Monday, April 11, 2022

तकब 06 - 22 रचनाएँ, परिणाम व समीक्षा

तकब 06-22





मदन मोहन थपलियाल
वंदन माटी का


मन करता, फिर से रज कण बन जाऊं !
हल ,बैल औ माटी हों आराध्य,
कृषक का सा हो जीवन -
आठों पहर हो माटी से संवाद,
समर्पित वसुधा को, तन-मन औ जीवन ।
करूं तिलक माटी का, रागी बन जाऊं-
मन करता फिर से ---
जीवन का सार है 'हल' -
हर हल का सार है कृषक जीवन ,
माटी है हर पल का वैभव-
माटी की साधना औ तप है जीवन ।
हो तटस्थ,
बैलों की पग - धूलि का राग बन जाऊं-
मन करता फिर से ---
आगे बैल पीछे कृषक -
बीच में साधन हल,
त्रिदेव को करते परिभाषित -
देख बीते मेरा हर पल ।
एकादश पग चूमें जब धरा को-
मैं प्रत्यक्षदर्शी बन जाऊं -
मन करता फिर से ---
लिपट जाऊं ,
हल - बैल लिए कृषक के तन से,
करूं उबटन माटी का -
यही साधना औ अभिनन्दन है साठी का ।
माटी का ही सब ताना बाना,
माटी ही धन दौलत,
माटी कुबेर खजाना ।
धान रोपाई में रत , मां की चरण वंदना कर पाऊं
मन करता फिर से ---
माटी की है यह देह -
कैसे उपकार चुकाऊं,
माटी सा होना भाग्य कहां रे-
माटी का कैसे सत्य बताऊं।
कर धारण मृदा को तन पर,
ऋषि बाल्मीकि सा बन जाऊं-
मन करता फिर से --
छू पग धूलि उस कृषक बाला के -
जो बाबा निमित धर लाई कलेवा,
मेहनत से उपजी तृष्णा-
दर्शन करने भूख की ज्वाला के ।
रुनझुन बजती सुकोमल पैरों की पायल -
कर गईं मेघों का मन द्रवित ,
सोचा मेघराग बन जाऊं-
मन करता फिर से ---

टिप्पणी: हमारे पास जो कुछ है सब माटी का दिया उपहार है, मिट्टी के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है। ईश्वर की सच्ची साधना, माटी का मान रखना ।

यामा शर्मा
मानव का नाता


जब तक मानव का खेतों खलिहानों
से नाता है
तब तक ही जीवन है, जीवन का हर घर से नाता है
जब तक फसलों का प्यार धरा के सीने पर उभरेगा
तब तक खेत अनाज का सुन्दर गहना पहनेगा
जब तक फसलें बेटी हैं खलिहानों की
तब तक हस्ती है मिट्टी में पलते इंसानों की
जब तक हर मानव की यह धरती माता है
तब तक मानव का खेतों खलिहानों से
नाता है
जब तक माटी की महक समाई है मन प्राणों में
तब तक श्रमिकों का श्रम से गहरा नाता है
जब तक मृदुता छलक रही मुस्कानों में
तब तक मानव का खेतों खलिहानों से नाता है
जब तक सूरज की लाली अंबर के हाथ रचेगी
तब तक चँदा तारों संग बारात उतारेगा अँगने में
जब तक मानव का खेतों खलिहानों से नाता है
तब तक जीवन है जीवन का हर घर से नाता है।।

टिप्पणी: इस कविता के माध्यम से खेत खलिहानों की सोंधी महक से सजी मिट्टी और उसमें उगने वाले भिन्न -भिन्न अनाजों को, गहराई से भरे, रिश्तों को बांधकर सजाने का प्रयास किया है।।



आभा अजय अग्रवाल
धरती
(प्रोत्साहन हेतु)

उषा की अरुणिमा
निशा का विश्राम
गोद माँ वसुधा की यही
नित्य जिस पर पग धरें
अर करें सगरे काम !
रूपसि , रुचिरा, उर्वी बाला
खेत खलिहानों में रहती
जगत पालन हेतु को
चाक सीने पे है सहती ।
कृषक का जीवन है उर्वा
वो लाडला कहती कृषक को
कृषक का श्रम परिश्रम ,
खिरमनें जगमग हैं करतीं -
फसल के लहलहाने पे
वसुधा उल्लसित है होती
निसा ,तृष्टि ,संतोष सब
धरती में हैं उगा करते .....
वेदना की घन घटायें ,
घुल माटी में मधुसार बनतीं
क्षार में मधुसार वसुधा -
आओ मिल इसको सजाएं
वृक्ष, हरियाली के गहने
मां को हम सभी , पहनायें
खेती -किसानी सुगम हो
कृषक हो खुशहाल जग में
तब ही मानवता हंसेगी
वसुधा भी गुनगुन करेगी

टिप्पणी: खिरमन जगमगाते रहें ,कृषक खुशहाल हो ,फसलें लहलहायें,जीवों को पर्याप्त भोजन मिले --- धरती को संजो के रखें हम.



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
किसान बिकता सस्ता
(प्रोत्साहन हेतु)

कृषि प्रधान है, भारत देश मेरा
सुनते यही गीत, गाये जग सारा
मेहनत का फल, खाए जग सारा
निर्भर पूरा देश, किसान है बेचारा

गरीब की तरह, किसान भी भ्रमित
मेहनती हैं दोनों, सरकार पर आश्रित
वोट बैंक बने, पर जीवन शापित
क्रूर है व्यवस्था, किसान है प्रताड़ित

कोई करना चाहे, कृषि सुधार चाहे
अपने ही रोकते, अपने ही टोकते
बनकर केवल रोड़ा, स्वार्थ सिद्ध करते
किसान मूक दर्शक, अपनों से डरते

नाम आन्दोलन का, पर किसान मरता
राजनीति की बिसात, किसान केवल पिसता
जीतता आन्दोलन जीवी, किसान केवल हारता
महंगाई चरम पर, किसान बिकता सस्ता

कब समझेगा देश, किसान मान हमारा
कब कहेगा देश, किसान सम्मान हमारा
कब कहेंगे किसान, मिला पुरुस्कार हमारा
कब कहेंगे किसान, जीवन धन्य हमारा

टिप्पणी: जैसा सभी जानते है कि कृषि प्रधान देश है लेकिन आज भी उन्हें अपना हक़ नही मिल पाया. आय के साधन बढ़ाने की उम्मीद कृषि कानून से जगी थी लेकिन 15 % किसानो की मांग ( हटाने की) हावी रही और 85% पक्ष वालो को फिर वंचित होना पड़ा अपने सुधार, आय में सुधार के कानून से.... यह विडम्बना है इसे जुड़े कुछ भाव इन चंद पंक्तियों में ....




बीना भट्ट बड़शिलिया
किसान
मुक्तक छंद


तप तप कर पसीना बहाते हैं
अन्न ये हम तक पहुंचाते हैं
अन्नदाता को कर जोड़ लेवें
मेहनत इन्हीं की हम खाते हैं।
सर्दी गर्मी हो या हो बरसात
सूखा पड़ा हो या बाढ़ प्रपात
मेढ़ों पे बैठे हुए ताकें आसमां,
झेलते हैं ताप ढूंढते नहीं पात।
बैशाख की गर्म दोपहरी में
झुलसन हैं जहां एड़ियों में
ये काटने चले जाते फसल,
आनंद है मेहनत की रोटी में
अब तो इनका हक़ इन्हें दो
फसल की पूरी कीमत भी दो
कब तक बिचौलिए घेरे रखेंगे
मंडी में सीधा संवाद रख दो।

टिप्पणी----किसानों को उनकी मेहनत का पूरा मोल नहीं मिलता,अपनी पंक्तियों द्वारा मैं कहना चाहती हूँ कि क्यों किसान समझते नहीं कि उन्हें अपनी बात स्वयं रखनी चाहिए, किसान नेता हमेशा अपना पेट भरते हैं।



विनीता मैठाणी
मेरे पहाड़ का किसान


नौनिहालों को अपने पढ़ाने की चाह में,
एकं नया मुकाम कोई पाने की चाह में।

जिगर के टुकड़ों सा खेत छोड़कर अब,
निकल पड़ा है गांँव से शहर की राह में ।

पलायन की मार से उजाड़ हुआ गाँव,
वर्षा अभाव,कभी जीवों से त्रस्त दाह में।

घी,दूध,दही अनाज,सब्जी की नदियां,
छोड़कर सब आ गया ज़हर की पनाह में।

ताज़ी हवाओं के झौंके,मीठे जलधारे, 
फल,फूल जैविक खेती थी बस निगाह में।

आज वो किसान बना है परदेशी बाबू ,
अपनी खुशी ढूँढता है झूठी आह,वाह में ।

न अमीर बन सका न सूंकू चैन है कहीं,
किराए का मकान और फ़कत गुमराह में।

सारी जमीं ये आसमां अपना था कभी,
गली कूचों का शहर है अब गाहे-बगाह में ।

गाँव के खेत और फसल से जुड़े रिश्ते,
इंसान और बेजुबां भी थे दिलों की गाह में ।

दिल से न दूर होती है धरती की लगन ,
पहुंचे कहीं भी किसान जिंदगी की थाह में ।

न होती वादियां सूनी मेरे इस पहाड़ की
ग़र मिला होता उसे हल परेशान अथाह में

टिप्पणी: अपनी कविता के माध्यम से मैंने अपने पहाड़ के किसान जो दिये गये चित्र की भांँति खुशहाल थे उनकी खुशहाली को छोड़ने के दर्द को व्यक्त किया है । धन्यवाद



अलका गुप्ता 'भारती'
मैं कृषक



कहने को भूपाल मैं...
कृषक.. कृष हो मरता।
हालातों से बदहाल मैं...
हरियाली का रोपण करता।
माटी भी हुई जहरीली...
रासायनिक भरमार हुई।
अशिक्षा के दाँव में...
चौपट सारी पैदावार हुई॥
मैं कृषक श्रम से अपने
अन्न उत्पादन करता |
अन्नदाता हूँ मैं ! मौसम...
मेरा भाग्यविधाता |
सरकारी नीति..दलालों-
की चक्की में पिसता...
बच्चे हैं नग्न परिवार...
मेरा भूखों मरता ||


टिप्पणी: बस कृषक के विषम हालात को ही चित्रित करने का प्रयास किया है 



किरण श्रीवास्तव
अन्नदाता तेरी जय हो


एक सच्चा मानव है तू
तू हर थाली का जुनून,
सीधा सा स्वरूप तुम्हारा
पढ़े लिखे करते किनारा,
मिट्टी से करते संवाद
जाड़ा गर्मी या बरसात ,
नहीं किसी से तेरा बैर
तेरी चाहत सबकी खैर,
खेतों में खटते ही रहते
मिट्टी से लिपटे ही रहते,
बैलों संग जुते रहते
मुश्किलों से लड़ते रहते
कभी निराई ,कभी गुड़ाई,
कभी रोपाई, कभी कटाई,
तुम्हें चैन ना सुबहो शाम
मिट्टी ही तेरी हर धाम..
संघर्ष भरा तेरा जीवन
खेतों में हर पल अर्पण,
एक सीमा पर प्रहरी है
उनसे भी तू अग्रणी है,
बारंबार है नमन तुम्हारा
तुम पर भी कुछ फर्ज हमारा,
अन्याय न हो अब तेरे संग
प्रण करें खुद से अब हम,
सुख पर तेरा भी हक है
इसमें ना कोई शक है.
ईश्वर के तुम सच्चे बंदे हो
अन्नदाता तेरी जय हो
अन्नदाता तेरी जय हो.....!!!!!

टिप्पणी- जीवन जीने के लिए भोजन अति आवश्यक है हमारे किसान कड़ी मेहनत करते हैं पर उनके साथ हमेशा अन्याय ही होता है हमें उनकी आवाज बनना चाहिए ......!




मीता च्रकवर्ती
किसान


इस धरा का ये विधाता
बहा के पसीना अन्न उपजाता
आग सी तपती दुपहरी हो
चाहे हो बारिश मूसलाधार
हो कड़ाके की सर्दी
चाहे हो कोई तीज त्यौहार
काम न कभी भी इसका रुकता
इस धरा का ये विधाता
बहा के पसीना अन्न उपजाता।
सूखे से जूझ कर ,बाढ़ से लड़ कर
हल चलाता,फसल उगाता
पाई पाई खुद को खर्च कर
सारे संसार का भूख मिटाता
कर्तव्य पथ से अपने कभी न डिगता
इस धरा का ये विधाता
बहा के पसीना अन्न उपजाता

टिप्पणी: चाहे मौसम कैसा भी हो, चाहे कोई भी परिस्थिति हो, किसान अपने कर्तव्य से कभी मूंह नहीं मोड़ता। कभी उसका काम रुकता नही है।



अंजना कंडवाल
जगपालक 'किसान'


ये लहलहाते खेत देखो,
कैसे झूम के गाते हैं।
बैलों के खाँखर कितना,
मीठा गीत सुनाते हैं।।
अपने तन को तपा घाम में,
स्वेद का दरिया बहाते हैं।
पानी के संग सिंचित करके,
खेत में फसल उगाते हैं।
तेरी मेहनत की फसलें,
जब खलियानों में आती है।
मन खुशियों से झूम उठे,
सृष्टि झूम कर गाती हैं।।
माटी माँ है माटी चंदन,
माटी का तिलक लगाता है।
माटी का ये मानव देखो,
माटी की सेवा करता है।।
अन्न उगा कर इस जग में जो,
सबकी भूख मिटाता है।
भूमिपुत्र किसान तभी तो,
जगपालक कहलाता है।।

टिप्पणी:----इस कविता के माध्यम से फसलों से लहलहाते खेत, खेत और बैलों का नाता, उपज की खुशियां, मिट्टी की महक और किसान का मिट्टी और खेत से प्रेम के भाव को समझने का प्रयास है।
खाँखर:- (गढ़वाली शब्द) बैलों के गले की घण्टियाँ।





अंशी कमल
शत-शत बार नमन


भू को हरित ललित करने में, रहते जो हर वक्त मगन।
उस हलधर दम्पति को करती, हूँ मैं शत-शत बार नमन।।
स्वेद रक्त से सींच धरा को, दोनों अन्न उगाते हैं,
उदर सभी का भरते लेकिन, खुद भूखे रह जाते हैं,
अल्प अन्न सँग जल पीकर जो, भूख-प्यास को करें शमन।
उस हलधर दम्पति को करती, हूँ मैं शत-शत बार नमन।।
सूर्योदय से पहले जगते, अर्द्धरात्रि में सोते हैं,
विषम परिस्थिति में भी दोनों, कभी न धीरज खोते हैं,
जिनके श्रम-साहस के बल पर महका अपना देश-चमन।
उस हलधर दम्पति को करती, हूँ मैं शत-शत बार नमन।।
धूप- शीत- बरसात व आँधी, से न कभी जो डरते हैं,
नित्य अभावों में जी कर भी, हर पल हँसते रहते हैं,
हर मौसम की मार सहें जो, नाममात्र के पहन वसन।
उस हलधर दम्पति को करती, हूँ मैं शत-शत बार नमन।।
जिनके श्रम से सख्त़ भूमि भी, मृदुल सरस हो जाती है,
सूखे बंजर खेतों में भी, हरियाली लहराती है,
सूर्य किरण भी शीश झुकाती, नित-नित जिसकी देख लगन।
उस हलधर दम्पति को करती, हूँ मैं शत-शत बार नमन।।
पूर्णत: मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित व सर्वाधिकार सुरक्षित

टिप्पणी: जो किसान और उसकी पत्नी सदैव कठिन परिश्रम करते हुए अपना खून-पसीना बहाकर के, कठोर- सूखी व बंजर धरती को भी सरस व मुलायम बनाकर उसमें अन्न उगाकर हरियाली पैदा कर देते हैं तथा स्वयं भूखे-प्यासे रहकर दूसरों का पेट भरते हैं, ऐसे किसान दम्पति को मेरा शत-शत बार नमन है।

परिणाम – प्रभा मित्तल

तकब 6/22
नमस्कार प्रिय मित्रों !
हमारी संस्कृति हमें यही सिखाती है कि जो हमारा पालन-पोषण करे उसे माता सम समझा जाता है।जैसे जन्मदायिनी माँ सन्तान को जन्म देकर उसका पालन-पोषण करती है।उसी तरह इस धरती पर जन्मे हम सब इसकी संतान हैं। ये हमारे पोषण का प्रबंध भी करती है,हमारे लिए अन्न व अन्य खाद्य-पदार्थ उपजाती है।इसका प्रत्यक्ष प्रबंधकर्ता किसान है जो जाड़ा-गर्मी-बरसात की परवाह न करते हुए दिन-रात परिश्रम करके मिट्टी को उपजाऊ बनाता है और अन्न उपजाता है जिससे हमारा भरण-पोषण हो सके। तकब 6/22 में ऐसा ही चित्र मिला जिस पर हमें अपने विचार व्यक्त करने थे।कुल आठ प्रतिभागी सामने आए।जिनकी रचनाओं पर निर्णय लिया जाना था।इनके अतिरिक्त तीन रचनाएँ प्रोत्साहन स्वरूप निर्णायक मंडल से आईं जो प्रतियोगिता के लिए नहीं थीं।अतः शेष आठ रचनाओं के लिए निर्णायकों से मिले वोट इस प्रकार हैं----
प्रथम स्थान के लिए मिले वोट-----
1.अंजना कण्डवाल......1
2.अंशी कमल .........4
------------------------------
द्वितीय स्थान के लिए मिले वोट-----
1.मीता चक्रबोर्ती.....1
2.अंजना कण्डवाल....3
3.किरण श्रीवास्तव.....1
-------------------------------
इस प्रकार प्रथम स्थान के लिए सर्वाधिक वोट लेकर अपनी उत्कृष्ट रचना "शत-शत बार नमन" की प्रस्तुति के साथ सुश्री अंशी कमल प्रथम स्थान प्राप्त पाकर विजयी रहीं।
सुश्री अंशी कमल जी को विजयी होने के लिए हृदय से बधाई व अनन्त शुभकामनाएँ !!
इसी क्रम में अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना "जगपालक किसान" की प्रस्तुति के लिए अधिकाधिक वोट पाकर सुश्री अंजना कण्डवाल द्वितीय स्थान पर विजयी रहीं। सुश्री अंजना कण्डवाल जी को हृदय से बधाई व अनन्त शुभकामनाएँ !!


  





समीक्षा
(मीता चक्रवर्ती)

तकब 6/22 की कविताओं की समीक्षा सुश्री मीता चक्रबोर्ती जी ने की है। अब आपके समक्ष आपकी रचनाओं की समीक्षा लेकर उपस्थित हैं-----

समीक्षा ( मीता चक्रवर्ती )
तकब 6/22
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारा देश भारत एक कृषि प्रधान देश है । और सौभाग्य से हमें इस बार तस्वीर के रुप में प्रतिबिम्ब जी द्वारा यही विषय दिया गया है । किसान, खेत, हल,माटी, चित्र के आधार पर सभी ने अपनी अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोकर सुंदर कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया है ।इस बार सबकी कविताओं की समीक्षा का दायित्व मुझे सौंपा गया है।आप सभी प्रबुद्ध जनों की रचनाओं के साथ पूर्णरुपेण न्याय करने की कोशिश करुंगी , फिर भी यदि कहीं कोई त्रुटि रह जाती है तो आप सब से क्षमा प्रार्थी हूं ।

सर्वप्रथम विजेता सुश्री अंशी कमल - आपने कविता आखिरी पायदान पर लिखी थी ,पर आज अंतिम नहीं हैं सुश्री अंशी कमल जी।कविता का शीर्षक है "शत -शत बार नमन"।अंशी कमल जी ने अपनी कविता के माध्यम से न केवल किसानों को बल्कि किसान दंपत्ति को अपना नमन प्रेषित किया है । वे कहती हैं कि जो दंपत्ति सूर्योदय से पहले जागकर ,धूप ,शीत बरसात से जूझकर , अपने अथक परिश्रम से बंजर भूमि को भी उर्वरक बना देते हैं , जो विषम परिस्थिति में भी अपना धीरज नहीं खोते हैं उस हलधर दंपत्ति को मेरा शत शत बार नमन है ।
अंशी जी ,किसान दंपत्ति के प्रति आपके इस नजरिए को मेरा नमन है ।

द्वितीय स्थान पर विजयी रहीं सुश्री अंजना कण्डवाल - दसवें पायदान पर लिखी सुश्री अंजना कण्डवाल जी की कविता आज दूसरे नम्बर पर ,जिसका शीर्षक है "जगपालक किसान" । अंजना जी ने अपनी कविता में किसान को जगपालक के रुप में उल्लिखित किया है । सच ही है , वो किसान ही तो है जो अपना पसीना बहाकर फसल उगाता है और सबकी भूख मिटाता है । खेत खलिहानों से , बैलों से , माटी से जो उसका लगाव है उसे देखते हुए ही तो उसे भूमिपुत्र कहा जाता है। धन्यवाद अंजना जी इतनी सुंदर कविता लिखने के लिये ।और हम सभी को गढ़वाली भाषा का एक सुंदर सा शब्द सिखाने के लिये आपका बहुत बहुत आभार ।

अब चलते हैं अन्य रचनाकारों की प्रस्तुति की ओर......

1. मदन मोहन थपलियाल - पहले पायदान पर आती है श्री मदन मोहन थपलियाल सर की कविता जिसका शीर्षक है " वंदन माटी का" इस कविता में इन्होंने माटी की महिमा को बताते हुये अपने मन की अभिलाषा जाहिर की है 'मन करता है फिर से रज कण बन जाऊँ ' । थपलियाल सर ने कृषक और माटी के अद्भुत संबंध को उजागर किया है । ''आगे बैल पीछे कृषक बीच में साधन हल ' अपनी इस पंक्ति की तुलना त्रिदेव से करना अप्रतिम है।अपनी कविता में वे बताते हैं कि किस प्रकार कृषक और उसका परिवार अपने हल और बैलों के साथ माटीमय हो जाता है , वे उस परिवार की वंदना करना चाहते हैं ।वे उस माटी की वंदना करना चाहते हैं । उनके अनुसार जीवन की असली दौलत माटी ही है।कवि यहां खुद वाल्मीकि बनकर माटीमय हो जाना चाहता है।
थपलियाल सर आपकी इस अभिलाषा को मेरा वंदन है।

2. यामा शर्मा - अगले पायदान पर सुश्री यामा शर्मा जी की कविता , जिसका शिर्षक है "मानव का नाता " । इन्होने अपनी कविता में, मानव का खेतों से , खेतों का जीवन से ,श्रमिक का श्रम से, मुस्कान का अधरों से इस प्रकार संपूर्ण मानव जाति का प्रकृति से भिन्न भिन्न रुपों में जो रिश्ता है, जो नाता है उसे बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है । बहुत सुंदर कविता यामा जी ईश्वर करे आपकी कलम का लेखन से हमेशा नाता बना रहे ।

3.अजय अग्रवाल(आभा जी) - तीसरे पायदान पर आदरणीय सुश्री आभा जी की कविता है ,जिसका शीर्षक है "धरती"।आभा जी कहती हैं सूर्योदय के साथ साथ जागने से लेकर , हर छोटे-बड़े काम करते हुये हम जिस धरा की गोद में रात का विश्राम करते हैं , जो अपने सीने पर दर्द सहकर भी हमें सुंदर सुखद फल फूल देती है ,जिस धरा का मन खिरमन,मतलब अपनी कटी हुई फसल देखकर भी हर्षित होता है ,विशाल कर्म जीवन वाला कृषक जिसका लाड़ला है, जो बारिश के पानी के साथ मिलकर उपजाऊ बन जाती है, आओ हम सब मिलकर ऐसी धरती रुपी माँ का हरियाली से शृंगार करें ।जब ये धरती खुशी से लहलहायेगी तभी हम भी खुश रह पायेंगे ।
आभा जी आपके शब्द चयन और आपकी कविता की गहनता को मेरा दण्डवत् प्रणाम ।

4. प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल - चौथे पायदान पर है श्री प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी की कविता , जिसका शीर्षक है "किसान बिकता सस्ता" । प्रतिबिम्ब जी ने अपनी कविता के माध्यम से किसानों की दयनीय और असहाय स्थिति को अंकित किया है कि किस तरह से कुछ स्वार्थपरस्त लोग अपने अपने मतलब से इन भोले भाले किसानों का उपयोग करते हैं। जो किसान कड़ी मेहनत करके पूरे देश का पेट भरता है ,वो खुद भूखा रह जाता है।प्रतिबिम्ब जी चिंता जताते हुये अपनी कविता में कहते हैं कि कब किसानों को सही मायने में उनका उचित पारिश्रमिक व उनके हिस्से का सम्मान मिलेगा ?
काश सर सभी की सोच आप जैसी होती तो आज किसानों की ये दुर्दशा न होती । किसानों के प्रति आपके स्नेह को मेरा नमन है ।

5. बीना भट्ट बड़शिलिया - पांचवें पायदान पर सुश्री बीना भट्ट जी मुक्तक छंद द्वारा अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं । अपने छंदों के माध्यम से वो कहना चाहती हैं कि किसान धूप, गर्मी, बरसात की परवाह किये बिना दिन रात करके फसल उगाता है और उसके मेहनत की कमाई बिचौलिये ले जाते हैं और उसे उसकी मेहनत का उचित मेहनताना भी नसीब नहीं हो पाता है।अति सुंदर कविता बीना जी,आपकी लेखनी को मेरा प्रणाम ।

6. विनीता मैथानी -छठवें पायदान पर सुश्री विनीता मैथानी जी कि कविता "मेरे पहाड़ का किसान" है ।विनीता जी ने अपनी कविता में पहाडों से ,अपने गाँवों से शहर की तरफ़ पलायन करते किसानों का चित्रण किया है । वे कहती हैं कि ये पहाड़ों की वादियां, ये गाँव सूनी नहीं होतीं, यदि तथाकथित सुख सुविधा और झूठी शान -ओ -शौकत की चाह में किसान अपनी जमीन ,अपना आसमान,ताजी हवा और मन के सुकून से पलायन नहीं करता ।
पहाड़ों की सी सुंदर कविता के लिये साधुवाद ... प्रणाम।

7. अलका गुप्ता 'भारती' - "मैं कृषक" शrर्षक कविता के साथ सुश्री अलका गुप्ता जी हैं सातवें पायदान पर । इनकी कविता में कृषक खुद अपनी बदहाली को बयाँ कर रहा है। वह कहता है यूं तो मै 'भूपाल' , समूचे भूमंडल का पोषण करने वाला कहलाता हूं पर खुद कुपोषित होकर मर जाता हूं। कहीं अशिक्षा , कहीं जहरीली दवाइयां,कभी मौसम तो कभी सरकारी दलालों का शिकार हूं मै।कृषकों की विषम परिस्थितियों को अपनी कविता के माध्यम से बहुत ही सहजता से चित्रित किया है आपने।प्रणाम आपकी लेखनी को ।

8. किरण श्रीवास्तव -आठवें पायदान पर है सुश्री किरण श्रीवास्तव जी की कविता , जिसका शीर्षक है "अन्नदाता तेरी जय हो" । किरण जी अपनी कविता में एक अन्नदाता के रुप में किसानों की जय जयकार करती हुई कहती हैं कि किसान ही वो सच्चा ईंसान है जो भेद भाव किये बिना सबके लिये अन्न उपजाता है ।वो जो काम करता है ये सबके बस की बात नहीं । पूरा पूरा दिन मिट्टी में सने रहना , दिन हो या रात गर्मी हो या बरसात उसका संघर्ष कभी रुकता नहीं है । किरण जी किसानों को ही ईश्वर का सच्चा बंदा मानती हैं ।
आपकी इस सच्चाई से भरी सोच की जय हो किरण जी।

9. मीता चक्रबोर्ती - अगले पायदान पर मैं खुद अपनी कविता "किसान" के साथ हूं । अपनी कविता के माध्यम से मैं ये कहना चाहती हूं कि इस धरती पर किसान किसी विधाता से कम नहीं है । वो अपना पसीना बहा कर अन्न उपजाता है , हम सबकी भूख मिटाने के लिये वो तिल तिल कर खुद को ही
मिटाता चला जाता है । चाहे कोई भी मौसम हो , कोई भी परिस्थिति क्यों न हो किसान अपने कर्तव्य के पथ से कभी नहीं डिगता है। }}

 

रचनाओं की समीक्षा लिखने के लिए मीता जी को पुनः धन्यवाद ...आभार।

आप सभी रचनाकारों की रचनाएँ चित्र के अनुसार सार्थक रहीं। मेरी दृष्टि में आप सभी बधाई के पात्र हैं।
निर्णायक मंडल के सभी सम्माननीय सहयोगी सुधीजनों का सहृदय धन्यवाद, आभार।
प्रोत्साहन हेतु प्रस्तुति के लिए आदरणीय भाई मदन मोहन थपलियाल जी"शैल", प्रिय प्रतिबिम्ब जी व प्यारी आभा जी(अजय अग्रवाल) का हृदय से आभार व साधुवाद।आप सभी अपना मार्गदर्शन व सहयोग बनाए रखिएगा।
तकब समूह के सभी सदस्यों से आग्रह है कि अपनी रचनाओं की प्रस्तुति देकर अपनी उपस्थिति से इस समूह की रौनक बनाए रखें।
सस्नेह शुभकामनाएँ!
प्रभा मित्तल.




सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

तकब 05 - परिणाम, रचनाएँ व समीक्षा




 

विनीता मैठाणी

1. महिला दिवस

 

चूल्हे की तपिश में तपकर,
वो चमकता स्वर्ण बन गई।

घूंघट में सिमटी हुई ताकत,
पर लगा आसमां में तन गई।

लाखों घाव भर गया वो क्षण
जिसमें पद्मश्री धारक बन गई।

मंथन से माधुरी बड़थ्वाल जी,
उत्तराखंड की शान बन गई ।

जागर गाये पुरुष विधा छीनी,
विदेश पहुंचा सम्राट बन गई।
 
आदरणीय बसंती बिष्ट नमन,
नंदा जागर में मशहूर बन गई।

"वृक्ष मित्र पुरुस्कार" विजेता वो,
गौरा चिपको की जननी बन गई।

उपन्यासकार शिवानी(गौरा पंत),
साहित्य जगत की तारा बन गई।

अर्जुन,पद्मश्री पाया एवरेस्ट नापा,
भारत में महिला वो प्रथम बन गई।

तीलू रौतेली,विशनी देवी ,टिंचरी माई,
बहु नारी शक्तियां इतिहास बन गई

 

टिप्पणी:

 

2. होली

नवश्रृंगार धरती करती ,ले अंगडाई ये तन-मन ,
कितना रंग रंगीला चहुंँओर जब आया ये "फागुन''
 
अमराई की कोयल और कोपलों का आगमन ,
जी भरमाये ,फूलों से खिलखिलाता हुआ आँगन ।
 
ढोलक की थाप पर होली की टोली संग नृतन ,
प्रीत रंग में रंगा हुआ यहाँ आज सब मानस जन ।
 
रंग बिरंगे लोग यहाँ रंग बिरंगी धरा गगन ,
त्योहारों का ये देश निराला वीरता का ये चमन ।
 
ख़ुशियांँ आयें तो बाँटकर सजाओ अंज़ुमन ,
मिलजुलकर महके जहां सीख देता है पावन ।
टिप्पणी:
 

 

सन्नू नेगी
महिला दिवस
 
नारी जग की दाता है
नारी विश्व विधाता है।
बिन नारी अपूर्ण धरा,
नारी से जग भाता है।
 
पूजा में हो चन्दन जैसे
नारी घर में बन्धन वैसे।
नारी खुशियों की थाली,
नारी भावों में मंथन जैसे।
 
नारी जलते दीये सी बाती
नारी से ही खुखियाँ आती।
नारी से घर परिवार है पूर्ण,
नारी नर-नारायण को भाती।
 
नारी पूजा की सुंदर थाली
जैसे फूलों की बगिया आली।
नारी होली का अबीर-गुलाल
नारी से जगमग होती दीवाली।
 
राधा-मीरा औ रुक्मणी नारी
नेह -प्रेम में सराबोर नारी।
रानी लक्ष्मी और चेन्नम्मा
मातृभूमि की दीवानी नारी।
 
लाड़ दुलार की खान है नारी
ममता से परिपूर्ण है नारी।
जीवन का हर मर्म सहती
ईश्वर की अदभुत कृति नारी।
 

टिप्पणी: संसार मे नारी का स्थान अहम है। नारी से ही जीवन है और नारी ही जीवन है

 

 

 

ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
"होली महोत्सव महिला दिवस
हरिगीतिका छंद में - नव सृजन

2212 2212 2212 2212


होली महोत्सव
होली हमारे हिंद का,,,,,,,,,सबसे मधुर त्योहार है ।
पिचकारियों की धूम है,ज्यों फुलझड़ी जलधार है।
सुन्दर मिलन है प्रेम पूरित ,विखरे हृदय को जोड़ता,
सब नफरतों को तोड़ती,,,,होली मिलन दमदार है।
गोकुल बिरज में धूम है,,,,,पिचकारियाँ छूटे वहाँ,
नवरंग में मधुमय लगे,,,,राधा-किशन का प्यार है |
हरि साधना प्रह्लाद की है,,,,,भक्तिमय विश्वास ये,
सत धर्म की ये विजय है,,,,,भगवान का उपहार है।
होली मनाओ प्यार से,,,,,,,बदरंग बस ना कीजिए,
वीणाबजेगी प्रेम की,,,,,,,,,ये नेह की बौछार है।

नारी की गरिमा

मैं नारि पावन हूँ सदा,,,,,शुचि प्रेम की प्रतिमा रही |
पति प्रेम का अर्पण मिले ,तो सृष्टि की गरिमा रही |
करती रही मैं त्याग निश्छल,किन्तु कुछ चाहा नहीं
जननी बनी ममतामयी,,,,,,,जग ने कभी माना नहीं |
नारी पुरुष की प्रेरणा,,,,नवजीवनी- सृष्टा सबल |
वो कोमलांगी भी सरल,,,,,होती रही कर्मठ प्रबल |
सृष्टा जगत की,वो प्रणय भी ,,कामनी वो वत्सला |
है शोख चंचल मद भरी सी,,,,प्रेमिका भी चंचला।
है सार गर्भित जीवनी सी, ,,,,,भाव उससे ही जगे।
अद्भुत रसों का कोष है ,,,यदि प्रेम-पथ पाने लगे।

टिप्पणी: होली हमारे हिंद का रंगारंग त्योहार है हमारे हिंदू सनातन धर्म परम्परा का एक आस्थामय पर्व है जो भक्त प्रह्लाद की परम भक्ति का परिचायक है,,,तथा नारी की गरिमा तो अवर्णनीय है,,,सृष्टा,जननी,ममता मयी सभी रूपों में वंदनीय है किन्तु पुरुष वर्ग यदि त्याग को समझें तो वो असंभव को भी संभव करने की क्षमता रखती है,,,,यही विचारों को काव्य में प्रस्तुत किया है

 

 

 

नैनी ग्रोवर
तुम्हारी गर्व भरी मुस्कान
 

कहते हो तुमसे ही हैँ सब त्यौहार,

तुमसे ही है, घर परिवार..

रोज़ सुबह सूरज से पहले उठती हूँ,

रात तलक चक्रघिन्नी सी फिरती हूँ,

तुम लगाते हो ठहाके,

अपने मित्रो सँग,

और मैं रसोई से, तुम्हारी हर आवाज़ पर दौड़ पड़ती हूँ,

मेरे पकाये भोजन की तारीफ़ में,

सीना तुम्हारा चौड़ा हो जाता है,

गर्व भरी मुस्कान तुम्हारे चेहरे पर सज उठती है,

फिर से रसोई में आ जाती हूँ,

कमर को सहलाती हूँ,

कोशिश करके मुस्कुराती हूँ,

साड़ी के पल्लू को कमर में खोन्स,

बर्तन धोने में जुट जाती हूँ,

अच्छा भाभी जी चलते हैँ,

महिला दिवस की शुभकामनायें,

कहते हुए तुम्हारे मित्र लौट जाते हैँ,

और मैं थकी हारी, दो रोटी निगल,

बिस्तर पर कटे वृष सी गिर जाती हूँ,

पोर पोर दुखते तन के साथ,

महिला दिवस मनाती हूँ...!

टिप्पणी: ये हालात आज भी कई घरों में हैँ..!

 

 

 
अंजना कंडवाल नैना
"धरती की नारी"

 

स्वर्ण मञ्जरी सा मुखमण्डल, सिर में सिंदूर की लाली है।
जिसके होने से घर में नित, होली और दिवाली है।

जिसके माथे का टीका, सूरज से तेज चमकता है।
लाज शर्म के रंगों से, गालों का रंग निखरता है।
 
आंखों के काजल से भी जो, मन उज्ज्वल कर जाती है।
नेह माधुर्य से नित प्रतिदिन, जो प्रेम का रंग बरसाती है।।

दुनिया के सब रंग जिसके, परिधानों में खिलते हैं
माता सुता भगनी भार्या, सब रूप इसी में मिलते हैं
 
तोड़ रही है बेड़ियों को, अब लांघ रही है सिंधु अपार,
धरा गगन को नाप रही, ले कर वो बामन अवतार।
 
तीलू, गौरा, इन्दिरा बन, करने लगी खुद पर विश्वास,
अबला नही यह कल्पना है, नाप लिया जिसने आकाश।

इस धरा पर मातृस्वरूपा, मनुज नही अवतारी है।
नारायण का ही एक रूप, इस धरती की नारी है।

टिप्पणी:- 1-मुझे लगता है नारी से ही इस दुनिया के सभी रंग हैं और नारी से ही सब त्योहार। मेरी इस रचना में नारी के सौंदर्य और उसके विभिन्न रंगों का वर्णन है।

2- नारी को नारायाण का अवतार इसलिए कहा गया है कि माना जाता नार अर्थात जल से नारी की उत्तपत्ति हुई और नारायण ने ही विश्व कल्याण के लिये भिन्न भिन्न अवतार लिये जिसमें मोहिनी अवतार भी शामिल है।

 

 

आभा अजय अग्रवाल

''नारी -जो अरि नहीं ,कैसे वो अरि हो सकती है " (प्रोत्साहन हेतु)

 

होलिका से होली है या होलिका की होली है ,

होलिका जल भस्म हुई तो ही होली, होली है

नारी थी ,नारी है ,समय चला युग- कल्प गए -

अंतर्मन की व्यथा-कथा से जल-

नारी ने होली खेली है -

ले बोझ कलंक की गठरी का,

युगो से होली खिला रही -

जग समझा भाई के साथ खड़ी-

होलिका ममता की मारी है,,

वो भाई की लाडो है 'ना 'उसे नहीं कह सकती है -

वंश पिता का बच जाए , ज्वाल रथ चढ़ बैठ गयी।

क्या देखी थी "उसके" जलने की पीड़ा तुमने ?

ना !

नहीं दिखायेगी वो नारी है !

कर्तव्यों की बलि वेदी पे" स्व " सदा ही हारी है ,

मैंने अनुभव किया सदा -अग्निदेव के जयकारों को

चिंगारी अश्रु के मिलन सधर्म+

चिट- चिट करते करुण निनादों को ,

रुपहली-सुनहरी शिखा ने छोड़ दिए रंग सातों थे !

अश्रु कण ,अग्निशिखा में रच होलिका सतरंगी थी -

होलिका पे सातों रंग अग्नि ने तब बरसाये थे -

मां !तूने बलिदान सर्वोच्च दिया !

अब रक्षा को ईश्वर आएंगे !

होलिका की हुई होली !होली, तब ही होली होती है -

रंगों की छटा लिए प्रकृति भी बौरा जाती है -

हम अब भी कहाँ समझ पाए नारी के बलिदानों को -

भस्म होलिका की सहेज जतन से पुड़िया में ला रखते

वर्षभर ,घरभर को भस्म अलबला से बचाती है -

नारी थी वो नारी है करने कल्याण ही आती है।

होली त्यौहार है विस्मृतियों का, जकड़न से मुक्ति पाने का -

नारी को जकड़न से मुक्ति मिले ,

उन्मुक्त गगन में इक टुकड़ा -उसका भी अपना होवे ,

आम्र मंजरी सी बौराना चाहे तो -उसको भी बौराने दो-

वंश- पररम्पराओं की बलि वेदी पर

होलिका न उसको बनने दो ,

अंतर्मन को व्यक्त करे अर-

प्रकृति सी वो मुस्क्याये

घर उसका भी है ये ध्यान रखो

तुम उससे ही हो उसका मान करो ।।

 

टिप्पणी: चित्र में महिला दिवस और होली का समन्वय था तो मन स्वतः ही होलिका को सोचने लगा। होलिका हो या शुपर्णखा हो या हिडिम्बा और सुरसा राक्षस संस्कृति में भी देवता और मानवों की तरह ही नारियों को राजतन्त्र और वंश परम्परा की जकड़न में रहना पड़ा ---नारी जो नहीं हो सकती अरि उसे राक्षस संस्कृति ने भी अरि और बेचारी ही बना के रखा ---पर अब युग बदला है और नारी होली की तरह ही सातों रंगों संग अपने हिस्से के आसमान को टटोलने तो लगी है।होलिका तो प्रतीक है नारी की निरीहता का बस उसे ही शब्द देने की कोशिश की है ----कथा को कुछ हटके कहने की कोशिश --------------

 

 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

स्त्री

(प्रोत्साहन हेतु)

 

कर्तव्य से मुँह मोड़ा नहीं
माँ बहन पत्नी बहु बेटी सबकी बनी
यौवन का भान किसे,
ममता संग उतरदायित्व पहचान बनी

कभी सावन, कभी बसंती
भावों से अपने, श्रृंगार मैं करती रही
तन मन की किसे कोने में
सपनों में अपने, मैं रोज मिलती रही

होली के रंग भी,
फिजाओं में इस वर्ष घुलने लगे है
रंग जीवन के ये,
फागुन से मुझ में महकने लगे हैं

पिया संग खेलूँ होली,
अरमान मेरे अब बहकने लगे हैं
रोम - रोम रोमांचित,
अहसास प्रेम बन मचलने लगे है

रोज ही रंग जाती हूँ
भावों को अपने, मैं सहेज लेती हूँ
मैं एक स्त्री हूँ
यह सोच फिर से स्त्री बन जाती हूँ

 

टिप्पणी: महिला शब्द के कितने पर्यायवाची हो सकते हैं और वह सब को परिभाषित करती है अपने कर्तव्य से भावो से ... होली पर उसी स्त्री के भाव उकेरने का प्रयास किया है।

 

 

 

हरीश कंडवाल

महिला दिवस


सुबह उठते ही किचन में प्रवेश करना

सबके लिए चाय बनाकर बिस्तर पर देना

चाय पीते हुए साथ मे सब्जी काटना

आटे से सने हुए हाथों से बालों को सहेजना।

 

घर मे साफ सफाई से लेकर,सब व्यवस्था देखना

घर के बजट को मैनेज कर, फिर भी बचत करना

एक पैर पर खड़े होकर सबका ख्याल रखना

बिना वेतन बिना अवकाश लिए 24 घण्टे काम करना।।


ससुराल हो या मायका सबका ख्याल रखना

माँ,बेटी,बहिन,पत्नी, बहु, ननद, सास होकर भी

ममतामयी महिला का सच्चा स्वरूप ना भूलना

जरूरत पड़ने, आबरू के लिये चंडी रूप धरना।

 

महिला ही तो आधी विश्व की ताकत है

जन्मदायिनी से लेकर, जीवनसाथी तक है

भला स्त्री को आज तक कौन परख पाया है

माँ के रूप में ममतामयी, वैसे ईश्वर की माया है।


टिप्पणी: आधी दुनिया महिलाओं से है, आधे पुरुषों से,लेकिन इस आधी दुनिया को आगे बढाने की शक्ति केवल ईश्वर ने महिलाओं को दी है, इसलिये क्योकि महिलाओं के वराबर त्याग और शहनशीलता अन्य में नही है। परिवार रूपी रथ की सिर्फ पहिया ही नही बल्कि धूरी भी महिला है, पुरुष जीवन रथ का चालक है।

 

 

 

यामा शर्मा

नारी और होली

 

होली कैसे खेलूँ आज

मैं तो रंग गयी तेरे रंग में

लाल रंग से सजी है बिंदिया

माँग सिंदूरी भर आयी

काले कजरारे नयनों में

नीले सागर की गहराई

पहने हाथ भरे चूड़ियाँ

रंगों में डूबी निखरी चूड़ियाँ

पग पग पर संगीत झनकता

पायल ने भी धूम मचायी

मैं बासंती साड़ी से लिपटी

घूँघट में सिमटी सिमटी

सारी बगिया मेरे पहलू में

फूलों सी खिली महकी

विस्तृत नभ मेरा आँचल

चाँद तारों से भरी झोली

हर रंग मुझमें रचा बसा

इस सृष्टि ने खेली होली

मेरा इतिहास मेरा परिचय

मै हूँ जननी नव अंकुर की।।

सर्वाधिकार सुरक्षित

 

टिप्पणी: इस कविता के माध्यम से मैंने नारी के विविधता भरे जीवन के कुछ चिर-परिचित श्रृंगार के रंगों को होली के रंगों सा सराबोर करने का प्रयास किया है

 

 

 

मीता चक्रवर्ती

"सप्तरंगी"

 

ऊषा की अरुणिम आभा सी कभी,

कभी चांदनी सी तुम हो।

है तुमसे ही इंद्रधनुषी ये सात रंग;

या सप्तरंगी सी तुम हो।।

 

विरह रुपी पतझड़ हो कभी,

कभी मधुमास सी तुम हो।

है तुमसे ही बहार जीवन में;

या बसंती बयार सी तुम हो।।

 

चट्टान सी अडिग हो कहीं,

कहीं भागीरथी सी तुम हो।

तुमसे ही तो चलता है जीवन;

जीवन रथ की सारथी सी तुम हो।।

 

बचपन की मासूम किलकारी सी कभी,

कभी फूलवारी सी तुम हो।

हर अदा को खुद में समेटे;

होली की अबीर गुलाल सी तुम हो।।

 

निशा में श्यामल रंग भरती कभी,

कोई शाम सिंदुरी सी तुम हो।

निले नभ का आंचल ओढ़े;

मन में महकती कस्तुरी सी तुम हो।।

 

टिप्पणी: जीवन में हर एक रंग और उमंग नारी से ही है, नारी और प्रकृति दोनों की ही प्रकृति एक जैसी ही होती है। कहीं पर वो चट्टान की तरह दृढ़ है तो कहीं नदी की तरह सरल है

 

 

 

अलका गुप्ता 'भारती'

नारी ही त्यौहार

*************

मैं नार नवेली अलवेली।

मस्तानी हूँ रंग रंगीली।

रंग-रंग के रंग सजाती‌।

जग जाने दीवाली होली॥

विभिन्न आयाम से रंग भरें

खुशियां सर्वस्व हैं अंग करें

भाव आँगन की रंगोली से_

विखर जीवन में उल्लास झरें ॥

हर रिस्तों को है वह महकाती ।

बूंदों में भर.. अमृत छलकाती ‌।

दिवस न एक.. ढल संस्कार युग में-

कृति अद्भुत रंग त्यौहार मनाती॥

 

टिप्पणी: नारी है तभी त्यौहार हैं।

 

 

 

 

किरण श्रीवास्तव

"आज की नारी "

 

तू ही बहन तू ही बेटी

बहू और घरवाली है ,

गर बढ़ जाए अत्याचार तो

बनती दुर्गा काली है ...!

 

शक्ति तेरी अपरंपार

कोमल है कमजोर नहीं ,

जिस घर में खुश रहती नारी

त्योहारों की लाली है ...!!

 

हर क्षेत्र में परचम लहराए

खुद ही अपनी राह बनाए

उन राहों पर दौड़ लगाए

अब ऐसी ये मतवाली है....!!!

 

टिप्पणी- नारी अब अनुभूति की विषय है सहानुभूति कि नहीं ..!  आज नारी हर क्षेत्र में निरंतर प्रगति की ओर अग्रसर है


परिणाम 

तकब 5/22

नमस्कार प्रिय मित्रगण,

मार्च का महीना महिला दिवस मनाता हुआ आया और होली के रंग-अबीर-गुलाल से सबके तन-मन को रंगता हुआ तस्वीर क्या बोले समूह - परिवार के पटल पर छा गया.....हाँ इसी विषय पर तो चित्र मिला था "होली के रंग और महिला दिवस।"आप सभी प्रतिभागियों ने जी भर कर महिलाओं को सम्मान दिया, उनके गुणगान से अपनी कविताओं में जम कर रंग बिखेरे। त्यौहार भले ही अपने नियत समय पर आकर बीत जाएँ पर यही पिछली यादें मिटती नहीं कि नया उत्सव अपने रंग से मन-आँगन में खुशियाँ भरने आ जाता है।ये सभी पर्व शुभकामनाओं में हमेशा बने रहते हैं,अतः आप सभी को महिला दिवस के साथ - साथ होली की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

इस बार तकब के मंच पर हमें कुल बारह प्रतिभागियों की रचनाएँ मिली हैं।जिनमें से दो रचनाएँ निर्णायक मण्डल से प्रोत्साहन स्वरूप हैं, प्रतियोगिता के लिए नहीं हैं।अतः शेष दस प्रतिभागियों की रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ रचना के लिए निर्णायकों से मिले वोट इस प्रकार हैं--------


प्रथम स्थान के लिए मिले वोट---

1.सन्नू नेगी------1

2.मीता चक्रबर्ती-----1

3.ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार-----3

------------------------------------------------

द्वितीय स्थान के लिए मिले वोट----

1.मीता चक्रबर्ती-----4

2.ब्रह्माणी वीणा जी हिन्दी साहित्यकार----1

-------------------------------------------


अतः प्रथम स्थान पर अधिक वोटों के साथ ब्रह्माणी वीणा जी अपनी उत्कृष्ट रचना "होली महोत्सव व महिला दिवस" की प्रस्तुति देकर विजयी रहीं।ब्रह्माणी वीणा जी मेरे लिए सदैव ही प्रेरणादायी रही हैं।उनके काव्य को किसी परिणाम की कसौटी पर रखकर परखना मेरे लिए तो नितांत असम्भव है।वे हमारे तकब समूह परिवार की सशक्त स्तम्भ हैं,उनसे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।मैं चाहती हूँ वे हमारे बीच अपनी उपस्थिति देकर सदैव प्रेरक बनी रहें।आदरणीया ब्रह्माणी वीणा जी को प्रथम स्थान प्राप्त कर विजयी होने के लिए हम सब की ओर से हृदय से बधाई व अनन्त शुभकामनाएँ !! इसी क्रम में अपनी शानदार रचना "सप्तरंगी" की प्रस्तुति के लिए अधिकाधिक वोट पाकर सुश्री मीता चक्रबर्ती द्वितीय स्थान पर विजयी रहीं।सुश्री मीता चक्रबर्ती को हृदय से बधाई व अनन्त शुभकामनाएँ !!



तकब 5/22 की कविताओं की समीक्षा सुश्री नैनी ग्रोवर जी ने की है। नैनी जी के इस सहयोग के लिए मैं आभार प्रकट करते हुए उनका हार्दिक अभिनन्दन करती हूँ।अब आपके समक्ष आप सबकी रचनाओं की समीक्षा लेकर उपस्थित हैं....


समीक्षा- नैनी ग्रोवर

सभी आदरणीय मित्रों को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ...!

इन गुज़रे दो सालों ने हम सभी को एक दूसरे से तन से तो जुदा किया, परन्तु मन से एक कर दिया, हम अपनों से नहीं मिल पाए, और फिर मिले भी तो दूर ही दूर से, किन्तु मन ने एक दूसरे के लिए प्रार्थनाएं अवश्य कीं।

तस्वीर क्या बोले एक मात्र समहू है, जिससे मैं अत्यधिक प्रेम करती हूँ, यही वो जगह है जहाँ मैंने आड़ा- टेड़ा ही सही पर लिखना सीखा, प्रति जी का सहयोग सदा बना रहा, आप सभी मित्रों को पढ़ती रहती हूँ, और सीखती रहती हूँ, और कोशिश करती हूँ कि कुछ लिख सकूँ, टूटा फूटा ही सही। किन्तु कोरोना काल बहुत कुछ छीन ले गया, समहू में तो क्या आती, पढ़ना लिखना सब बंद हो गया। प्रभा मित्तल दी जब भी हो सके साहस देती रहीं, उस दुःख से उभरने की कोशिश कर ही रही थी कि एक के बाद एक चार और अपने इस संसार से विदा ले गए। बहुत ही कठिन समय रहा। चलिए उस समय को छोड़ अब आगे बढ़ते हैँ, प्रभु से इस प्रार्थना के साथ कि अब कोई किसी का अपना किसी से ना बिछड़े...🙏

समहू में शामिल हुए सभी नये मित्रों का हृदय से स्वागत है।

आप सभी बहुत गुणी हैँ, इस बार आदरणीय प्रतिबिम्ब जी ने समीक्षा करने की आज्ञा मुझे दी तो मैं घबरा गई थी। मुझ जैसी मामूली सी लिखने वाली आप सब गुणीजनों की रचनाओं की समीक्षा कैसे करेगी,पर यहाँ फिर प्रति जी ने मुझे हिम्मत दी और मैंने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य किया। भूल चूक के लिए हाथ जोड़कर क्षमा चाहती हूँ।🙏🏻..


रचनाओं की समीक्षा - प्रस्तुति प्रभा मित्तल


1. सबसे पहले विजेता सुश्री ब्रहमाणी वीणा जी की रचनाएँ....

= ="होली महोत्सव"== "नारी की गरिमा" ==

वीणा जी ने दोनों विषयों पर लिखा है, हम सभी जानते हैँ के वीणा जी की कलम से जो रंग निकलता है वो तनमन को भिगो देता है, वीणा जी की पहली रचना =="होली महोत्सव"== ये कहती है, होली हिन्द का सबसे मधुर त्यौहार है, वीणा जी की ये रचना नफरतों को तोड़ती हुई, हृदय को हृदय से जोड़ती हुई, हमें गोकुल की गलियों में राधा-किशन की रासलीला के दर्शन करवाती हुई, प्रहलाद के विश्वास की पगडंडी पर चलाती हुई, वीणा जी के नेह की बौछार में ले आती है....

वीणा जी की दूसरी रचना=="नारी की गरिमा"==

वीणा जी कहती हैँ नारी का त्याग सदा निश्छल रहा, उसने कभी अपने त्याग का फल नहीं माँगा, वो जननी बनी तो सही पर ये समाज कभी उसे मान नहीं दे पाया, नारी का हर रूप चाहे वो माँ हो या प्रेमिका का, वंदनीय है, वीणा जी...दोनों रचनाएं अत्यंत सुंदर..!


2-- विनीता मैथानी जी की रचनाएँ== पहली रचना "महिला दिवस"=व दूसरी रचना= "होली"=

विनीता जी ने भारत की नारी के गौरव को सबके समक्ष रखा, घूँघट में सिमटी, चूल्हा जलाती, घरबार संभालती हुई नारी पद्मश्री लेने का भी हिम्मत रखती है, अपनी रचना में विनीता जी ने हम सबकी प्रिय उत्तराखंड की शान माधुरी बड़थ्वाल जी का जिक्र करते हुए, भारत की कईं सम्मानित नारियों की उपलब्धियों को समक्ष रखा, हम उन सभी नारियों को प्रणाम करते हैँ।

दूसरी रचना =होली= में विनीता जी ने हमारे महान देश को त्योहारों का देश बताते हुए, धरती के नवश्रृंगार की सुंदरता का सुंदर वर्णन किया है। होली के रंगों में धरती गगन सभी रंग जाते हैँ... बहुत खूब रचनाएं विनीता जी...


3--सन्नू नेगी जी की रचना =="महिला दिवस"==

सन्नू जी ने कविता में नारी को दिव्य शक्ति कहा है, जो सौ प्रतिशत सही है। जिन महान पूजनीय नारी शक्तियों के नाम सन्नू जी ने लिए, उन सबके आगे मस्तक स्वयं ही झुक जाता है। जहाँ राधा, मीरा, रुक्मणि जैसी नारी प्रेम का स्वरूप है, वहीं रानी लक्ष्मी व चेन्नम्मा जैसी नारियों ने स्वयं को देश के अर्पण किया है

... लाड़ दुलार की खान है नारी,

ममता से परिपूर्ण है नारी..

यही सत्य है...नारी त्याग व ममता का अथाह सागर है...बहुत खूब सन्नू जी।


4-- नैनी ग्रोवर(यानी मेरी) की रचना == "तुम्हारी गर्व भरी मुस्कान" ==

एक नारी जिसका सारा संसार ही उसका परिवार है, किन्तु क्या मात्र चंद शब्दों से उसके त्याग को रचना में कहा जा सकता है? शायद नहीं, जीवन का हर क्षण जो उसने अपने परिवार को समर्पित किया, उसे लिख पाना असम्भव है, एक गृहणी के समर्पण की मात्र एक छोटी सी घटना को लिखने की कोशिश भर कर सकी हूँ 🙏🏻


5-- अंजना कण्डवाल जी की रचना == "धरती की नारी" ==

अंजना जी कहती हैँ के लाज शर्म को स्वयं में समेटे हुए, प्रेम के मधुर रंग बरसाती हुई नारी आज बेड़ियों को तोड़ कर, आकाश को छूने लगी है। अब ये अबला नहीं है, कल्पना है, तीलू है, गौरा है। सच है अंजना जी, स्वयं नारायण भी बिन नारायणी अधूरे हैँ। धरती पर माँ के रूप में नारी को सदैव ही पूजा गया। नारी अवतारी ही है, अत्यधिक पीड़ा सहकर भी एक जीव को धरती पर लाती है। नारी के असंख्य त्याग व समर्पण इसे पूजनीय बनाते हैँ...उत्तम रचना अंजना जी..!


6--आदरणीय अजय अग्रवाल यानी आभा दी की रचना == "नारी" ==

आभा दी ने वो कहा जो मैंने तो कभी सोचा भी नहीं।आभा दी कहती हैँ के भले ही संसार कुछ भी कहे, किन्तु होलिका ने अपने भाई के मोह में सदा सदा के लिए स्वयं ही कलंक ले लिया, भाई के मोह में, पिता के वंश को बचाने के लिए वो प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई, जबकि वो जानती भी थी के यह कलंक कभी भी मिट ना सकेगा, होलिका जल गई, तभी तो संसार को होली मिली, परन्तु होलिका के बलिदान को हमने कभी महसूस नहीं किया, राक्षस योनि में भी पैदा होने वाली कई नारियों ने अपने पिता एवं भाइयों के लिए समय समय पर अनेकों त्याग किये, जो उनके लिए कलंक व घृणा के कारण बने, परन्तु वो फिर भी ये त्याग करती गईं। होलिका के दिन उसकी भस्म को घर लाकर हम एक पोटली में रख कर दरवाज़े की दाहिनी ओर बाँध देते हैँ, इस विश्वास के साथ कि होलिका की भस्म हमारे घर को बुरी नज़र से बचाएगी। भस्म होने के बाद भी वो सबका भला ही चाहती है क्यूंकि वो नारी थी,नारी है...। अद्भुत रचना आभा दी, इतना कुछ मिलता है आप सबसे सीखने को कि जो शायद उम्रभर ना मिलता..🙏🏻


7-- आदरणीय प्रतिबिम्ब जी की रचना == "स्त्री" ==

प्रतिबिम्ब जी कहते हैँ कि स्त्री चाहे माँ, बहन, पत्नी, बेटी, किसी भी रूप में हो, इसे चाहे किसी नाम से पुकारो, वह अपने कर्तव्य से कभी मुँह नहीं मोड़ती। यौवन को भुलाकर वह माँ होने का उतरदायित्व निभाती है। हर ऋतु में अपने मन के भावों से स्वयं का श्रृंगार करती है। सभी कर्तव्य निभाते हुए भी वह अपने मन के कोने में अपने सपनों से नित्य मिलती रहती है। फागुन की हवा से वो महक उठती है, अपने पिया को मन में समाकर वो उसी के रंग में रंग जाती है, प्रेम की डोरी में बंधी स्त्री, मैं एक औरत हूँ सोच कर फिर औरत बन जाती है। अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को फिर स्वयं में समेट लेती है..

सच कहा प्रति जी, स्त्री किसी भी रूप में हो, त्याग की मूरत ही कहलायेगी... अति सुंदर रचना....!


8-- हरीश कंडवाल जी की रचना == "महिला दिवस" ==

हरीश जी कहते हैँ कि जो महिला एक गृहणी के रूप में, घर को संभालते हुए चौबीस घंटे सबकी सेवा करती है, सुबह से रात तक वो मात्र अपनों के लिए जीती है, बिना किसी अपेक्षा के। परन्तु यही ममतामयी आवश्यकता पड़ने पर अपनी आबरू के लिए चंडी का रूप भी धारण कर सकती है। जन्मदायिनी से जीवनसाथी तक के इसके सफऱ को कोई परख नहीं सकता, आधे विश्व की ताकत, ईश्वर की माया है महिला...।

सही कहा हरीश जी, औरत के प्रेम की गहराई को कोई नहीं माप सकता.... बहुत खूबसूरत....!


9-- यामा शर्मा जी की रचना == "नारी और होली" ==

यामा जी की रचना की नायिका प्रीतम से कहती है कि मैं होली कैसे खेलूं ? मैं तो पहले से ही तेरे रंग में रंगी हूँ, मेरे सोलह श्रृंगार में तेरे प्रेम का ही तो रंग है, चाहे वो बिंदिया हो, सिन्दूर हो, काजल या फिर रंग-बिरंगी चूड़ियाँ। तेरे प्रेम का ही संगीत मेरी पायल में है, भले मैं घूंघट में रहूँ, किन्तु सारी बगिया की सुगंध मेरी है, ये आकाश मेरा है, ईश्वर ने मुझे सभी रंग दिए हैँ, और मैं नवजीवन की जननी हूँ। यही मेरा परिचय है...प्रेम रस में डूबी सुन्दर रचना यामा जी...!



10-- मीता चक्रवर्ती जी की === "सप्तरंगी" ====

मीता जी कहती हैँ कि नारी और प्रकृति एक समान हैँ, कभी वह सूरज की पहली किरण सी है, कभी चाँद की चांदनी सी है, कभी पतझड़ सी हो जाती है, कभी मधुमास सी महक उठती है, कभी जीवन के संघर्ष में चट्टान सी डट जाती है, कभी कलकल बहती नदिया सी हो जाती है। अपने त्याग और अपनों के प्रेम में नारी कितने ही रूप धारण करती है..। बिलकुल सही कहा मीता जी, नारी के कई रूप हैँ, जिन्हें वो अपने एक ही जीवन में जीती है। माता पिता की यादों में किलकारी बन कर, प्रीतम के लिए अबीर गुलाल बनकर, ये सदा संसार को मुस्कान देती रही है...सुंदर रचना मीता जी...!


11-- अलका गुप्ता "भारती" जी की रचना === "नारी ही त्यौहार" ===

अलका जी कहती हैँ, नारी को त्योहार के नाम से मतलब नहीं। वह अपने प्रेममय ह्रदय से बड़े ही उत्साह से अपने परिवार के जीवन में अनेक रंगों से खुशियां भरती है। संस्कारों में ढली ये नारी हर रिश्ते में प्रेम की अमृत भरी बूंदो को छलकाती है। नारी जीवन सदैव अपने परिवार के लिए समर्पित होता है। यही उसकी खुशी है...।सौ प्रतिशत सच है अलका जी, नारी के त्याग और उसके समर्पण को तो देव भी प्रणाम करते है... उत्तम रचना....!


12-- किरण श्रीवास्तव जी की == "आज की नारी" ==

किरण जी कहती हैँ के नारी अगर घर में खुश रहे तो वो त्योहारों जैसी है, किन्तु जब अत्याचार बढ़ जाता है तो उसे दुर्गा का रूप धारण करने में समय नहीं लगता। नारी किसी भी रूप में कमज़ोर नहीं है। ये अपनी राह स्वयं बनाती है, और फिर उन पर दृढ़ता से चलते हुए, परचम लहराती है। नारी शक्ति का कोई पार नहीं। किरण जी आपने सही कहा कि नारी अब अनुभूति का विषय है, सहानुभूति का नहीं, और ये बात हमारे भारत की कितनी ही वीरांगनाओं ने साबित की है...अति सुंदर रचना...! 


सार्थक और सारगर्भित समीक्षा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नैनी ग्रोवर जी....आपके सहयोग की आभारी हूँ।

मेरा सभी सदस्यों से आग्रह है...अधिक से अधिक रचनाकार इसमें हिस्सा लेकर समूह की शोभा बढ़ाएँ।बेहतरीन प्रयास और सुन्दर रचनाओं द्वारा समूह को गुलज़ार करने के लिए मैं सभी प्रतिभागियों को धन्यवाद व बहुत बहुत बधाई देती हूँ।

निर्णायक मण्डल के सभी सहयोगी गुणीजनों का सहृदय धन्यवाद... आभार।प्रोत्साहन के लिए प्रस्तुति हेतू प्रिय प्रतिबिम्ब जी व सुश्री आभा जी का हृदय से आभार !!

सस्नेह शुभकामनाएँ !

प्रभा मित्तल




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