Saturday, December 7, 2013

28 नवम्बर 2013 का चित्र और भाव



जगदीश पांडेय .
कब तक यूँ ही इस तरह सोचते रहोगे तुम
कब तक बेबसी का शिकार बनते रहोगे तुम

कोई नही होगा इस भींड में जो साथ दे तेरा
कब तक मतलबी लोगों से बनते रहोगे तुम

काली परछाई बन कर साथ देंगे सब यहाँ
जब तक जेब से हरे भरे चलते रहोगे तुम

न बन के रह मात्र बूत पत्थर दिलों के संग
कदम बढा दावा है मेरा सम्हलते रहोगे तुम

जीवन के मंच पर कठपुतली न बन "दीश"
हर पल अपनी तकदीर बदलते रहोगे तुम



प्रजापति शेष ...
जो अपने छोड़ जाते है ,
अपनी राहें मोड़ जाते है ,
उन्हें हो ना हो कइयों के
नाजुक दिल तोड़ जाते है ,
अकेले पड़ जाते है शेष
दुनिया की अटपटी होड़ पाते है


किरण आर्य 
भीड़ में दम
तौड रही है जिंदगी
कभी रुसवा कभी तनहा सी
भटकती दौडती
अपने वजूद को तलाशती
एक अंधी दौड़
जो भूर्ण के अस्तित्व में आने
अपने वजूद को पाने की
जद्दोजहद से होती है शुरू
लीक से हटकर
भीड़ से परे
जो मन करता है हिम्मत और
निकालता है राह
कंटको के बीच से
वहीँ पाता है मंजिल
वर्ना तो भटकन
मृगतृष्णा मन की करती विवश
अंधाधुंध दौड़ता मानुष निरंतर
चाह केवल यहीं
पाए वजूद जिंदगी उसकी


बालकृष्ण डी ध्यानी 
बस बढ़ तू

बस सब खड़े थे वो खड़े रह गये मै आगे निकल गया
बढ़ना था मुझे आगे और मै आगे बढ़ गया

खड़े रहने से कुछ नही होना था हासिल अब मुझे
लक्ष्य निर्धारित था मेरा और मेरा वो पग आगे बढ़ गया

रुकना अंत था मेरी उस नयी सोच के लिये
उस सोच को पाने को मै अब आगे बढ़ गया

सब यंहा कुछ ना कुछ सोच और लक्ष्य लिये खड़े हैं
लिकिन उनके पग आत्म विशवास से हारे खड़े हैं

भीड़ है इतनी अंधेर बड़ा घना है अब चहूँ और तेरे
अब वो प्रकाश मिलेगा मुझे मेरे उस एक कदम बढ़ाने के बाद

तो चल ना खड़ा रह इस तरह इस भीड़ का हिस्सा बन तू
बन बस तू अब उस प्रकाश का हिस्सा जो तेरा है

बस सब खड़े थे वो खड़े रह गये मै आगे निकल गया
बढ़ना था मुझे आगे और मै आगे बढ़ गया


प्रजापति शेष ...
अपने आप से भाग कर ,
अनुशासन को त्याग कर
यों पंक्ति भंग कर ,
कौनसा संस्कार शेष
अंगीकृत करने चले हो,
मात्र रंगभेद को जानकर,
श्रेष्ठता हासिल नही होती ,
अपनों के लिए त्याग करो ,
अपनों के त्याग से भला ,
कहीं मंजिल हासिल होती है ,


Pushpa Tripathi 
------- मै सोच भागता रहा ----------

सोच ------ इस संख्या कतार में तू अकेला क्यूँ भागता रहा
जिस्म पत्थरों से खड़े और मन है भागता रहा ।
वक्त तिरछा है सीधा नहीं आसान ये कहना
जो संजोये थे लम्हे सुकून के ----- सुबहो शाम भागता रहा ।
सारा आकाश सिमटा है भीतर जलते दिलों के
सारांश जीवन चलता है स्थिर मन के भागता रहा।
मिलता नहीं चाहकर भी कोई मुकामे सफ़र जिंदगी की
स्वाभाविकता खड़े भीड़ में 'पुष्प ' जिधर भागता रहा ……!!!!


भगवान सिंह जयाड़ा 
सायद मैं गलत लाइन में आ गया हूँ ,
बस निकल लो चुप चाप भ्रमा गया हूँ ,

इन लाइनो में भी धर्म जाति का पंगा है ,
क्यों बक्त खराब करू,होने वाला दंगा है ,

बस विवेक कहता है ,निकलो यहाँ से ,
वापस चलो वहीँ ,हम आये थे जहा से ,

जो कुछ होना था ,सब तय हो गया है ,
यह लाइनों का ढोंग ,दिखावा रहा गया है ,

लाइनों में लग लग ,युवा अब थक गए है ,
रोजगार के अरमा ,आँशुवो में बह गए है ,



नैनी ग्रोवर 
कतार ही कतार है,
बस से लेकर, राशन की,
राशन से लेकर भाषण की,
भाषण से लेकर सत्ता की,
सत्ता से बुद्धिमत्ता की,
कतार ही कतार है.....

महंगाई से लेकर पेट की,
सूखे पड़े बंजर खेत की,
गरीबो की बदहाली की,
बारह रूपए वाली थाली की,
कतार ही कतार है.....

जी चाहता है नियम ये,
सारे ही छोड़ दूँ,
खुशियों का मुंह आज,
झोपड़ों में मोड़ दूँ,
क्यूँ ना आज ऐसा करूँ,
आज ये कतार तोड़ दूँ....


अलका गुप्ता 

तोड़ दूँ ....जग के ..ये बंधन सारे |
नियम कायदे के ...झूठे से पसारे |
भाग जाऊं दूर कहीं ...एक संसार बसाऊं |
निकल कर विवश इन अवगुंठन से सारे ||

हे मन तू भी कुछ अपने मन का कर जाना |
नया सा सुकून मगर ..इस जग को दे जाना ||

तन यह कर्म क्षेत्र है ! जीवन का ...
हे मन !तू अब तो ..दौड़ लगा ले |
कर पार ..प्रगति की बाधाओं को |
मार उन्हें तू दे ..क्यूँ अब संशय पाले ||

हे मन तू भी कुछ अपने मन का कर जाना |
नया सा सुकून मगर ..इस जग को दे जाना ||

नया सा ...कुछ ..कर जाना |
मन में.. सब के ... बस जाना ||
घोर कालिमा तमस रेखाओं से ..दूर
हरा -भरा सा .....संसार एक बसाना ||

हे मन तू भी कुछ अपने मन का कर जाना |
नया सा सुकून मगर ..इस जग को दे जाना ||



Pushpa Tripathi
----- फिर कतारों में अकेला -----

मै अकेला ----- चल गुजर रहा
फिर कतारों में अकेला, गुम
यह ---- भीड़ है दुनियाँ की हरसत
मै दिशाहीन ----- भ्रम में, गुम
रास्ते न रुकते ------चलते रहे मन जिधर
मै भटकता वक्त के पहिये में, गुम
बाध्य नहीं तुम ----- गर समझो मुझको जितना
कम में भी 'पुष्प ' महकते गुच्छों में , गुम …… !!!!


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~रुके कदम~
लोगो के
रुके कदम देखकर
सोचा
मैं निकल चलूँ आगे
सपने जो संजोए है
आगे निकल कर
शायद
पूरा कर पाऊँ उन्हें
नही मालूम था
ये दुनिया वाले
फिर से खींच लेंगे मुझे
अपने जैसा ही बना कर
फिर से कतार में
खड़ा कर देंगे मुझे


सुनीता शर्मा 
ईश्वर की कल्पना की अदभुत नगरी में ,
दिखते इंसानी कलाकार यहाँ अनेकों रूपों में ,
कुछ तन के गोरे हैं पर कुछ मन के काले ,
व्यस्त रहते मग्न जो आपसी फूट में !

जीवन की क्षणभंगुरता को भुलाकर ,
दौड़ रहे हैं कुछ अनैतिकता अपनाकर ,
भीड़ से अलग दिखने के मोह में ,
खुश होते हैं वो अपना जमीर बेचकर !

आज का राजा कल फिर रंक कोई संदेह नहीं ,
कलुषित समाज का पतन फिर दूर नहीं ,
रंजिशों में जीवन नष्ट करता भ्रमित जो फिरे ,
ईश्वर की महिमा इस जगत में खेल नहीं !


जगदीश पांडेय 
न जानें क्यूँ समय से पहले
यहाँ भाग रहा इंसाँन
जरा कर ले अपनी तू पहचान
जरा कर ले अपनी तू पहचान

भाग्य से जादा वक्त से पहले
कुछ न पा सका इंसान
होता समय बडा बलवान
जरा कर ले अपनी तू पहचान

सुख दुख है जीवन का खेला
मोह माया का है इसमें मेला
फस के इसके बंधन में कोई
बन न सका महान
जरा कर ले अपनी तू पहचान

गोरे काले का भेद न करना
इनके संग है जीना मरना
लेकर काया माटी का क्यूँ
तू बन रहा हैवान
जरा कर ले अपनी तू पहचान
" गोरे काले " का तात्पर्य सुख दुख है


कुसुम शर्मा 
जिंदगी, भागती क्यूँ है
अपने ही वेग मे?
अपने ही तेज मे?
रुक,
ना भाग
तू इस तेज मे
कौन दौड पाता है
तेरी वेग मे ?

ज़िंदगी दिए तुने पल कई
बटोरे कई, बिखेरे कई
जोड़ पाए रिश्ते कई
तोड़ आये रिश्ते कई
छोड़ आये मंजीलें कई
छोड़ आये लम्हे कई

हर वक्त का तनाव,
हांफती-भागती जिंदगी की उलझनों में
उलझे है सब
छोड़ उलझनों को
अब तो जी इस ज़िंदगी को

भाग ना तू अब,
दौड ना अपने वेग से,
तू अब ठहर,
थम अब,
कुछ पल के लिए
तेरे दामन से सजे कुछ पल
जी लूँ अब ...
तेरे दिए पलों को जी लू अब

भागती रही तो फिसल जायेगी ,
फिर चाह कर भी हाथ न आएगी !!

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

1 comment:

  1. I like your poem reflacting life and humanity on the mirror.

    ReplyDelete

शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!