#तकब ४/१८
मित्रों नमस्कार।
इस बार प्रतियोगिता नए रूप में।
१. जैसा कि तस्वीर में लिखा है "आपका चित्र आपका सृजन"- आपने अपनी पसंद की तस्वीर के साथ ही उस पर केंद्रित अपने शब्द भाव रूप में लिखने है।
२. रचना नई, कम से कम १० पंक्तियां शीर्षक सहित (साथ ही टिप्पणी में आपकी रचना का उद्देश्य या कारण) प्रस्तुत करनी है।
३. चित्र व रचना इसी पोस्ट में टिप्पणी रूप में प्रस्तुत करनी है।
४. केवल और केवल प्रतियोगिता सम्बन्धित टिप्पणी ही अंत में पोस्ट पर रहेगी। कोई प्रश्न प्रतियोगिता से जुड़ा होगा उसे भी उत्तर देने के बाद हटा लिया जाएगा।
५. प्रतियोगिता की अंतिम तिथि २२ मई २०१८ है।
६. प्रोत्साहन हेतु रचनाये - कृपया अंतिम दिन न लिखे बल्कि जितना जल्दी हो प्रस्तुत कीजिये।
७. आपकी रचनाये पूर्व प्रकाशित न हो साथ ही जब तक प्रतियोगिता पूर्ण नही होती व ब्लॉग में नहीं प्रकाशित न हो तब तक कहीं सांझा न करे।
८. सभी सदस्यों को शुभकामनाएं।
इस प्रतियोगिता की विजेता है सुश्री जशोदा कोटनाला बुड़ाकोटी
Deepchand Shankarlal Mahavar
शीर्षक:~ असहनीय
असह्य प्रसव पीड़ा सहकर
हर रोज़ खबर एक जनता हूँ।
हर रोज़ खबर मैं बनता हूँ।
हर रोज़ खबर मैं गढ़ता हूँ।
जात नात के चक्रव्यूह में
तलवारों सा तनता हूँ।
साम्प्रदायिक दंगे हुल्लड़ की
हर रोज़ खबर मैं बनता हूँ।
असह्य प्रसव पीड़ा सहकर
हर रोज़ खबर एक जनता हूँ।
दुःख से सारोकार नहीं
सुख का कोई सहकार नहीं
राजकीय चाणक्य नीति में
मैं साधारण जनता हूँ।
असह्य प्रसव पीड़ा सहकर
हर रोज़ खबर एक जनता हूँ।
सरकारी कागज पत्तर पे
पट्ठा उल्लू का बनता हूँ
चाटुकार पाटों की चक्की
हर दिन पिसता छनता हूँ
असह्य प्रसव पीड़ा सहकर
हर रोज़ खबर एक जनता हूँ।
{ये मेरी स्वरचित/मौलिक रचना है।}
ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार
आधारछंद--- पीयूष पर्व 2122,2122,212(मापनी)
सीमांत-आना
पदांत-सीख लें,,,
गीतिका " ज़िंदगी "
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जिंदगी में ,,,जीत जाना सीख लें !
मुश्किलों से,, पार पाना सीख लें !!
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जब मिले काँटों सरीखी जिन्दगी,
हम गुलाबों सा,,,, हँसाना सीख लें !!
**
जीत भी है,,,,, हार भी है जिंदगी,
गम भुला के खिलखिलाना सीख लें !!
**
लक्ष्य भी जागृत जगा ले आदमी,
ले कसम वादा निभाना ,,,,सीख लें!!
**
प्रात भी है,,, शाम भी है जिंदगी,
हर कदम सूरज उगाना सीख लें !!
***
प्रेम-"वीणा "भी,,यही सुर गा रही,
प्रेम से जीवन बिताना ,,,सीख लें !!
***
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संदर्भ--ज़िंदगी सुख-दुख का स्वरूप है,,,हमको सदा हँस के गुज़ारना चाहिए,,साथ मे प्रेम जीवन की संजीवनी है,,व प्रकृति भी यही सीख देती है
Madan Mohan Thapliyal
सफरनामा
🏞️🏞️🏞️
जीवन एक सफर है
मंजिल दूर या नजदीक
कह नहीं सकता
एक बुनियाद रखी तो थी
जो अधूरी रह गई
उस पर मंजिल बनी ही नहीं
जितनी बार पत्थर गांठे
वे बेतरतीब ही दिखे
लुढ़कते रहे, खिसकते रहे
मेरी जिंदगी की तरह
मैं टूटा , पर झुका नहीं
मैं थका, पर रुका नहीं
भाग्य का बनना अपने हाथ में है
सच !
मुझे नहीं लगता
जिंदगी में-
कितने सावन बीत गए
हरियाली कभी देखी नहीं
पतझड़ आए, वसन्त आया ही नहीं
इन सब से मैं त्रस्त हूं
अपना काम छोड़कर
मैं ठहर सा गया हूं
अमावस के चांद की तरह !!
टिप्पणी - जीवन क्या है समझने के लिए उमर बीत जाती है लेकिन हर बुनियाद पर मंजिल नहीं बनती, मानव किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है।
जशोदा कोटनाला बुड़ाकोटी
~जीने की आशा~
टूटे दालान में पड़ी हुई
टूटी चारपाई पर
टूटी-बिखरी हुई
वो साढ़े छः बालिश्त के देह.....
जरा सी आहट पर
उचक जाती है.....
उसका मटमैला रेशमी बिछौना
उसके अतीत की
चुगलियाँ कर रहा है
जिसपर बदसूरत सूती पैबन्द
अकुशल, कच्चे हाथों की
कहानी बयां कर रहे हैं.....
पास रखी चिलमची में
अक्सर वो देह
खंखार कर थूक देती है
और गटक लेती है
लोटे में रखे पानी के दो घूँट.....
सुबह की छनती धूप की लकीरें
जब पड़ती हैं
उसके ललाट पर.....
वह मिचमिचाती आँखों से
हाथ जोड़
शुक्रगुज़ार हो जाती है
एक और सुबह की.....
जीवन जीने की आस
सच में,
सुन्दर है
जीवन जितनी ही.....
टिप्पणी :----आंखों में पोता की बहू देखने तक के ख्वाब पलते हैं ... जब कि पता है अगला सूरज मेरा हो या न हो
Ajai Agarwal
क्षितिज के उस पार-प्रोत्साहन के लिये ---
=============
अपनी साँसें मुझको देकर
तू मुझमें ही छिप जाता है।
पपीहे सी प्यासी रह जाती
सुधियों का अमृत पीने को।
जब तू मेरा होता है ,
मैं भी अपनी होती हूँ।
जुगों जुगों की रीत यहां
बस प्यार और अधिकार की है।
तुझको पाना तुझको जीना
तेरी ही राहों पे चलना -
तिनका -तिनका जोड़ यहां
निर्मित अपना संसार किया -
अब पंछी कैद हुआ तड़पे
चाहे ऊँची उड़ान प्रिये।
अधखुली पलकों का उन्मीलन
सुधियाँ लेती आकार प्रिये।
तू भी अंक में सागर की
नित आता थकन मिटाने को।
मैं भी लहरों में मिलकर के
फिर लेती हूँ आकार प्रिये।।आभा।।-
हर बार उजला होने की आस में आत्मा लिहाफ बदलती है ,कुछ भूली बिसरी सुधियों संग -"पुनरपि जननं पुनरपि मरणं' -- साँसों का हवन है जीवन फिर - फिर से सागर के अंक में समाना -जैसे प्रतिदिन सूरज समाता है ,आत्मा की थकन उतारने को -पर अवसान मनभावन हो,रंगभरा हो , ये भी सीख देता है क्षितिज का सूरज --आखिर जीवन तो क्षितिज के उस पार ही है।
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~एकला चलो रे ~
इच्छा और उद्देश्य के बीच
हाड़ मांस का तन
कभी मन से और
कभी मन से विपरीत
अपनों के साथ प्रेम और स्नेह
की झूठी शान पर इतराता हुआ
शब्दों और भावों का बना गुलदस्ता
अर्पण करता रहता है
विश्वास और वादों की मरीचिका पर
आजीवन चलने का अनुबंधन कर
दर्द हस्ताक्षर कर देता है
जब वक्त की आड़ में
प्रहार होता तन मन पर
तब सारा संसार
ही पराया लगने लगता है
हर अनुभव गर्म रेत सा
शरीर को झुलसाता है
हर रिश्ता दूर खड़े होकर
अहंकार की भाषा बोलता है
और विवशता खुद को ही
दोषी समझने का ज्ञान देती है
कटु अनुभव बुद्धिमान बना देता है
और सत्य को अपनाते हुए
जीवन को गतिमान मानते हुए
निरंतर चलने रहने की समझ ले
एकला चलो के राग को
खुद में स्थापित कर देता है
टिप्पणी: रिश्तो में मनुष्य कभी स्वार्थवश खुद अलग होता है या फिर किसी के स्वार्थ के कारण उसे कोई अलग कर देता है और अंत में उसे यही दर्द अपनों से अलग चलने की सच्ची सलाह देता है चाहे अनचाहे। #रिश्तोंकाकहाअनकहासच
अलका गुप्ता
नारी ये जीवन
***********
घायल हो कर जब...
टूट कर बिखर जाती हूँ !
असहाय सी घबरा जाती हूँ !
कोने में किसी एकांत...
विचलित कंपित सहमी सी ...
असंख्य अश्रु...
आद्र या शुष्क बहाती हूँ !
अस्तित्व पर स्वयं ही...
अपने ईश्वर से...
अंबार गिले के...
खूब लगाती हूँ !
इसी उठा पटक में उद्वेगों के !
कब निढाल हो गिर जाती हूँ !
फ़िर...!!!
फ़िर.. उसी की अनुकंपा से...
एक प्रेरणा ..आस किरन सी...
मन में सुलगाती हूँ !
टूटने बिखरने के...
इसी क्रम में ...
नारी ये जीवन...
पुनः संगवाने को...
उत्साहित सी कभी... हतोत्साहित सी !
तमाम उद्योग जतन में जुट जाती हूँ !
नारी अबला या फ़िर जोशीले दम में ...
ललकार सबला सी...
बन जाती हूँ !
क्यों कहते हो फ़िर...
ऐ ..दुनियाँ वालों !!!
भूल गई गहने...
लाज लज़ीले !
नारी से वो पद...
सुकोमल आज लचीले !
इसी से कहती हूँ
जियो और जीने दो !
इंसान है उसको...
वही..जो रहने दो !
तोडो न ..सँभल जाओ !!!
घायल फन.. न होने दो !
आँचल में ममता..माँ सी।
प्यारी ही ...रहने दो ॥
प्यारी ही ...रहने दो ॥
_________अलका गुप्ता_
नैनी ग्रोवर
~बेटी के सवाल~
गाँव की गौरी, लज्जा की मारी,
अनपढ़ ग्वारन, परन्तु संस्कारी.
पिता का साया, सब भाइयों का रोब,
अनजाने पुरुष से, जुड़ गया संजोग..
छूट गई जब, उसके बाबुल की गली,
घबरा गई वो मासूम सी कच्ची कली...
ये कैसा प्यार दुलार माय री था तिहारा,
छोटी सी उम्र में, किया मुझसे किनारा...
बोझ क्या इतना, भारी थी मैं सब पर,
काट दिए मुझ उड़ती चिड़िया के पर..
बड़ी बन गई, देख आज बिटिया तिहारी,
फिर भी मन का बोझ है, इस घूंघट से भारी..
काहे ना भाइयों को, तुमने दिया देश निकाला,
एक बेटी को क्यों बापू, गया ना सम्भाला..
ना ना पूछूँगी ना तुमसे, कभी ये सवाल,
इत्ती भी गंवार ना हूँ, जानूँ हूँ तेरा हाल..
तूने भी तो, जगत की है रीत ही निभाई,
एक दिन में ही बिटिया कर दी पराई...
पर मैं ना करूंगी, अपनी बिटिया संग ऐसा,
पढ़ाऊंगी-लिखाउंगी, बेटों के ही जैसा..
माना के है मेरा, बड़ा मुश्किल सफर,
फिर भी चलूंगी इसपे ही, हो धूप या बदर...
टिप्पणी:- अगर बेटियों को हक़ दिलवाना है तो ये काम भी बेटियों को ही करना होगा, माँ को करना होगा, बहुओं को करना होगा, जब तक नारी उठ कर बेटी के लिए आवाज़ नहीं उठाएगी, ये सड़ीगली परम्पराएं पीछा नहीं छोड़ेंगी ।
किरण श्रीवास्तव
"निर्धनता"
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अनकही बातें
कुछ फरियादें,
सब बयां करती है...!!
कुछ इच्छाऐं
कुछ अभिलाषाऐं,
दम तोड़ देती है....!!
पशु तुल्य जीवन
निरीह नजरें,
सब बयां करती है...!!
गरीबी का ग्रहण
निगल लेता,
फूल सा बचपन...!!
कमी नहीं ताकत की
हिम्मत और साहस की
पर बेबस और लाचार
पेट की आग ही खास
नहीं कर पाती दुस्साहस
कुछ ख्वाब देखने की....!!
टिप्पणी- इंसान की गरीबी उसकी सारी योग्यताओं को नाकाम कर देती है.....!!!!
Mita Chakraborty
"मज़दूर औरत "
तन पर मैले कपड़े और
मन पर खुद्दारी का बोझ लिए,
भागती रहती है दिन रात
फ़कत दो रोटी के लिए ।
कभी तन को बचाती,
कभी मन को समझाती हुई।
जीवन के ऊँची निची सड़कों पर,
कभी गिरती कभी संभलती हुई।
खुद की परवाह नही उसे ,
फिक्र अपनों की सताती है।
आग पेट की बुझाने सबके
वो खुद को जलाती जाती है।
सर्दी की ठिठुरती शाम है,
चाहे जेठ की लू भरी दोपहर है
काम करती वो पूरे ईमान से,
उसके लिए न कोई तीज न त्योहार है।
लगन और सहयोग से ही उसके,
महल खड़ा हो पाता है ।
पर उसे ही सर छुपाने के लिए,
छत एक नसीब नही हो पाता है।
फिर भी हार कहाँ मानती है
बाँधकर कलेजे को पीठ से अपने
झाँसी की रानी सी वो
किस्मत से अपने रोज लड़ती है ।।
टिप्पणी : अपने परिवार को चलाने के लिए एक मज़दूर औरत को हर परीस्थिती मे काम करना होता है , उसके लिए हर दिन समान होता है। वह औरों के लिए घर बनाती है पर खुद बेघर रह जाती है।
मीनाक्षी कपूर मीनू
दर्द
~~~
है दर्द में डूबा हर शब्द हमारा
अब तो है हमें बस इन्ही का सहारा
~~~~~~~~~~~~~~~~~
रोयेगा जब भी ये दिल हमारा
उतारेंगे कागज़ पर हम दर्द सारा
~~~~~~~~~~~~~~~~~
गरजते है बादल तो बरसती है आँखे
चुभते है दिल में फिर यादों के काँटे
~~~~~~~~~~~~~~~~~
समय की धारा तो बहती रहेगी
कुछ न कुछ हमसे वो कहती रहेगी
~~~~~~~~~~~~~~~~~
मगर दर्द दिल का तो बढ़ता ही जायेगा
कागज़ को यूं ही वो रंगता ही जायेगा
~~~~~~~~~~~~~~~~~
फिर एक दिन *मनस्वी*ऐसा भी आएगा
जब दर्द ये हमें इस जहाँ से ले जाएगा
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
उस दिन का है हमें अब इतना इंतज़ार
कि,, ख्याल एक यही अब आता है बार बार
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ऐ खुदा ! हमारी वफ़ा का कुछ सिला दे
इस दर्द से हमें अब तू मुक्ति दिला दे ,,,
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
टिप्पणी ~~ एक नारी की व्यथा गाथा जिससे उसकी व्यथित मनोदशा का पता चलता है कि कोई इंसान नहीं है जो उसको समझ सके सिवाय उसकी डायरी के जो उसके दर्द की हमनवाज़ है।
डॉली अग्रवाल
~मुझे इश्क हुआ~
पहले में तुम्हारा दीवाना बना
फिर तुम मेरी जरूरत बन गयी
ओर आज ---
आज मुझे इश्क है तुमसे
तुम्हारे बालों में उतरती चांदी से
मुझे इश्क है उन कजरारी आँखों से ,
जो चश्मे के पीछे से मुझे देखती है ,
बहुत से सवाल पूछती है ,
जीने का हौसला देती है !
मुझे इश्क है ---
चेहरे पे पड़ी झुर्रियों से ,
जो सबूत है -- मेरे साथ हर पल चलने के लिए !
मुझे इश्क है --
उन कमजोर से काँपते हुए हाथो से
जो मेरे हाथ पर अपना हाथ रख कर कहती हो -- में हूँ ना !
मुझे इश्क है ---
घुटनो के दर्द से जो दर्द में भी मेरे लिए चाय बनाने की हिम्मत रखते है !
सुनो
मुझे आदत हो गयी है तुम्हारी , अपनी इन बोझिल सी सासों को जीने के लिए !
मुझे इश्क हुआ
सच मुझे इश्क हुआ !
टिप्पणी --- उम्र दराज होने पर ही अपने साथी के साथ ज़िन्दगी के मायने समझ आते है ! अनजाने में बंधे रिश्ते दायित्व तो पूरे करते है पर इश्क उम्र ढले ही होता है !
Meenakshi Bhatnagar
~लो सूरज को मैंने हाथों में थाम लिया ~
नक्षत्र ग्रह सब पीछे छोड़े
जन्म मरण के डर के घेरे तोड़े
कर्मभूमि पर आ
मैंने अपने पंखों का आग़ाज़ किया
लो सूरज को मैंने हाथों में थाम लिया
भय हलचल लालच के हर पल को
हराना मैंने सीख लिया
खुद पर विश्वास किया
तू साथ रहा मेरे
मैंने संघर्षों से जीना सीख लिया
लो सूरज को मैंने हाथों में थाम लिया
अहंकार विलाप के फंदों को
आशा के घेरों में बांध लिया
नन्ही-नन्ही आशाओं के बीजों को
अंकुरित करना सीख लिया
लो सूरज को मैंने हाथों में थाम लिया
*सूर्य को हाथों में थामना * कविता में यह प्रतीक ले कर असम्भव और कठिन कार्य करने की चुनौती स्वीकार करने को प्रेरित किया है साथ ही आत्मविश्वास और ईश्वर के साथ का सम्बल लिया गया है ।
प्रभा मित्तल
~~ ये वृक्ष ~~
सुदूर रास्तों पर खड़े
धूप में भी रहे अड़े
मरे नहीं, झुलस गए
प्रकृति की मार से
बर्फ की बौछार से
ये वृक्ष।
हर पल संघर्ष किया
तूफाँ भी रीत गया
टूटे नहीं,फलते रहे
राही की छाँव बने
दीनों की ठाँव बने
ये वृक्ष।
साँसों की डोर सँभाले
गहन शीत के बीच
हारे नहीं,अनुशासित से
रग रग में जीवन भरते
सूरज की राह तकते
ये वृक्ष।
संकट से लोहा लेकर
लक्ष्य पर अडिग रहें,
पथ-कंटक मिट जाएगा
मग मंजिल तक ले जाएगा
सीख नवजीवन की दे रहे
ये वृक्ष।
...प्रभा मित्तल.
(कितनी भी विषम परिस्थिति हो,मनुष्य को साहस नहीं छोड़ना चाहिए।आशा और विश्वास नवजीवन की राह दिखाते हैं ।जैसे कि ये वृक्ष हरियाली की प्रतीक्षा में घनी बर्फ के बीच भी खड़े तो हैं।)
किरण आर्य
~हाँ मैंने खुदा को है जाना~
कहते है हम सभी
कि
परमेश्वर एक है
हाँ
वो एक है जिसने
रचा है
इस सृष्टि को
और
बो दिया कण कण में
इसके
अथाह प्यार
प्यार का एक बीज
रोप दिया
मन में उसने
थाम
हाथ मेरा
यकीन जानिये
अभी
जाना है मैंने
पहचाना है उसे
उसके
आपके जीवन में
होने का
चिन्ह है यहीं
वो
बदलता है आपको
बना देता है नम्र
फलदार
वृक्षों के समान
भर देता है
दिल में
प्यार इतना
कि
प्यार का सागर आँखों में
लेने लगता है
हिलोरे
आप नहीं कर पाते
किसी से
घृणा क्रोध या फिर नफरत
बस
हाथ उठा अपने
करते उससे प्रार्थना
कि
खुदा मेरे
भर दे
हर जीवन में
रोशनाई अपनी
भर दे
हर मन के घट को
प्यार से अथाह
कि
पीड़ा दूसरों की
आँखों से
रिसने लगे आपकी
लगा गले सबको
कह पाओ आप
कि
बंधू मेरे मैं खड़ा हूँ
तेरे साथ
और
मेरा खड़े होना यूँ
कर पाना बेहद प्यार
नहीं है
मेरी अच्छाई
क्युकि
पापों का पुतला हूँ मैं
यह
सामर्थ्य है
मेरे परमेश्वर का
हाँ
वो पिता है मेरा
मेरे जीवन का है
वो आधार
और है
मन की यहीं आस
तू बढे मैं घटु
मेरे जीवन से महिमा तुझे मिले *******
टिप्पणी :- खुदा को जान लेने समझ लेने की एक भटकन एक प्यास थी उसे राह मिली जब खुदा को जान लिया उसके प्यार उसके सामर्थ्य को समझा तो जाना उसका प्यार कितना बड़ा ह
कुसुम शर्मा
माँ की पिटाई
—————-
बहुत याद आती है तेरी पिटाई !
वो बेलन की मार और जूते से धुलाई
चिमटे के पड़ते ही नानी याद आई
झाड़ू से भी तूने की धुलाई !
जब बड़ती शरारत तो होती पिटाई
कभी नम्बरों ने भी हमारी बजवाई
कभी प्यार करती कभी मारती तू
कभी डाँट के कभी आँखें दिखाती
हमे सही राह मे ले कर तू आती
जब से बड़े हुऐ छूट गई तेरी पिटाई
कमाई के चक्कर मे दुनिया भुलाई
अब न तू हमको रोके न टोके
क्यो माँ बड़े होते ही तू हो गई पराई
वो तेरा मारना
मार के फिर आँसू बहाना
गले से लगा कर हमे पुचकारना
बहुत याद आता है बचपन
और बचपन की वो पिटाई !!
टिप्पणी :- जब हम छोटे थे और माँ को बहुत परेशान करते थे तो माँ कभी बेलन से कभी झाड़ू कभी जूता कभी चिमटा ले कर हमे मारने आती थी और मार कर ख़ुद ही रोने लग जाती थी माँ के इन हथियारों से सभी को तो मार पड़ी ही होगी माँ के मार मे भी बच्चे के लिए प्यार छुपा होता है लेकिन जब हम बड़े हो जाते है को माँ की मार और लाड़ से भी दूर हो जाते है फिर हमे रोकने और टोकने वाला कोई नही होता !!
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
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