Friday, August 17, 2018

#तकब – ६/१८



#तकब – ६/१८ 
मित्रों इस बार एक और चित्र आपके समक्ष. आपके रचनात्मक सहयोग की चाह लिए.
नियम :
१. आपके भाव नए, शीर्षक के साथ व् टिप्पणी रूप में अपनी सोच को संक्षिप्त रूप में लिखिए.
२. किसी भी काव्य विधा में कम से कम १० और अधिकतम २० पंक्तियों में आपको अपने भावों को रखना है. अगर आप किसी नई विधा में लिख रहे हैं तो अवश्य उसका जिक्र करे.
३. कृपया किसी भी सदस्य की रचना पर टिप्पणी रूप में अपनी टिप्पणी न लिखे. यदि आप पोस्ट के संबंध में कोई बात पूछना चाहते है तो अवश्य पूछे लेकिन समाधान के बाद टिप्पणी को हटा लिया जायेगा.
४. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन रूप में लिख सकते है.
५. आप अपनी रचना को परिणाम घोषित होने व ब्लॉग में पोस्ट होने के बाद ही आप अन्य स्थानों पर पोस्ट कर सकते है. 
६. रचना पोस्ट करने की अंतिम तारीख २७ जुलाई २०१८ है.
शुभकामनाएं !!!!!


इस प्रतियोगिता की विजेता है  सुश्री नैनी ग्रोवर 

Deepchand Shankarlal Mahavar


~चल आ ज़िन्दगी~

चल आ ज़िन्दगी एक खेल खेलते हैं,
थपेड़े उलझनों के आ संग झेलते हैं।
थोड़ा और पीछे मुश्किलों को ठेलते हैं।
रोटियाँ चंदा मामा की सी बेलते हैं।
मात दें मायूसी को कभी दाव दें खुशियों को,
चाँद तारों से फिर आ लुकाछिपी खेलते हैं।
चल आ ज़िन्दगी एक खेल खेलते हैं।
कैद से निकल गुन्चे की
जहाँ में खुश्बू सा फैलते हैं।
कभी स्याह तो कभी सुर्ख
सात वो इंद्रधनुष के तो कभी,
भंवरे के काले रंग से खेलते हैं।
चल आ ज़िन्दगी एक खेल खेलते हैं,
थपेड़े उलझनों के आ संग झेलते हैं।



प्रतिबिम्ब बड़थ्वालआप 

~प्रेम अहसास ~
[ प्रोत्साहन हेतु ]

अहसासों की लकीरे खींचती
तब बन लहर प्रेम की बहती
साथ तुम्हारा बन लिपटती
प्रेम सुधा तब खूब बरसती

अंग अंग में प्रेम कर समाहित
किंचित भी मैं भयभीत नहीं
तेरा मेरा मिलन है प्रयाग सा
प्रीत का इन्द्रधनुष बनता जाता

कण कण प्रेम से हो सुशोभित
तन मन हो तरंगित निमंत्रण देते
आसमा पर स्पंदन हस्ताक्षर करते
दुनिया विस्मित हो देखती जाती

टिप्पणी : प्रेम हो तो मन मयूर सा नाचने लगता है उसका मन धरती आकाश सब जगह उड़ने लगता है नाचने लगता – चित्र पर उड़ते हुए जो इस जोड़े को महसूस हो रहा है उसे उदृत किया है


Ajai Agarwal

 "प्रीत का अग्निपथ" -प्रोत्साहन हेतु -
++++++++++++
मेघदूतम् की व्यथा में , यक्ष की शापित कथा से ,
प्रीत की लागी जो लागी ,धीरज बंधाने विरहिणी को ,
अलकापुरी का पूछते पथ ,संकल्प स्वप्नों के लिये ,
हाथ में हम हाथ डाले ,उड़ चले थे बादलों में।
प्रीत के आलोक में ,लय से मिला लय गीत गाते,
मन प्राण का विश्वास लेके ,धैर्य से जीवन सजाते,
साधना के बंध खोले ,अंबर में दीपों को सजाते,
कर्म पथ पे बढ़ चले थे ,प्यास को तृप्ति बनाते।
चक्षु पथ के स्वप्न अपने ,दोनों ने मिलके थे सँवारे ,
यक्ष की उस वेदना की तड़प को दिल में सजाये ,
बाँध मुट्ठी में अकल्पित ,बादलों से पूछ कर पथ ,
हठ करें और जीत जाएँ ,शून्य को जागृत बनाएं।
बादलों की क्यारियों में ,तड़ित की क्षण भर हंसी को ,
मेघ जी भर के रोया ,प्रीत का ये अग्निपथ है ,
वेदना की घाटियों में ,यक्ष के वो रुदन के स्वर ,
विष्णु ने बलि को दबाया ,भूधर ने कानों में कहा था।
ढूंढते रहते सभी हम ,प्रीत को अर प्रेयसी को ,
चपला सा मन -करुणा का तन ,यक्ष का सन्देश जीवन,
पथ का अगर हो भान हमको ,नींद में भी जागृति हो ,
शलभ के झुलसे परों में प्रीत की आभा हो उज्ज्वल।।आभा।।

टिप्पणी --आषाढ़ में हाथों में हाथ डाले बादलों की क्यारियों में उन्मुक्त घूमते युगल को देख अचानक मन ने कहा कहीं ये "मेघदूत" के यक्ष -यक्षिणी तो नहीं --जीवन यक्ष और बादलों के बीच झूलता सा प्रीत को ढूंढता ,कभी यक्ष शापित तो कभी उसकी प्रेयसी -




ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार 

आनंदवर्धक छंद ,,आधारित रचना
2122, 2122, 2122,212 ( मापनी मात्रिक)
सीमांत-अन,,,जैसे मगन,जगन,पवन,चमन आदि
पदांत--सा हो गया
प्रथम युग्म एक जैसा,,,चार युग्म मे प्रथम पँक्ति अतुकांत,,द्वितीय मुखड़े की तरह तुकांत,,किंतु मापनी सही हो,,,

गीतिका ( चित्र अभिव्यक्ति )
******
"पहला-पहला प्यार"
**************
❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️
*********************************
मीत से पहली मिलन पे,,,मन मगन सा हो गया/
प्रीत के अभिसार का मधुमय जगन सा हो गया//
*
ये लगन है प्यार की,जो ख्वाब बनकर छा गई,
उड़ चले हम साथ तेरे,,,,,मन पवन सा हो गया //
*
कल्पना मन की रँगीली,प्रात ज्यों खिलतीं किरन,
चल हमारे सँग साथी,,,,,मन गगन सा हो गया//
*
यार के पहली नज़र की ,कामना -स्वप्निल जगी,
आस्मां में घर बनाऊँ,,,,,,,मस्त मन सा हो गया//
*
प्रेम इक ऐसी महक,जो तन- बदन कर दे सुमन,
फैलती ख़ुशबू अनोखी,,मन चमन सा हो गया//
*
**********************************
❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️🌿❤️
संदर्भ---प्रीतम से प्रथम बार मिलन से उद्वेलित भावनाओं का काल्पनिक चित्रण,,मन मे उठती भाव-तर्ंगे,,मगन मन,पवन सा उड़ता स्वप्निल मन,तथा प्रिय-मिलन से सुवासित तन ,,धरा के यथार्थ से दूर मायावी संसार मे विचरण करने लगता है,,,



किरण श्रीवास्तव 

--हाइकु विधा--
"ख्वाबों की दुनियां"
❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤

हाथों में हाथ,
जीवन भर साथ
प्यार अपार !

बेकाबू मन,
अरमानों के पर
ऊंची उड़ान !

खुला गगन,
मधुमय बसंत
ठंडी बयार !

स्फुटित कली,
किरणों का दुलार
कोयल गान !

क्षितिज पार,
अपनी हो दुनियां
अपना जहां......!!!!!
❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤❤

टिप्पणी--- 
प्यार में मन साथी संग कल्पनाओं की दुनियां में विचरण करनें लगता है, सारे ख्वाब पूरे होते से प्रतीत होतें हैं।



जशोदा कोटनाला बुड़ाकोटी


~एक ख्वाब~
-----------------------------

कभी तुम आते
जब मैं आसमां को
तकते-तकते
नींद के गहरे आगोश में
खो जाती
तुम मेरे चेहरे पर आयी
लट को हटाने
चुपके से आ जाते

कभी तुम आते
जब साड़ी का पल्लू
कमर में खोंसे
चाय का कप रखकर
बस मुड़ने भर को होती
तुम उँगली डुबो कर
चख कर कहते.....
अब तक चाय बनानी
आई नहीं तुम्हें....

कभी तुम आते
जब पसीने में लथपथ
होके बैठ उसको
पोंछने का ख़याल भर
जहन के कोने में लाती
माथे के छलकते पसीने को
तुम अपनी उंगलियों के
पोरों से हटा कर
एक ठण्डी फूँक से
सारी तपन मिटा देते

कभी तुम आते
सुबह आँख खुलती
और तुम्हारा चेहरा
सामने पाकर उसमें ही
उलझ सी जाती कुछ
तुम मुस्कुरा के पूछते
क्या चाहिए और....?
मैं बरबस ही कह देती
मुझको चाँद लाके दो.....

कभी तुम आते
जब बहुत थकी
बहुत उलझी
अपने ही जज़्बातों
सवालातों को ज़ब्त
करते-करते
अपने ही आँसुओं को
अन्दर पीती होती
और तुम कह देते.....
.....तुम सुधरोगी नहीं

तुम बस कभी तो
आ जाते.....
न कुछ कहते
न कुछ सुनते
दो पल ठहर कर
मुझे देखते
पलकें झपका कर
समझा देते.....
..... मैं आ गया

टिप्पणी :-------आकाश पर विचरण करते युगल को देखकर यही आभाष हुवा ..... पहला प्यार यूँ ही सतरंगी आसमान पर विचरण करता है..... समय के अन्तराल में ...... कही खो जाता है.... स्त्री ... वही ठगी रह जाती है



Madan Mohan Thapliyal 

स्वप्निल अभिलाषा
( प्रोत्साहन हेतु )

स्वप्न है शून्य सा -
शून्य में निर्वाक तैरता मन
देह है सिथिल शव सदृश
अब भी, अचल है सब धरा पर

जितना बुना उतना उलझ गया स्वप्न-
मकड़ी के जाल सा
लाखों मील का सफर पल में -
फिर भी अधूरी लालसा
वो तो सुप्त है, अविचल है
शांत श्मशान सा अब भी धरा पर

साथ हो, प्रेम का उन्माद हो-
हो गगन का सफर
तमन्ना हो छोर छूने की मगर
निश्चित ही निश्शंक होकर
स्वप्न बुनता कोई धरा पर

स्वप्न विस्तार है व्योम सदृश
रक्तिम आभा व्योम की तैरते मेघ पर
सरल, सरस है गगन पथ -
बाधा है नहीं कोई -
फिर भी बेचैन है कोई धरा पर

बादलों में तैरना, स्वर्णिम आभा से खेलना
है सुखद अनुभूति प्रेरणा स्रोत सा
उलझनों में उलझता मन तत्व ज्ञान सा
चाह फिर भी अधूरी ,संकित मन है धरा पर ।।

मनुष्य अनिश्चितता के भंवर से खुद को जितना दूर रखना चाहता है उसका मन उसे और भी उलझा देता है ।



कुसुम शर्मा

~उडान ~
——-
कौन रोकेगा मुझे अब मेरी उड़ान से !
फौलादे जिगर लाई हूँ मैं चट्टान से !
मत देखो मेरे जिस्म के घावों को
मिली है यह सौग़ात इसी जहान से !

नाज़ुक दिल को ये दुनिया छलती रही !
कभी अपनाती रही कभी दुतकारती रही !
अब सीख लिया मैंने भी पत्थर दिल बनना !
चट्टानों को छेद कर आगे बढ़ना
कौन रोक पाया है नदी को समुन्दर में मिलने से !
कौन रोकेगा मुझे मेरी उड़ान से !

न डर कुछ खोने का न ख़ुशी कुछ पाने की !
न चिंता हार जाने की न उम्मीद दुनिया जीत लेने की !
है लक्ष्य सिर्फ़ अपनी मंज़िल को पाने की !
कठिनाइयों क्या बिगाड़ लेगी मेरा
सीखा है मैने गिर कर सँभलना !
आसमा भी न रोक पायेगा मुझे मेरी उड़ान से !
हारना न सीखा मैंने इस जहान से !
कौन रोकेगा मुझे अब मेरी उड़ान से !
फौलादे जिगर लाई हूँ मैं चट्टान से !!

टिप्पणी ;- मन में गर ठान लो अपने लक्ष्य को पाने की तो राह में चाहे कितनी मुसीबतें क्यों न आये आख़िर में मंज़िल मिल ही जाती है !!



प्रभा मित्तल 

~~क्षितिज के पार~~
कब से बैठी सोच रही हूँ
क्या लिखूँ.......
लिखूँ तेरी मेरी उसकी बात
या अपने मन की बात कहूँ....

बचपन की चाहत ऐसी ...
पंख लगाकर उड़ जाऊँ,
नभ में विचरण करती
आकाशगंगा में नहाऊँ।

सूरज चाँद सितारे देखूँ
जलधर से जल भर लाऊँ।
पंछियों संग हिल-मिल
पर्वत पर्वत दौड़ लगाऊँ।

पर सच के ठोस धरातल पर
सपनों का पन्ना पलट गया,
जीवन का ताना बुनते बुनते
वक़्त भी अपना बीत गया।

दीवारों से छनती नेह की बूँदे
देती रहीं चाहतों की थपकियाँ,
अहसास ही तो सँभले रहे हैं
सहकर वक़्त की नादानियाँ।

उम्मीदों से न मुँह मोड़ें हम
जिन्दगी दे रही ये सदा,
कुहरा जमीं का छँट रहा है
न हो कहीं आवरण की घटा।

आसमान की छाती पर
यौं तो बादलों का पहरा है,
प्राची से झाँक रहा सूरज
किरणों का कंचन गहरा है।

हाथ थाम कर संकल्पों का
आशाओं का विश्वासों का,
चलों चलें क्षितिज के पार
बना लें एक नया संसार।
--प्रभा मित्तल

(जीवन में आशा और विश्वास का होना सर्वोपरि है,तभी जीवन सफलतापूर्वक जिया जा सकता है।)




अलका गुप्ता 
**उड़ चलें आ..पार छितिज हम**

प्रीत की उड़ान हो ।
खुला आसमान हो॥
हों न कोइ बंदिशें ।
पूरी हों ख्वाहिशें ॥
उड़ चलें आ.. पार छितिज हम ॥
मधुर वीणा सी तन-मन झंकार ।
अरि ये जग अपना...
चल दूर..बसायें संसार ॥
उड़ चलें आ..पार छितिज हम ॥
एक हैं धरा-आकाश जहाँ !
ऊँच न कोई नीच वहाँ ।
छोड़ यह संसार चले !
अमानुष ये व्यवहार गले !!
हाथों में हम.. हाथ लिए।
स्वप्न सौगातों के अभियान लिए ।
दूर छितिज तक जाएँगे ।
अलख ..नव-श्रंगार जगाएँगे ।
तेरा मेरा कोइ अलग राग नहीं ।
ढपली अपनी का अनुराग नहीं ।
एक स्वर में एक राग में
साथ-साथ गाएंगे हम ।
अल्लाह ईश्वर भेद नहीं !
एक न्याय अपनायेंगे हम !
उड़ चलें आ..पार छितिज हम ॥


नोट :- प्रेषित चित्र से हमें लगा आज का युवा मन सारी सड़ी गली मान्यताओंं को त्याग कर एक नवीन संसार की स्थापना करना चाहता है जहाँ किसी भी प्रकार का जाति धर्म भेद भाव का स्थान न हो !



नैनी ग्रोवर 
~तुझ संग~

अम्बर को छूने की चाह नहीं,
बस तुझ संग उड़ना चाहूँ मैं,
सृष्टि के सतरंगी इन रंगों में,
बिन आकार ही घुलना चाहूँ मैं...

तेरा हाथ हो, जब मेरे हाथों में,
हो शाम की खुशबू मेरी साँसों में,
तब हल्के अंधेरे की इस ओट में,
बन पवन सी बहकना चाहूँ मैं...

जहाँ ना कोई कसम हो, ना कोई वचन हो,
बस ह्रदय से ह्रदय का एक नमन हो,
छोड़कर पीछे इन सारी रस्मों को,
उस जगत को चुनना चाहूँ मैं..

अम्बर को छूने की चाह नहीं,
बस तुझ संग उड़ना चाहूँ मैं...

टिप्पणी:- ये मात्र एक कल्पना नहीं, एक प्रेमिका जब सारे संसार को तज कर अपने प्रीतम के घर दुल्हन बन के जाती है तो कुछ इसी प्रकार के स्वस्प्न उसके ह्रदय में पल रहे होते हैं, वो अपने पति के लिए बाकी सभी सम्बंध भुलाने से भी नहीं चूकती....



मीनाक्षी कपूर मीनू 

स्वप्निल संसार
************
स्वप्निल आभा
निखरा तन-मन
अंतर से नीर
बहा छन-छन
दो अजनबी से
मिले थे कभी
घर संसार में
फिर रच बस गए
एक नया ही
संसार ...
आज अपना है
यूँ लगता है जैसे
कोई सपना है
संग तुम्हारे उड़ने लगे
रंग बिरंगे सपने
बुनने लगे
*मनस्वी*
खुशियों के फूल
खिलने लगे
मैं और तुम
*हम* होने लगे

टिप्पणी.. शादी के पवित्र बंधन में बंधे युगल एक नया घर संसार बसाते है और स्वप्निल आशा किरण उनके पवित्र प्रेम को नवांकुरित करते हुए उनके नवजीवन प्रदान करती है । 
मीनाक्षी कपूर मीनू ।

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Saturday, July 7, 2018

तकब – ५/१८




#तकब – ५/१८
मित्रो नमस्कार ! चलिए इस नए चित्र पर अपने भाव कुरेदिए.
नियम :
१.आपके भाव नए (पहले से कहीं पोस्ट न हो), स्वरचित, शीर्षक के साथ व् टिप्पणी रूप में अपनी सोच को संक्षिप्त रूप में लिखिए.
२. किसी भी काव्य विधा में कम से कम १० और अधिकतम २० पंक्तियों में आपको अपने भावों को रखना है. अगर आप किसी नई विधा में लिख रहे हैं तो अवश्य उसका जिक्र करे.
३.कृपया किसी भी सदस्य की रचना पर टिप्पणी रूप में अपनी टिप्पणी न लिखे. यदि आप पोस्ट के संबंध में कोई बात पूछना चाहते है तो अवश्य पूछे लेकिन समाधान के बाद टिप्पणी को हटा लिया जायेगा.
४. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन रूप में लिख सकते है.
५. आप अपनी रचना को परिणाम घोषित होने व ब्लॉग में पोस्ट होने के बाद ही आप अन्य स्थानों पर पोस्ट कर सकते है.
६. रचना पोस्ट करने की अंतिम तारीख २४ जून २०१८ है.
शुभकामनाएं !!!!!

 इस प्रतियोगिता की विजेता है सुश्री ब्रह्माणी वीणा जी 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
[प्रोत्साहन हेतु]

~सुकून~

हर रोज शाम आती है
अधिकतर मुझसे बात करती है
दिन भर का हाल चाल पूछ
अँधेरे में समा जाती है
भीड़ जो दिन में
मेरे इर्द गिर्द घूमती है
शाम को भी तकरीबन मुझमें
वही लोग, वही बाते
रह रह कर मिलते है
बाते करते है और
फिर बिछुड़ जाते है

बस एक तुम हो जो
साए की तरह सुबह भी
दिन में कभी - कभी और
शाम को भी साथ देती हो
चाहे शब्दों में हो
चाहे ख्यालों में हो
रात तक मुझमें सिमटी हुई
अपने अस्तित्व का
निर्भीक परिचय देती हो
दूरी को पास में
और पास होने को
तन मन में
झंकृत कर विस्तार देती हो
रात को तो तुम
एक परिणीता सी
मुझे अपने आगोश में
पनाह देती हो
सुबह पौ फटने तक

हाँ तुम मेरा सुकून हो.....


टिप्पणी: चित्र साँझ/शाम का ही है और हर इंसान अपनी दिनचर्या से थक हार कर जब आता है फिर उसे सुकून न मिले तो उसका दिन व्यर्थ ही समझो. बस उस सुकून को अपने भावों में स्थान दिया है



Ajai Agarwal
[प्रोत्साहन हेतु]

~सांझ का सूरज~

==========मन कदरी का पात हुआ जाता है ,

मेह पावस के न भिगो पायें इसको।

देख भानु को अंबर से क्षितज पे आते ,

लगीं बुनने कुछ स्वप्न सुहाने लहरें।

वो होके किरणों के झूले पे सवार ,

छिपे अंक जलधि , उगे भूधर पीछे।

देख पींगे बढ़ाते झूलते उसको

स्मित सीमान्त आह्लादित -खोलता मूँदता पलकें।

उषा- कुमकुम ,संध्या- सिंदूर लिए।,

पथ को केसरी वसन उढ़ा देती हैं।

पर! तुझे कब रंगीनियां बाँध पायीं !

मिटाने को तपिश- थकन दिवसभर की ,

खेलेगा संग जलधि लहरों के तू ,

भिगोना है तुझे तन मन अपना -

जाना भी तो है, निशा सुंदरी के तिमिर महल !

जहां कज्जल चादर में हैं हीरे टंके ,

तकिये पे जहां चाँद का कंगन है कढ़ा ।

सोने चांदी के सितारों की जगमग में-

रूपसी निशा संग -सुख-दुःख मंजरित होंगे।

ठिठक गयी हूँ तेरे रूप के जलवों में मैं

नीलम से चमकते सागर की लहरें

धुन बांसुरी की सुनाती है टूटते-बनते।

घन घूंघट की ओट से हैं झांकते ,

लहराते -रेशमी केश ,कज्जल निशा के.

और ! मैं बावरी -चुपके से -

लहरों के झरोंखों से ताकूँ तुझको।

लालसा मन की तुझे देखने की

जाने आँखों को क्यों गुनाहगार कहते हैं सभी !

संग अम्बुद के तू उतरता है मेरे भीतर भी

मैं तेरे संग-संग ही सोतिजगती हूँ ,

तू मेरा मन है तू देवता मेरा -

तू है तो मैं हूँ -बस ,

इतना सा नाता तेरा- मेरा

-----सागर के अंक में समाते सूरज का दृश्य -मन को लहरों सा चंचल कर देता है -आसमान में बिखरा कुमकुम चूर्ण ,स्वर्णिम रश्मियां और नीलम सा जल




Madan Mohan Thapliyal
( प्रोत्साहन हेतु )
~आध्यात्म औ साहित्य~

 ( यह रचना सभी साहित्यिक पुरोधाओं को समर्पित ।
क्षमा याचना उन साहित्यिक हस्ताक्षरों से जिनका नाम नहीं आ पाया , मेरे लिए सभी आदरणीय हैं । )

कौन आया रंग भरने सांझ में-
अवनि औ व्योम के पटल पर ।
अवसान होत ही कौन सिंदूर रच गया
सदा सुहागन अवनि के पटल पर ।
मृदंग,घंटे घड़ियाल आ गए करने विदा
वेदकी ऋचाएं गूंजी अवनि के पटल पर ।
कर गुजरने को कुछ अलग सा
साधकों की भीड़ जमा अवनि के पटल पर ।
आभा, प्रभा, अलका , जशोदा , माधुरी, कुसुम,नैनी, डॉली, मीता , किरण द्वय खड़े ,करने लगे साहित्य चर्चा अवनि के पटल पर ।
देख साहित्य साधना अपने जन की
व्योमकेश का ताण्डव शुरू अवनि के पटल पर ।
दीपचंद, चंद्र बल्लभ और सभी साधकों का
तप देख ब्रजेश की बजी बांसुरी अवनि के पटल पर।
देख वर्तुल भानु का, हर्ष से मंत्र- मुग्ध हुए प्रतिबिंब
ले वर्तिका हाथ में रचने लगे राग अवनि के पटल पर।
बस यही मांगू उस परवरदिगार से सितारे हों बुलंद
साहित्य की सेवा में -
सदैव झलके'प्रतिबिंब' सबका 'अवनि औ व्योम के पटल पर !!

जनहित में साहित्य सेवा - देशभक्ति का , समाज का, दर्पण है ।





ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
~सुखद सूर्यास्त~
***********
दोहा छंद मे प्रस्तुति,,,
दोहा में चार चरण होते हैं प्रथम व तृतीय 13 मात्रा व तथा द्वितीय व चतुर्थ-11 मात्रा अंत मे तुकान्त लिए हुए गुरु लघु-21 आवश्यक है
🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻
**************************
अरुणिम आभा को लिए,अस्त हुआ दिनमान/
किया प्रकाशित जगत को,जागृति का प्रतिमान//
**
भोर चहकता बालपन,आई शाम-ढलान /
जीवन,सूर्य प्रतीक है,साँझ रूप अवसान //
**
देते रवि संदेश ये,,मनु जागृति कर प्राण/
लक्ष्य-पंथ थकना नहीं,मानव कर्म प्रधान //
**
हिम्मत ना हारो कभी,होगी सुखद प्रभात/
रजनी के आँचल छिपी,ऊषा लालिम प्रात//
**
सुख-दुख जीवन रूप हैं,प्रात सुखद फिर शाम/
सूरज का विश्राम भी,होता ललित ललाम//
**
स्वपनिल सी आभा लिए,करते रवि प्रस्थान/
देते मन को शांति ये,जागृत देव महान //
**
**************************
संदर्भ-जागृत देवता सूर्य हमारे जीवन के प्रतीक हैं उनका अस्त भी लालिम सपनों की आशा लिए है हर दुख-रजनी के पीछे सुन्दर प्रभात छुपा है,,,सूर्य का उदय व अस्त दोनो शान्तिमय है,,,



Meenakshi Bhatnagar
~मन का सूरज~

हर भोर एक आमंत्रण है
कब आशाओं की रश्मियां भेद
गहन अँधेरों को चीर
जीवन की साँवली रात से
उगा दे
मन के मौसम का चमकीला सूरज

हर भोर एक आमंत्रण है
जीवन की बुझती राख से
उठती चिंगारियों के
अलख फूल
कब जगा जाये
मन के मौसम का छबीला सूरज

हर भोर एक आमंत्रण है
हर सपने के द्वार की आहट का
कब कर्म की परिभाषा
हर असफलता को चीर
लिख दे विजय का गीत
और जाग जाये
मन के मौसम का हठीला सूरज


टिप्पणी: बाहरी सांझ भोर से कुछ अलग होता है मन का मौसम। रात कितनी भी गहन हो हर रात की सुबह होती है किंतु कौन सा पल कब मन का सूरज जगा दे और उसे एक नई भोर की ओर ले जाए जिसके आगे जीत ही जीत हो




Sunita Pushpraj Pandey

~छठ पूजा~
डूबते को कौन पूछे भला
ऐसा सुना करते थे
उस रोज नदियां किनारे था
अनुपम नजारा
नगे पाँव चले आ रहे थे
क्षद्धा सुमन अर्पण करने नर- नारी,
बाल - गोपाल, बड़े बुढ़े सभी जन
शंखनाद करते छठ माई का
सूर्य देव की महिमा निराली
जाते जाते भी भर दी
ना उम्मीद हो चुके लोगों की
झोली खाली,
सांझ का धुंधला फैलते ही
धीरे से फैलने लगी चांदनी
दे रही थी सांत्वना बंधा रही
आस बिहण से सकुशल
गंतव्य तक पहुंचने का।
टिप्पणी :मकसद बस इतना कि सांझ मे भी आस



किरण श्रीवास्तव

 "काल-चक्र"
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

उगते को है नमस्कार
डूबत देख तमाशा है,
जीवन का भी रुप यही
कहींआशा कहीं निराशा है...।

अंधकार की गोद से निकला
सुकून वहीं फिर पाना है,
आना-जाना ही जीवन
ये भेद रवि से जाना है....।।

चलने का ही नाम है जीवन
पथ पर्वत, ढ़लान है जीवन,
शनै-शनै कर्तव्य मार्ग पर
आगे बढ़ते जाना है...।।।

समय चक्र चलता रहता
कुछ भी करो नहीं रुकता,
रुक जाये तो जीवन का
फिर शाम वहीं हो जाता है....।।।।

टिप्पणी-: जीवन में कुछ भी स्धाई नहीं है । प्रकृति हो या परिस्थिति परिवर्तन निश्चित है। दोनों ही स्थिति में धैर्य रखना चाहिए ।



प्रभा मित्तल
( प्रोत्साहन हेतु )

~~सूर्यास्त~~
----------------
अच्छा लगता है मुझे
सागर को निहारना
इस पार खड़े होकर
उस पार किनारे ढूँढ़ना।

गहराती सर्दियों के दिन
ठण्डी रेत पर नंगे पाँव।
साँय साँय करती हवा
मुझको काट काट जाती है।

दूर क्षितिज पर फैला
अवनि पर छाया
रश्मि का सिंदूरी आँचल
अम्बर से छिटका
जलधाम में आ अटका है
लहरों में होड़ लगी है
किसकी शाम सुनहरी होगी ...
उथला जल भी भटका है।

जलधि के आलिंगन में
सूरज की लाली उतर रही
सिंदूरी संध्या के पूजन को
जन-मानस की भीड़ खड़ी।

रवि अस्ताचल को जा रहा
किरणों का साथ छूट रहा
उजला प्रकाश तो छीज रहा
जीने की आपा धापी में
जीवन भी अपना बीत रहा।

दिनभर की थकन मिटाने को
सूरज भी थक कर सोता है
रात के बाद सुबह होगी
इस उजास की आस में
नींद में सपने बोता है।

उदय हुआ फिर अस्त भी,
यही विधना की माया है
रंग बदलती इस दुनिया में
आना है और जाना है।

चलने का है नाम जिंदगी
और कर्तव्य निभाना है।
आशा और विश्वास बाँध कर
दुःख भी सुखकर बनाना है।

---प्रभा.


टिप्पणी-:  (जीवन चलते रहने का ही नाम है,समय कभी रुकता नहीं।हर रात के बाद सुबह होती है इस आशा और विश्वास के साथ हर कठिनाई को जीता जा सकता है।)


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/