबत ही क्यों आये... वैश्या कहीं बाहर से नहीं आती वो इसी समाज की उपज है उसे हीन समझना समाज की कमजोरी है
१७,
प्रभा मित्तल
--विधना --
गौर वर्ण और उन्नत ललाट,
हाथों में बाजू बन्द शोभित
नेह सने लोचन अभिराम
चाँद सी शीतल आभा मुख पर
दृढ़ निश्चयी पावन मुस्कान
भार वेणी का उठाए, थिरकती
निर्भय उन्मुक्त और अविराम।
हँसती - खिलती थी घर-आँगन
रवि आता ज्यों लेकर विहान।
समय ने पलटा पन्ना अपना
जीवन पल में बदल गया
हो गई निर्लिप्त निर्विकार सी
होंठों से उल्लास मिट गया।
उजले थे तब, अब हुए अँधेरे
सोच रही बाला ठगी- ठगी सी
मेरे ही थे वे दिन,ये भी हैं मेरे ।
कदम - कदम पर धोखे खाए
पहचानों से भ्रम टूटे
अपनों की भी हरकत ऐसी, जो
पगडंडी की रेखाएँ तोड़ गए।
सीता सी पावन मर्यादा पर
धोबी से आरोप लगाए गए।
फिर भी एक दिन माना मैंने,ज्यों
निर्मल होकर भी नभ नीला है।
वैसे ही शायद विधना ने रची ये
रहस्यमयी प्रभु की लीला है।
आशा और निराशा दोनों ही
जीवन सरिता के दो बाजू हैं
जैसे दाहक अग्नि में तप
सोना ही कुन्दन बनता है
वैसे ही पीड़ा और निराशा की
भट्टी से मुझे पार उतरना है।
जीवन के इस रंगमञ्च पर
फिर से बनना और सँवरना है।।
--प्रभा मित्तल.
टिप्पणी
(आए दिन स्त्री को दी प्रताड़ना की खबरों से उत्पन्न निराशा का भाव।
लेकिन दुःख समेटकर रखने से तो जीवन चलनेवाला नहीं पार तो पाना ही होगा।)
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/