अलका गुप्ता
उत्सुक कुछ बेताब हुई छू लेनें को |
डाली शजर की उन मंथर लहरों को
कुछ कम्पित सी नदी हिल्लोल हुई ..
संकुचित सी .....कुछ विभोर हुई |
मुस्कायी सी शाख फिर झाँक रही |
प्रतिबिम्ब मनोहर ...... आंक रही |
भीज सलिल में स्वस्च्छ सलोना...
धुला-धुला सा ........रूप हरा |
पात-पात .....सहलाए जरा |
महामिलन से ....अविभूत हुई |
छटा मनोहर निस्तब्ध हुई |
हर मुग्ध मन को ...फांस रही |
प्रकृति के ....... नव-गीत लिए |
पवन मधुर ये .... बाँट रहा |
धीमें से हर ..तन-मन को ...
रंग में..आतुर अपने..आंज रहा ||
Bahukhandi Nautiyal Rameshwari
देख स्वार्थी दुनिया ..
पात पात काँप उठे ...
तरुवर धरे हैं धीर ..
प्यास देख जन की ..
सरवर बेकल हो उठे ..
थामे समग्र नीर ..
बीते ज्येष्ठ, आषाढ़ ..
आने को सावन ..
बरसेगा अम्बर नीर ..
तपन मिटेगी ..
शांत बेकल प्राण होंगे ..
धरना बस ह्रदय में धीर ..
छु सरवर नीर ..
भंवर ख़ुशी का खिला आया ..
खुश्क था तपन से ..
तनिक गीला हो आया
बालकृष्ण डी ध्यानी
इश्क नचाये
छु रहा है मन
तन को आज यूँ
लग रहा आज ये
सब इश्क ही नचाये
छु रहा है मन
तन को आज यूँ .........
जल को छु रही
पत्तियों के ओठ यूँ
हलचल से हो रही
तरंगों की उमंग पर
छु रहा है मन
तन को आज यूँ .........
साथ तेरा मेरा
यूँ साथ साथ हो
मै इस पार हूँ
तुम उस पार हो
छु रहा है मन
तन को आज यूँ .........
छु रहा है मन
तन को आज यूँ
लग रहा आज ये
सब इश्क ही नचाये
छु रहा है मन
तन को आज यूँ .........
भगवान सिंह जयाड़ा
मंद पवन के झोंखो से जब हिलती डाली ।
करे स्पर्स शांत जल को ,वह मतवाली ॥
उठी लहरें जल में ,शान्ति भंग कर डाली ।
और लहरे करे इजहार जैसे दें कुछ गाली ॥
मै सिचू सदा तुम को अपने स्वच्छ जल से।
और तुम हो , सदा छेड़ते मेरे शांत तल को ॥
पाल पोश बड़ा किया ,नहीं था कोई माली ।
मै सींचू तन को तेरे ,मुझे ही सजा दे डाली ॥
मेरा नहीं कुछ कशूर ,यह हवा की गलती |
छेड़ता वह मुझे और सजा तुमको मिलती ||
तुम को तो ,मैं सदा शांत ही देखना चाहूं |
तुम्हारे शांत जल में देखूं अपनी परछाई ।|
मन ही मन खुश होऊ देख अपनी हरियाली |
तुम्हारा मेरा अटूट रिश्ता ,बोली तब डाली ||
मंद पवन के झोंखो से जब हिलती डाली |
करे स्पर्स शांत जल को ,वह मतवाली ||
नैनी ग्रोवर
मैं जीवनदायनी नदिया, तूम वृक्ष के हरे पात,
हम दोनों ही मिलकर देते, इंसान को सृष्टि की सौगात
फिर भी बाज़ आता नहीं, इसे लालच ने भरमाया है,
मुझे कर दिया कीचड़ इसने, तुझे आग में जलाया है,
जाने कब समझेगा ये, कब जानेगा ये अपनी बिसात...
एक दिन ऐसा आयेगा, सब कुछ फ़ना हो जाएगा,
तब रोयेगा सर पटक के, हाथ ना पर कुछ आएगा,
ना कोई होगा सुनने वाला, ना पूछेगा कोई किसी के हालात.. !!
जगदीश पांडेय
मन ये तरस रहा है तम्हे आज छूनें को
मजबूर कर दुंगा लहरों को हिलनें को
हम दोनों के मेल से जीवन चलता है
मैं नही कहता ये जग सारा कहता है
स्पर्श का ये कैसा मधुर एहसास है
तेरे बिन अब मेरा न कहीं वास है
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
सभी मित्रों के कबिता रूप में सुन्दर भाव ,,,बहुत अच्छा लगा .......
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