अलका गुप्ता
--चंद हाईकू --
----------(१)
गंध हो माटी !
हरियाले से गाँव !
पेड़ों की छाँव !
---------(२)
खाद-गोबर !
हलधर किसान !
हों खलिहान !
---------------(३)
माँ के हाथों !
महकाए जीवन !
चूल्हे की रोटी !
---------------(४)
छोरियाँ-गाँव !
कमर मटकाय !
झाँझर-पाँव !
----------------(५)
बेला गो-धूलि !
चाबें..चना-चबेना !
थकित-श्रांत !
----------------(६)
गाय बछड़ा !
दूध-दही-माखन !
गाँव-गँवार !
----------------(७)
राधा बेचैन !
रे मोहन का गाँव !
वंशी-बजाय !
नैनी ग्रोवर
-- मेरा गाँव---
जहाँ कलकल करती नदिया है,
और ठण्डी-ठण्डी पेड़ों की छाँव,
सबसे प्यारा मेरा गाँव..
खेत खलिहानों की में बसता,
आज भी देखो सुंदर हिन्दुस्तान,
बारिश में तैरती कागज़ की नाव,
सबसे प्यारा मेरा गाँव..
पूजी जाती गाय माँ अब भी,
जबकि भूली दुनियाँ संस्कृति कब की,
मिट्टी में बच्चे लगाते दाँव,
सबसे प्यारा मेरा गाँव...
मटकी धरे सर पे ठुमकती चलतीं,
चुनरी पर उनके सर से ना सरकती,
रुनझुन करती पायल बजती पाँव,
सबसे प्यारा मेरा गाँव..!
बालकृष्ण डी ध्यानी
~एक गाँव~
अब भी कोसों दूर
बहुत दूर अकेला खड़ा
एक गाँव
अलग थलग पड़ा
शांत चुप चाप वो
खाली होता रहा
एक गाँव
स्वप्न लोक से भरा
वो सादगी भरा
पर विपरीत खड़ा
एक गाँव
गर्मियों में पिकनिक क्षेत्र बना
चित्र में उभरे भाव
अपने में ही दबाकर
एक गाँव
बस ऐसे ही चलता रहा
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
- मेरा गांव-
कल्पनाओं से भरा है मेरा गांव
पेड़ो, स्नेह की ठंडी मिलती छांव
प्रकृति का सुखद एहसास है यंहा
नगर नगर ढूंढे लेकिन मिले कंहा
पशु पक्षी, नदी तालाब अपने लगते
सुख और दुख सब मिलकर सहते
पगडंडी और रा्स्ते खूब बाते करते
खाली होते गांव प्रशन हमसे करते
Kiran Srivastava
---गाँव की त्रासदी----
गाँव तो गाँव है
न धूप है न छाँव है
रहते जहाँ अन्नदाता है
भारत के भाग्य विधाता हैं,
सीधे-सादे लोग यहाँ पर
सीधी-सादी भाषा है,
करतें हैं संघर्ष सदा
जो जीवन की परिभाषा है,
साधन है सीमित यहाँ पर
वो भी बड़े पुराने हैं,
देख गाँव की तस्वीरों को
बरबस हम मुस्कातें हैँ--,
पीछे कितना दर्द छुपा है
जान नहीं हम पातें हैं,
असुविधाओं की भरमार है
गाँव तो गाँव है
न धूप है न छाँव है.....!!!!!
Pushpa Tripathi
------गाँव ----
मेरे गााँव की बात निराली
शहर से बहोत दूर बस्ती चहकती
रास्ते अब भी कच्चे मिटटी से लिपे
बरगद के छाँव में बैठती है शाम
शाम की चिमनी से निकलती है
भूख की तृप्त महक ,सौंधी सौंधी रोटी की l
मेरे गाँव की हवा में जो बात है
वो शहर की ऊँची इमारतों में नहीं
हँसती खिलखिलाती है नव बालएं
झूलें की ऊँची ऊँची पेंग लेकर
सावन से बातें करती आम की टहनियाँ
रुको अभी जाना नहीं …सावन की तीज हरियाली है
गाँव जो अब भी शहर बना नही है .... पगडंडी की उखड़ी मिटटी कहती है
सुनो … पायल की छम छम अब भी बजती है
गोरु बछड़े बसते है .... धान की बाली लेकर
जीवन शैली का सीधापन चुपचाप खेत से घर की ओर ही आता है
गाँव का रहन सहन चुपचाप चारपाई बैठा पर है और
सोचता है कि शहर के आबो हवा में ये बात कहाँ ?
भगवान सिंह जयाड़ा
-------मिटटी मेरे गाँव की-----
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गाँव की उस पावन मिटटी में ,
बचपन की खुशुबु आती है,
भटकते दर बदर इस जहां में ,
मेरे ख़्वाबों को महकाती है ,
दूर रह कर कभी इस मिटटी से ,
नहीं मिलता मेरे मन को करार ,
इस के पावन स्पर्श के लिए ,
रहता है सदा मेरा मन बेकरार ,
खेत खलियानों घर आँगन की ,
यादें आज भी मन में बसी है ,
धुंधलाती वह बचपन कि यादें ,
मुझको यूं हर पल संताति है ,
गाँव की वह चौपालें आज भी ,
सायद हर रोज सजती होंगीं ,
कंहीं बन में किसी ग्वाले की ,
बंशरी आज भी बजती होगी ,
पशुवों का वह झुरमुट आज भी ,
सायद चरने को जाता होगा ,
बैलों के गले में घंटियों की वह ,
आवाजें आज भी आती होंगीं ,
खेत खलियानों में खनकती ,
चूड़ियों की आवाजें आती होंगीं ,
मस्ती में गाते गीतों की आवाज ,
सबके मन को लुभाती होगी ,
पनघट की रौनक आज भी वही ,
क्या मस्त बहारें सजती होंगीं ,
सखी सहेली आपस में आज भी ,
ख़ुशी से आपस में मिलती होंगीं ,
गाँव का वह पुराना बरगद ,
शांत आज भी निहारता होगा ,
जिसकी जटावों पर बचपन में ,
खेली खूब अठखेलियां हम नें ,
गाँव का वह पुराना मंजर ,
मुझ को जब कभी याद आता है,
बस उसकी ख़ुशभू का आभाश ही ,
ब्यथित मन को शकुन दे जाता है ,
छोटे मंदिर का जलाता दिया,
आज भी वेसे ही जलाता होगा,
घंटियों का वह प्रिय मधुर स्वर,
सब के मन को लुभाता होगा,
गाँव की उस पावन मिटटी में ,
बचपन की खुशुभु आती है
भटकते दर बदर इस जहां में ,
मेरे ख्वाबों को महकाती है ,
कुसुम शर्मा
~ऐसा सुन्दर गाँव हमारा~
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ऐसा सुन्दर गाँव हमारा ,
पहाड़ों से घिरा है सारा,
शुद्ध हवा , शुद्ध है पानी
शुद्ध भोजन , सीधी साधी वहाँ की ज़िन्दगानी !!
निर्मल नदियाँ , खिलती कलियाँ,
भँवरों का गुंजन वहाँ ,
चहकते पक्षि ,महकती धरती
सादगी और भोलापन वहाँ !!
कल कल झरना बहता
मधुर स्वर वो करता
पथिक कंठ की प्यास बुझाता
हर कोई वहा थकान मिटाता !!
सुबह की बात निराली
चारों ओर छाती ख़ुशहाली
सभी मिलकर खेतों मे जाते
गाय भैंसों को साथ ले जाते
पनघट मे मचाता है शोर
सहेलियों की हँसी का
पायलों की छनक का
पानी के भरन का
शाम ढले सब घर को जाते
वन से काट लकड़ियाँ लाते
गाय भैंस भी चर कर आती
सीधे गोशाला मे जाती !!
चुल्हे मे बनता है भोजन
चिमनी से घर होता रोशन
सब मिलकर ही भोजन करते
प्रेम भाव से सदा वह रहते !!
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
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