Friday, June 17, 2016

तकब५‬ - [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #5 ]



‪#‎तकब५‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #5 ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. इस चित्र पर कम से कम १० पंक्तियों की रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है.] 
यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है कि आपने रचना में उदृत भाव किस कारण या सोच से दिया है, 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता १५ जून २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६.आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.


इस बार की विजेता है सुश्री किरण आर्य 

सुशील जोशी 
~चुप्पी~

अथाह दर्द, वेदना की
दास्तान दिख रही,
सभ्यता के दौर में भी,
नारियाँ हैं बिक रहीं।

क्या हुआ जाने हमारे
चक्षुओं के नीर का,
आज भी देखें तमाशा
द्रौपदी के चीर का,
अब कलम बस कागज़ों में
चीत्कारें लिख रहीं,
सभ्यता के दौर में भी,
नारियाँ हैं बिक रहीं।

हे प्रभु ये क्यों हमारी
सोच में लगा ग्रहण,
क्यों नहीं लगती हमें वो
अपनी माँ, बेटी, बहन,
क्रूरता की भट्टियों में
रोटियों सी सिक रहीं,
सभ्यता के दौर में भी,
नारियाँ हैं बिक रहीं।

अब भी अवसर है चलो उस,
सोच को बाग़ी करें,
जो किसी असहाय अबला,
को छुए, दाग़ी करे,
दें उन्हें सम्मान जो
अपने बराबर टिक रहीं,
सभ्यता के दौर में भी,
नारियाँ हैं बिक रहीं।

टिप्पणी:
(आज के प्रगतिशील वातावरण में भी कई कुटिल मानसिकताएँ हैं जो स्त्री को मात्र भोग का सामान समझती हैं और हम दुराचार होते हुए भी ख़ामोश रहते हैं। कुछ इन्हीं भावों पर मेरी ये रचना उद्धृत हुई है। हिंदी के बड़े – बड़े दिग्गजों के बीच मेरी ये तुकबंदी मात्र प्रयास भर है।)


नैनी ग्रोवर 
~कोख~

जिस को कोख से जन्में,
उसी पे अत्याचार करें,
जीवन भर ये दरिंदे,
नारी का व्यापार करें..

रौंद देते हैं मासूम सपनो को,
ये वासना के मारे,
जीते हैं अपना जीवन ये,
इन्हीं पापों के सहारे,
किसी के घर की बेटी को,
शर्मिंदा भरे बाज़ार करें..

अगर सह भी जाए नारी,
इक बार जुल्म जो इनका,
पर बिखर जाता है उसकी,
खुशियों का मनका-मनका,
उस पे भी तानों से रोज़,
समाज उनका बलात्कार करे..

और कभी पराई बेटी को,
घर ला के जालिम सताते हैं,
नाम पर दहेज़ के ये शैतान,
फिर ज़िंदा उसे जलाते हैं,
ऐसे पाप, ऐ भगवान देखो,
तेरे ये धर्म के ठेकेदार करें ..

जिस कोख से जन्में,
उसी पे अत्याचार करें ..!!


टिप्पणी.. नारी जाति के प्रति दिन ब दिन बढ़ती घटनाएं, और समाज का खोखलापन ।



गोपेश दशोरा
~एक अनुत्तर प्रश्न~

माँ अक्सर बोला करती थी,
घर से बाहर कम जाना तुम,
और सांझ ढले उससे पहले,
घर के अन्दर आ जाना तुम।
हैं विषधर फैले चहुंओर,
जो नजर न तुमको आएंगे,
जब पाएंगें तुमको तन्हा,
वो अपना फन फेलाएंगे।
मैं हंस देती थी सुनकर सब,
ये किन सदियों की बाते है,
हैं पढ़े लिखे सब लोग यहाँ,
फिर क्यूं ये सब बतियाते है।
ढोल, गंवार नहीं अब नारी,
है उसका वर्चस्व यहाँ,
है दुनियां उसकी मुट्ठी में,
है उसका ही सर्वस्व यहाँ।
नारी अब अबला नहीं रही,
अपनी रक्षा कर सकती है,
शक्ति का पर्याय है वह,
नारी कुछ भी कर सकती है।
पर ये बाते, तो बस बाते है,
उस दिन मुझको अहसास हुआ
जब राह अकेली जाती थी,
किसी का पीछे आभास हुआ।
थे अनजाने कुछ पुरूष वहां,
आँखों में उनकी लालच था,
जीव्हा से लार टपकती थी,
मुझको पाना बस मकसद था।
उस रोज बची अस्मत मेरी,
अहसान प्रभु का माना है,
माँ तेरा आंचल छोड मुझें
कहीं और नहीं अब जाना है।
माँ! क्यूं ये दुनियां ऐसी है?
औरत का जीना मुश्किल है,
देवी का जिसमें रूप पला,
आखिर उसको ही क्यों है छला
लक्ष्मी के रूप में घर लाकर,
क्यों उसे जलाया जाता है,
नवरात्रों में पूजन करते!
और कोख में मारा जाता है।
अपराध पुरूष का होता है,
पर हमको सहना पड़ता है।
कभी वन में जाना पड़ता है,
कभी पत्थर बनना पड़ता है।
सीता से लेकर निर्भया तक,
कब तक हमको सहना होगा,
नर को नारायण कह कर,
क्या घुट-घुट कर रहना होगा?
कब बदलेगी यह रीत यहां,
नारी को नारी समझेंगे,
उसका अपना भी जीवन है,
उसके सपनों को समझेंगे।
माँ की आँखे बस भर आई,
बाहों में मुझको बांध लिया,
सोचा था माँ कुछ बोलेगी,
पर चुप्पी को ही उत्तर मान लिया।

टिप्पणीः “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते....” की संस्कृति में आज जो नारी की स्थिति है, वह विचारणीय है। भले ही हम 21वीं सदी में जी रहे है पर औरत को लेकर हमारी सोच अभी तक परिपक्व नहीं हुइ है।



प्रेरणा मित्तल 
~वीभत्सता~

वीभत्स, निर्दयी, क्रूर और
विकराल ये भीषण पंजा है ।
अजगर की तरह मुँह फैलाए,
कसता जा रहा शिकंजा है ।

अनमोल ज़िंदगी पाप और
हिंसा कर डालेगी जर्जर ।
सुंदर जीवन की हरीतिमा
क्षण में कर डालेगी बंजर ।

इस पुरुष शक्ति के ही बल पर,
नारी युग-युग शोषित होती ।
शारीरिक निर्बलता से ही,
सबला भी है अबला होती ।

क्या कोई शक्ति आसुरी है,
उपवन में झंझावात किया ।
महका फूलों का गुलदस्ता,
कुचला और खर पतवार किया ।

हिंसा, शोषण और बलात्कार से,
व्यर्थ ये जीवन होता है ।
हो गया चरित्र तो तार-तार,
इतिहास शर्म से रोता है ।

क्या जानें कब वह दिन होगा ?
जब इसका अंत हो जाएगा ।
सच मानो शिशिर, घाम उस दिन,
सचमुच वसंत हो जाएगा ।

टिप्पणी : हमारे समाज में पुरुष द्वारा नारी पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते रहे हैं। नारी एक डर में जीती है । इसके अंत और एक स्वस्थ समाज की कामना करते हुए इस कविता का सृजन किया गया है ।



डॉली अग्रवाल 
~महफूज नही तुम~

सुनो
घर से बाहर ना निकलो तुम ,क्योकि कही भी तुम महफूज नही---------
लोगो के ख्याल
छू कर तेरे तन को , कुरेदते है तेरे मन को
बचपन के खेल , सखियो के मेले
छोड़ सब सिमट जाओ तुम
क्योकि इस जहाँ में तुम महफूज नही हो !
डरी सहमी सी अस्मिता
बिखरी हुई हसरते
कैसे करे यकीं कोई
बाप का साया , राखी का धागा
दागदार है यहाँ हर रिश्ता
छुपा लो तुम अपनी मासूमियत ,
ये खिलती सी मुस्कुराहट , कोई छीन ना ले --
हर गली के मोड़ पे , चौराहे की ओट में
इंसान भेड़िया बना खड़ा होगा --
अस्मिता के तार कर अपने पौरष पर इतराया होगा
मान जाओ तुम , खुद को छिपा लो कही
वासना का पुजारी हर जगह समाया होगा
कौन कहता है की अब गिद्ध नजर नही आते
ध्यान से देखिये जनाब --
सड़क पर चलती चिड़ियों पर ,जाल कहि बिछाया होगा ------ !!

टिप्पणी:
नारी की सहनशीलता ही उसकी कमजोरी। बन जाती है  मन व्यथित होता है सब सोच कर मन सहमा रहता है एक बिटिया का बाप जब इंसान बनता है !



बालकृष्ण डी ध्यानी
~उस पल~

उस पल
कितनी चीखी होगी
कितना होगा चिल्लाया उसने
कितना उसने उस भेड़िये के आगे
रहम की भीख मांगी होगी
जिन्दगी और मौत के संघर्ष बीच
कितना उसने दरिन्दों से मुकाबला किया होगा
कितने यातना में गुजरे होंगे वो पल
कितना वो तड़पी होगी
दरिंदे ने उसकी चीखें दबाने की
कितनी कोशिश की होगी
उस वक्त उस पर क्या बीती होगी
ये सोचकर ही हर आंख में अंगारे दहक जाते हैं
कितनी बिलबिलाई होगी
कितने दर्द से वो गुजरी होगी
कितना सहा होगा उसने
वो तो वो ही जानती होगी
कितनी चीखी होगी
कितना होगा चिल्लाया उसने
उस पल
टिप्पणी: उस पल इस रचना में उस पल उस नारी के संघर्ष और उस की मनोदशा दिखाती है ये  रचना 




Kiran Srivastava 
"बेबस नारी"
======================

सदियों से आजतक
बस जुल्म ही तो सहती
आयी है नारियां....!!
कहीं दहेज के दानव
बोटियां नोचते,
कहीं होती जूल्मों
की शिकार...,
कही बदनाम गलियों
में देह व्यापार,
कही निर्भया दामिनी
सी जिल्लत...,
कहीं मां की कोख
में भी किल्लत....,
चारो तरफ हैं ये
भूखे दरिन्दे..
नजर गिद्ध सा लिए
और पंजे फैलाये..,
बनकर शिकारी
करें हैं शिकार
रहे ताक में
बस कोई हाथ आये...!!!

नहीं कोई बेटी-बहू
है सुरक्षित,
लगे डर है उनको
कही आये -जाये,
दिलों में है खौफ
और दहशत के साये
हमेंशा सिरों पर हैं
उनके मंडराये,
चिंतित है कैसे अब
अस्मत बचायें....????

======================
टिप्पणी--
औरतों के प्रति पुरूषों का नजरिया "कल-आज-कल "जो था ,है,वही रहेगा...!!!






प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~वो प्यारी सी लड़की~

ठुमक ठुमक चलती,
छन छन बजती पायल
उसकी मासूमियत
ख़ुशी की किलकारी में झलकती
समय संग
बढती रही वो हल पल हरी दूब सी
सुंदर परिधान
पहन किलकती, शृंगार से कर दोस्ती
सुना था माँ से उसने, स्त्री सृष्टी की पोषक है
यह जान
लड़की होने पर अपने मान वो करती
फिर भी
खुश रहती जमाने के रुख से थी अनजान
वो प्यारी सी लड़की.....

मनचाहा जीवन
प्रकृति की सुन्दरता में खोजती
बचपन से
यौवन तक सफ़र, अल्हड़ मस्तमौला
नाचती कूदती
खिलती मुस्काती, अपने संसार में रमी
यौवन की
दहलीज़ पर उसके कदम रखते ही
बदलने लगा
बहुत कुछ, शारीरिक बदलाव संग
उड़ने लगा
उसका मन, बुनने लगा रुपहले सपने
प्रेम अंकुर
फूटने लगे, स्वप्नों में मिला राजकुमार
दे जाता
एहसास ख़ास, कर जाता उसे बेकरार
वो प्यारी सी लड़की.....

देख कर दर्पण
इठलाती मुस्कराती बाते करती खुद से
घर के बाहर दो चार हुई वो जमाने के स्वभाव से
रख कर कदम
ठोस धरातल पर पहचान हुई ज़माने से
उसका पीछा करती
अजब ग़जब मानसिकता व्यवहार से
ओढ़ कर चुनरी
छिपा लेती खुद को घिनौनी नजरो से
वो प्यारी सी लड़की.....

एक दिन
घटा कुछ ऐसा मानो हुआ वज्रपात
नोच डाला
कुछ दरिंदो ने होकर उसे वासनारत
तार - तार
हुई इज्जत, दर्द शरीर का चीख पड़ा
फटी रही
आँखे उसकी, दरिन्दे उसे नोचते रहे
विकृत मानसिकता
का होकर शिकार लगा उसे आघात
वो प्यारी सी लड़की.....

मल मल
कर नहाती, धोने आत्मा पर लगे दाग
कर विलाप
आंसुओ में, बहता रहा स्त्री होने का मान
पत्थर हुई
सूरत उसकी, बन कठपुतली हुई निष्प्राण
मांग रही
प्रभु से अपने, इस जीवन से दे दो मुक्ति
था जीवन
वरदान जो, लगने लगा उसे अब अभिशाप
प्रश्न पूछे
किस् से वो, हर कोई दिखता यहाँ लाचार
जला मोमबती
एक दिन, दिखा आक्रोश निभाते शिष्टाचार
मासूम सी
वो प्यारी लड़की, ढूंढ रही अपना अस्तित्व
कुंठित मन
से झेल रही वो, अपने ही अंतर्मन की पीड़ा
वो प्यारी लड़की ......

टिप्पणी: लड़की गौरव घर का, लेकिन बाहर का समाज उसे कब अपनी बुरी नज़र का सामान बना दे वो नही जानती. उसके अपने सपने, अपनी चाह उस क्रूरता की आग में भस्म हो जाते है


किरण आर्य 
~और.....~

सुतली की समझ से परे था
उसके घर में दो दरवाजों का होना.
बचपन में कई मर्तबे
देखा था उसने ठाकुर
और
उच्च कुल के पुरुषों को
बेधड़क ठेल द्वार
घर में घुसते हुए
और
माई तुरंत उसको
बाहर जाने को कहती थी,
उसने अक्सर सुनी थी
माई की दबी चीखें
और
सिसकियाँ.........
फिर सुनाई देती थी उसे आहट
पिछले दरवाजें के खुलने की
और
देखा था उसने
माई को अस्त व्यस्त पड़े
कांपते जिस्म को छुपाते हुए.
देखा था माई को अपने
निचले पेट को पकड
बुक्का फाड़कर रोते हुए.
और
देखी थी ग्लानि से
झुकी भरी आंखें बापू की
लाचारी, बेबसी अपनी माँ की.

सुतली की आँखों में
वह दृश्य सदा
एक डरावने सपने की तरह
आता था डराता था
एक दिन ठाकुर के कुछ गुर्गे
घुस आये थे घर में.
उसकी माई ने
तुरंत ठेलकर
उसे घर से बाहर किया
और
कहा लाडो आना नहीं भीतर
फिर सुनी थी उसने
गगनभेदी चीत्कारें माई की.
उस दिन उसकी माई
बिलकुल पत्थर हो गई थी.
और
अगली सुबह बापू को
लटका पाया था नीम के पेड़ से.
वह मासूम समझ नहीं पाई थी
इसकी वजह ?.
लेकिन यौवन की दहलीज़ पर
कदम रखते ही
सच नंगा हो नर्तन करने लगा
उसके समक्ष.
ठाकुर के बेटे की नज़र पड़ते ही
कुम्लहा गया उसका वजूद.
और
एक दिन
दरवाजे को ठेल
ठाकुर का बेटा घुसा था घर में.
माई नीम के पेड़ के नीचे
पागल सी हालत में बैठी रही.
एक तरफ भय से कांपती
दर्द रिस रहा था आँखों से
और
दूसरी ओर ठाकुर का बेटा
नौचता रहा सुतली के
कोमल गदगदाए बदन को.
सुतली फटी आँखों से
सच को निर्वस्त्र होते
नंगा नाच करते देखती रही,
होती रही वह पीड़ा से दोहरी
और
अपनी जांघे भीचें
दलित होने के शोक कुंड में
वेदना की आहुतियाँ डालती रही.

वैसे दलित को छूकर
अपवित्र होने वाला जिस्म,
इस घृणित कर्म से
न जाने
कितने पापों का भागी बना होगा ?.
और
उसका फल उसे
इस जन्म में या अगले जन्म में
मिलेगा, भी या नही....पता नही
लेकिन सुतली जैसी
न जाने किस
प्रारब्ध का पाप भोग रही है
और
रोज इस वेदना से गुजर रही है

टिप्पणी ----- समाज में दलित महिला किस तरह प्रताड़ित होती है और उनके बच्चियां भी उसी ऊँच जात के घिनौने कृत्यों की शिकार होती है... एक घटना को याद करते हुए कुछ मन के भाव



कुसुम शर्मा 
~नन्ही सी जान~


जाने कैसे चक्रव्यूह मे फँस गई
एक टोफ़ी के कारण
हैवान की भेंट चढ़ गई !

वो नन्ही सी जान ,थी इस से अंजान
अँकल कह कर पुकारती थी
उसको वो समझाती थी

मत ऐसे प्यार करो अँकल
मुझे बहुत दर्द होता है
पापा मेरा माथा धीरे से चूमते है
आप क्यो ऐसा करते है
क्या आप अपनी बेटी से ऐसा प्यार करते है

मेरे कपड़े मत उतरो अँकल
ऐसा कोई करता है
माता के नवरात्र मे
कंजक का पूजन होता है
हर कोई चुनरी भेंट करता है
कपड़े उतरता नही

मुझे छोड़ो अँकल
मुझे घर पर जाना है
माँ ने बना लिया होगा खाना
मुझ को वो खाना है

कह रही थी रो रही थी
तुम चाहो तो चूड़ी ले लो
मैरी घड़ी और गुल्लक ले लो
उसके सारे पैसे ले लो
जो मैने बचाये थे
अपनी गुड़िया की शादी के लिए
वो सारे ले लो

माँ कहती है ग़लत काम नही करते
भगवान जी पाप देते है
ऐसे मत करो अँकल
बड़े कहते है भगवान जी
बच्चों की सुनते है
वो आ कर तुमको मारेंगे
ऐसा मत करो अँकल
वह कहती रही
हवस का पुजारी
उसका चीर हरण करता रहा
दर्द से तड़पती नन्ही कली
भगवान को पुकारती रही
न कोई भगवान आये
न कोई इंसान
बस था एक हैवान
जिसने किया उसे लहु लुहान !

टिप्पणी :- अपनी हवस की अग्नि को पूरा करने के लिए ऐ हैवान नाबालिग़ बच्चियों को भी नही छोड़ते उन्हे टोफ़ी का लालच दे कर ये धृत कार्य करते है नन्ही बच्ची चिल्लाती रहती है उसे समझाती है पर वह उसकी एक नही सुनते वह तो बस अपनी हवस पूरी करते है !!



अलका गुप्ता 
~~~~~बिटिया की आस~~~~~

हौसले..अरमान..होंगे पूरे..इक दिन..यही आस थी |
समेट लुंगी..खुशियाँ..सारी..बाँहों में..यही आस थी ||

तोड़ मरोड़ कर झिंझोड़ दिया हाय इसनी वहशत क्यों |
देखती दुनियाँ तमाशबीन ये मन को न ही आस थी ||

टूट गई हूँ ...विकल विवश सी...मन में इतनी दहशत है |
शर्म करो उफ़.. प्रश्नों से..जिनकी न कोई भी आस थी ||

देखो..अपराधी..स्वच्छंद..यहाँ...भेड़ियों की खाल में |
कैसे बनी..मैं ही अपराधिनी..न ही..इसकी आस थी ||

मानवता से...करूँ घृणा या ..देखूं ..हर मन ...संशय भर |
रक्षक समझी थी विश्वासघात की न जरा..सी आस थी ||

मिलती नहीं सजा भी क्यूँ..समझ न पाए बिटिया यहाँ |
इन घावों की सजा दे कोई...दिल को जिसकी आस थी ||


नोट__
लगा था मुझे .. मैं भी .. इक इन्सान हूँ |
डूबी जिन्दगी क्यूँ आँसुओं में .. हैरान हूँ |
बता दो कोई .. इस दर्द की दवा क्या है ?
या मैं सिर्फ .. हवस का...एक सामान हूँ ||



Ajai Agarwal
''मुझे सहारा दे माँ ''
============

== सीता- उर्मिला
राधा- दमयन्ती
कुंती -गांधारी
द्रौपदी हो या जरत्कऋ
या फिर शकुंतला
कितने नाम कितनी
वेदनाएं ----
सदियों से सदियों तक
अबला जीवन ,बेचारी
आंचल में दूध आँखों में पानी
सुनो सदियों पहले ----
सीता -प्रमद्वरा जरत्कऋ
कोख में नहीं मारी गईं
छोड़ दी गईं--डर से
माँ का आंचल न मिल सका
तब से अब तक
कुछ बदला ?
अब- कोख में उठती हैं चीखें
आंचल तो क्या ,
साँसें भी नहीं मिलतीं बेटियों को ।
जो सूर्य - किरण मिल भी गई
अँधेरा कब डस लेगा पता नहीं
कीड़े वासना के घर - बाहर
बिलबिला रहे चहुं ओर ,
नारी देह का अर्थ ----
'' कनक छवि सी कामिनी काहे को कटि हीन -
कटि को कंचन काट के कुचन बीच धरि दीन ''
से आगे नहीं है -
बलात्कारी बच्ची - बूढी
सबको देह ही समझे '
लालची आँखें वस्त्रों में भी
देह को नग्न ही देखें ,
कौन समझेगा नन्ही की पीड़ा
चहकती गौरैया पे घिनौना कुकर्म ,
घर में , वेदना में -
मुहं बंद रखने की सीख -
भाई के अधिकार
बहन का व्यापार ,
माँ तू क्यूँ चुप रहती
सुन माँ तू सुन !
बिटिया की पुकार सुन -
उसकी चीखें अपनी कोख में सुन
बलात्कार की पीड़ा सुन
माँ एक तू ही है
तू ही बस !
बचा ले अपनी बेटी को ,
फैला दे ममता का आँचल
दे सहारा --
माँ तू दुर्गा बन ,दुर्गति नाशिनी
घायल चीत्कार करते मन को
डरी हुई छुटकी को
सृष्टि की अनुपम कृति को
बचा ले माँ
तू दुर्गा बन जा
बिटिया स्वयं ही
लक्ष्मी बाई हो जायेगी ।

टिप्पणी:
---सदियों से नारी शोषित ही रही है , प्यार की मूरत सदियों से समाज के लिये अपने को अर्पित करती रही है । सीता ,राधा ,प्रमद्वरा ,सभी को किसी न किसी डर से माँ ने छोड़ दिया । दो वर्ष को हो या अस्सी वर्ष की लम्पट वहशी वासना के कीड़े को तो नारी देह ही दिखती है --माँ को ही मजबूत बनना होगा न्याय दिलवाने के लिए ।आभा ॥


प्रभा मित्तल
~~स्त्री-मन~~
~~~~~~~~~
ऐसे मत कर, वैसे मत कर
पराया धन है मर्यादित रह,
यहाँ नहीं, वहाँ मत जाना
दूजे घर जाना है तुझको
अपने मन पर अंकुश रख,
तमाम उसूलों से बँध कर
सहमी-सहमी डरी हुई,
सुन-सुन कर ही बड़ी हुई।

ये कैसी है अद्भुत् लाचारी
जिस नारी से जन्मा जग
बनी है आज वो बेचारी
घर से लेकर बाहर तक
हो रहा शोषण नारी का
हिंसा और बर्बरता का खेल
चल रहा हवस के मारों का।

कहीं है वह केवल भोग्या तो
कभी समझी गई पैर की जूती।
न संवेदना न निजत्व कहीं,
नहीं महकती पति-स्पर्श से
स्त्री की देह कभी गन्धाती है
उसके भीषण काम-प्रहारों से।

आज ये क्या हो रहा है..दैव!
भाग्य में अब क्या बदा है--
तृष्णा की तृप्ति की खातिर
हठात् और बलात्..ये पुरुष
जघन्य अपराध कर रहा है।

स्त्री हूँ , जननी भी हूँ
मैं रुदन को थाम लूँ
पर कैसे,कब तलक--
आँसुओं की बाढ़ को
क्या रोक लेंगी ये पलक?
आकुल हृदय की पीर को
जलते दृगों के नीर को
पापियों के ज्वार को
थामे रहूँगी कब तलक?

टिप्पणी
(आज समाज में स्त्री की दुर्दशा देखकर मन में उपजे भाव)



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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