बालकृष्ण डी ध्यानी
कल कि मुस्कान में
अल्प अल्प
जलकर उन्मुक्त हुआ वो
पल था जो अंधकार में
अब प्रकाशित हुआ है वो
मन का अंधेरा मन के आकाश में
इने-गिने थे वो बिंब मेरे
जब वो अकेले जले और बुझे थे
साथ मिला जब साथ का उन्हें
आज वो अनेका अनेक जले हैं रहा में
किंचित, थोडा कुछ नही है
वो जो पल मिला था हमे आज में
सब तो वंही था सब वंही हैं अब
जब साथ दिया मैंने और आपने
चन्द पल में जल जाना है
वस्तु सा खुद को नही सजाना है
कुछ थोडा नियत मिला है
व्यर्थ ही उसे ना फिजूल गवाना है
मोम बन पिघल हम गये
कल हम रोशनी बस तेरे नाम में
कल कोई हमे याद करे ना करे
हम मिलेंगे उस कल कि मुस्कान में … ३
जगदीश पांडेय
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से
सखी तुम्हारे मिलनें से
प्रेम पंखुडी खिलनें से
आज जमीं पे मेरे पाँव नही
लबों के तुम्हारे हिलनें से
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से
छोड न देना तुम साथ प्रिये
बीत न जाये कहीं रात प्रिये
दिल रोशन हुवा तुमसे सखी
आज जुदाई की शाम ढलनें से
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से
इस जहाँ को हम पाठ पढाएँ
सब को प्रेम भाव सिखलाएँ
घबरा न जाना सखी कहीं तुम
मुसिबतों के न हिलनें से
देखो प्रेम की ज्योति जली है
सखी तुम्हारे मिलनें से
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
एक लौ बनकर ....
तुम जलो मैं जलू
आओ रोशन दुनिया करे
ये आग तेरे मेरे मन की
आओ जला दे रोशनी बनकर
अँधेरा मन का दूर करे
आओ जल उठे प्रेम बाती बनकर
हौसले विश्वास संग 'प्रतिबिंब'
आओ जल उठे अब एक लौ बनकर
अलका गुप्ता
आओ ! मिलकर सब ज्योति से ज्योति प्रज्वलित कराएँ |
द्वंद सारे ..अंतर्मन के..समिधा सी वलिवेदी पर चढाएँ ||
भूलकर वैमनष्य भाव सारे ..परस्पर प्रेम ज्योति जलाएँ |
बाँट कर सब ओर उजाला मोम सा बेशक हम पिघल जाएँ ||
दूर धरा से अंधकार ये ..अज्ञान सारा डटकर दूर भगाएँ |
आलोकित कर मानवता को नया सा इतिहास लिख जाएँ ||
नैनी ग्रोवर ----
किसी की राहों से, कभी अन्धेरा मिटा के देखो,
कभी एक लौ से, दूसरी लौ तो जला के देखो..
मिलता है कितना सुकूं, ठिठुरती सर्द रातों में,
हमारे तपते हाथों से, हाथ मिला के तो देखो...
यूँ दूर वहाँ से, क्या पूछते हो हाल हमारा आप,
खुद चले आओ, या हमको बुला के तो देखो....
मिल जायेंगी सारी ही खुशियाँ, ज़माने भर की,
किसी बच्चे को पालने में कभी, झुला के तो देखो../
नैनी ग्रोवर 2
ये लौ जली है प्रीत की,
प्रेम के संग, रीत की,
लगती है मेरे मन के जैसी,
ज्यूँ बाट हैं तकती मीत की ....
संग_संग जागे मेरे सारी रात,
चुप_चुप जले, ना करे कोई बात,
उम्मीदों का धागा जलता जाता,
जैसे धुन हो किसी बिरह के गीत की....
मिटा के स्वयं को भी, अँधेरे से लडती है,
हमारे मन में कल की आस ये गड़ती है,
मिलता है सहारा, जब आँख इसपे पड़ती है,
निशानी लगती है, कल आने वाली जीत की ....
भगवान सिंह जयाड़ा
एक दूजी लौ से लौ जब जलेगी ,
निश्चित यह एक ज्वाला बनेंगी ,
तब दुगना बढ़ेगा इस का प्रकाश ,
जागेगा मन में पक्का बिश्वास ,
दूर हटेगा नफरत का अन्धकार ,
जागेगा सब के दिलों में प्यार ,
बस प्रीत रुपी लौ बुझने मत दो ,
यूँ जोत से जोत सदा जलने दो ,
फैले जगत में एक ऐसा प्रकाश ,
कभी न बुझे,बने जीवन की आश ,
एक दूजी लौ से लौ जब जलेगी ,
निश्चित यह एक ज्वाला बनेंगी
सुनीता पुष्पराज पान्डेय
दीप जलाया मन मे मैने तुम्हारे प्यार का ,
दीप जला आस्था और विश्रास का ,
कुल दीपक बन दोनो चमके ,
दीप जलाती हुँ भगवन के चरणो मे अरदास का ,
दीप जले मेरे घर आँगन मे फैले उजियारा हर ओर,
दीये जलाउं इतने मिट जाये अधियारा सारे जग का ।
Pushpa Tripathi ____ मन के भीतर लौ जला लो ____
लौ जला लो ----- मन के भीतर
अंधकार और मिटे अज्ञान
प्रज्वल प्रकाश कई किरणों से
क्रमशः .. क्रमशः .. भीतर ज्ञान l
मोम की बाती ....... पिघले तन मन
ज्योति कण कण --- सारा आकाश
ज्ञान ही जीवन ----- ज्ञान ही मोती
है ये जीवन --- सब मोम समान l
अगर मगर की बात न पूछो
गलती अपनी खुद ही जानो
मिल जायेगा सूक्ष्म में बिंदु
जग को 'पुष्प ' तुम --- खोज निकालो l
सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी
दीपहुँ दीप जराओ साधो,
तम जग दूर सिधाओ ....
प्रीतहुँ रीत सु-गीत सुनावो,
पग-पग मीत बिठाओ .....
रे मन तिसना, मन घर बसना,
किस विधि ठौर निकारूँ ,
ये आपन, निज दूजो साधन,
सूत महीन निखारूँ !! "सूर्यदीप"
किरण आर्य
एक लौ प्रीत की मन में जगी
जिंदगी है तेरे प्रेम से सजी
दिल में प्रेम के दीप है जले
नैनों में इन्द्रधनुषी स्वप्न पले
तुम साथ हो जो मेरे सजना
रूह है संवरे महके मन अंगना
तुम दूर रहो या समीप मेरे
मन रहे रंगा एहसासों से तेरे
किरण आर्य
अँधेरा मन का जब है डराता मुझे
तब ईष्ट का मन है ध्यान करे
एक लौ विश्वास की मन में जले
जो मन के अंधेरों को है दूर करे
ईष्ट मेरे मन मंदिर में है बसे
लौ जो है जले तम को है हरे
तम जो है अंधियारा करे
वो लुप्त हो मन रोशन करे
एक लौ जो मन ज्योति जले
ईष्ट के मनन से रूह रोशन करे
अर्थात - दीप से दीप प्रज्ज्वल कर इस जग से अन्धकार का नाश किया जा सकता है। मीठी वाणी से, प्रेम भरे सम्बोधन से, त्याग से, हर जगह आपके मित्र बन सकते हैं। लेकिन मन की इस वासना, तृष्णा का मैं क्या करूं जो मेरे मन में अपना घर बना चुकी है, उसे उसके ही घर से किस प्रकार निकालूँ , जो ये समझती है कि ये भी मेरा है और दूसरों के संसाधन भी मेरे ही हैं और उनका संग्रहण एक पतले से धागे (अज्ञान) से बनी पोटली में करती जा रही है. (सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी) २५ नवंवर २०१३।
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
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