Monday, April 20, 2015

१४ अप्रैल २०१५ का चित्र और भाव



कुसुम शर्मा 
~ हाय रे मन भरमाये रे !! ~

हाय रे मन भरमाये रे,
ये लालच मे फँसाये रे,
न ये तेरा, न ये मेरा ,
ये जग तो है रैन बसेरा,

काहे लालच आये रे,
फिर जाल मे जाये रे,
तेरा मेरा करते करते ,
सारा जीवन खोये रे,

धन दौलत का लोभ करे तू,
क्या यह तेरा होये रे,

कोड़ी कोड़ी जोड़ जोड़ के
सोने का महल बनाये के
क्या तू सुख को पाये रे,
हाय हाय करते करते
एक दिन जग से जाये रे,

ख़ाली हाथ ही तू आया रे,
ख़ाली हाथ ही जाये रे,

रह जायेगा सोना चाँदी,
रह जायेंगे तेरे मोती,
फिर क्यूँ पछताये रे,

प्रेम की मन से डोर बाँध ले,
प्यार से हर रिश्ता सँझो ले,
देख फिर माला माल हुआ रे,

लालच मे सब को था छोड़ा ,
तू जो उसको छोड़े रे,
तो माला माल कहलाये रे,
मिट्टी का तन है तेरा,
मिट्टी मे मिल जाये रे,

हाय रे मन भरमाये रे , हाय रे मन भरमाये रे


अलका गुप्ता 
~~सुनहरी सी डकार~~

हो गया जी आज पार्टी का इंतजाम !
देखो होगी अब कितनी धूम-धाम !
आमलेट के लिए प्रतिबिम्ब जी ने ..
अंडा जो फोड़ा निकल पड़े जी उसमे से..
सिक्के सोने के ..झमा-झाम
हो गया जी हम मित्रों का इंतजाम|
बढ़िया सी होगी पार्टी भी शानदार.
हो गया जी ..आज पार्टी का इंतजाम !
अपनी-अपनी फरमाइश भेजो सब..
सोच समझ कर लिस्ट भेजो अब ||
हुए हैं आज मित्र मालामाल |
मान गए ..साथियों आज !
प्रतिबिम्ब जी को..हम मान गए !!
बड़े ही सीधे-सच्चे अपने ये साथी हैं |
वरना हमको कौन बताता ये राज ..
खाकर आमलेट अकेले ..ही आज..
ले लेते...जो सुनहरी सी डकार ||


नैनी ग्रोवर 
---मेरी गुल्लक--

सुन्दर सी एक प्यारी गुल्लक,
पापा ने लाके दी इक दिन,
बेटा इसमें जमा करो पैसे,
समझाया था मुझे उस दिन,

छोटी सी बुद्धि में मेरी,
पूरी बात समझ तो नहीं आई,
पर पापा का कहना टालूं,
इतनी नही थी मुझमे ढिठाई,

रोज़ लेके माँ पापा से पैसे,
मैं उसमे डाला करती थी,
कभी किसी के सामने,
ना उसको निकाला करती थी..

बैंक में जब जाने लगी मैं,
उसको बिलकुल भूल गई,
एक कोने में पड़ी रही वो ,
उसमे जाने कितनी घूल गई..

अब ना पापा रहे ना माँ,
मगर गुल्लक अभी थी वहां,
पापा का सिखाया सबक,
अब समझी थी मैं यहाँ..

जब वक़्त पड़े बुरा तो,
काम बचत ही आती है,
अगर संभाल लो पूँजी तो,
आज की वही सच्ची साथी है..!!!




बालकृष्ण डी ध्यानी 
~ चंद सिक्के वो खाव्बों के ~

चंद सिक्के वो खाव्बों के
ऊँचे आसमानी अरमानों के
उड़े उड़े वो दौड़े
मन के किसी तहखाने से
चंद सिक्के वो खाव्बों के
बहुत कुछ छुपा उनमें
भेद वो लिपा-पुता उनमें
एक ही रंग में वो सारे लगे
सपनों को वो प्यारे लगे
चंद सिक्के वो खाव्बों के
वो तब भी टूटा मुझसे
वो अब भी फूटा मुझसे
रंग वो इंधनुषी जैसे लगे
वो खुली धुप के तारे लगे
चंद सिक्के वो खाव्बों के
हकीकत वो रूठी लगी
सारी कहानी वो झूठी लगी
अपनों में ही वो पीछे छूटे
वो सारे सिक्के झूठे निकले
चंद सिक्के वो खाव्बों के



प्रभा मित्तल 
~~~सोने का अंडा~~~~

सिक्कों के इस अंडे ने मुझको
आज वो कहानी याद दिलाई,
जिसमें सोने के लालच ने
थी मुर्गी की मौत बुलाई।

हमारी धरती भी तो देती
है जैसे सोने का अंडा,
दोहन इसका हो रहा और
फँसा गले में विकास का फंदा।
अति उत्पाद का लालच
मनुज को यहाँ तक ले आया,
जल वायु नदी तालाब
सब प्रदूषित करवाया।
कीट पतंगे औ जल जीवन
वन भी विकास के मारे हैं,
खेत खलिहान और किसान
नित नए रसायन से हारे हैं।
आज प्रकृति तड़प रही है
भूकम्पों की मार बड़ी है
महामारी,सूखा और बाढ़
फैलती जा रही हर बीमारी है।

इतना लोलुप मत बन रे मानव !
अब तो चेत,बस इतना कर
प्रगति प्रकृति के हित में कर
वरना इक दिन यह आँधी
तुझे भी बहा ले जाएगी ,
सोना उगलती यह वसुंधरा
मुर्गी की तरह मर जाएगी।
हाँ,मेरी वसुधा मुर्गी की तरह मर जाएगी।।


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल .
~माया ~

माया का सुखद जाल,
भ्रमित होता जिससे हर इंसान
चकाचौंध आती नज़र
देखते ही प्रफुल्लित होता इंसान

लालच बुरी बला है
समझ कर भी नासमझ बनते लोग
प्रेम फिर पैसा होता
अपना पराया भूल जाते फिर लोग

मोह माया से बंधा इंसान
धन की खातिर तन मन से करता बैर
'प्रतिबिंब' बस सोचता
छोड़ दुनिया की बात मन से करता सैर




Pushpa Tripathi
~ एक एक पैसों वाला अंडा ~

बच्चों के खातिर
माँ बाप क्या नहीं करते
अपना सारा जीवन
हंसी खुशी साँझा कर लेते है
उज्जवल भविष्य के लिए
वेतन से खुछ ंबचाते
बेटी की शादी
पढ़ाई लिखाई
स्वालंबन
बुनियादी ढांचा तैयार करते
एक एक रूपया
जमा करते
अपने भविष्य के लिए भी
कई इंतजाम करते
लो आ गया अब वो दिन
पैसों की जिनको जरुरत थी
जमा धन कार्य के नियत से
बाहर निकाले गए
एक एक पैसे वाला वो अंडा
जिसे शून्य से बनाया गया था अधिक !


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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