Thursday, June 9, 2016

#तकब4 - तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता 4






#‎तकब४‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #4 ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. इस चित्र में है दो चित्र - दोनों में सम्बन्ध स्थापित करते हुए, कम से कम १२ पंक्तियों की रचना का सृजन करे शीर्षक सहित. 
यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है कि आपने रचना में उदृत भाव किस कारण या सोच से दिया है, 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता ७ जून २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६.आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.


इस बार  के  विजेता  है " प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल "


1.
बालकृष्ण डी ध्यानी 
~कल्पना और हकीकत~

एक पेड़ है एक इंसान
कल्पनाओं की है ये उड़ान

कृष्ण धवल है जिनका स्थान
कल्पनाओं का रंग फीका जान

चुप है वो शांत अकेला खड़ा
अपने से वो अब क्यों बोल पड़ा

खो गयी है अब उसकी पहचान
सजीव है वो उसे तू निर्जीव जान

छोड़ चुके अब मन के प्राण
कल्पना समझ या हकीकत जान

खो गयी है अब वो मुस्कान
चुप है एक पेड़ अब चुप है एक इंसान

टिप्पणी:
कल्पना और हकीकत में ताल मेल बैठने का काम कराती ये रचना हमे अपने अब के यथार्त जीवन के दर्शन को दर्शाने की एक छूटी कोशिश की है जो रंग से बेरंग होती जा रही है


2.
Pushpa Tripathi 
~तन रूपी एक पेड़ उदास~.

नन्हा मन अंजान था
सपने बहुत देखे उसने
उम्र नादान ... अनुभवों से अज्ञान
अभी तो
छोटी छोटी कोंपल से बनती
बाद जैसे शाखाओं पर
हरी हरीभरी पत्तियाँ
पूरा का पूरा वृक्ष उत्साहों से घना बना
मन ----- अंजान उदासी से परे
फैला हुआ !!

बडा हुआ मन ,,,,,, अब
असंख्य बाधाओं विपदाओं से सना
बैठा अकेला सोचने .... करे भी तो कैसे करे
समस्या के उलझ सुलझ में
कर्तव्यो का पूरा काम !!!!

जो हौसले कल थे फूले फले
आज रंग बना एक गहरा आभास
इसी सोच में सिर्फ पत्ती नहीं बल्कि
मन सहित तन रूपी एक पेड़ उदास !!

टिप्पणी:
( आयु के एक ऐसे पड़ाव में खुशियाँ बहुत होती है जब मन बच्चा होता है उस समय उमंग और हौसले में ज्यादा फर्क नहीं रहता किन्तु उम्र के साथ जिम्मेदारियाँ व कार्य का भार बढ़ जाने से हरित मन उदास हो जाता है .... कविता का भाव इसी को दर्शाता है। )


3.
नैनी ग्रोवर 
~मन और तन~

थक चुके हैं,
मन और तन,
कहाँ जाके अब,
चैन मैं पाऊँ,
दूर-दूर तक,
धूप ही धूप है,
जिस और भी,
नज़र घुमाउँ..

जाने कहाँ,
गुम हुआ वो पेड़,
जिसपे झूला,
मैं झूला करती थी,
जिसकी ठंडी-ठंडी,
छाँव को,
माँ का आँचल,
समझा करती थी,
अब जाके वैसा,
आराम कहाँ में पाऊँ..

खूब घनेरे पत्तों से,
आँगन में,
छाँव बिछाये,
यहाँ वहां,
सारे घर को,
खुशबु से महकाए,
वो दोस्त मेरा,
फिर से कोई,
इक बार ढूंढ के लाये,
देखूँ उसे तो फिर से,
लौट जीवन में आऊँ...

ऐसा ना हो,
घुट जाए दम,
साँसे रुकने लगें,
हवा हो जाए कम,
ना मिले कोई दवा,
लाचारियों की,
हर घर बने जाए,
पनाह बीमारियों की,
जाओ जाओ,
उसे ढूंड लाओ,
इस सुलगते वीराने से,
मुझको बचाओ,
करूँ विनिति मैं,
अपनी झोली फैलाऊँ...!!


टिपण्णी:-
पर्यावरण एवम् पेड़ों के प्रति मानव जाति की लापरवाही ।



4.
Kiran Srivastava 
[प्रकृति और हम]
======================

जीवन में ठहराव कहां है
धूप ही धूप है, छांव कहां है....

पहले पेडों की छाये में
थक हार सुस्ताते थे

फिर आगे जाने की
हिम्मत हौसला पाते थे

हरियाली नाराज हो गयी
पेडों की अब छांव चली गयी...

गर मानव करनें की ठानें
पत्थर पर भी घास उगा दे

लेकिन क्यों सुस्ती है आयी
प्रकृति पर घोर आपदा छायी

प्रकृति पर हम हैं निर्भर
हमसे प्रकृति ही कायम है

सोचें कुछ ऐसी तरकीब
रहें हमेशा प्रकृति के करीब....

टिप्पणी-
पर्यावरण की रक्षा हमारी रक्षा है। पर्यावरण को बचाना हमारा कर्तव्य है।



5.
Prerna Mittal 
~एकांत~

तरु एक विशाल, बीज की छाती को चीरता,
अचल वह, हवा के तेज़ थपेड़ों को झेलता ।

पनपता, बढ़ता, वह आत्मचेतना से भरपूर,
शांत, चुप, अपने आप में मग्न और मगरूर ।
ना जाने क्या सोचता, मस्ती में झूमता,
अपनी शाखाओं और पत्तों को चूमता ।

आदमी को भी चाहिए थोड़ा सा एकांत,
सो बिताए वह स्वतः कुछ एकाकी क्षण
जिससे कर पाए आत्म विश्लेषण
पहचान पाए अपना अंतर्मन

क्या यह नीरवता दे पाएगी उसे शांति ?
कि खोज पाए वह अपने 'मैं' को ?
जो उससे कहीं खो गया है ।
वक़्त की धारा में बह गया है ।

अपने ही अस्तित्व से बेख़बर रहा अनजान भय से,
आज हिम्मत जुटाकर ईमानदार हुआ स्वयं से ।
आया इस सुनसान जगह,
जानने कि है, कौन वह ?

संसार से मुँह फेर,
बैठा रहा, पता नहीं कितनी देर ?
प्रारम्भ में सकुचाता,
कैसे करे अपने से ही वार्ता ।
आहिस्ता से निज से खुलता,
कभी हँसता, कभी रोता ।

आज ख़ामोशी का आलम लगता सुहाना
कितना अपना, कितना सुखद यह वीराना
मन की परत-दर-परत खोलता हुआ
आज हर सिलाई, हर टाँका उधेड़ता हुआ

हर बीते पल को टटोलता, परखता,
कहाँ हुई चूक और कहाँ मिली सफलता ।
कब किया कुछ बहुत ख़ास,
जिसने कराया तृप्ति का एहसास ।
कब हो गई यह इतनी भयंकर भूल,
अफ़सोस ! हटाई नहीं ग़लतफ़हमियों की धूल ।

आज हुआ आत्मबोध, जागी चेतना
तो बिहंसा और मुस्कराया ।
हँसी आई ख़ुद पर,
क्यों हमेशा राई का पहाड़ बनाया ।

आज आभास होता वे थीं अर्थहीन छोटी-छोटी बातें
जिनके लिए गँवाईं उसने तमाम दिन और रातें

वृक्ष जिस तरह अपने आप में ख़ुश रहता है ।
जीता है और जीने देता है ।
एकांत, मौक़ा देता आत्म विचार करने का
देता जीवन को लक्ष्य, करवाता बोध पूर्णता का ।

- प्रेरणा मित्तल

टिप्पणी:
मनुष्य व पेड़ दोनों प्रकृति का हिस्सा हैं । दोनों को ही भली-भाँति बढ़ने के लिए थोड़ा सा एकांत (space) चाहिए । असली ख़ुशी व शांति अपने आप को जानकर ही प्राप्त की जा सकती है ।


7.
भगवान सिंह जयाड़ा 
----ढलती काया----

इंशान हो या पेड़ जब ढल जाती है काया,
साथ छोड़ देता है जब अपनों का ही साया,
बस एकाकीपन और तन्हाई ही रह जाती है,
तब बीते लम्हों की यादें मन को बहुत दुखाती है,
जिस के चारों तरफ कभी उसके बहुत मंडराते थे,
कमी न रहे इनकी परवरिश में बहुत घबराते थे,
जीवन के इस पड़ाव में अब सब ने साथ छोड़ा,
निहार कर अपने लगाये पेड़ से शकुन मिलता थोड़ा,
कोई साथ नहीं तो क्या हुवा,साथी पेड़ खड़ा है,
मेरी तरह वह भी आज अकेला निर्जन पड़ा है,
बूढा पेड़ फल भले ही न दे,पर देता शीतल छाया,
आशिर्बाद ही बहुत है बुजुर्गो का जब ढल जाती काया,
करो सम्मान इन का पेड़ हो या कोई बुजुर्ग इन्शान,
मिलती एक असीम शान्ति और खुश होंगे भगवान,

-----भगवान सिंह जयाड़ा--
------------------------------------------
टिप्पणी:
अक्सर बुजुर्ग इन्शान और जर जर पेड़ों की अवहेलना को देख कर यह लिखने का मन किया,,धन्यबाद


8
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~ शाश्वत सत्य ~

वृक्ष और जीवन
कहाँ विलग एक दूजे से
जन्म संग हो सुवासित
विकसित चलते दोनों
कोमल पौधा एक दिन
वृक्ष बन कर इतराता
बचपन से यौवन का हाथ थाम
दोनों हरित हो कुसुमित होते
जीवन के नित नए पल है बोते

एकांत से उपजी पीड़ा
अलग कहाँ होती है
वृक्ष और मानव जीवन
जन्म मरण से है बंधे
जन्मचक्र नियति का धारक
अंतिम पथ पर सब चले अकेले
रिश्ते नाते मोह जीवन का
एक पड़ाव पर सब व्यर्थ लगे

राह दुर्गम और पथ अनजाना
किस पल जाने मृत्यु वरे
बसंत सा उज्ज्वल यौवन
फिर पतझड़ की रुत आती है
टूटे मन के सपन सलोने
मृगतृष्णा सा जीवन लगता है

जाना है निश्चित
है मृत्यु शाश्वत
अंतिम पथ पर है कर्म खड़े
जो बोया वहीँ है काटे
जीवन पर यह नियम चलेतो

टिप्पणी:
जीवन एक समान पौधा हो चाहे इंसान... अंत तो एक ही है - अटल सत्य



9.
किरण आर्य 
****अंतिम यात्रा****

बचपन, यौवन का मन लिए
बुढ़ापे का जर्र जर्र तन लिए
झेल रहा है एकांत
मन में लिए कई संताप
बस अंतिम साँस के इंतजार में

सोच रहा जीवन वृक्ष सा
पथिक सा लाभ सभी उठाए
एक दिन जल कर
बन लकड़ी चूल्हे की, शायद
किसी घर का पेट भर जाए

सांस रुकी, अपने ही जला देंगे
बची खुची होगी जो राख
गंगा में विसर्जित कर देंगे
यही अंतिम यात्रा....
सत्य जीवन का यही कहलाये

टिप्पणी:
एक तरफ जीवन है लहराता और दूसरी ओर इंसान खुद पर तरस खाता - अंतिम सच से अवगत


10.

कुसुम शर्मा 
~आज और बिता कल~
-----------------

कोई क़तरा तेरी आँखो से गिरा तो होगा
कोई शख़्स तेरे सामने से गुज़रा तो होगा
जो आज है सौन्दर्य से रहित
वो कभी हरा भरा रहा तो होगा
कभी कोई पथिक तेरी छांव मे बैठा तो होगा
कभी किसी की थकान मिटी तो होगी
जो आज है निर्जन सा
उसमें कभी बाहार आई तो होगी
जाने कितनी आँधियों से गुज़रा होगा
जाने कितनी मार सही होगी
जो आज है परायो सा
वो कभी अपनो के बीच घिरा तो होगा
कोई क़तरा तेरी आँखो से गिरा तो होगा


टिप्पणी :-
ढलती उम्र के पड़ाव मे सब कुछ बदल जाता है वृक्ष जब तक हरा भारा रहता है सभी उसकी छांव मे बैठते है जैसे ही उसके पत्ते गिरने लगते है लोग वहाँ बैठना भी पसन्द नही करते इसी तरह जब तक कोई व्यक्ति अपने परिवार और समाज की अवश्यकता की पूर्ति करता है तब तक हर कोई पंसद करता है !


11.
अलका गुप्ता 
~~~~~~~~
नव-चेतना
~~~~~~~~~
कर विनाश हरीतिमा का..
अंधकार तूने ही वरा है |
स्वार्थी अतृप्त ज्वाला से..
बाँझ कर दी वसुंधरा है |
यह तिमिर वाचाल बोल रहा |
विष अम्बर में सब घोल रहा |
भाव विमूढ़ सा तू पछताएगा |
चेतन ..अवचेतन फर्क न ..
कुछ भी ...तू ..समझ पाएगा |
अब भी तो ...तू चेत जरा |
जग कर ..कुछ नव.. संधान कर |
प्राण वायु का कुशल संवाहन कर |
हरित वसुंधरा का पुनः श्रृंगार कर |
श्वेत-श्याम को परे सकेल |
सोंधी माटी ...कलरव खेल |
वन..पांखी.. पंछी खेल |
जल थल नभ चर में भरे संवेग |
भरें रंग.. हास हरित ..अतिरेक |
'सर्वे भवन्तु सुखिनः' से ...
विश्व शान्ति का ..करें अभिषेक ||

__________________अलका गुप्ता____

नोट-इंसान ने हीअपने स्वार्थ में इस धरा का अब तक विनाश किया है जंगल वृक्ष पहाड़ काट कर जल और वायु हरियाली का विनाश किया है...हमे ही जाग कर इनमे चेतनता को समझना होगा | ..हमारे सफल प्रयास से समस्त वातावरण पुनः विभिन्न जीव जन्तुओं पशु पक्षियों के सुख शान्ति का आधार बनेगा और संसार सजीव रंगों से जीवंत हो उठेगा |





12
Ajai Agarwal आभा  अग्रवाल 
 -- वृक्ष ; मित्र मेरा ---
========
दादाजी ने बिरवा रोपा था ,जिस दिन मैं धरती पे आया
तेरी मेरी एक ही आयु , फिर क्यों मेरा चेहरा पीला
रीढ़ झुक गई मेरी आज ,तरु तू अब भी तना खड़ा है
मैं नितांत अकेला खोया सा ,खग-कुल गाँव तेरे आंचल में
चकित थकित चितवन मेरी ,तेरी छाया से महक उठी
जीवन की वो आपाधापी ,महत्वाकांक्षाओं के जंगल
मैंने जिस को सुख समझा था , निज अस्तित्व मिटा ; जिन को सींचा था
संध्या बेला में जीवन की ,वे सभी अपनी ठौर बस गए
आज तेरी शरण मैं आया ,मित्र बचपन का याद आया
तेरी शाखाओं पे लटका करता था , झूला भी झूला करता था
तू ही मेरा बस इक अपना ,तूने मुझको गले लगाया
छू तुझको तृप्त हुआ मैं ,अवसाद तिरोहित तेरी छाया में
दादा -पिता जब अशक्त हो गए ,क्यों ! तेरे नीचे बैठा करते थे
आ तेरी छाँव तले ,जब ! समय निज दुःख का मैं भी भूला
तभी समझ ये मेरी आया !
ऐ मित्र तू पुरखों का साथी , सच्चा सखा मेरे बचपन का
मैं अचेतन जड़ भी मैं था ,चेतना का संसार तरु तू
बादलों के आंसुओं का मोल है तू , मित्र मेरे
आज मारुत खेलता तृण -तृण तेरे की ओट लेके
मौन हूँ , है शून्य मन में ,स्तब्ध होकर सुन रहा
गान विहगों का यहाँ मैं, ताल पत्ते दे रहे है
नृत्य करती डालियां ,मन का कलुष सब धो रही है
मैं रहा स्वारथ में डूबा ,तू साधू परमार्थी है
आज अग्नि ले हृदय में ,विनती जग से कर रहा हूँ
वृक्ष रोपो ,वृक्ष पालो ,वृक्ष को संतति बना लो
वृक्ष मुरझाने न पाये ,फलें फूलें औ लहराएं
वृक्ष ही है सच्चा साथी , प्रकृति की अनमोल थाती
जगती के सुख का गान औ कोकिल शुकों का मान तरु ये
पाप पूण्य मुझमें मिलेंगे ,स्वार्थ औ लालच भी होंगे
आज सांझ की इस बेला में मैं तो अकारथ हो चुका हूँ
पर ; होगा जब तरु ये बूढ़ा ,पत्ते झड़ेंगे ,खाद बनकर
हरियाली का पोषण करेंगे ऋण धरा का चुका देंगे
लकड़ियां इस डाल की मेरा अग्नि रथ बनेंगी
मित्र है सच्चा ये मेरा ,ऋण मित्रता का चुका देगा
आज अग्नि ले हृदय में ,विनती जग से कर रहा हूँ
वृक्ष रोपो ,वृक्ष पालो ,वृक्ष को संतति बना लो ॥ आभा ॥
=======
टिप्पणी
जीवन संध्या आ गई तब ही हम प्रकृति के पास जाते है --चलो ये भी ठीक है कभी तो वृक्ष रोपें --वृक्ष ही हमारे सच्चे मित्र हैं ,विकास की यात्रा में इन्हें काटना भी पड़े तो एक की जगह दस लगाएं ,यही उपाय है धरती माँ का ऋण चुकाने का ।



13.
गोपेश दशोरा
~वृक्ष और वृद्ध~

नव पीढ़ी को यह ज्ञात नहीं
शाष्वत सत्यों का ज्ञान नहीं,
जैसा भी जो कोई करता है,
वैसा ही वह भरता भी है।
एक वृक्ष लगा कर आंगन में,
उसको पाला, पौसा सींचा,
बरसों की मेहनत रंग लाई
पेड़ों पर अमिया उग आई।
बरसों तक पाई घनी छाह,
अब फल भी देने वाला है,
जल को पीकर अब एक वृक्ष
सोने को उगलने वाला है।
जब हुआ वृद्ध वह पेड़ कभी,
आंखे क्यू तुमने फेरी है,
अपने शैषव को भूल गये,
और उस पर आँख तरेरी है।
जब तलक तुम उनसे पाते हो,
उनके हर नाज उठाते हो।
जब देने की बारी आई
तब उनसे नजर बचाते हो।
मत यौवन मद में अंधे हो,
यह यौवन तो ढल जायेगा।
जब तु बूढ़ा हो जायेगा,
तब खुद को अकेला पायेगा।
तब याद आयेगे ये दिन तुझको,
पर कुछ भी नहीं कर पायेगा।
मत बोझा समझो बुढ़ो को,
ये घने वृक्ष हैं आंगन के,
फल ना दे कोई बात नहीं
पर छाह तो देंगे ये तय है।
-गोपेष दषोरा

टिप्पणीः अक्सर देखा जाता है कि बच्चे अपने माता-पिता उनकी वृद्धावस्था में अकेला छोड देते है। वे यह भूल जाते है कि जो उनके माता-पिता का आज है वहीं उनका कल होगा।



14.
प्रभा मित्तल
~~एक तुम और एक मैं~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~
एक तुम और एक मैं
रहते सघन निर्जन में
हवा की सांय सांय और
पत्तों की खड़ खड़, अब
बस यही बचा जीवन में।

बोलते हैं हम एक सी भाषा
सहते हैं एक से द्वंद
वक़्त के गर्म थपेड़ों से
झुलस गए हैं मर्म के छंद।

प्राणी ने कुदरत को तड़पाया
नियति ने मनुज भरमाया,
तल में जब हुई हलचल तो
जलधि सुनामी भर लाया।
सबने अधिकार बराबर पाया।

मनुज यदि सँभल जाए तो
प्रदूषण की कालिख मिट जाए
हरी भरी हो धरती औ तुम्हारी
साँसों का जीवन बढ़ जाए।

उम्र के इस मोड़ पर एकाकी
थक हार कर बैठा ,रे मन !
विगत में डूब -उतर,क्या
सोच रहा जीवन का लेखा।

वृक्ष हमारे जीवनदाता !
होता प्रहार तुम पर, तो
मौन हो सह लेते हो वार।
मैं विद्रोही बचपन का
पर झेल नहीं सकता
रोता हूँ जार-जार,
आखिर क्यों ? क्या-
मेरा खून... खून
और तुम्हारा पानी ?

तुम जग पालित,कर्म-बद्ध!
मैं विधि शापित,होकर निवृत्त
आहें भरते हैं दोनों ...लेकिन
अब भी, तुम मौन, मैं मुखर।
तुम विशाल हृदय,मैं अनमना
इस वसुन्धरा के ही वासी-
एक तुम और एक मैं।
--प्रभा मित्तल.

(मनुष्य के प्रहार को वृक्षों ने चुपचाप सहा.. उसी सोच से उपजा मन में कुंठा का भाव।)


15.
नीरज द्विवेदी 

~ऐ मनुज, क्या बोलता है~

ऐ मनुज तू
दंड दे मे-री
खता है,
खोदकर अप-नी
जडें, ही
मृत्यु से क्यों
तोलता है?
धार दे चा-कू
छुरी में
और पैनी
कर कुल्हाड़ी,
घोंप दे मे-रे
हृदय में
होश खो पी
खूब ताड़ी,
जान ले मे-री
हिचक मत
बेवजह क्यों
डोलता है?
रुक गया क्यों
साँस लेने
की जरूरत
ही तुझे क्या,
मौत से मे-री
मरेगा
कौन, क्यों, कै-से
मुझे क्या,
सोच, तू अप-नी
रगों में
ही जहर क्यों
घोलता है?
नष्ट कर सा-रे
वनों को
खेत तू सा-रे
जला दे,
सूख जब जा-ए
तलैया
ईंट पत्थर
से सजा दे,
छेद कर आ-काश
तू अप-नी
छतें क्यों
खोलता है?
है जमीं ते-री
बपौती
और पानी
भी हवा भी,
छीन ले मा-तृत्व
इसका
और विष दे
कर दवा भी,
बाँझ कर फिर
इस धरा को
मातु ही क्यों
बोलता है?


टिप्पड़ी - मुझे लगा कि एक वृक्ष अपनी व्यथा को भुलाकर उसे काटने आए मनुज को आइना दिखा कर व्यंग्य करते हुए ये बताने और समझाने की कोशिश कर रहा है कि मेरी साँसे तुम्हारी साँसों से जुडी हुयी हैं, इस सम्बन्ध को न पहचानने पर तुम्हारा विनाश तय है।


16.
 Madan Mohan Thapliyal 

~अंतर्द्वंद्व ~

मन मारे बैठा पथिक,
देख पेड़ की डाल.
वीरान है जिन्दगी,
एक दूजे से पूछें, कैसे तेरे हाल.

बढ़त-बढ़त तृष्णा बढ़ी,
भई धरा कंकाल,
कौन लेगा सुधि तेरी मेरी,
कौन है अपना, जो पूछे सवाल.

लालच की गति रुकती नहीं,
भूख है कि बढ़ती जाए.
सब कुछ खा लिया रे बावले,
हाय ! प्यास तेरी कबहुँ न जाए.
जल मैला, हवा दूषित,
विनाश के ए हाल.

सांस लेनी दूभर हो गई,
कैसे कटें उमरिया के बाकी साल.
पानी खरीद कर पी रहे,
देश के होनहार नौनिहाल.
हवा जब बिकेगी बाजार में,
तब कैसे होंगे हाल.

सांसों पर भी होंगे पहरे,
बदल जाएगी सारी चाल.
जिन्दगी होगी गिरवी सबकी,
पर्यावरण के दुश्मन होंगे मालामाल.
औरों की छोड़ अपनी सुध ले प्यारे,
छोड़ पिपासा और बनना एक सवाल,

जैसे आया वैसे जाएगा,
थोड़ी लकड़ी और दो गज कफ़न का है सवाल.
वनस्पति और मानव का,
चोली दामन का साथ.
रोक सके तो रोक ले,
नहीं तो होगी नहीं प्रभात !!

टिपण्णी :- आदमी और पर्यावरण का चोली दामन का साथ है एक दूसरे के बिना जीवन

असम्भव है, समय से चेतना का उदय ही मानव की जिन्दगी बचा सकता है..............शैल

(मदन मोहन थपलियाल)


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