Tuesday, January 31, 2017

#तकब१ @२०१७



नमस्कार मित्रों 
एक बार फिर इस समूह के प्रांगण में आपका स्वागत है. आप में से कुछ मित्रों के सुझाव को मध्य नज़र रखते हुए २०१७ की शुरआत एक ही चित्र से कर रहे है. 
इस बार इसे प्रतियोगिता का नाम नहीं दे रहे है. लेकिन नियम व् शर्ते उसी रूप में होंगी, चयन प्रक्रिया भी उसी रूप में रहेगी. श्रेष्ठ रचना को पुरुस्कृत किया जाएगा सम्मान पत्र के साथ. 
निम्नलिखित बातो को अवश्य पढ़िए.
१. अपने भावों को कम से कम ८ - १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित लिखिए. एक सदस्य एक ही रचना लिख सकता है. 
२. यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
३. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है. 
४. आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. [ पुरानी रचनाओं को शामिल न कीजिये ]
५. इस चित्र पर भाव लिखने की अंतिम तिथि १५ जनवरी, २०१७ है.
६. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा. साथ ही कोई भी ऐसी बात न लिखे जिससे निर्णय प्रभावित हो.
७. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक समाप्ति की विद्धिवत घोषणा न हो तथा ब्लॉग में प्रकशित न हो.
८. विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और निर्णायक दल के सदस्य भी एक सदस्य की भांति अपनी रचनाये लिखते रहेंगे. हाँ अब उनकी रचनाये केवल प्रोत्साहन हेतू ही होंगी.

धन्यवाद !
इस बार की विजेता है सुश्री मिनाक्षी कपूर मीनू 
(बधाई एवं शुभकामनाएं तकब परिवार की ओर से )

आभा Ajai Agarwal
~एक क्लिक में ढूंढो ,चमको~
=========
गूगल बाबा ,गूगल बाबा ,
मुझको बना दिया ध्रुव तारा ,
नेट में ढूंढो मेरा नाम ,
एक क्लिक से होगा काम ,
गली गाँव शहर देश क्या
दुनिया भर के नामों में
तुम पहचाने जाओगे यदि
गूगल पर आ जाओगे ,
फेसबुक ,बलॉगर ट्वीटर
बहुत सारे पोर्टल यहां
याहू भी कर सकते हो
इंस्टाग्राम है मस्त यहां
मन की बात करो ट्विटर पे
गरियाओ हल्के हो जाओ
ब्लागर में जाकर तुम
किस्से कहानी कह आओ।
कितना अच्छा लगता है
सुंदर सपना लगता है
दुनिया में कोई भी -
मुझसे अब मिल सकता है
अरबों खरबों की भीड़ में
मेरा अलग वजूद यहां
नाम मेरा तुम टाइप करो
एक क्लिक में मुझसे मिल लो
ऑन लाइन आ जाओ सब
इस आकाश पे टिमटिमाओं सब।
गूगल अर्थ पे जाओ तुम
गाँव गली भी मिल जायेगी
और जरा सी सर्च करो
अंगने में माँ ,
खेतों में बापू दिख जायेगा।
एक क्लिक की बात है प्यारे
भीड़ में अलग नजर आओगे
आओ ऑन लाइन हो जाएँ ,
पढ़े पढायें देश बनाएं
एक क्लिक में हो शॉपिंग
एक क्लिक में सारे काम
प्रदूषण भी होगा कम
ईधन भी बच जायेगा
समय अलग बचेगा जो
काम हमारे आएगा

टिप्पणी: मेरे अनुसार एक क्लिक में आज सारी दुनिया सिमट आती है आपकी मुट्ठी में --आप के नाम पे क्लिक और आप चमकने लगते है --गूगल बाबा की करामात -- एक क्लिक से ढूंढिए अपने को अपनों को हो जाइये ऑनलाइन ,करलो दुनिया मुट्ठी में ---शायद मैं चित्र से न्याय कर पायी हूँ -------



किरण श्रीवास्तव
~तलाश~
------------
मुझे है
तलाश..!!
इंसान की ।
जो हो
वास्तव में
इंसान....।
इंसानियत हो,
जिसकी पहचान ।
कठीन हो,
शायद अभियान ।
दिनों-दिन
होती जा रही
मुश्किल रूझान...
इंसानी मुखौटो में,
भेड़िए बदहवास-
जो कर देते
इंसानियत को,
शर्मसार..
सरे बाजार!!
बेच देते जमीर
दिखाते झूठी शान,
साधू संत भी
कर देते,
इंसानियत को
लहूलुहान ..!
गर मिल जाये
इंसान तो
कर लूं दीदार
तो हो जाये
पूरी मेरी
तलाश...!!!!!!

टिप्पणी-
आजकल इंसान में इंसानियत का ह्रास होता जा रहा इंसान और पेशे दोनों कलंकित होते जा रहे ऐसे में एक सच्चे इंसान की तलाश शायद नामुमकिन लगने लगा है..!!




प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~ मेरी पहचान ~

छिपने लगा था हर भीड़ में
तुमने न जाने कैसे पहचान लिया
अपने में ही सिमटा था मेरा व्यक्तित्व
क्यों उसे मेरे ही सामने खड़ा कर दिया
वैसे सच कहूं
मेरी पहचान का अस्तित्व
लोगो की भीड़ में दम तोड़ रहा था
मेरी पहचान में अपनी पहचान
ढूँढने वाले लोग भी
अपना नया साम्राज्य संवारने लगे
नई पहचान की पहचान बनकर
और
व्यतीत जीवन के कटु अनुभव
मेरे ऊपर पहाड़ सा भार बन
मुझे जमीन के नीचे धकेल रहे थे
और भीड़
शरीर के हर हिस्से को कुचलते हुए
तेजी से कदम बढ़ा रही थी
मेरे होने का झूठा भ्रम
टूटने ही वाला था
कि तुमने
मुझे भीड़ से निकाल
फिर अपने आवरण में समेट
पहचान लौटा दी है
हाँ तुम मेरा हौसला
तुम मेरी उम्मीद
या शायद
वक्त हो या फिर नियति हो

टिप्पणी: खुद से खुद की पहचान होना जरूरी है, अपने हौसले और उम्मीद का दामन पकड आगे बढ़ना होगा फिर नियति और वक्त आपके साथ होंगे




ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
~ आभासी संसार ~
÷÷÷÷÷÷÷÷÷

आजकल, आभासी युग में ,
लोगों को पहचानना
बड़ा ही मुश्किल है ,
कि कौन सा चेहरा जाहिल है?
कौन सा व्यक्ति काबिल है?
सफेद पोश भेड़िए
घूमते रहते इधर उधर /
माँ बहनों की अस्मिता को,
तार तार कर देते हैं इस कदर /
माना कि वैज्ञानिक अन्वेषक,
आसमान तक पहुँच गए,
जाॅच संस्थाएँ
खगालती हैं छुप छुपकर
दोषी व निर्दोषी के घर मे घुसकर /
किन्तु राजनीति का गढ ?
अज्ञात सफेद पोशों का अड्डा है !
कौन नेता कहाँ और कैसा है?
पहचानना कठिन जैसा है /
कई कई चेहरे रखते तमाम हैं /
इनका फैला हुआ तामझाम है //
************************
*************************

टिप्पणी: आज कल दूर भाषी यंत्रों का जाल बिछा है फिर भी दोषी को पहचानना मुश्किल है समाज सफेद पोशों से भर गया है कई कईचेहरे रखते हैं तमाम लोग, ,,,,,,


डॉली अग्रवाल
~ मुखोटा ~

मुझे मुखोटा ओढ़ जीना आ गया
बिन हँसी के हँसना आ गया
ये लो दोस्तों , मुझे भी इंसान बनना आ गया
आँखे भरी है बहती नही
दर्द है चीख आती नही
हँसी है पर होंटो पर आती नही
मेरी ख़ामोशी मेरा रूप बन गया
मुझे भी इस गुमनाम से जहाँ में जीना आ गया !
ज़िन्दों का काफिला है
मुर्दो सी सोच का
मुझे मुर्दाओं के लिए नही
ज़िन्दों के लिए आँसू बहाना आ गया !
नफरतों के बाज़ार में
खुद को बचाना आ गया
आईने में खुद को खुद से मिलाना आ गया
मुझे भी इंसान बनना आ गया !!

टिप्पणी: अतीत की स्मृति , और भविष्य की कल्पना कभी इंसान को खुद से मिलने नही देती !




 Madan Mohan Thapliyal  
तीन आखर- आदमी /मानव
***************

वीक्ष ( लेंस ) से टटोला
अपने एहसास को झिंझोड़ा
हाय ! कोई भी न मिला भीड़ में
जो कह दे, औरों से अलग है ए आदमी.

चाहत तो थी, खुद की पहचान बन जाऊँ मैं
विडम्बना देखिए, खड़ा दहलीज पर
चौखट की ओट से झांकता
अपने को अलग खड़ा देखता है आदमी.

बुद्धिचातुर्य से वशीभूत
स्वयं की मिसाल खोजता रहा उम्र भर
विश्व विजय की पताका लिए हाथ में
खुद से खुद ही हारता रहा आदमी.

एक सी काया, एक सा रूप
फिर भी अपने स्वरूप से बेखबर
धर्म के जाल में उलझता, नाहक-
औरों से उम्र भर बैर लेता मोल आदमी.

बुद्धि की विलक्षणता कहूँ
या सनक है तेरी
अमरत्व पाने की धुन पे हो सवार
हर पल दफन हो रहा है आदमी.

अपनी चाहत औ नसीहत
लिख दी उसने तेरी तकदीर में
जब छोड़ना होगा जहां को , उठा लेगा
देखता रह जाएगा, साथ था जो आदमी.

एक सांस का ही तो उलटफेर है, नादां
चल रही है तो घमण्ड में चूर है
दान,पुण्य, पूजा-अर्चना सब धरी रह जाएगी
आखिरी सांस लेगा जिस क्षण आदमी .

न कोई साथ आया न साथ जाएगा
लिए दिए का हिसाब होगा जमीं पर
राख का ढेर हो या माटी का
टटोल लो, कहीं दिखेगा नहीं आदमी.

है जिस देह पर अभिमान उसको
पंचतत्वों से है निर्मित, उन्हीं में मिलेगा
बेसुध खड़ा कतार में अलग दिखने के लिए
न जाने किस मोह से भ्रमित है आदमी .

मानव हो मानव बन कर रहो
यही तेरी सच्ची पहचान है
जनाजे के वक्त हर मुख से निकले ए दुआ
देखो ! वो जा रहा है, जो था सच्चा आदमी.
*********

टिप्पणी : मानव ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है, लेकिन आदमी को अपने गुरूर के आगे ईश्वर के बनाए सारे नियम अर्थहीन लगते हैं और इसी ऊहापोह में उलझकर एक दिन संसार से विदा हो जा है.



नैनी ग्रोवर
~ रिश्ते ~

इतना करीब से,
रिश्तों को देखा ना करो,
सिवाय मायूसी के,
कुछ भी हाथ ना आएगा...
साथी सभी हैं नश्वर तन के,
खोखले गिठाव बन्धन के..
माया के जाल में जकड़े हैं,
मतलब से हाथ ये पकड़े है..
धन और तन के ये झूठे नाते,
बदल के भेस मन को हैं लुभाते..
सुखों के पल में जो संग आयें..
आये दुःख तो किनारा कर जाएँ..
ऐसे अपनों से क्या कहिये,
अच्छा तो यही है के चुप रहिये..
कीजे कर्म अपना अपना,
क्यों देखें रोग दूजे के मन का..
जहाँ तक साँसों का आना जाना है,
तब तक तो साथ निभाना है...
एक दिन तो अकेले जाना है,
नहीं साथ कोई भी आना है..
फिर क्यों रिश्तों को रोऊँ मैं,
क्यों अपना समय गवाउँ मैं...
कोई अच्छा कर्म तो कर जाऊँ,
निर्भय होके प्रभु के दर जाऊँ..
मायावी दुनियां की छोड़ो बातें,
साथ ना कुछ भी जाएगा...
इतना करीब से,
रिश्तों को देखा ना करो,
सिवाय मायूसी के,
कुछ भी हाथ ना आएगा....!!

टिप्पणी :- भाव तो आप सब गुणीजन समझ ही गये होंगे, तस्वीर देख कर यही उत्तपन हुए ...।।



अलका गुप्ता
*हों जागरुक !*
************

प्रदर्शक ये !
चुनाव जनता का !
नेतृत्व खास !

नेता अपना !
जाँच पड़ताल के !
चुनें ध्यान से !

हो जागरुक !
कर्मठ जिम्मेदार !
ईमानदार !

देश संवारे !
भविष्य वर्तमान !
नेता महान !

प्रतिनिध से !
हो देश विकसित !
करें विचार !

टिप्पणी - देश की उन्नति चाहिए तो हमें ईमानदार कर्मठ नेता को पूरी जागरूकता के साथ चुनना होगा



प्रभा मित्तल
--अकेलापन--

चारों तरफ लोगों का हुज़ूम
बीच खड़ा एक बेबस आदमी
ये कैसी बेकल बेकसी है
कभी भीड़ में भी अकेले
तो कभी अकेले में भी
लग जाते हैं मेले...

​इस जीवन दर्शन ने
एकांत के सिलसिले में
मन ने, लो आज मन को
फिर से झकझोर दिया।
यादों की गठरी खुल गई
कुछ ने तो बेरहमी से
मुझको घेर लिया।

घंटों ..पहरों ...बीत गए
फुर्सत नहीं मिली
उन यादों से, जो कभी
निकली नहीं जेहन से।

अन्तर में रचे बसे
चलते-फिरते उन चेहरों से
कितनी ही बार अपनी कहते
अपने ही कानों सुना है मैंने
क्या देखा है तुमने मुझको
खुद से खुद की बातें करते...

मन ही मन मीलों चलकर
मंज़िल तय करते
हर मोड़ पर ठहर-
ठिठक मुड़ मुड़ कर
देखते ...हर बार
साथ चलने की चाह में
चार कदम आगे चलकर
दो डग पीछे हट जाते
क्या देखा है तुमने मुझको
रुक रुक कर रस्ता तय करते।

आखिर मिट गई दुविधा सारी
रिश्तों का हुजूम तो था भारी
पर आदमी भीड़ में अकेला
बहुत हुआ वक़्त का खेला

अब मंजिल दूर नहीं
वक़्त के थपेड़ों से लड़ना सीखा
इन कदमों ने चलना सीखा
जब भी अँधेरों रास्तों से गुज़रती हूँ
मन का उजाला साथ चलता है
अकेला आदमी कभी नहीं होता
उसका जमीर हरदम साथ होता है।

टिप्पणी: आदमी कभी अकेला नहीं होता उसका अनतःकरण हमेशा उसका साथ देता है।



मीनाक्षी कपूर मीनू
~आईना मन का~
,,,,,,,,,,,,,,

सभी इंसान अच्छे लगते है
मन के सच्चे लगते हैं
ख़ुशी से जब हाथ
पकड़ के
एक दूजे का
झूमते हैं तो सच में
बिलकुल बच्चे लगते है
अचानक मन बदलने लगता है
आँखों पर पर्दा पड़ जाता है
जाति वाद या धर्म का
झूठ का या
कच्चे कान के मर्म का
अवसाद मन का छा जाता है
तन पर
और आँखों का आईना
अब नहीं देखता समान
बदल देता है
सफेद को नीले पीले में
क्योंकि ,,, मनस्वी
मन बदलने से
वही दीखता है
जो हम देखना चाहते है
सब बदला बदला सा
वो अपना नहीं
बीच में हाथ पकड़ा खड़ा
नकाबपोश काला है
पीठ में छुरी चलायेगा
अपना होते हुए भी
पराया है।

टिपण्णी: मन भटकने से हम रास्ता भटक जाते है । सच झूठ का अंतर नकार हम वही देखने लगते है जो हमारी मन रूपी आँखों का आईना दिखाता है तब समान भाव में भी अलगाव नज़र आ ता है ।


प्रेरणा मित्तल 
~ख़ास~
*****

हज़ारों-लाखों आमों के बीच, कोई ख़ास,
नज़र रुक जाती है बस, उसी के आसपास।
जैसे हो हंसों के बीच एक कौआ,
या हो कौओं के बीच कोई हंस।

ग़ुदड़ी का लाल हो या दीपक तले अंधेरा,
पृथक हो भीड़ में बस, जिसे लोग निहार सकें,
श्वेत हो तो मर सकें या ईर्ष्या से जल सकें,
उँगली उठाकर स्याह पर, अहम् को हवा दे सकें।

जो बन गया, किसी के लिए इतना विशेष,
क्या अनजान था वह, या कुछ परवाह थी शेष।
क्या भिज्ञ था इससे, कि कुछ ख़ास है उसमें,
तभी तो आकर्षण जन्म लेता है, लोगों के दिल में।

या नितांत अनभिज्ञ, दूसरों की उठती निगाहों से,
जो दूर तक पीछा करतीं, उसके पदचिह्नों का,

उन नेत्रों में मंशा बस,
उसे ख़ास से आम बनाने की,
या स्वयं आम से ख़ास बनने की।

टिप्पणी : जो सबसे अलग हो चाहे अच्छा हो या बुरा सबके ध्यान का केंद्र बन जाता है। लेकिन क्या उसे इस बात का अहसास होता है ? और देखने वाले की नीयत भी अलग - अलग होती है।


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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