मित्रों आप सभी को मेरा स्नेहयुक्त नमस्कार! लीजिये प्रस्तुत है इस बार की प्रतियोगिता हेतु तस्वीर। नियमों का पालन अवश्य करें, जिसके लिए उन्हें पढ़ना भी जरूरी है।
१. दिए गए चित्र / तस्वीर पर कम से कम १० पंक्तियां व अधिक से अधिक १६ पंक्तियां किसी भी विधा में लिखिये और साथ ही उसका संक्षिप्त । शीर्षक व अंत मे एक टिप्पणी अपने उदृत भावों पर अवश्य लिखिये।
२. रचना मौलिक व अप्रकाशित होनी चाहिए।
३. प्रतियोगिता के वक्त लिखी हुई रचना/पंक्तियों पर कोई टिप्पणी न हो। हां यदि किसी प्रकार का संशय हो तो पूछ सकते है। निवारण होते ही उन टिप्पणियों को हटा दिया जाएगा।
४. आप अपनी रचना किसी अन्य माध्यम में पोस्ट तभी कर सकते हैं जब प्रतियोगिता का परिणाम आ जाये और ब्लॉग में शामिल कर लिया गया हो।
५. प्रतियोगिता हेतु रचना भेजने की अंतिम तिथि ३० नवम्बर २०१९ है।
६. निर्णायक मंडल के सदस्य केवल प्रोत्साहन हेतु अपनी रचनाएं भेज सकते है। परन्तु आग्रह है कि वे समय से पहले भेजे अन्यथा प्रोत्साहन का कोई औचित्य नहीं रह जाता। धन्यवाद, शुभम !!!!
इस प्रतियोगिता के विजेता हैं सुश्री माधुरी रावत जी व श्री गोपेश दशोरा जी
बालकृष्ण धीरजमणि ध्यानी
अकेलापन
फिर एक बार ये
सुबह क्यों उभरी है
कभी भरी रहती थी वो
वो सड़कें क्यों खाली हैं
उभर रहे हैं सवाल
एक एक कर मुझ से क्यों
इस अतृप्त आत्मा को
अब तृप्त कौन करेगा
सुबह का नाश्ता
अब छोड़ उठा मै
चिड़चिड़ापन गुस्सा
अब शांत कौन करेगा
अंतर्गत मेरे बस
अब ऐ चित्र घूम रहा है
लाल है सिग्नल पर
मन बस उसे तोड़ रहा है
सब कुछ रोका हुआ है मेरा
स्तब्ध समय बस बोल रहा है
मेरा अकेलापन इतना क्यों भारी
मुझ से वो क्यों सहन नहीं हो रहा है
फिर एक बार ये
सुबह क्यों उभरी है
टिप्पणी: अपने अकेलेपन से कुंठित हिर्दय पटल अपनी मनस्थिति हिसाब से इतनी सुंदर सुबह से ही लड़ पड़ा उस के कुंठित हिर्दय में उभरे प्रश्नों से लड़ता उसक अकेलापन उसे सहा नहीं जा रहा उसी को वो प्रस्तुत कर रहा है
नैनी ग्रोवर
रूठ गई रौनक
क्यों सुनसान है शहर,
कहाँ गुम हुई रौनक ?
डूबते सूरज की भाँति,
कहाँ डूब गई रौनक,
राहें पुकारें राही को,
तरसें आवा-जाही को,
अंधेरे-उजियारे के मिलन में,
कहाँ दूर हुई रौनक ?
क्या लगी हाय किसी बिरहन की ?
ये पीड़ हो जैसे किसी मन की,
टूटे मन की किस्मत जैसे,
कहाँ रूठ गई रौनक ?
टिप्पणी: बस जितना मुझ कूड़मति को समझ आया, लिख दिया, आप सभी साथी इतना अच्छा लिखते हो, मैं स्वयं पर ही सवाल उठाने लगती हूँ, 😊 मुझे कोई विद्या नहीं आती, बस चार लाइन की मेरी हाज़िरी ही समझें, या आप सभी दोस्तों के बीच रहने का बहाना ।
Madan Mohan Thapliyal
प्रोत्साहन के लिए
दौड़ती-भागती जिंदगी में
नब्बे पल ( Second ) का सच
भोर का समय, सुनसान सड़क ,दो रोज से ऊहापोह की स्थिति
असहनीय प्रसव पीड़ा, चीरफाड़ का डर
फोन की घंटी, जल्दी आने का संदेश
मरीज ICU में और सड़क के नियम
अस्पताल पहुंचने की व्यग्रता , ९० सेकिंड और प्रतीक्षा
आंख फड़कना, अशुभ का संदेह
स्वयं को संयत करने की नाकाम कोशिश
पूजा-अर्चना, दान -पुण्य , धर्म - कर्म दस्तक देते हुए
पांच सेकंड शेष, शिकंजे ( clutch) पर दबाव कम
त्वरक (Accelerator) पर पैर का दबाव
तभी एक समाचार, खुशखबरी !
जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ
सिग्नल की बत्ती लाल से हरी
पूर्व में भगवान भास्कर उदय होते हुए
गाड़ी मंथर गति से अस्पताल की ओर सरकने लगी
दर्शन करने नव जीवन का ।।
टिप्पणी: जरा सा विलम्ब होने से मन में तरह-तरह के विचार कौंधने लगते हैं जो हमें विचलित कर देते हैं । अतः संयम से काम लेना ही श्रेयस्कर है।
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
प्रोत्साहन हेतु
रुक जाना नहीं ...
वक्त का चक्र घूमता है
कभी खुशियों से दूर करता है
कभी सर माथे को चूमता है
कभी खुद पर इतराता है
बदलती दुनियां में
वैसे राह कोई आसान नहीं
हो वक्त बुरा तो
अपने, कोई पहचानता नही
यूं जब रुकी रुकी सी हो
जीवन में जीने की राहें
अंधियारे से निकलती किरण
जिन्दगी के मायने बदल देती है
हौसला खुद का
किस्मत बदल सकता है
मान बात "प्रतिबिम्ब" की
तू खुद की नियति बदल सकता है
टिप्पणी: बाधाएं आएँगी जायंगी ... रुक जाना नहीं यूं कही हार के .....बस इसी गाने की चंद लाइनों का ख्याल उतर आया इस चित्र को देख कर
Ajai Agarwal
प्रोत्साहन हेतु
दिवस का अवसान
प्रचंड रश्मियों को
थपकियाँ देता अंशुमाली
मृदुल चितवन लिए-
निशा को आगोश में लेने को आतुर
देख रहा ! अनथक चलते चौराहे को -
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हरी से पीली फिर लाल होती बत्ती
यहां भी गति-विराम एक ही जगह !
लाल बत्ती होना -मतलब --
कदमों का बोसा लेने को आतुर सड़क
घरौंदे को लौटते कुछ कदम -
नहीं करेंगे ये हवा को प्रदूषित -
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जलती-बुझती बत्तियों संग
चलता-रुकता यातायात
गति -अवरोध- विराम -गति
सृष्टि की दृष्टि ,जीवन चक्र
सोचो तो !
क्या नहीं मिलता चौराहों में -
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"जटिलो मुण्डी लुञ्चित केशः
काषायाम्बर-बहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः
उदरनिमित्तं बहुकृत शोकः।।"से लेकर
"पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्।"तक
यत् ब्रह्मांडे तत् चौराहे
टिप्पणी: संध्या का मृदुल दिवाकर /अंशुमाली और लालबत्ती पे क्षण भर को रुका हुआ यातायात --मानो जन्म-मृत्यु के मध्य आत्मा के विश्राम का समय ----ध्यान दें तो मन को कबीर बना देते हैं चौराहे -
मीनाक्षी कपूर मीनू
रफ्तार ..ज़िंदगी की
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हर शाम
ढलते हुए सूरज की
मद्धम सी होती रोशनी में
थक के ये शहर
सुस्त सी होती ज़िंदगी की रफ़्तार के
साथ कहीं
नींद के आग़ोश में जाने को बेताब
इंतज़ार करता है रात का
वहीं , थकी हुई सड़कें
जगी रहती हैं
कुछ जलती- बुझती
रंग बदलती बत्तियाँ साथ देती हैं
रात भर,
और जगा रहता है
कभी ख़त्म न होने वाला सफ़र
जिसकी रफ़्तार कभी तेज़
कभी धीमी हो जाती है
अंततः नई भोर
का आगमन
फिर स्वतः ही
मानो खुल जाती है आंख
सर्पीली सड़क
ज़िंदगी सी ..मानो
फिर चमकने लगती है
एक छोर से दूसरे छोर तक
मनस्वी ....
पुनः आवागमन
पुनरावृत्ति क्षितिज सी .......
टिप्पणी: ज़िंदगी का सफर भी कुछ ऐसा ही तो होता है ढलते सूरज को देख कर भी आने वाले सुबह का इंतज़ार । खामोशी और सदायें मानो साथ साथ चलती रहती जैसे कि सड़क की लाल हरी बतियाँ । कहीं न कहीं सन्देश देती नज़र आती कि उगते सूरज को देखने की खुशी का अहसास महसूस करने के लिए उसकी पूर्व सांध्यबेला में खुद को समेटना पड़ता है । आवाजाही की इस सड़क की भांति अपनी ज़िंदगी के अंधेरे को भी आत्मसात करना पड़ता है ।
Meena
मुश्किलों की लाल बत्ती
मुश्किलों की ये लाल बत्ती
जल्द ही बुझ जाएगी
तेरी उम्मीदों की बंधती बदरी
पूरे आकाश का स्याहपन मिटाएगी
संघर्ष की ये सफेदी धारियां
एक दिन तेरी फतह का, इतिहास बताएंगी
मुश्किलों की ये लाल बत्ती
जल्द ही बुझ जाएगी
तू रुकना नहीं,
तू थकना नहीं
अपनी जिजीविषा का
डीजल, पेट्रोल और सीएनजी
अपनी जीवटता से ही देना
मुश्किलों की ये लाल बत्ती
जल्द ही बुझ जाएगी
इस बत्ती का स्याहपन देख
तू घबराना नहीं
उस आकाश की लालिमा को देख
जो तेरे लिए अपने आँचल की
छांव लिए खड़ी है
स्वागत कर उस उगते सूरज का
जो आज तेरा गुरु बन खड़ा है
मुश्किलों की ये लाल बत्ती
जल्द ही बुझ जाएगी
टिप्पणी: प्रतिस्पर्धा भरी इस ज़िंदगी में इंसान बहुत जल्दी हताश और निराश होता है। सबसे दुख की बात ये है कि किसी के पास दो पल भी नहीं होते हैं, परेशान व्यक्ति से बात करने के लिए। ऐसे में उस हताश व्यक्ति की पीड़ा मैंने इन पंक्तियों में दी गई तस्वीर को देखकर रची है।
किरण श्रीवास्तव
"और जीवन चलता रहे " ......!!
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सन्नाटा क्यों छाया है,
क्यों अंधियारा गहराया है?
उठ जा तू अब ना घबरा,
ले देख परख ,बढ़ता ही जा!
नव सूरज देखो मुस्काया,
उम्मीद किरण फिर बिखराया!
मन का अंधियारा मिट जाये,
उल्लास दुबारा भर जाये.....!!!!
दु:ख -सुख कहां ठहर पाता ,
एक आता है,दूजा जाता !
चलने का ही नाम है जीवन,
पथ पर्वत ढ़लान है जीवन!
रस्ते कहाँ खतम होतें हैं,
सफर सदा चलता ही जाये,
मंजिल तो वही तक अपना
जहाँ ख्वाहिशें थम जाये.....!!!!!!
टिप्पणी: कुछ परिस्थितियां जीवन में स्तब्धता भर देती है। कदम ठहर जातें हैं। पर जीवन तो चलने का नाम है...कुछ लोग सूरज की भांति पुनः राहों को रोशन कर आगे का मार्ग प्रशस्त करतें हैं।
Varsha Thapliyal
फिर वही विराम!
फिर वही विराम, वही ठहराव..
ठहराव जिसमें गति है, अस्थिरता है
गंतव्य पर पहुँचने की व्याकुलता है..
उल्टी गिनती में भी कैसे हम, सबकुछ सीधा देख लेते हैं
हरा रंग कैसे हमारी, बेसब्री का इम्तिहान लेता है
और पलक झपकते ही, लाल रंग में खो जाता है..
प्रकृति भी हमारे विवेक को छल नहीं पाती
डूबता सूरज घर जाने का इशारा करता है
तो उगता घर से जाने का..
चलते हैं हम, फिर रुक जाते हैं
पल भर के लिए ज़िन्दगी की दौड़ में हम ठहरना सीख जाते हैं
काश यही नियम असल जिंदगी में भी होते
भाग-दौड़ में हम उन अनमोल पलों को ना खोते
जो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बनाते हैं
घड़ी भर रुकना, देखना, सहेज कर दिल में
फिर चल पढ़ना.. यही मंत्र सिखाते हैं..
फिर वही विराम, वही ठहराव..
टिप्पणी: आज मैं भी इसी दौड़-भाग को जी रही हूँ। जीत तो रही हूँ सबकुछ पर.. ज़िन्दगी को खो रही हूँ। चित्र देखकर जो महसूस किया, बस उकेर दिया..
गोपेश दशोरा
नियम पथ
कुछ पल का ही तो रुकना है,
और फिर आगे बढ़ जाना है।
इतनी जल्दी क्या है इन्सां,
क्या चाँद पे तुझको जाना है।
काश! के जीवन में होते,
ये सिग्नल तो हम रुक जाते,
कब रुकना है, कब चलना है,
खतरे से पहले सम्भल जाते।
यह नियम सड़क का है लेकिन,
यह जीवन में भी चलता है।
बाधाओं पर जो रुके जरा,
वो ही फिर आगे बढ़ता है।
जीवन के नियम तय करके,
निर्भीक होकर उस पर चल दो।
सीखोगे ठोकर खा खा के,
विश्वास रखो, उठो, फिर चल दो।
नियम का पालन करो सदा।
प्रकृति भी यही है सिखलाती,
नियम पथ पर जो चले सदा,
विजय श्री उन्हीं को दिखलाती।
टिप्पणीः सड़क पर जो नियम का पालन करता है वो न केवल चालान से बचता है वरन् सुरक्षित भी रहता है ठीक उसी तरह यदि जीवन में भी नियम बनाकर दृढ़ता से उसका पालन किया जाए तो इन्सान थोड़ा धीरे ही सही पर सफलता निश्चय ही पा सकता है।
कुसुम शर्मा
मंज़िल की चाह
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भोर भई अब हुआ सवेरा ले कर नव किरणों को साथ !
नई चेतना नई उमंग है मन में आया नव विश्वास !
राह कठिन है दूर है मंज़िल अडिग हैं मन में जाने की चाह !
राह में आते मंदिर मस्जिद मन को पुलकित करते है
अडिग रहे विश्वास तुम्हारा नई चेतना भरते है !
राह में आती लाल बत्ती का यही तुम्हें समझना है !
मुश्किल आये राह में कितनी तुम्हें मंज़िल को पाना है !
थोड़ा रूक कर फिर चलते जाना है !!
टिप्पणी:- राह में चाहे कितनी कठिनाई आये हमें उनसे हार नहीं माननी चाहिए उनका डट कर मुक़ाबला करना चाहिए क्योंकि हर रात के बाद सवेरा होता है !
माधुरी रावत
मरीचिका
उदय हो रहा है दिनकर का
या अस्ताचल को है प्रस्थान
भेद रहा ना निशा-दिवस का
थमा हुआ सा सब चलायमान
रोक रहा कौन रथ रश्मियों का
नीरवता कैसी ये छाई
ठहरा-ठहरा सा ये जीवन
रक्ताभ लग रही क्यूं अरुणाई
सुविधाजनक हुई चौड़ी सड़कें
और धरती माँ वृक्षविहीन
विकास धरा रहेगा धरा पर
और मानव जीवन स्पन्दनहीन
अपने ही हाथों से हमें अब
करना होगा धरा का सृंगार
एक-एक परिवार लक्ष्य ले
अवश्य पेड़ लगाए एक हज़ार
टिपण्णी: सुख सुविधाओं, साधन संपन्न होते जाने की होड़ में, तथाकथित विकास के लिए, नित्य धरती को रौंद रहे हैं हम, बिगाड़ रहे हैं उसका सुन्दर स्वरुप, जो हमारे स्वयं के लिए घातक है।
अलका गुप्ता 'भारती'
गीतिका
बेरहम आँधियाँ हैं चली क्या करें ।
लुट रही आबरू हर गली क्या करें ॥
मौज का शौक था जिंदगी लूट कर ।
अधखिली तोड़ दी वह कली क्या करें ॥
दे दिये हाथ में गान शमशीर के ।
अब लहू सुर लगें , ऐ वली क्या करें ॥
क़ैद हैं वारिसाने हुकुम बेटियां ।
मार दीं कोख में या पली क्या करें ॥
तौल दें..बाज़ ये .. देश का मान भी।
फ़िर मचे..मुल्क में खलबली क्या करें ॥
जंग अब लड़ नयी ठान ले 'भारती' ।
छोड़ दे मानता अब गली क्या करें ॥
टिप्पणी: क्षमा चाहती हूँ रचना पुरानी है नयी रचना संभव नहीं हो सकी ...अतः मैं स्वयं को प्रतियोगिता से बाहर रखती हूँ । हाँ ...देश की सुनसान सड़को पर ..वह भी अंधेरा होने लगने पर माहिलाओं के लिए जो असुरक्षा की भावना पैदा हो गई ..वही व्यक्त कर सकने का प्रयास हुआ है ।