Thursday, November 14, 2013

7 नवम्बर 2013 का चित्र और भाव




नैनी ग्रोवर 
वो पुरानी कॉपी के खाली पन्ने,
जिसमें बस रखती थी मैं तुम्हारी यादें,
ना जाने कहाँ खो गयीं,

समय जाने कहा बहा ले गया,
वो मोर पंख, वो सूखे हुए गुलाब,
ना जाने कितने सुहाने पल बेहिसाब,
बस एक कोरा कागज़ बो गयीं...
वो यादें ना जाने कहाँ खो गयीं...

वो सुबह के सूरज में तेरा चेहरा,
बंदिशों में भी खिलता चाँद का सेहरा,
डर-डर कर भी मुस्कुराती हुई आँखें,
आज भरी बरसात की तरह रो गयीं....
वो यादें ना जाने कहाँ खो गयीं ....



बालकृष्ण डी ध्यानी 
वो मेरी खुली किताब

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़
पुरानी है वो मेरी कहानी है वो
उसमे दबे हैं मेरे सारे अहसास

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

गीत है कभी वो कभी गजल है
कविता और कहानी सा उसका स्वभाव
हर अर्क में छपी है वो
छपी है मगर वो कुछ ना लिखी है वो

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

उसमे बिता पल मेरा रूठा है
मेरी साँस का हिस्सा छूटा है
कलम मेरी जिंदगी की बड़ी थी उसमे
चली थी मगर वो पर सब कुछ धुला धुला सा

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

कर रही है वो किसी कफ़न आराम
सुर्ख सूखे पत्तों का वो लेकर साथ
ता उम्र उसने साथ दिया था मेरा
अफ़सोस वो रह गयी बस बिलकुल साफ़

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़......

वो मेरी खुली किताब
पन्ना पन्ना उसका बिलकुल साफ़
पुरानी है वो मेरी कहानी है वो
उसमे दबे हैं मेरे सारे अहसास



सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 
कुछ पन्ने इस डायरी के खाली रखे हैं ...
शायद कभी तुम लौट कर आओ ...
और कुछ कहो…
तो मैं तुम्हारे लफ़्ज़ों को पिरोकर
एक गीत लिख सकूं .... कुछ कह सकूं ...

ठहर सी गई है ज़िंदगी और
हो गई है इन कोरे कागज़ों सी ...
रूखी, बेज़ान .... बेरंग ..
तुम थे तो कुछ रंग बिखरे थे ...
तुम थे तो कुछ चेहरे भी निखरे थे ...
तुम नहीं .. तो लफ्ज़ नहीं ..
गीत नहीं ...रंग नहीं ....
और मैं ... मैं भी नहीं रहा ....
बदल गया, बिखर गया और रह गया ...
इन कोरे कागज़ों सा



कवि बलदाऊ गोस्वामी
काल के वितान में निरापद
मै खाली किताब हूँ।
लिखने वाले लिखें
पन्नों पर मेरे,
अटूट इतिहास की ऋंखला।

आने वाले तुम्हारे वंशज
समझ सकें युग के
निर्दय तलवार का,
कट्टरता,क्रुरता,अन्याय के
प्रहार की गाथा।
हे आदिकवि के वंशज!
लिख दो
कराह रही धरती की पुकार।
शायद कल जो आये
समझ सके दर्द भरी वेदना।
और तब सृजन करे,
मानव इकाई की मंगलमय व्यापक्ता



भगवान सिंह जयाड़ा 
मेरी जिन्दगी की किताब के
कुछ पन्ने यूं खाली रह गए
कुछ बदली जिन्दगी ऐसे यहाँ
जिन्दगी के हर गम सह गए,

जिन्दगी एक खुली किताब हो
खाली पन्नों का गम ना करो
भर जायेंगे सब बक्त के साथ
मन में यूं सच्चा बिश्वाश भरो ,

संयोज कर रखे है अभी भी
खाली पन्ने इस किताब के
सायद वो हशीन लहमे फिर
मुड़ कर आएं मेरी जिन्दगी के ,

जिन्दगी की किताब के हर पन्ने
स्याह अक्षरों से तब मैं सजा दूंगा
न रहे कोई पन्ना खाली किताब का
जीवन की इबादत इस में लिख दूंगा ,

हर एक इबादत होगी खुशियों भरी
जिंदगी यूँ खुशियों भरी बना दूंगा
जिस को पढ़ कर खुश हों जाएं सभी
मैं हर पन्ने को इस तरह सजा दूंगा,

जिन्दगी की किताब का कोई पन्ना
कभी भी खाली न रह पाये किसी का
हर पन्ने पर लिखीं हो ऐसी इबादत
जिसे पढ़ ,मन खुश हो हर किसी का ,


जगदीश पांडेय
मैँ एक अमिट कहानी हूँ
कह रही खुद की जुबानी हूँ
इतिहास के पन्नों में लिखी
वीरों के लहू की रवानी हूँ

न पढनें वाले न समझनें वाले
न जानें कहाँ सब सो गये
गुमनाम हो गई गरिमा अब
शब्द अपनें में सब खो गये

चाह कर कोई न पढ पायेगा
पापियों के हाँथ न छुवा जायेगा
अच्छा हुवा मिट गई अपनें आप
बचा ली लगनें से एक शाप

अगर मुझे लिखना चाहते हो
अगर मुझे पढना चाहते हो
तो रोक लो खुद को मलिन होनें से
अपनें वंश अपनें देश को कुलिन होनें से

मन से अपनें तुम छल कपट त्याग दो
चमन के संगीत में अमन का राग दो
अन्यथा मुझे तुम यूं रिक्त ही रहनें दो
रिक्तता का अभिशाप अब सहनें दो

मंजूर होगा मुझे यह सुनना अब
मैं बिन लिखा पन्ना हूँ
मैं बिन लिखा पन्ना हूँ
मैं बिन लिखा पन्ना हूँ



सुनीता पुष्पराज पान्डेय 
जब होश संभाला था
तब से हुई तुम संग यारी
कहाँ सबको भाई प्रीत हमारी
जो भाव न समा पा हृदय मे
सब तुम मे उडेल दिये, सखी
तुम थी मेरी ऐसी हमजोली
सब कुछ चुप -चाप सुना,
जब जी चाहा पलटे पन्ने
बीते पल्लो को दोहरा लिया
जब भी रोना आया सखी
आयी तुमसे बाँते चार कही ,



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~तेरे मेरे अहसास ~

लिखने लगता हूँ जब कुछ
हाँ तुम्हारे लिए ही
दिल बहुत कुछ कहना चाहता है
लेकिन शून्य हो जाता मस्तिष्क
रुक जाती है वो उठी कलम
दिल में अहसास रूबरू होने लगते है
हर पल तब खास लगने लगते है
जी उठता है हर पल तुम संग
अब तुम ही कहो कैसे लिखूं
उन पलो से कैसे में
खुद को दूर कर लूं
कैसे कलम अपनी चलाऊँ

देखो न, आज फिर
ये पन्ना खाली रह गया
तेरे मेरे अहसास
आज फिर
इन सफ़ेद पन्नो पर
नही उतर पाए क्योंकि
ये पवित्र है ये सत्य है
लिखना चाहूं भी तो
इन पन्नो पर वे दिख नही सकते


अलका गुप्ता 
अन्तः करण कि आवाज थी ...कहाँ ?
कभी ...आत्मा कि अनसुलझी पुकार ||

नित नए... अवसाद समेटे हुए ....
या कभी....विवादित से हुए वो छार ||

डायरी में रहे क्यूँ शेष ये कोरे पन्ने |
सिकुड़े से कुछ गुंजले पीले से कोर ||

थी... क्या व्यथा ...ऐसी ...जो ..
उभर ना सके थे शब्दों के अभिसार ||

मिल न सके ...क्यूँ ....स्मृतियों के ...
बेचैन से लिखित ...........कोई छोर ||

आज जो रुक गए आकर ..आवक ...
कोरे पन्नो पे पलटते अँगुलियों के पोर ||

उकसा रहा मन विकल कोरे इन पन्नों से |
कोरे रह जाने के अनसुलझे से तार ||

आंदोलित करते रहे पुरानी डायरी के ...
अनलिखे...... ये .....शब्द सार ||

या आवाक है हटात ...व्यर्थ रहा ..
जीवन यूँ ही रहा ....कोरा सा ... सार ||



Pushpa Tripathi 
ये वक्त के गुमनाम खाली पन्ने

जब ---- डायरी भर जाती है … ख्यालों से
तब ----- कुछ पन्ने शेष नहीं रहते
सब ----- बातें मन की उतर आती है पन्नों पे
कब ---- रहता है काबू ये अल्प शब्दों मे
और ----- मन भी बिछ जाती है कागज के टुकड़ों पे l
पर ..........
जब कभी तुम रूठे
टूटे सब बिखरे नजर आये
ये वक्त के हाथों
पन्ने - पन्ने अधूरे नजर आये
सूखी स्याही में कुछ भी नहीं बचा
बस ....... खारे पानी ही पानी नजर आये
ये डायरी भी कमाल की
सब खाली खाली बिखरी
बेजान नजर आये
ओह्ह …… ये वक्त के खाली बेनाज पन्ने
अब -------- तो यह दिल की बात नहीं सुनता l


किरण आर्य
मन की किताब का
हर पन्ना रंगा
तेरे ही एहसासों से
तेरे साथ की खुशबू
महकाए हर पन्ने को
तुझसे अलग जब
देखने बैठी
दिल की किताब को
हर पन्ना उसका रीता
कोरा सा नज़र आया
तेरे ना होने के
एहसास से ही
ये दिल है घबराया
दिल में प्रीत का एहसास
और है गहराया
और दिल को हमने अपने
फिर ये समझाया
तुम दूर सही
फिर भी दिल के पास हो
हमदम मेरे
हर पल में बसे
खुशनुमा से एहसास हो


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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