डा.अंजु लता सिंह गहलौत
धरती की पुकार
मैं वसुधा हूँ ,जननी तेरी-
जग के लिये बनी वरदान,
मनु संतति! मांगती हूं अब-
अपने लिये एक प्रतिदान.
आओ! सभी संवारो मुझको-
कुछ मेरी परवाह करो,
कदम रखो मेरे सीने पर-
तड़पो खुद ही आह भरो.
जल,वायु
अब दूषित क्यों है?
सोचो तनिक विचार करो,
आग लगी वायुमंडल में-
क्यों तुम अत्याचार करो?
हरियाली का किया खात्मा-
नष्ट किए सब वन उपवन,
रोग-शोक से आहत होकर-
याद किया मुझको हर क्षण.
जब तक मैं हूँ सुख-संपन्ना-
ध्यान रखूंगी हरदम तेरा,
फैलाकर अपनी बांहों को-
मुझे बचा लो डालो घेरा.
टिप्पणी: धरती मां हमारी पालक है।आज मानव ने स्वार्थवश इसकी
हरियाली नष्टप्राय कर दी है। रोग शोक ने हाहाकार मचाकर सबको चेतावनी दी है,कि भूमि
से पारस्परिक सन्तुलन रखो तभी यह फिरसे खुशहाल हो सकेगी।
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
पर्यावरण संरक्षण हेतु
दो मुक्तक विधाता छंद में,,,,
*******************************
सुमन खिलते,धरा
हँसती,
गगन ने स्वाति बरसाए |
लगे उपवन हरित प्यारे,,,,
फलों सँग झूम लहराए |
करें इनकी हिफाजत हम,,,,,
हमे जो जिंदगी देते,
लगाएँ हम सभी पौधे,,,,,
धरा का मन महक जाए ||
*********************************
संरक्षित हो सघन उपवन,
धरणि का रूप खिल जाए |
हरित चूनर रंगीली हो ,,,,,,
सप्तरंग सुमन खिल जाएं |
करें संकल्प सब मिलकर,
प्रकृति सुषमा रहे कायम,
लगाएँ,हम
सभी पौधे,
,,,
गगन सी छाँव मिल जाए ||
***********************************
टिप्पणी: पर्यावरण संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है,,,हरियाली
व वृक्षारोपण से समस्त प्रकृति को प्राणवायु मिलती है,,,वन उपवन जीवन
के साथी हैं,,हमको
इनकी सुरक्षा अवश्य करनी चाहिए,,,और सबको पौधे लगाने का संकल्प
करना चाहिए,,यही
भाव दर्शाया है मुक्तक काव्य में,,,, जयहिंद जय वसुंधरा
अलका गुप्ता 'भारती'
मातु वसुंधरा
(विधा_आधार
छंद - लावणी (मापनी युक्त मात्रिक) विधान - 30 मात्रा, 16-14 पर यति
अंत में वाचिक गा ----- लावणी = चौपाई + मानव .... समान्त - आते, पदान्त _हैं)
त्यागें कुदृष्टि वसुंधरा से ,मातु समझ
अपनाते हैं।
पर्यावरण हम संरक्षण को ,यज्ञ आहुति
सुझाते हैं ॥
विध्वंसी वो कर्म त्याग दें,कलंक मानवता
सम जो।
भाव वसुधैव कुटुंबकम् से, सृष्टि समस्त
सजाते हैं॥
आधार सृष्टि पंचतत्व में,है समाहित
रक्षण करें।
हरित क्रांति से वन उपवन का,संवर्धन ही
भाते हैं ॥
युद्ध हिंसक अत्याचार के, विध्वंस सब
प्रहारों से।
हो प्रदुषण मुक्त विश्व सारा,नव युक्ति
कुछ जगाते हैं॥
शाश्वत यही सत्य वेदों में, 'भारती'तुम देख लो
ना!
विशुद्ध संस्कृति नीड़ धरा है ,पूज्य
प्रकृति पुनि छाते हैं ॥
टिप्पणी: पर्यावरण संरक्षण हमारा कर्तव्य है और हमारी
संस्कृति भी।
आभा अजय अग्रवाल
और धूप बोली
प्रोत्साहन हेतु
संध्या हो या पूजा हो ,घर हो या हो
मंदिर
शुद्धि /शांति /पवित्रता हेतु धूपदान तुम हो करते
कोई भी हो धर्म या मज़हब ,धूप
प्रज्ज्वलित सब करते ,
धर्मनिरपेक्ष प्रकृति का ,अनुपम उपहार
-मैं धूप !
आह! पर कालांतर में ,शुद्ध नहीं मिलूँगी -मैं ,
भूत/प्रेत ,देव/दानव,मनुष्य/पितर ,
नाग /राक्षस?यक्ष
/गंधर्व ,
सब को आनंदित कर ,सुख/संतोष देती- मैं धूप !
निर्यास,सारी
अर कृत्रिम तीन तरह की होती धूप ,
तुम्हें भान है ? पर्यावरण की रक्षक भी होती -मैं धूप
गूग्गल ,शाल्लकी
,अगर,तगर
कर्पूर लोबान वृक्ष- वनस्पतियों से बनती धूप
पर क्या आसपास अब ,ये वृक्ष तुम्हें दिखलायी देते ?
भू जल को भी औषधीय करते थे ये सारे प्यारे वृक्ष !
कंकरीट के जंगल अब उगा लिये हैं सभ्यता ने ,
शायद ही संतति अब ,देखेगी ये मूल्यवान अर प्यारे वृक्ष -
मैं तो हूं धूप ही केवल रही -रही ना रही-रही !
दिनचर्या चलती जायेगी ;
पर !
वृक्षों की विलुप्त /कमती पृथ्वी को बहुत रुलाएगी ,
अभी समय है !सहेज सकोगे ,सहेजना
प्रारम्भ करो
संभाल सको तो पर्यावरण सम्भालो ,
पूर्वजों की तरह ज़ियो !
उपयोग /उपभोग /संरक्षण नियम हो
इस सोच को अपनाओ -
संरक्षण यदि नहीं किया, प्रकृति
असंतुलित हो जायेगी
अधिक मैं कुछ नहीं कहूँगी ,
पर संतति बहुत दुःख पाएगी !
टिप्पणी: संध्या में दीप -धूप प्रज्ज्वलित की तो धूप बातें
करने लगी ,सोचा
पर्यावरण बिषय है तो इस बतकही को ही लिख दूं
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
पर्यावरण सरंक्षण
(प्रोत्साहन हेतु)
सुरक्षित हमें, अपने पर्यावरण को करना होगा
समय भी इसके लिए, हमें अब निकालना होगा
बन कर उदाहरण,
हमें अब आगे आना होगा
स्वच्छ वातावरण, हमें अगली पीढ़ी को देना होगा
वृक्षारोपण अब हमें, आदत में अपनी बनाना होगा
उपयोग सौर उर्जा का, जल सरंक्षण करना होगा
सरकार नहीं,
वन सरंक्षण जनता को करना होगा
पर्यावरण के नियमों का, अनुसरण हमें
करना होगा
संस्कृति का लेकर चिंतन, करो सोच
पृथ्वी की
बनाओ इसे अभियान, आवश्यकता संकल्प लेने की
बहुत हो गई बातें अब तक, पर्यावरण
बचाने की
यही समय व जरूरत है, इसे आचरण में लाने की
टिप्पणी: पर्यावरण की अब केवल बात न हो, लेख न
हो, कविता
न हो हम भारतीयों के आचरण में इसे होना चाहिए – यही सन्देश
चंद पंक्तियों द्वारा देने का प्रयास
पुष्पा पोरवाल
धरती
हरी -भरी मैं धरती
पुष्प पल्लव आभरण हैं मेरे,
अज्ञानी बन कर तुमने
नोंचे ,काटे
अंग मेरे ।
मैं मुस्काती तृण पात हरियाली में
प्राण वायु पाते पादप से,
भूल गये मद में तुम अपने
अवसादों से सिसक रही कबसे ।
मादक महक लुटाती फूलों से
क्षुधा मिटाती भोजन देकर,
जल जीवन की आवश्यकता है
सर ,सरिताएं
,सिंधु
भरे जल देकर।
स्नेह सिक्त सी ममता मेरी
हृदय हीन बन न जान सके,
अनमोल रतन बिन मोल लुटाती
निर्मोही न पहचान सके ।
बंजर कर डाला तुमने मुझको
अंतस रस सारा खींच लिया,
जलन प्यास देकर मुझको
तिरकन पीड़ा का संसार दिया।
टिप्पणी: पर्यावरण की उपेक्षा जगत -जीव के लिए घातक हो रही
है।
बिमला रावत
वसुधा की पीर
विधा - अतुकांत कविता
मैं हूँ धरा हरी भरी , पर्वत नदिया
से घिरी,
सबकी चहेती ,
सब गृहों में सबसे प्यारी ,
रत्नगर्भा ,
रत्नप्रसविनी ,
खनिजों की खान ,
झेल रही आज असंतुलित पर्यावरण की पीर भारी ॥
जिस मिट्टी में पला बढ़ा , बसाया संसार ,
आज निज स्वार्थ खातिर करता क्रूर प्रहार ,
उपकार का ये कैसा उपहार दिया ,
जल ,
थल , वायु
में घोला प्रदूषण का जहर ॥
बाँहें फैलाकर मैं वसुधा लगाती गुहार
वन काट ,
कंक्रीटों का शहर बसाकर ,
हे अभिमानी ! दम्भी , मूरख मानव
क्या मिला तुझको आखिरकार ॥
चाहे कर ले तू कितना भी अनुसंधान ,
प्रकृति के समक्ष शून्य है तेरा ज्ञान ,
मत कर धरा संग तू खिलवाड़ ,
मत बन स्वयं की संतति का दुश्मन ॥
मत कर मूर्ख मानव इतना अभिमान ,
मत ले मेरे सब्र का इम्तहान ,
रुष्ट हुई मचेगा चहुँ ओर हाहाकर
पल में सुरम्य धरा बनेगी मरघट समान ॥
गर नहीं चाहते हो किसी का विनाश ,
रखो घरों में मिट्टी का कोना पास ,
एक - दो फल फूल के पौधे वहाँ लगाओ ,
जुड़कर जमीं से बनो धरा के खास ॥
समय रहते ,
बनाओ मिलकर सुरक्षित घेरा ,
अन्यथा नहीं बचेगा अस्तित्व तेरा- मेरा ,
जागो ,
उठो , करो
मिलकर संकल्प
धरा की पीर मिटाकर लायेंगे सुखद सवेरा ॥
मात्र संकल्प से नहीं काम चलेगा ,
कथनी को करनी में बदलना होगा ,
भावी नौनिहालों को खुशहाली देने को ,
हर व्यक्ति को कदम से कदम मिलाकर चलना होगा ॥
टिप्पणी: बढते पर्यावरण प्रदूषण का जिम्मेदारआज का मानव है
ओर आने वाली पीढी़ इस कष्ट को भुगत रही । उनके हिस्से का हवा पानी अब जहर बन गया
है । धरती कह रही है समय रहते संभल जाओ । इस रचना के माध्यम से यही कहना चाहती हूँ
। सादर नमन सभी को
रोशन बलूनी
सूरज निगल रहा है
#छंद-दिग्पाल
#विधा-गीत
#मापनी-221
2122,221 2122
ऊँचा हिमाल जलता,सूरज भी जल रहा है।
प्यारे!बचा जमीं को,सूरज उबल रहा है।।
सूखी पड़ी धरा है, सूखे सभी सरोवर।
सूखे पड़े गदेरे, सूखे सभी समंदर।
हिमवंत जल रहा है,सब जल ही जल रहा है।
प्यारे!बचा जमीं को,सूरज उबल रहा है।
नदियाँ नहीं रहेंगी, फसलें कहाँ उगेंगी।
धरणी नहीं बचेगी, साँसें कहाँ बचेंगी?
संकट - विनाश लेकर,जगती को छल रहा है।
प्यारे!बचा जमीं को,सूरज उबल रहा है।।
ऊँचे पहाड़ काटे, काटी हजार डाली।
कंक्रीट के भवन हैं,जंगल हजार खाली।
हिमखण्ड गल रहे हैं,धरती को तल रहा है।
प्यारे! बचा जमीं को,सूरज उबल रहा है।।
बूँदें नहीं बरसती, जलस्रोत खो रहे हैं।
पानी बिना बहुत से,जल-जन्तु मर रहे हैं।
रासायनिक जहर तू,मानव!उगल रहा है।
प्यारे!बचा जमीं को सूरज उबल रहा है।।
संकल्प ले अभी से,धानी-धरा सजा ले।
द्रुमदल लगा-लगा के,जीवन हरा बना ले।
जागे नही अभी तो,अवसर निकल रहा है।
प्यारे! बचा जमीं को,सूरज उबल रहा है।।
टिप्पणी: "परितःआवरणं पर्यावरणमित्युच्यते"
अर्थात् चारों ओर से आवृत्त पर्यावरण कहलाता है।जल-जंगल-जमीन सबकी देखभाल करना
हमारा परम दायित्व है क्योंकि इस धरती का हम पर बहुत कर्ज है,फिर
स्वार्थान्ध मानव प्रकृति का दोहन करते हुए पर्यावरण को हर तरह से प्रदूषित कर रहा
है।जिसका परिणाम है कि ओजोन परत जो कि प्राणियों की एक तरह से सुरक्षा कवच है
उसमें प्रदूषण के कारण छिद्र हो गया जिससे पराबैंगनी किरणों से विभिन्न रोगों को
हम दावत दे रहे हैं।मृदा प्रदूषण,जल प्रदूषण,वायु
प्रदूषण,ध्वनि
प्रदूषण,रेडियो
धर्मितादि प्रदूषण से जलवायु परिवर्तन हो गया है उससे अतिवृष्टि, अनावृष्टि,भूकंप,जलप्लावन,आकाशीय
वज्रपात,बादल
फटना ज्वालामुखी आदि दैवीय आपदायें आती हैं।इसलिए हमें क्षितिजलपावकगगनसमीरा
पंचतत्वों का सम्यक् संवर्धन करना होगा,जो कि
मानवजीवन के लिए नितांत जरुरी है।
विनीता मैठाणी
धरा
विधा--मनहरण घनाक्षरी छंद
8,8,8,7 गुरु पदान्त ,
चार पद सम तुकांत,
31 वर्ण,
16,15 पर यति।
फेसबुक पर नहीं, पेड़ धरा पर लगा
मिलजुल कर सभी,धरा को सजाइये।
हरियाली है जरुरी,जीवन जीने के लिए,
चारों ओर हरी-भरी, वसुधा बनाइये ।
युग बदले या फिर, बदले जीवन नया,
श्वसन के लिए ऐसी ,विधा अपनाइये।
गाँव में समाज में ये,रिवाज होना
चाहिए
कार्य शुभ करें जो भी,पेड़ भी
लगाइये।
टिप्पणी: अपनी रचना में हमने वृक्ष अर्थात जीवन बचाओ अभियान
के लिए कदम बढ़ाने का आग्रह किया है।
कुसुम शर्मा
आओ मिल कर वृक्ष लगाये!
आओ मिल कर वृक्ष लगाये
इस जगत को ओर सजाये !
जितनी फैलेगी हरियाली
उतनी सजेगी धरती प्यारी !
स्वच्छ बहेगी वायु सारी
प्रदूषण का नाम न होगा
रोगों का फिर काम न होगा !
तपस सूर्य की रूक जाएगी
चारों ओर जो हरियाली छायेंगीं !
वृक्ष लगेंगे वर्षा होगी
धरती की फिर प्यास बुझेंगी
पानी की समस्या मिट जाएगी !
अकाल का तब नाम न होगा
किसान का फिर ये हाल न होगा !
जन जन को ये समझायें
कार्बन डाइऑक्साइड से
धरती को बचाये !
जितना धरती पर फैलेगा
उतना ही फिर रोग बढ़ेगा !
बच्चे वर्षा को तरसेंगे
तपस बढ़ेगी
धरती बंजर हो जाएगी
भुखमरी पाँव फैलायेंगी !
अगर हमें इससे है बचना
तो सबको वृक्ष है लगाना !
वृक्ष करते कार्बन का भक्षण
आक्सीजन का होगा संचार !
शुद्ध बहेगी हवा भी सारी
नहीं रहेगी कोई बीमारी !
आओ मिल कर वृक्ष लगाये
धरती के कण कण को सजायें !
टिप्पणी: हमें प्रदूषण से धरती को बचाना है तो वृक्ष लगाने
ज़रूरी है. हमें जन जन को जागरूक करना होगा कि वृक्ष लगाने के क्या क्या फ़ायदे है
!
अंशी कमल
धरती बचाओ
#विधा-
लावणी छन्दाधारित गीत
#विधान-
16/14 पर यति
हरित ललित वन-उपवन सारे, धरती का
श्रृंगार करें।
सब कुछ अपना दें यें हमको, हम भी इनसे
प्यार करें।।
हरे- भरे वन बाग सदा ही, सबके मन को
भाते हैं,
स्वच्छ हवा- जल अरु जीवन हम, इनसे ही तो
पाते हैं,
स्वार्थ बिना ही सब वन-उपवन, हम पर नित
उपकार करें।
सब कुछ अपना दें यें हमको, हम भी इनसे
प्यार करें।।
हरे- भरे वन- उपवन जब तक, तब तक ही यह
जीवन है,
इनसे ही जीवन में खुशियाँ, इनका करना
पूजन है,
नष्ट न हो जीवन धरती पर, कोशिश
बारम्बार करें।
सब कुछ अपना दें यें हमको, हम भी इनसे
प्यार करें।।
वृक्षों से निर्मित वन-उपवन, वृक्षों को
मत कटने दें,
वृक्षों से ही बादल बरसें, आग न इनमें
लगने दें,
रुके प्रदूषण भी वृक्षों से, सत्य सभी
स्वीकार करें।
सब कुछ अपना दें यें हमको, हम भी इनसे
प्यार करें।।
हर घर आँगन राह किनारे, आओ वृक्ष
लगाएँ हम,
जल- थल- वायु प्रदूषण रोकें, धरती आज
बचाएँ हम,
"अंशी" वृक्षों की महत्ता को, कभी न
अस्वीकार करें।
सब कुछ अपना दें यें हमको, हम भी इनसे
प्यार करें।।
टिप्पणी: वन और उपवन से ही धरती ही सुशोभित होती है तथा
वनों व उपवनों का निर्माण पेड़ों से होता है। पेड़ों से ही हमें जीवन मिलता है।
पेड़ों के बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए यदि धरती व जीवन को
बचाना है तो हमें पेड़ों को व वन-उपवनों को बचाने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए।
मेरी यह रचना पूर्णत: स्वरचित, मौलिक व
अप्रकाशित है।
परिणाम
प्रथम स्थान के लिए वोट
अंजु लता सिंह 1+ 1 =2
बिमला रावत 1+1 =2
द्वितीय स्थान के लिए वोट
रोशन बलूनी 1+
विनीता मैठाणी 1+
ब्रह्माणी वीणा 1+
पुष्पा पोरल 1 +
परिणाम
डॉ अंजु लता सिंह जी व
बिमला रावत जी संयुक्त विजेता
(समीक्षा –
रोशन बलूनी)
आभासी मंच को सादर नमन वंदन अभिनंदन!
तस्वीर क्या बोले मंच द्वारा आयोजित प्रतियोगिता तकब १२ में आप सुधिजनो का हार्दिक स्वागत.
०५ जून विश्व पर्यावरण दिवस हर वर्ष मनाया जाता है. तद – तद संस्थाएं नव संकल्पना के साथ पर्यावरण
सरंक्षण संवर्धन का दृढ़ संकल्प लेते हैं. वैश्विक स्तर से लेकर भारत में भी केंद्र
सरकार और राज्य सरकार के साथ – साथ विभिन्न संगठन पर्यावरण दिवस पर कई कार्यक्रम
करते हैं. आज हम भी तकब १२ में पर्यावरण विषय को लेकर बैठे हैं – मुझे मंच ने,
आदरणीय प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी ने समीक्षा का दायित्व सौंपा है – हालाँकि मैं
अल्पज्ञ कहाँ किसी की लेखनी पर समीक्षा कर सकता हूँ तथापि एक व्यवस्था को आगे
बढाते हुए मैं – ‘शुचिपर्यावरण’
हरिदत्त शर्मा जी के द्वारा लिखित श्लोक है कि
दुर्वहमत्र जीवितं जातं प्रकृतिरेव शरणम्।
शुचि-पर्यावरणम्॥
महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्।
मनः शोषयत् तनुः पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्॥
दुर्दान्तैर्दशनैरमुना स्यान्नैव जननसनम्। शुचि-पर्यावरणम्॥
डॉ अंजुलत्ता
जी द्वारा
कविता “धरती की पुकार” जल जंगल जमीन की चिंता करती हुए विचार कविता है . वे कहती
हैं कि धरती मन है जिसकी सेवा सुरक्षा का दायित्व भी हमारा है. आ ब्रह्माणी
वीणा जी ने भी अपने दो मुक्तकों विधाता छंद धरा की सुन्दरता के विषय पर लोगो
का मन अपनी ओर आकर्षित किया है. आ अलका गुप्ता जी ने लावणी छंद में
पंचतत्वो क्षितिज गगन समीर का पूजन और सरंक्ष्ण
अपना हम सबका दायित्व है .
श्रधेय
आभा अजय अग्रवाल जी ने
प्रोत्साहन हेतु अपनी छंद मुक्त कविता में “माता भूमि पुत्रोऽहं पृथीव्या:” इस भाव से हम पृथ्वी को हर तरह से प्रदूषित होने
से बचाए इसमें ही हम सबका सुखद भविष्य है.
आ प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी ने प्रोत्साहनार्थ लिखी कविता ‘दश पुत्र समो
द्रुम:’ इस भाव को जागृत करवाते हुए पर्यावरण के प्रति कर्तव्यों को बताया है. की
धरातल पर पर्यावरण को संरक्षित करें.
आ पुष्पा पोरवाल जी ने ‘धरती’ शीर्षक से अपनी विचार कविता में प्रकृति के दोहन
पर चिंता व्यक्त की है. मुझे गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी का गीत याद आता है
–
डाली कटली त न माटी बगली
कूड़ी न पुंगडी न डोखरी बचली
डालियूं न काटा चुचों डालियूं न काटा
आ विमला रावत जी ने ‘वसुधा की पीर’ शीर्षक से नद-नदी निर्झर-झरने वन उपवन पहाड़ सबका दोहन करता
हुआ मानव स्वार्थान्ध है. इसी का प्रतिफल है कि हमें बाढ़ भूस्न्ख्लन और केदारनाथ
जैसी आपदाओं का सैलाब लील कर रहा है. आ विनीता मैठाणी जी ने मनहरण घनाक्षरी
छंद में पर्यावरण को सरंक्षण केवल आभासी मंचो पर अपितु धरातल पर कम होना चाहिए.पेड़ पौधे अधिक से अधिक
लगायें इसो विचार को आगे बढाते हुए आ
कुसुम जी ने भी अपनी चिंता जाहिर की है. धरती बचाओ शीर्षक के द्वारा आ अंशी
कमल जी ने लावणी छंद में धरती की खूबसूरती कैसे संवारी जा सकती है परअपने
विचार रखे.
अंत में मेरा (रोशन बलूनी) स्वरचित
गीत ‘ सूरज उबल रहा है ‘ जिसे गीत विधा में दिगपाल छंद में लिखा है. आप सब जानते
है न कि हमारी आर्य परम्परा के ऋषि मुनियों ने हमेशा पर्यावरण सरंक्षण को प्राथमिकता
दी है ॐ द्यो शांति अंतरिक्ष शांति:
---------
सभी रचनाकारों का व निर्णायक मंडल के सदस्यों के मार्गदर्शन हेतु हार्दिक धन्यवाद. रोशन बलूनी जी समीक्षा हेतु आभार.
आपका अपना
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल