Saturday, July 7, 2018

तकब – ५/१८




#तकब – ५/१८
मित्रो नमस्कार ! चलिए इस नए चित्र पर अपने भाव कुरेदिए.
नियम :
१.आपके भाव नए (पहले से कहीं पोस्ट न हो), स्वरचित, शीर्षक के साथ व् टिप्पणी रूप में अपनी सोच को संक्षिप्त रूप में लिखिए.
२. किसी भी काव्य विधा में कम से कम १० और अधिकतम २० पंक्तियों में आपको अपने भावों को रखना है. अगर आप किसी नई विधा में लिख रहे हैं तो अवश्य उसका जिक्र करे.
३.कृपया किसी भी सदस्य की रचना पर टिप्पणी रूप में अपनी टिप्पणी न लिखे. यदि आप पोस्ट के संबंध में कोई बात पूछना चाहते है तो अवश्य पूछे लेकिन समाधान के बाद टिप्पणी को हटा लिया जायेगा.
४. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन रूप में लिख सकते है.
५. आप अपनी रचना को परिणाम घोषित होने व ब्लॉग में पोस्ट होने के बाद ही आप अन्य स्थानों पर पोस्ट कर सकते है.
६. रचना पोस्ट करने की अंतिम तारीख २४ जून २०१८ है.
शुभकामनाएं !!!!!

 इस प्रतियोगिता की विजेता है सुश्री ब्रह्माणी वीणा जी 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
[प्रोत्साहन हेतु]

~सुकून~

हर रोज शाम आती है
अधिकतर मुझसे बात करती है
दिन भर का हाल चाल पूछ
अँधेरे में समा जाती है
भीड़ जो दिन में
मेरे इर्द गिर्द घूमती है
शाम को भी तकरीबन मुझमें
वही लोग, वही बाते
रह रह कर मिलते है
बाते करते है और
फिर बिछुड़ जाते है

बस एक तुम हो जो
साए की तरह सुबह भी
दिन में कभी - कभी और
शाम को भी साथ देती हो
चाहे शब्दों में हो
चाहे ख्यालों में हो
रात तक मुझमें सिमटी हुई
अपने अस्तित्व का
निर्भीक परिचय देती हो
दूरी को पास में
और पास होने को
तन मन में
झंकृत कर विस्तार देती हो
रात को तो तुम
एक परिणीता सी
मुझे अपने आगोश में
पनाह देती हो
सुबह पौ फटने तक

हाँ तुम मेरा सुकून हो.....


टिप्पणी: चित्र साँझ/शाम का ही है और हर इंसान अपनी दिनचर्या से थक हार कर जब आता है फिर उसे सुकून न मिले तो उसका दिन व्यर्थ ही समझो. बस उस सुकून को अपने भावों में स्थान दिया है



Ajai Agarwal
[प्रोत्साहन हेतु]

~सांझ का सूरज~

==========मन कदरी का पात हुआ जाता है ,

मेह पावस के न भिगो पायें इसको।

देख भानु को अंबर से क्षितज पे आते ,

लगीं बुनने कुछ स्वप्न सुहाने लहरें।

वो होके किरणों के झूले पे सवार ,

छिपे अंक जलधि , उगे भूधर पीछे।

देख पींगे बढ़ाते झूलते उसको

स्मित सीमान्त आह्लादित -खोलता मूँदता पलकें।

उषा- कुमकुम ,संध्या- सिंदूर लिए।,

पथ को केसरी वसन उढ़ा देती हैं।

पर! तुझे कब रंगीनियां बाँध पायीं !

मिटाने को तपिश- थकन दिवसभर की ,

खेलेगा संग जलधि लहरों के तू ,

भिगोना है तुझे तन मन अपना -

जाना भी तो है, निशा सुंदरी के तिमिर महल !

जहां कज्जल चादर में हैं हीरे टंके ,

तकिये पे जहां चाँद का कंगन है कढ़ा ।

सोने चांदी के सितारों की जगमग में-

रूपसी निशा संग -सुख-दुःख मंजरित होंगे।

ठिठक गयी हूँ तेरे रूप के जलवों में मैं

नीलम से चमकते सागर की लहरें

धुन बांसुरी की सुनाती है टूटते-बनते।

घन घूंघट की ओट से हैं झांकते ,

लहराते -रेशमी केश ,कज्जल निशा के.

और ! मैं बावरी -चुपके से -

लहरों के झरोंखों से ताकूँ तुझको।

लालसा मन की तुझे देखने की

जाने आँखों को क्यों गुनाहगार कहते हैं सभी !

संग अम्बुद के तू उतरता है मेरे भीतर भी

मैं तेरे संग-संग ही सोतिजगती हूँ ,

तू मेरा मन है तू देवता मेरा -

तू है तो मैं हूँ -बस ,

इतना सा नाता तेरा- मेरा

-----सागर के अंक में समाते सूरज का दृश्य -मन को लहरों सा चंचल कर देता है -आसमान में बिखरा कुमकुम चूर्ण ,स्वर्णिम रश्मियां और नीलम सा जल




Madan Mohan Thapliyal
( प्रोत्साहन हेतु )
~आध्यात्म औ साहित्य~

 ( यह रचना सभी साहित्यिक पुरोधाओं को समर्पित ।
क्षमा याचना उन साहित्यिक हस्ताक्षरों से जिनका नाम नहीं आ पाया , मेरे लिए सभी आदरणीय हैं । )

कौन आया रंग भरने सांझ में-
अवनि औ व्योम के पटल पर ।
अवसान होत ही कौन सिंदूर रच गया
सदा सुहागन अवनि के पटल पर ।
मृदंग,घंटे घड़ियाल आ गए करने विदा
वेदकी ऋचाएं गूंजी अवनि के पटल पर ।
कर गुजरने को कुछ अलग सा
साधकों की भीड़ जमा अवनि के पटल पर ।
आभा, प्रभा, अलका , जशोदा , माधुरी, कुसुम,नैनी, डॉली, मीता , किरण द्वय खड़े ,करने लगे साहित्य चर्चा अवनि के पटल पर ।
देख साहित्य साधना अपने जन की
व्योमकेश का ताण्डव शुरू अवनि के पटल पर ।
दीपचंद, चंद्र बल्लभ और सभी साधकों का
तप देख ब्रजेश की बजी बांसुरी अवनि के पटल पर।
देख वर्तुल भानु का, हर्ष से मंत्र- मुग्ध हुए प्रतिबिंब
ले वर्तिका हाथ में रचने लगे राग अवनि के पटल पर।
बस यही मांगू उस परवरदिगार से सितारे हों बुलंद
साहित्य की सेवा में -
सदैव झलके'प्रतिबिंब' सबका 'अवनि औ व्योम के पटल पर !!

जनहित में साहित्य सेवा - देशभक्ति का , समाज का, दर्पण है ।





ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
~सुखद सूर्यास्त~
***********
दोहा छंद मे प्रस्तुति,,,
दोहा में चार चरण होते हैं प्रथम व तृतीय 13 मात्रा व तथा द्वितीय व चतुर्थ-11 मात्रा अंत मे तुकान्त लिए हुए गुरु लघु-21 आवश्यक है
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अरुणिम आभा को लिए,अस्त हुआ दिनमान/
किया प्रकाशित जगत को,जागृति का प्रतिमान//
**
भोर चहकता बालपन,आई शाम-ढलान /
जीवन,सूर्य प्रतीक है,साँझ रूप अवसान //
**
देते रवि संदेश ये,,मनु जागृति कर प्राण/
लक्ष्य-पंथ थकना नहीं,मानव कर्म प्रधान //
**
हिम्मत ना हारो कभी,होगी सुखद प्रभात/
रजनी के आँचल छिपी,ऊषा लालिम प्रात//
**
सुख-दुख जीवन रूप हैं,प्रात सुखद फिर शाम/
सूरज का विश्राम भी,होता ललित ललाम//
**
स्वपनिल सी आभा लिए,करते रवि प्रस्थान/
देते मन को शांति ये,जागृत देव महान //
**
**************************
संदर्भ-जागृत देवता सूर्य हमारे जीवन के प्रतीक हैं उनका अस्त भी लालिम सपनों की आशा लिए है हर दुख-रजनी के पीछे सुन्दर प्रभात छुपा है,,,सूर्य का उदय व अस्त दोनो शान्तिमय है,,,



Meenakshi Bhatnagar
~मन का सूरज~

हर भोर एक आमंत्रण है
कब आशाओं की रश्मियां भेद
गहन अँधेरों को चीर
जीवन की साँवली रात से
उगा दे
मन के मौसम का चमकीला सूरज

हर भोर एक आमंत्रण है
जीवन की बुझती राख से
उठती चिंगारियों के
अलख फूल
कब जगा जाये
मन के मौसम का छबीला सूरज

हर भोर एक आमंत्रण है
हर सपने के द्वार की आहट का
कब कर्म की परिभाषा
हर असफलता को चीर
लिख दे विजय का गीत
और जाग जाये
मन के मौसम का हठीला सूरज


टिप्पणी: बाहरी सांझ भोर से कुछ अलग होता है मन का मौसम। रात कितनी भी गहन हो हर रात की सुबह होती है किंतु कौन सा पल कब मन का सूरज जगा दे और उसे एक नई भोर की ओर ले जाए जिसके आगे जीत ही जीत हो




Sunita Pushpraj Pandey

~छठ पूजा~
डूबते को कौन पूछे भला
ऐसा सुना करते थे
उस रोज नदियां किनारे था
अनुपम नजारा
नगे पाँव चले आ रहे थे
क्षद्धा सुमन अर्पण करने नर- नारी,
बाल - गोपाल, बड़े बुढ़े सभी जन
शंखनाद करते छठ माई का
सूर्य देव की महिमा निराली
जाते जाते भी भर दी
ना उम्मीद हो चुके लोगों की
झोली खाली,
सांझ का धुंधला फैलते ही
धीरे से फैलने लगी चांदनी
दे रही थी सांत्वना बंधा रही
आस बिहण से सकुशल
गंतव्य तक पहुंचने का।
टिप्पणी :मकसद बस इतना कि सांझ मे भी आस



किरण श्रीवास्तव

 "काल-चक्र"
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

उगते को है नमस्कार
डूबत देख तमाशा है,
जीवन का भी रुप यही
कहींआशा कहीं निराशा है...।

अंधकार की गोद से निकला
सुकून वहीं फिर पाना है,
आना-जाना ही जीवन
ये भेद रवि से जाना है....।।

चलने का ही नाम है जीवन
पथ पर्वत, ढ़लान है जीवन,
शनै-शनै कर्तव्य मार्ग पर
आगे बढ़ते जाना है...।।।

समय चक्र चलता रहता
कुछ भी करो नहीं रुकता,
रुक जाये तो जीवन का
फिर शाम वहीं हो जाता है....।।।।

टिप्पणी-: जीवन में कुछ भी स्धाई नहीं है । प्रकृति हो या परिस्थिति परिवर्तन निश्चित है। दोनों ही स्थिति में धैर्य रखना चाहिए ।



प्रभा मित्तल
( प्रोत्साहन हेतु )

~~सूर्यास्त~~
----------------
अच्छा लगता है मुझे
सागर को निहारना
इस पार खड़े होकर
उस पार किनारे ढूँढ़ना।

गहराती सर्दियों के दिन
ठण्डी रेत पर नंगे पाँव।
साँय साँय करती हवा
मुझको काट काट जाती है।

दूर क्षितिज पर फैला
अवनि पर छाया
रश्मि का सिंदूरी आँचल
अम्बर से छिटका
जलधाम में आ अटका है
लहरों में होड़ लगी है
किसकी शाम सुनहरी होगी ...
उथला जल भी भटका है।

जलधि के आलिंगन में
सूरज की लाली उतर रही
सिंदूरी संध्या के पूजन को
जन-मानस की भीड़ खड़ी।

रवि अस्ताचल को जा रहा
किरणों का साथ छूट रहा
उजला प्रकाश तो छीज रहा
जीने की आपा धापी में
जीवन भी अपना बीत रहा।

दिनभर की थकन मिटाने को
सूरज भी थक कर सोता है
रात के बाद सुबह होगी
इस उजास की आस में
नींद में सपने बोता है।

उदय हुआ फिर अस्त भी,
यही विधना की माया है
रंग बदलती इस दुनिया में
आना है और जाना है।

चलने का है नाम जिंदगी
और कर्तव्य निभाना है।
आशा और विश्वास बाँध कर
दुःख भी सुखकर बनाना है।

---प्रभा.


टिप्पणी-:  (जीवन चलते रहने का ही नाम है,समय कभी रुकता नहीं।हर रात के बाद सुबह होती है इस आशा और विश्वास के साथ हर कठिनाई को जीता जा सकता है।)


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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