Sunday, July 31, 2016

#‎तकब९‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #9 ]



‪#‎तकब९‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #9]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए चित्र पर कम से कम १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है. 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता २३ जुलाई २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
निर्णायक मंडल के लिए : 
1. अब एडमिन प्रतियोगिता से बाहर है, वे रचनाये लिख सकते है. लेकिन उन्हें चयन हेतु न शामिल किया जाए.
2. कृपया अशुद्धियों को नज़र अंदाज न किया जाए.


इस बार विजेता रही "सुश्री प्रेरणा मित्तल जी" -  बधाई एवं शुभकामनाएं 



अलका गुप्ता

~~~~~~~~~~~~~
~~~जीवन चक्र~~~
~~~~~~~~~~~~~
था पड़ा फर्श पर
उठा प्रयास कर
हुआ फिर..अग्रसर
खड़ा हुआ...तन कर
कर्म...अधीन हो
झुकने लगा सर
हो कर जर-जर
गिर गया वह सर
फिर धरा पर...
बना राख..और..
जल कर ...
माटी का था
माटी में मिला
वह त्रिण सा
तन का..तिनका
चोला वह आत्मा का
आत्मा अजर अविनाशी |
रहेगा..घूमता
पुनः पुनः ..इस ..
सृष्टि में ...
चक्र सा वह...
घूम कर ||


टिप्पणी: जीवन चक्र..का वर्णन समझा रही हैं चित्र की तीलियाँ उसी परआधारित मेरी यह पंक्तियाँ लिखने का प्रयास रहा है |



Kiran Srivastava 
"जीवन चरण"
===================
धरती पर मानव आता है
अक्षम अपनें को पाता है,
कोशिश करके धीरे-धीरे
फिर घुटनों पर चल पाताहै ,

और जीवन चलता जाता है...।

फिर बारी चलने की आती
हर कदम सहारे की पड़ती,
गिर-गिर कर फिर जीवन में
वो सम्भलना सीख जाता है,

और जीवन चलता जाता है...।

अब बारी दौड़ लगानें की
शिक्षा संस्कार अपनानें की,
पढ़लिख कर जीवन में फिर
वो अपने मुकाम को पाता है,

और जीवन चलता जाता है....।

कमर तोड़ मेहनत करके
फिर मानव थकता जाता है,
लड़ते लड़ते वह जीवन से
अपना हर फर्ज निभाता है,

और जीवन चलता जाता है...।

जीवन का अंतिम पड़ाव
जर-जर शरीर कांपता पांव,
मिट्टी से बना शरीर एक दिन
पंचतत्व विलीन हो जाता है,

और जीवन चलता जाता है...।

===================
टिप्पणी- जन्म के बाद मनुष्य विभिन्न अवस्थाओं को पार करते हुए पुन:मृत्यु को प्राप्त करता है। चित्र में तीलियों के माध्यम से भी यही दर्शाया गया है।यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।



गोपेश दशोरा 
~अमूल्य जीवन~

मानव जीवन तूने पाया,
पाकर भी तू क्या कर पाया?
जन्म लिया और बड़ा हुआ,
अपने पैरा पर खड़ा हुआ,
चला गया एक रोज बस,
औरों के कन्धे चढ़ा हुआ।
इस जीवन का क्या मतलब है,
तू समझ नहीं पाया इसको,
किसकी खातिर तू जिया यहाँ
क्यूं याद करे कोई तुझको।
अपनों के लिए सब जीते है,
सपनों के लिए सब जीते है,
औरों के लिए जो जीते है,
जीवन को वो ही जीते है।
कुछ कर्म यहां तू कर ऐसा,
मानव जीवन बदनाम ना हो,
आए, भोगे और चले गये,
पशु तुल्य सा काम ना हो।
यह तिनके सा मानव जीवन,
एक दिन ऐसे ढह जाएगा,
जिस पर तुझको अभिमान बहुत,
सब यहीं धरा रह जाएगा।
ऐ मनुज! जीवन बस इतना है,
हर चीज पे तू अधिकार ना कर
एक तीली कर देगी राख तुझे,
इस देह पे तू अभिमान ना कर।

टिप्पणीः जन्म से मृत्यु तक का सफर इन तीलियों में नजर आता है। पर क्या यह सफर ही जीवन की सच्चाई है? क्या इसीलिए विधाता ने हमें धरती पर भेजा है? इन्हीं भावों को शब्दों का रूप दिया है।




नैनी ग्रोवर 
~जीवन का सार~

सारे जीवन सार,
इक ही तस्वीर में कह गए,
थरथरा उठी कलम,
और हम भौंचके रह गए...

जन्म से मरण तक,
घूमा समय का पहिया,
जैसे आए, वैसे गए,
किया कुछ भी नही भैया,
लूटते रहे एक दूजे को,
यूँ बनके उच्चके रह गए..

कुछ ऐसे फंसे माया में,
के ठगनी ने ठग लिया,
बेच दी उसको अच्छाइयां,
और झूठा जग लिया,
कर्मों की दुकानदारी में,
हम तो बड़े कच्चे रह गए..

याद आया कभी मोक्ष तो,
भागे आश्रमों में,
बन्द कर आँखे, ज्ञान पाने,
इंसान के कदमों में,
बहल गये, जिसने बहलाया,
बस बनके बच्चे रह गए...

थरथरा उठी कलम,
और हम भौंचके रह गये..!!

टिप्पणी;, जन्म से मृत्यु तक का सफर सब जानते ही हैं परंतु आखिरी तीली ( अंजाम ) देख कर दिल फिर भी काँप जाता है, और जीवन भर कर किये कर्म याद आने लगते हैं ।


बालकृष्ण डी ध्यानी
~बस राख हो जाना और कुछ नहीं~


बस राख हो जाना और कुछ नहीं
जीवन है बस ये (और कुछ नहीं) ..... ३

किस का बस चला है
कौन यंहा पर रहा है
चलते हैं मिटने को सब
एक के बाद एक (ये सब को पता है) ..... २

लड़ते हैं फिर भी सब हैं झगड़ते
ना जाने किस बात पर सब क्यूं अकड़ते
ना जाने क्या खोया है यंहा पर क्या है खोजते
अब तक ना इस को ( कोई समझा है) ... २

जीवन चक्र है ये बस चलता रहा
रुकने का मतलब बस यंहा पर अलविदा है
कहानी है बस ये सबको सुनानी
आती जाती है ये बस (साँसों की रवानगी ) .... २

बस राख हो जाना और कुछ नहीं। ...........

टिप्पणी : जीवन के भेद को अब तक ना कोई समझ पाया है ना जान पाया है फिर भी लगे रहते ना जाने किस के लिये और क्यों सब के सब


Prerna Mittal 
~आवर्तन~

प्रभात से रात तक की यात्रा के विभिन्न चरण ।
देते जीवन की अवस्थाओं का विस्तृत विवरण ।

रात्रि के अंक से भोर की तरह जन्म लेता है लाल
लालिमा देखकर, माँ उसकी हो जाती है निहाल ।
घर भर में उसकी किलकारियाँ ऐसे गूँजती
प्रातः कलरव करती हों, चिड़ियाँ जैसे कूकतीं ।

उषा जिस तरह समाँ गई सुबह के पसरे आँचल में
बालक बढ़ रहा, घुटलियों चलता, रेंगता आँगन में ।
सवेरे ने करवाया स्फूर्ति व ताज़गी का अहसास
मासूम अठखेलियाँ उसकी, हृदय में भरती मिठास ।

आकाशचोटी पर अब सूर्य है चमक रहा
किशोरवय बालक का चेहरा है दमक रहा ।
रवि की सतरंगी रश्मियाँ जैसे ख़ुशी से झूम रहीं
नई आकांक्षाएँ, उमंगे उसके मन में भी झूल रहीं ।

दोपहर की कड़ी धूप है चारों दिशाओं में फैली,
अब दायित्वों से परिपूर्ण है उसकी भारी झोली ।
उष्णता के आवेश से जग है समस्त जल रहा ।
संघर्षों के बीच में से है पथ उसका निकल रहा ।

इस सुहावनी शाम की चहल-पहल में एक अजीब सी शांति है ।
खट्टे-मीठे अनुभवों की सौग़ात, परिपक्वता की कांति है ।
संध्या पहरा देती चौखट पर, लेकिन प्रविष्टि की चाहत में अंधकार है मँडरा रहा ।
पल-पल झुकती कमर के साथ हर पाप-पुण्य का लेखा-जोखा है याद आ रहा ।

निशा की धुँध चहुँओर, पसरी हुई है नीरवता।
चिरनिद्रा द्वारा, सांसारिक बंधनों से स्वच्छंदता
आरंभ ही दबी ज़ुबान में, अंजाम तय कर देता है ।
सुनता है हर शख़्स पर समझने से इंकार करता है ।

टिप्पणी : रात और दिन के चक्र से जीवन चक्र की समानता बताने की कोशिश की है । जिस तरह हर रात की सुबह निश्चित है और सुबह का अंत भी तय है । उसी प्रकार जन्म के बाद मृत्यु और फिर पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है ।


डॉली अग्रवाल 
~मन कस्तूरी~

तृष्णाओं की इस नगरी में
जिसका ओर ना कोई छोर
उम्र की चौखट पे
गिर के उठा , उठ के गिरा
ये तेरा --- ये मेरा
दुनिया दो दिन का रैन बसेरा
मिट्टी का तन था
सोने का मन था
मिट्टी में मिलता गया
फिर हाथ मलता तू रह गया
मुठ्ठी बांधे आया जग में
हाथ पसारे चल दिया
तेरे मेरे के खेल में
खुद को गवा कर चल दिया !!

टिपणी --- मिट्टी की काया फिर भी इंसान भरमाया


कुसुम शर्मा 
~नफ़रत~
-------------

कपट वो करता रहा
इर्ष्या की अग्न मे जलता रहा
बन कर अपना
अपनो को छलता रहा
नफ़रत का बारूद
हर किसी को वो
छल से देता रहा
जता कर झूठा प्रेम
प्रेम को छलता रहा
भर दिया उसने
एक दूसरे के
मन मे बैर
सुलगा कर
नफरत की तिल्ली
तमाशा वो देखने लगा
भस्म करके भाई चारा
कपट मुस्कान भरने लगा
जला कर घर प्रेम का
नफ़रत का बोया बीज
धर्म और जाति की
खींच दी लकीर !
क्या मिला उसको
जो उसने किया
जला कर
एक माचिस की तिल्ली
भस्म घर प्रेम का किया !!

टिप्पणी :- नफरत की आग लगा कर धर्म और जाति के ठेकेदार अपने स्वार्थ की सिद्धी करते है लोगो के मन मे एक दूसरे के प्रति भेदभाव भर कर अपना उल्लू सीधा करते है लोग इनके चक्कर मे आ कर एक दूसरे से लड़ने लगते है नफरत रूपी माचिस की तिल्ली सब कुछ जला कर राख कर देती है और ये अपने कार्य मे सफल हो जाते है !!


Madan Mohan Thapliyal शैल 
~मैं ( मानव )~


ए मैं ही तो हूँ -
ए मेरे ही अलग - अलग रूप हैं -
पंचतत्वों से निर्मित -
शैशव से जरा तक, यों कहूँ जन्म से मृत्यु तक-
जिन्दगी को हथेली पर लेकर घूम रहा हूँ -
एक जलते दिए की तरह-
जो कभी फड़फड़ाता है -
कभी अँधेरे को चीरता है -
कभी हौसला और हिम्मत बढ़ाता है -
उम्र बढ़ रही है, तेल सूख रहा है -
मैं अपने में ही खोया हूँ, भविष्य से अंजान -
शैशव - हर सुख का भंडार -
बालपन - अंतर्ज्ञान से भ्रमित -
युवा - भौतिक सुखों की चाह -
प्रौढ़ माया का पुतला, अंधी दौड़ -
जोड़ - तोड़ में, सर्वस्व न्योछावर -
सत्य से बे खबर -
यहाँ सब कुछ उधार का है -
चुकता तो करना ही पड़ेगा -
खाली हाथ आया था, खाली हाथ जाना पड़ेगा -
सूरज अस्ताचल की ओर गतिमान -
सारे सुख वैभव आँखों से ओझल -
सब तिरोहित , यहां तक कि रिश्ते नाते भी -
जब झुकना था, झुका नहीं, रुकना था रुका नहीं -
समय बलवान है -
उसके आगे कहाँ किसकी चलती है -
झुकना ही पड़ा, मर्जी से नहीं, अपने कर्म से -
इन्द्रियों ने खुद को समेट लिया -
सब कुछ घट रहा है, घिसटना जारी है -
बचपन में भी घुटनों के बल घिसटता था -
तब और आज में बड़ा अन्तर है -
तब ऊपर उठने की चाह थी -
अब ऊपर जाने की -
ए शोर कैसा -
शरीर धीरे - धीरे शिथिल हो रहा है -
भास्कर भी अपने तेज को समेट रहा है -
सब निश्चल खड़े हैं -
माया मोह सब शांत -
धर्म, तीर्थ, श्री, ऐश्वर्य ,जाति, रुतबा -
सब शरीर का साथ छोड़ रहे हैं -
सब यहीं रह जाएगा -
ज्ञान का उदय और अस्त एक साथ -
मैं किंकर्तव्य- विमूढ़ -
शायद बुलावा आ गया -
सब चलेंगे श्मशान तक -
आगे का रास्ता 'आत्मा' को तय करना है -
एक हिचकी और सब खत्म -
देह पंचतत्व में विलीन -
शेष यादें ---
अलविदा .
नोट - समस्त जीवों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो चैतन्य होकर काफी हद तक जीवन की परिभाषा से परिचित है लेकिन माया से वशीभूत वह अपने कल से अपरिचित हो जाता है, फलस्वरूप वह अपने कर्तव्य का निर्वाह ठीक से नहीं कर पाता. मृत्यु शाश्वत सत्य है या यों कहें कि अगले जीवन की तैयारी है इसलिए मृत्यु की विदाई भी सुखद होनी चाहिए.



Ajai Agarwal
 ''रुदन में आनंद के क्षण ''
===================

अलि ; है मुझे अहसास इसका -
जन्म-जन्मांतर से सदा ही -
तू रहा है साथ मेरे !
रुदन में आनन्द के क्षण
मूक से फिर मुखर होना
बालपन की रुनझुनों में
ममता बना था , साथ मेरे ,
तू रहा है साथ मेरे !
अनुराग हर वय का है अपना
स्वप्न का व्यवसाय जीवन
उन्नति , गती जब , हो गयी
पिता सा संबल बना ,
तू रहा तब साथ मेरे !
शत-शत कामनाओं के अंधड़
आपाधापी , कलरव लगे जब
हर लक्ष्य हर ध्येय में भी
तू ही तो था साथ मेरे !
कंटकों का रूप लेकर
गन्तव्य के वो पथ जो आये
पग ने मंजिल ढूंढ ही ली ,
तू सदा था साथ मेरे !
पूछती अब मैं स्वयं से -
चिर-पिपासित हृदय क्यूँ ये ?
क्या यही पाथेय मेरा ?
क्यों तुझे न जान पायी ?
क्यों नहीं पहचान पायी
तू तो सदा था साथ मेरे !
गोधूलि की बेला सुहानी -
लाल सुनहरे रंगों से सज्जित
आँचल , दिशाओं ने है ओढ़ा
कज्जल निशा के आगमन का
है यही संदेश मुझको
तू अभी भी साथ मेरे !
अलि ! यूँ ही रहना साथ मेरे !
जब चढ़ूँ मैं ज्वाल रथ पे
वह्नि हो प्रचण्ड जाये ,
चिंगारियों से सेज जगमग ।
ज्यूँ ; बादलों के बीच बिजली
अलि ! बादलों से झांकना तू ;
मेघ के अश्रु में ढलकर
चिर -पिपासित हृदय को तू
मिलन का उत्सव बनना !
अलि! तू मेरे ही साथ रहना !
तू रहा है साथ मेरे !
पितुमात , प्रियतम और बच्चे
अन्य सारे रिश्ते नाते ;
प्रवृत्तियां - दायित्व -जीवन
बस एक कम्पन एक थिरकन
सांस बनके मिट्टी के तन में
तू रहा है साथ मेरे ,
क्यूँ जांनने में देर करदी ?
क्यों मैं न तुझे , पहचान पायी ?
गर तुझे पहचान जाती
संगीत हो जीवन ये जाता
मैं जरा कुछ संवर जाती
प्यार की मूरत हो जाती
अलि ; अब तुझे मैं जानती हूँ
तू सदा था साथ मेरे
मेरी साँसों में छिपा था !
जीवन मेरा तुझको समर्पित
ध्येय ये ; तुझको मैं जानूं।। आभा।। ......

टिप्पणी........ जन्म के रुदन के आनंद से लेकर मृत्यु के संगीत तक ---इस चित्र में जीवन की हर अवस्था को दिखाया गया है --काश हम भी इस सत्य को समझें जीवन चंद सालों का ही मेला है --अंतिम लक्ष्य उस परमात्मा को पाना ही है जो हमारे साथ ही है हर पल सांस के रूप में ---साधना अभ्यास ,विवेक ,हित -अनहित ,शक्ति , साधक ,साधना विक्षेप ,स्वानुभूति ,प्रकाश आह्लाद सब कुछ ईश्वर को अर्पण कर दें तो '' त्येन त्यक्तेन भुञ्जिथ :'' की आनन्दानुभूति होगी और ''मा गृध:'' का अर्थ बोध होगा --लोभ लालच आसक्ति मिटेगी जिंदगी प्यार का गीत बन जायेगी -----जन्म और ज्वालरथ के सजने ,यानि मृत्यु के रुदन में आनन्दानुभूति ही होगी --''नवानिगृह्णातिनरोपराणी '' की मानिंद ।




Sunita Pushpraj Pandey 
~जीवन यात्रा~

लिखना है मंथन कर रही हूँ खुद का
परिभाषित करना है जीवन का सारांश
यू तो कह दूँ चंद शब्दों में
कि बचपन खेल में खोया,
जवानी चैन से सोया,
बुढ़ापा देख कर रोया!
पर कहना आसान है जीवन की गाथा
सबके लिए जीये ताउम्र
जब हसरत से देखा किसी को
लोगों ने मुहँ फेर लिए परीक्षाएं देते रहे
पास होते रहे न वजीफा मिला न कोई इनाम
बस दूसरों की मुस्कान को ही अपनी संतुष्टि मान
खुश हो लिये।

टिप्पणी - जीवन का वृतांत लिखना था पर जो उम्र भर दूसरों के हिसाब से चला हो वो क्या लिखेगा


प्रभा मित्तल 
--जीवन-संघर्ष--
-------------------------------------

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर,
पञ्च तत्व से मिलकर बना शरीर।
अद्भुत है प्रकृति
नटी का क्रम भी।
सींचा मन से
अंगुल-अंगुल कर पाला
कर पूरी रखवाली।
घर-आँगन अब
गूँज रही किलकारी।

अपनी क्रीड़ाओं से
जग को हौले से महकाता
मोह पाश में बाँध
शिशु शैशव से
आगे बढ़ता जाता।

सपनों को पूरा करने में
एड़ी से चोटी तक जोर लगाता।
आशा और निराशा के झूले में
अकसर हिचकोले खाता।

यहीं से होता शुरु
जीवन का खेला
आगे बढ़ने की खातिर
संघर्षों का मेला।
मैंने देखा है बहुत करीब से
ढोती साँसों को
बदहवास और अकेला।

आज नहीं लिख पा रही मेैं
जीवन-चक्र की कथा
जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत।
जरूरी नहीं जी जाए मानव
सारी अवस्थाएँ,जीवन की
क्योंकि, उसका तो
हो जाता है...कभी भी अंत।

टिप्पणी : (जीवन आजीवन एक संघर्ष ही है ।)


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Sunday, July 17, 2016

‪#‎तकब८‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #8 ]



‪#‎तकब८‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #8 ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए तीन चित्रों में सामंजय बना, कम से कम १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है.
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए.
४. प्रतियोगिता १५ जुलाई २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
निर्णायक मंडल के लिए :
1. अब एडमिन प्रतियोगिता से बाहर है, वे रचनाये लिख सकते है. लेकिन उन्हें चयन हेतु न शामिल किया जाए.
2. कृपया अशुद्धियों को नज़र अंदाज न किया जाए.


इस बार  की विजेता  है  सुश्री  किरण श्रीवास्तव 

नैनी ग्रोवर 
~चल उठ~

चल उठ सरपट भाग रे,
दिन चढ़ आया, जाग रे..

पंछी उड़े घोंसलों से,
देख कितने हौंसलों से,
संग संग पवन लहराते,
और अपने पंख फैलाते,
करने चले ये अपने काज रे..

दिन चढ़ आया, जाग रे..

मेहनत से मिलती हैं खुशियाँ,
मेहनत से ही चैन,
मेहनत का जो बहे पसीना,
हो नींद से भरपूर रैन,
मेहनत ही जीवन का साज़ रे..

दिन चढ़ आया, अब जाग रे..

मत रुक, के दिन है चलने का,
सूरज की ताप में, पलने का,
बैठ लेंगे, फुर्सत मिलेगी जब,
या कर इंतज़ार, शाम ढलने का,
बुझ जायेगी, मुश्किलों की आग रे...

चल उठ, सरपट भाग रे,
दिन चढ़ आया, जाग रे...!!


टिप्पणी:- जीवन चक्र मेहनत से ही चलता है, समय के साथ चलना आवश्यक है ।




Prerna Mittal 
~सर्वोत्तम क्या ?~

गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।।

तुलसीदासजी तो कह गए पर है बड़ी भारी दुविधा,
आज किसका महत्व कम और किसका है ज़्यादा ।
स्वास्थ्य, परिवार, ज्ञान, यश,सम्पत्ति या बुद्धिमत्ता,
इतना ही नहीं काफ़ी, बावला बनाती बहुत सत्ता।

कैसे कह दूँ कि ये कमतर और वो बेहतर !
आप ही बताओ ना कैसे और क्योंकर ?

परिवार, प्रेम को जो बताऊँ सर्वोत्तम,
बिना धन के कैसे करोगे पालन-पोषण ?
पुरुषार्थ करना ना है सम्भव, बिना स्वास्थ्य,
ज्ञान का साथ भी ज़रूरी, अगर पाना है लक्ष्य ।
करीयर और संपत्ति का चोली दामन का साथ,
सभी चीज़ें संग चलें लेकर हाथ में हाथ ।

अभिप्राय यही जुदा नहीं कोई भी किसी से,
संतोष धन का तात्पर्य यही है मेरे विचार से ।
आवश्यक है सभी के बीच सामंजस्य बिठाना,
कमी और अति के बीच उचित संतुलन बनाना ।

ईश्वर भक्ति संग पुरुषार्थ करोगे,
नहीं कभी फिर असफल होगे ।
सारे स्वप्न तुम्हारे होंगे,
ख़ुशियों के पल सुहाने होंगे ।
योग, स्वास्थ्य और धन का संगम
ऊँचा ओहदा, प्यारे मित्रगण ।

टिप्पणी: ईश्वर रचित सभी जीवधारियो में मानव ही सर्वाधिक बुद्धिमान और गुणवान प्राणी है ।ईश्वर ने मनुष्य को इस कर्मक्षेत्र में भेजा है । यहाँ पर वह स्वयं अपने जीवन की दिशा निर्धारित करता है परंतु समाज में रहते हुए उसे सभी कर्तव्यों को पूरा करने के लिए सभी चीज़ों के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है ।




Kiran Srivastava
 "उडान"
========================

ये भोर हमें सिखलाती है
उर्जा से पूर्ण बनाती है,
सोए से जग जाओ तुम
उडनें की जुगत लगाओ तुम,

बहु वृद्धि चुनौती जीवन की
कंटक से भरा ये जीवन है,
कुछ आनी है कुछ जानी है
कुछ करके भी दिखलानी है,
भीड भरी इस दुनियां में
अपनी पहचान बनानी है,
सब पाना है जब जीवन में
कुछ खोना भी पड जाता है...!

नीड छोडकर पक्षी भी
दर-दर दानें को भटकता है,
पर शाम ढले तो वापस वो
अपने कोटर में आता है ।

हे मनुज उडान कितना भी भर
पर नाता रहे जमीन से,
ये भान रहे तुमको इतना
दौलत -शोहरत पाओ जितना,
अपने तो अपने होते हैं
उनको ना कभी भुलाना तुम,
मात-पिता बिसराना ना
उनको भी गले लगाना तुम...!!!

========================

टिप्पणी-
आज का दौर आगे बढनें का,शीर्ष को पानें का है । उपलब्धियों को हासिल करनें के लिए जीवन में बहुत से समझौते करने पडतें है । पर सपनों के पीछे इतना ना भागे की अपने पीछे छूट जाए ।




गोपेश दशोरा
~ जीवन की राह ~
बचपन बीता आई जवानी,
बदल गई जीवन की कहानी,
उड़ते थे उन्मुक्त गगन में,
किसी चीज की फिक्र नहीं।
जो मन चाहा वो सब पाया,
कहीं किसी की रोक नहीं।
स्कूल-काॅलेज अब खत्म हुआ,
आजादी भी खत्म हुई।
जिम्मेदारी खड़ी सामने,
आखिर उम्र जो बड़ी हुई।
जो भी मिलता है कभी कहीं,
बस ये ही पूछा करता है,
क्या करते हो? क्या करना है?
क्या घर बैठ ही जीना है?
घर वाले भी अब कहते है,
जाओं बेटा कुछ काम करो।
यहाँ काम जो नहीं मिले,
तो दूर देश प्रस्थान करो।
परिवार चुने या, अपना कल,
समझ नहीं कुछ आता है।
अब आ पहूंचे चैराहे पर।
किसी एक राह तो जाना है।
सच करने है मन के सपने,
बस साथ रहे मेरे अपने।
तो हर मंजिल पा जाएंगे।
जीवन को सफल बनाएंगे।
परिवार रहे बस सदा साथ,
मित्रों का हो हाथों में हाथ।
तब किसी बात की फिक्र नहीं,
चाहे कितनी गहरी हो रात।

टिप्पणीः बचपन की उन्मुक्तता के बाद जब जिम्मेदारियों का आगमन होता है तो कुछ समझ नहीं आता कि परिवार चुने, नौकरी चुने या कुछ और।




कुसुम शर्मा
~मुश्किलों को हटायें जा क़दम तू बढ़ाये जा !~
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मुश्किलों को हटायें जा
क़दम तू बढ़ाये जा
हौसला बुलन्द कर
हिम्मत अपने अन्दर भर
क़दम तू बढ़ाये जा
अपने लक्ष्य को पाये जा
चुनौतियाँ स्वीकार कर
बाधाओं को पार कर
विश्वास मन मे जगाये जा
क़दम अपने बढ़ाये जा
खुद पर यकिन कर
मंज़िलों को पार कर
पानी के वेग सा
तू हर घड़ी बढ़ता जा
चुनौतियों से लड़ता जा
क़दम अपना बढ़ता जा
मुश्किलों को हटाता जा

टिप्पणी :- अपने लक्ष्य को पाने के लिए जिस व्यक्ति के मन मे विश्वास हो , चुनौतियों का सामना करने कि हिम्मत हो और मंज़िल तक पहुँचने की ललक हो , खुद पर यकिन हो , तो वो अपने लक्ष्य तक पहुँच ही जाता है!




Madan Mohan Thapliyal शैल 
~मानव~


त्रिकाल, त्रिगुण, औ इस भुवन की, अपूर्व कृति तू,
दुःख, सन्ताप, क्लेश विश्व के, सबका निवारक भी तू.

शासन- प्रशासन सब तुझ में, सबका नियंत्रक भी तू,
प्रेम गाथा जन्मी तुझी में, सखा बन्धु- बांधव भी तू.

उत्तरार्ध भी तू, पूर्वार्ध भी तू, घर परिवार का वैभव भी तू,
धन, स्वास्थ्य यश, विवेक तेरे निमित्त, सबका पोषक है तू.

हर चौराहे से गुज़रते कई रास्ते, उनका निर्माण करता है तू,
कभी उलझता सरकारी तंत्र से, कभी सबका समाधान तू.

कभी विवेक से अपने, कर्तव्य परायण होकर भविष्य तय करता है तू,
अपने ही प्रारब्ध से खेलता निराकार का साकार प्रतिरूप तू.

रचना उसकी निर्माण तेरा, नील गगन सा विस्तार तू,
उड़ता जा स्वछंद परिंदों की मानिंद, प्रभु की अद्भुत रचना है तू.

चलना ही कर्म तेरा, रुकना नहीं, खुद की पहचान तू,
सारा विश्व तेरे लिए बना है, इसकी सच्ची पहचान तू.

इतिहास को बनाता बिगाड़ता कभी भौंचक्का रह जाता है तू,
कभी अबोध बालक सा, अपनी कृति से अंजान रहता है तू.

धरती तो क्या, व्योम तक पहुँचा है तू,
तेरा गुरूर मोह के वश, इसलिए भगवान नहीं बन पाया तू.

टिप्पणी - मानव ईश्वर की सबसे महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ रचना है. मनुष्य ने ही सबका परिचय कराया यहाँ तक कि ईश्वर का भी, लेकिन मानव को अपनी सीमा का ध्यान नहीं रहा. गुरूर के कारण मानव स्वयंभू बन बैठा. हमें अपनी सीमा में रहकर अपना और विश्व का कल्याण करना चाहिए.




किरण आर्य 
*******दौड़********

मन की उड़ान
महत्वाकांक्षी दौड़
जिसका कोई ओर न छोर
स्वप्नों से यथार्थ तक
साँसों संग जीवन अनुबंध
जैसे मृग में निहित कस्तूरी गंध
भोर में पक्षियों के
कलरव संग
उड़ता पंछियों सा
चहचाहता उन्मुक्त मन
गोधुली के साथ
पूरे अधूरे से सपने
लौट पाते है पनाह
दिल के कोटर में
दौड़ एक अंधी सी
जीवन-मरण के फेर में बंधी
कर्मो को गुनती बुनती सी
छूटा बचपन खेल खिलोने
रह गए खाली दिल के कोने
निज में निहित जीवन सारा
पानी जैसे सागर का खारा
गौण हुए सब रिश्ते नाते
भावुकता गई है बट्टे खाते
दोस्त यार और घर परिवार
सब छूटने लगे है अब पीछे
आगे बढ़ने की जो चाह बावरी
हाथ पकड़कर हरपल खीचे
अहम है बस प्राप्ति
उम्मीदों से भरी उड़ान की
दौड़ता मन और जीवन
अंधाधुंध निरंतर हर क्षण
वैभव के आगे है झुकते
स्वास्थ्य बुद्धिमत्ता जीवन के रिश्ते
दौड़ है अंधी
सघन गलियारे
फिरे मन जीव मारे-मारे
गर लगन है सच्ची
कोशिश है जारी
कर्मठ मन के आगे
नाउम्मीदी है हारी
पथ है दुर्गम
थके है कदम
उड़ने को है आतुर
कोमल से पंख
संग हो अपने, तेरे जो जीव
हौसले सदा रहे सजीव
भर तू उड़ान
आस को थाम
प्रयासों में डाल दे जान
सपनों को अपने तू
आस और मेहनत से सींच
देखना होगी एक दिन निश्चित,
मन मेरे हाँ तेरी ही जीत..............

टिपण्णी:- महत्वकांक्षाओं के लिए मनुष्य दौड़ रहा है निरंतर.......निज में निहित उसकी कोशिशें और एक अंधी दौड़ जिसमे पीछे छूटा सब कुछ.............सुबह से लेकर शाम तक......जीवन से मृत्यु तक दौड़ता जीवन और जीव......




प्रभा मित्तल
~~~एक लक्ष्य~~~
~~~~~~~~~~~~~

बीती रैन अब भोर हुई
नयन खोल कर देख जरा
थाली में कुमकुम लेकर
नव प्रभात का स्वागत करने
प्राची से उषा आई है।
दूर क्षितिज पर सूरज उग आया।
पंछी भी उड़ चले गगन में,
जीवन को गति देने का,
अब तेरा भी अवसर आया।

जीवन-साधना-पथ पर
साधक बनकर
पग आगे रख,
उत्थान-पतन के
बीच से निकल -निकल कर
नित नूतन अनुभव कर।

साधना स्वास्थ्य से
स्वास्थ्य साधन से
साधन अर्थ से
अर्थ के लिए कर्म-श्रम,
बुद्धि-विवेक-चातुर्य जरूरी,
ये सब एक ही
थैली के चट्टे-बट्टे हैं
जीने के तौर- तरीके हैं।

आदि काल से मानव का
बस यही प्रयत्न रहा है
एक लक्ष्य निर्धारित कर
'अर्थ'के पीछे भाग रहा है।
संसार-चक्र से बंधकर
नेह-पगा,मोह-माया में फँसकर
संगी-साथी औ परिजनों के
सुख-सपनों को साध रहा है।


टिप्पणी: मनुष्य जीवन यापन के लिए अपने हर सुख-स्वप्न को पूरा करने का हर संभव प्रयत्न करता है


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Friday, July 8, 2016

‪‎तकब७‬ - तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #7



‪#‎तकब७‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #7 ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए चित्र पर कम से कम १० पंक्तियों की रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- इस बार आपको किन्ही पांच पुराने खेलो का जिक्र आपको अपनी रचना में जरुर करना है
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है. 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता ७ जुलाई २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.


इस बार की विजेता है  सुश्री  प्रभा  मित्तल  जी - हार्दिक  बधाई 

नैनी ग्रोवर 
~बचपन के खेल~

बड़े ही प्यारे, लगते थे,
बचपन के खेल न्यारे न्यारे..
कड़ी धूप में भी, हो जाते,
इक्ट्ठे मित्र जो सारे...
लेके पुराने साइकल के पहिया,
और मोड़ के लम्बी तार,
घुमाते फिरते, सारा मौहल्ला,
ज्यूँ हो वो फरारी कार..
बीच गली में बनाते चॉक से,
खानों वाला स्टापू,
होड़ लगती फिर सबमे के,
सब के सब मैं टापूं..
ढूंढ के लाते, सड़क किनारे से,
हम सब छ गीटे,
एक उछाल के, पांच पकड़ते,
सारा दिन यूँ ही बीते..
फॅसा के पैरों में पैर, होती थी ज़ोर आज़माइश,
जीत जाता जो वो करता, कोला की फरमाइश...
खो-खो में, आता था मज़ा, जो हारे, उसे होती थी सज़ा,
चिड़ाते उसे सारे के सारे, पीपनी और डब्बे बजा..
सुनसान पड़ी हैं, अब ये गलियाँ,
खिलती नहीं बचपन की, अब कलियाँ,
टीवी और मोबाइल ने छीने,
बारिशों के दिन भीने-भीने,
अब पहले सी, बचपन की मुस्कान कहाँ है ?
गलियों में पला, मेरा हिन्दुस्तान कहाँ है ?
ये जो एयरकंडीशन कमरे हैं,
ये कम्प्यूटर है मशीने हैं,
दिए इन्होंने इंजियर और डॉक्टर बहुत,
पर मेरे देश की सरहद से वीर छीने हैं..
विज्ञान से करो तरक्क़ी, सीखो और सिखाओ तुम,
पर खेलकूद के दिनों में अपने, पसीना तो बहाओ तुम..!!


टिप्पणी :- आज की नई पीढ़ी के खेल कमरो में ही सिमट कर रह गए हैं, ना उन्हें अब मौसम का मज़ा मालूम होता है, ना ही अब बच्चों के शरीर में वो फुर्ती है जो हमारे समय में हुआ करती थी..


अलका गुप्ता 
~~~भूल न पाए खेल~~~


समय का पहिया...ऐसा...घूमा...भइया |
घूमा न फिर बचपन का उल्टा पहिया ||

खेल खिलौने...धमा चौकड़ियाँ..छौने |
छुआ-छुम्बर..चोर-सिपाही ता-थइया ||

लगती...रहती...टेर..आने...खाने को...
हमें न...फुरसत होती..गुट्टों से...हइया ||

इक्कड़-दुक्कड..खेले..विष-अंबर..खूब |
साँप-सीढ़ी...शतरंज..अर..गुयम-गुइया ||

बूढ़े-बाढ़े... अब...दद्दू...बन गए..हम..
भूल न पाय खेल हम..वो..हाय दइया ||



टिप्पणी
न हम भूले वह बचपन के दिन 
न भूले हम वह खेल पुराने जो 
अधिकतर अब...नहीं दीखते |


\
Kiran Srivastava 
"यादें"
========================

पीछे छूट गया जो सपना
वो भी क्या था बचपन अपना,
अपनें भी कुछ जज्बे थे
जब हम छोटे बच्चे थे,
होती थी बच्चों की टोली
हर दिन लगे दिवाली -होली
इक्कड-दुक्कड में धूम मचाये
कोई डग्गा खूब दौड़ाये
चोपट और गोट्टी का खेल
चार लोग खेले संमेल
उछल कूद और भागम-भाग
सीलो-सालो..करे कमाल
झट से रूठे झट मान जाते
फिर हम जोली भी बन जाते
सारे सबक याद कर जाते
खूब प्यार अपनापन पातें
कोई नहीं पैमाना था
वो भी क्या जमाना था...!!!!

टिप्पणी-
पुराने खेल -खिलौने अब खो से गये है ,जिनसे मन और शरीर स्वस्थ रहता था ।इसका स्थान टीवी और मोबाइल ले लिया है । जो बच्चों को बीमार बना रहा है।


Prerna Mittal 
~समय का खेल~

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और
आवश्यकता आविष्कार की जननी है ।
रटे ये जुमले ना जाने कितनी बार तथा
लिखे रेखांकित कर-करके इम्तिहान में
बिना समझे मतलब, केवल एक ही टेक ।
परीक्षा में लाकर अंक, बनना है नम्बर एक ।

पढ़ाई में अव्वल रहना, ख़ूब खेलना,
स्कूल से आते ही खेलने के लिए बाहर भागना,
सपोलिया, छुपन-छुपाई, लँगड़ी टाँग, पोशमपा, गुट्टे,
ख़ूब जमकर धमाचौकड़ी मचाना,
बचपन बीत गया पलक झपकते जाना अनजाना ।

अब समझ में आया, उन उक्तियों का असली अर्थ,
जब भागती दुनिया के साथ चलने में हुए असमर्थ ।
परिवर्तन की तीव्र गति से मस्तिष्क है चकराता,
कहीं पीछे ना रह जाएँ, यह सोच मन घबराता !
आजकल के खेल सारे मोबाइल, टैब और कम्प्यूटर पर
ना जाने की कहीं ज़रूरत, सब बैठे अपने बिस्तर पर

वक़्त का काँटा एक ही दिशा में अपनी गति से है घूमता,
तुम कितना रोको, आवाज़ दो, यह किसी की नहीं ना सुनता ।

प्राचीन काल में हुआ करती थी आविष्कार की जननी आवश्यकता ।
आवश्यकता की जगह अब ले ली जिसने, वह है, महत्वकांक्षा ।
मेरे विचार में अपरिहार्य ये परिवर्तन है,
क्योंकि यह तो प्रकृति का नियम है ।


टिप्पणी : समय और उसके साथ होने वाले बदलाव अटल हैं । यह परिवर्तन हमें पसंद या नापसंद हो सकता है । कई बार नागवार भी गुज़रता है । पर इस पर बस किसी का नहीं चलता।


गोपेश दशोरा 
~मेरा बचपन~

गाँव भी छोटा लगता था, जब पांव कुलाँचें भरते थे।
मिट्टी के घरों में रहकर भी, हम राज दिलों पर करते थे।
मैदान खेल का कहीं नहीं, ना कोई बल्ला, हाॅकी थी,
खेल हमारे अजब गजब, क्या अजब हमारी झांकी थी।
छोटे-मोटे कंकर लेकर, घंटों तक खेला करते थे,
पहिया मिल जाए अगर कही, तो खूब चौकड़ी भरते थे।
क्या छिपनी, क्या पकड़ा-पकड़ी, क्या लंगड़ी खेला करते थे।
जब थक जाते तो आम तले, झूलों पर झूला करते थे।
गुलैल हाथ में लेकर, फिरते रहते थे खेतों में,
चोरी करते थे आम सभी, पर सच्चाई थी बातों में।
ना कोई था अनजान वहाँ, ना हमें किसी ने रोका था,
भूख लगे तो फिकर नहीं, घर-घर में हमारा चैका था।
ना गली, मोहल्ला, काॅलानी, पूरा ही गाँव हमारा था।
जब शहर गये तो क्या देखा, अपना ही नाम सहारा था।

टिप्पणीः आज जिन्दगी की इस भागादौडी में अगर पीछे मुड़कर देखें तो सिर्फ बचपन के ही दिन याद आते है। जब किसी चीज की फिक्र नहीं थी, कुछ भी नहीं था पास फिर भी बहुत कुछ था, जो आज नहीं है।


Ajai Agarwal  आभा अग्रवाल
खेल -खेल में सीखें थीं
==============--

आज याद जब भी आती है ,बचपन की दुनिया अपनी
रोम -रोम में थिरकन होती, ख़्वाबों में खो जाती हूँ ,
कितनी छोटी, सहज ,सुरीली ,दुनियाँ थी वो बचपन की
ख़ुशी आस -पास तिरती थी ,छोटी छोटी बातों में ,
पल -पल जोश ,उमंग भरा था ,खेल -खेल में सीखें थीं ,
महंगे -महंगे खेल खिलौने ,इनकी हमको चाह न थी .
ढूंढ़ -ढांड कर गिट्टू आंगन से ,आंगन में ही खेल जमा
उछाल हवा में पाँचों गिट्टू इक्की दुक्की ,झपकू ,पंजा
बुद्धि नजर हाथ का संतुलन शायद हम यहीं पे सीखे |
पत्थर के टुकड़ों को चुन कर ,पिट्ठू -गरम बना लेते थे
गेंद नही तो क्या , कपड़ा ऊन सुई धागा लेकर
सब बच्चों ने मिलजुल कर ,सतरंगी इक गेंद बना ली
जुगाड़ और काम चलाना ,कम खर्च बाला नशीं
फुर्ती ,शक्ति और संतुलन ,कितनी सीखें थी इस सब में |
आइस -पाइस छुपम छुपाई ,आस -पास ही भागम -भगाई
विष अमृत , -टिप्पी टॉप खेलते ,रंगों में हम रंग जाते थे
आसपास की हर हरकत पे ; ध्यान लगाना ;चौकन्ना रहना ,
शायद जासूसी के कुछ गुर अवश्य ही इन खेलों से आये |
एक पहिया साइकिल का ,एक डाल से लकड़ी तोड़ी ,
सड़कों पे पहिया चल पड़ता ,वो पल गर्वीली ख़ुशी के होते
पहिये के नीचे तार या लकड़ी ,और सडक पर भागम- भाग
क्या अनोखा संतुलन ,नजर न भटके सीखी बात
जीवन की गाड़ी के पहिए आज भी यूँ ही चलते -
आधार आज भी जीवन को अनुभव के तारों से देते |
चिड़िया उड़ ,तोता उड़ ,रोटी उड़ पे कौन उड़ बोला !
ताली बजी आउट हुआ ,ध्येय पे ध्यान ये हमने सीखा
अर्जुन सी हो नजर ध्यान लक्ष्य पे रहे हमेशा
कभी नही फिर वाणी फिसलेगी ,बुद्धि ध्येय पे ही टिकेगी |
टप -टप टप ,स्टेपू पे यादों के बादल बरस रहे हैं ,
संतुलन हम यही से सीखे ! एक टांग से टपना हो या
दोनों से लेनी हों छलांग ,लाइन पे न पड़े पैर ,
एक से सात घरों को टपना और अपना अधिकार बनाना
मेहनत से कुछ मिलने की ख़ुशी को ,सबसे पहले यहीं पे जाना |
और चौपड़ की बिसात पे ,बड़ों को भी खेलते देखा ,
कौड़ी -कौड़ी माया जोड़ी ,कौड़ी का भी मोल है समझा
ऊँची कूद भी हाथ पाँव को जोड़-जाड के कूद गये
पाला --लगे लम्बी व् ऊँची कूद ,बस नजर लक्ष्य पर रखनी होगी
अपनी परीक्षा आप ही लेके ,बारम्बार कोशिशे करनी
कभी गिरे कभी कूद गए पर सीखेंगे ये जिद न छोड़ी |
कभी न मांगे हमने माँ से, महंगे -महंगे खेल खिलौने ,
अलमस्त बचपन में हम सब ,सखियों संग ,झूला झूले
पढ़ना ,लिखना ,सीना बुनना और पिरोना, पाक कला औ -
अतिथि स्वागत , खेल खेल में पढ़ गये जीवन के ये पाठ सुहाने |
संवेदनाएं जीवनकी ,समरसता में जीना क्या है?
साथ निभाना संकल्पित होना ,बाधाओं में डट कर टिकना ,
खेलों में हमने सीखा ,हार जीत पे संतुलित होना
सबको साथ लेके चलना ,प्रीत प्यार से हिलमिल रहना |
समय घड़ी की रेत रिस रही , समय लगा के पंख उड़ चला ,
पर आज उलट इस समय घड़ी को ,मैं फिर बचपन में घूमी ,
ख़्वाबों के जंगल में बचपन संग , फिर से सारे खेली खेल
बचपन की गलबहियां डाले -अपने -पाले तेरे पाले
कविता के दर्पण में आज हुआ फिर , बचपन से मेल |
अब बचपन पूरा बदल गया है ,बच्चों को तो बैट बॉल चाहिए ,
बैड -मिन्टन ,फुटबॉल ,बेस और बास्केट बाल चाहिए ,
मोबाइल ,और लैपटॉप ,साथ में कम्पयूटर गेम्स चाहियें ,
रफ़्तार यदि सीखनी हो तो ,सायकिल-स्कूटर बाइक चाहिए .
और भागने दौड़ने को ,ट्रेड -मिल या रन फार एनी कॉज चाहिए ,
यह सब मिल जाने पर भी ,अब बचपन उतना शांत नहीं है .
भोला और निष्पाप नहीं है ,सुविधाओं में गुम गया कहीं है
अपने को साबित करने के बोझ तले , गुम गया आज बचपन कहीं पे |
बचपन को फिर से गढ़ना ,संवेदनशील बनाना ,
बचपन को बचपन देना ,भोला और सरल बनाना
खोगया कहीं जो हाई -टेक होकर ,,मोबाइल गेम्स से वापस लाकर ,
प्रकृति से मिलवाना , क्या हो सकता है ये फिर से ?
यक्ष प्रश्न ये पर !
कुछ तो जुगत भिडाना होगा ,बचपन को बचपन से मिलवाना होगा
तब ही शायद लौटेगा सच्चा बचपन भोला बचपन-|||आभा||

टिप्पणी----बचपन के खेल भूले नही जाते ,समय की रेत पे निशां नहीं समुद्र से टकराके चट्टानों पे बने निशानों की भांति पक्के वाले निशांछोड़ जाते हैं ,जरासा पन्ना पलटो जीवंत हो उठती हैं स्मृतियाँ--------



Madan Mohan Thapliyal शैल  
~खेल जिन्दगी के~

बचपन के खेल अद्भुत और निराले,
रो पड़तीं आंखें, जब ससुराल जाती कपड़ों की गुड़िया,
गुड्डा-गुड़िया के खेल में,
छलक पड़ते मधुरस के प्याले--
पुराने खेल अद्भुत और निराले. *****

अकड़ बकड़, लंगड़ी टाँग-- खेल प्यारे,
पसीने से तर-बतर हो गए सारे,
चले मतवाले, भार इक दूजे पे डाले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

आसमां में देखो, बादलों के छौने हैं मन भावन,
रंग-बिरंगी पतंग झूमती, घिर आया है सावन,
कोई खेले कंचे, कोई साफ करे मकड़ी के जाले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

कभी लूडो साँप सीढ़ी, कभी चौसर सज़ा डाली,
मन किया हॉकी का, चीथड़ों से गेंद बना डाली,
खेल के शौक़ीन सारे, चले गले में बाँहें डाले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

टीले पर चढ़ कोई विक्रमादित्य बनता,
ध्यान से हर किसी की फ़रियाद सुनता,
इक ग्वाले का सुन फ़ैसला, हर्ष से गुनगुना ले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

गोमती किनारे शतरंज की बिसात बिछती ,
डरपोक नवाबों की ताकत शतरंज में दिखती,
घर लुटें चिन्ता नहीं, वजीर पहले बचाले,
पुराने खेल अद्भुत और निराले. *****

कर दूं जि़क्र महाभारत का, ज्ञात है सभी को,
जुआ खेलने बुलाया पांडवों में महाबली को,
कर दी धर्मराज ने ताकत जुए के हवाले,
पुराने कुछ खेल नैया डुबोने वाले *****

खेल खेलो तन मन से खेलो,
देश का नाम हो रोशन, ऐसा खेल खेलो,
कबड्डी, पिट्ठू हैं बुद्धि वर्धक ज्ञान बिन्दु सारे,
एकता की दे मिसाल सबको अपना बना ले ****

कभी झुरमुटों की संधि से झाँकते,
लुकाछिपी के खेल में बुद्धि कौशल आँकते,
पोटली में चबेना था जो मां का दिया,
लगायी हाँक साथी को, आ थोड़ा तू भी चबा ले
बचपन के खेल, शैल- अद्भुत और निराले  ******

****
टिप्पणी - खेल चाहे पुराने हों अथवा नए, सभी शारीरिक क्षमता, ज्ञान और भाईचारा बढ़ाते हैं. शारीरिक विकास के लिए खेल ज़रूरी हैं. खेलों को तन मन से खेलना चाहिए. विकृत मानसिकता वाले खेलों का बहिष्कार करना चाहिए.


डॉली अग्रवाल 
~मासूम बचपन~

आहा ! मेरा बचपन सुहाना
कितना मासूम कितना प्यारा
नही भूली बाबुल की वो गालिया
जहाँ आँख मिचौली सा बीता जीवन
छोटी छोटी जरूरते थी
बिना किसी उलझन रोटी बाटी थी
तीली से धनुष बना , सीको से बाण सजाया था ---
हर मोहल्ले में राजा बन मन भरमाया था
हुर्र , कबड्डी ,आइस पाइस
चार आने में सजती थी नुमाईश
विष अमृत में जी जाना
हॉफ हॉफ कर दौड़ लगाना
वो गिली डंडा खेलना
कंचे चुरा कर भागना
सखियो संग गीटे खेलना
हार जाने पर मुँह फुलाना
अगले पल को मान चुनोती
फिर से गेंद आकाश में उछालना
ना पढ़ाई की फिक्र
ना समय की बंदिश थी
हर रात परीयो की कहानी थी
सूखी रोटी से भी पेट भरता था
तलैया के पानी से भी मन भरता था
खो गया कहि वो मेरा मासूम बचपन

टिप्पणी 
आज को देख कर --- अब हवा में वो जहर है की बचपन बेमौत मर रहा है !!




कुसुम शर्मा 
~बदले समय ने खेल भी बदल दिये~
-----------------------

मेरी बिटिया पूछ रही थी
माँ तुम भी बचपन मे
विडियो गेम खेला करती थी
तो नानी क्या ?
तुम को एेसे ही
बार बार टोका करती थी
मैने बड़े प्यार से
अपनी बिटिया को समझाया
पहले ये फ़ोन और विडियो गेम नही थे !
न ही आँखे ख़राब का डर
मै घर पर रहकर
नानी के संग
केरम खेला करती थी
लाल डिब्बी को लेने के लिए
बार बार कोशिश करती थी
हार जाती तो फिर रोती
साँप सीडी ले कर आती
बड़े मज़े का था ये खेल
साँप के काटने से नीचे आते
देख सीडी को चढ़ जाते
सौ अंक का है ये खेल
गोटी रानी ही है मैन
जितने नम्बर आयेंगे
उतनी चाल चलोगे
साँप से बचो
और सीडी से चढ़ो
जो इस गेम मे मज़ा
विडियो गेम मे कहाँ

बड़े प्यार से फिर उसने पूछा
क्या माँ
गरमी की छुट्टियों मे
तुम दिन भर घर पर रहती थी
या तुम भी बाहर घूमने जाती थी
मै बोली
जब हम छोटे थे रानी
हम शाम को बाहर जाते थे
अपने दोस्तों के साथ मिलकर
दो टीमों मे बट जाते थे
कभी छुपन-छुपाई या
पिट्ठू खेला करते थे
बड़ा मज़ा आता था इनमें
मन भर जाये तो फिर
आँख मिचौली ,लग्डी टाँग ,
खो-खो खेला करते थे
बड़े मज़े के थे वो दिन
लेकिन अब वो दिन नही है
जो पहले हुआ करते थे

बदलते समय ने
सब कुछ बदल दिया
माहौल और खेल बदल दिया
अब न बच्चे गलियों मे आकर
शोर मचाते है
न ही खेल जमाते है
सारे दिन भर बस
फ़ोनों या कम्प्यूटर पर चिपके रहते है
बहार के नाम पर गलियों मे घूमा करते है
पहले की बात कुछ ओर थी रानी
अब सब कुछ बदल गया
सोच बदली विचार बदले
रहने का ढंग और संग बदल गया

किसी के पास समय नही !
पहले का प्यार और प्रेम नही !!

टिप्पणी :- जो खेल पहले हुआ करते थे वो अब धीरे धीरे समाप्त हो रहे है ! दौड़ती भागती इस दुनिया मे ,किसी के पास समय नही ,बच्चे छोटे से ही फ़ोन और कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे है जो अच्छा भी है तो बुरा भी वह किसी के साथ न खेल कर दिन भर फ़ोन और कम्प्यूटर पर खेलते रहते है जो उनकी आँखो के लिए अच्छी बात नही एक जगह बैठ बैठ के आलसी हो गये है उनके शरीर मे फुर्ती और शक्ति नही



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~बीता बचपन~


समय का चक्र
ऐसा घूमा
खो गए सारे
बचपन के खेल
न वक्त रहा
न रहा वो मेल

सुन कर जब
संगी साथियो की टेर
तब निकल पड़ते
झट से न लगती देर
मौसम की
न होती किसी को परवाह
बारी मिले
बस इतनी केवल होती थी चाह
मिट्टी से थी तब दोस्ती
न दिन का होश न खबर

कहाँ भूले है हम
अक्कड़ -बक्कड़ बम्बे बो...
पौसम्म पा भई पौस्म्म पा....
कोडा जमालशाही पीछे देखे मार खाई...
हर समन्दर गोपी चन्दर ...
हर खेल में थे प्रकृति से जुड़े बाते
न जाने
कहाँ गम हुई वो यादें वो बाते

छुपम छुपाई
का खेल था आइस पाइस
कबड्डी खो खो
से होती थी एक्सरसाइज़
लट्टू, गुल्ली डंडा, पिट्ठू
थे सच में बचपन के अभिप्राय
कंचो से भरी जेब
आधे खरीदे आधे जीते
गिन कर सोते उठ कर फिर गिनते
अपनी अमीरी का अहसास होता
विष अमृत कहते कहते
अपनों को हर बार जीवन देते
गुलेल का साध निशाना
अमरुद और आम गिराना
जिसका बल्ला उसके बैटिंग
अपने नियम अपनी सैटिंग

अब न गलियों में वो शोर है
पार्क में नहीं, घरो में बंद बच्चे
टीवी और वीडियो गेम
कम्प्युटर या इन्टरनेट
बस यही वक्त ने दिया है ....


टिप्पणी: वक्त ने अपनी मिट्टी से बचपन को अलग कर दिया है जो अधिकतर कैद से हुए  है घर में ...


प्रभा मित्तल 
~~बचपन के दिन ~~
~~~~~~~~~~~~~~~

बचपन की तो थी बात निराली,
जैसे हर दिन होली,रात दिवाली।
सखियों संग बैठ खूब गिट्टे खेले,
सब समय लगते थे खेलों के मेले।

कुल्हड़ तोड़ा खूब पिट्ठू गरम बनाए,
टूटी मंजिल जो जोड़े, उस पर धाए।
खेलें आँख-मिचौली, छुपम-छुपाई,
खोजते-खोजते चोर की शामत आई।

चिड़ियाँ-तोते उड़ाते-उड़ाते
चूहे-बिल्ली भी उड़ जाते थे।
हँसते-हँसते दोहरे होकर हम
खेल से ही निकाले जाते थे।

हम जब घर पर पढ़ने बैठते ,
मेज पर रखते रेत का टाईमर।
रेत गिरने से पहले ही दिखा देते,
जल्दी-जल्दी प्रश्नों को हल कर।

घमंड नहीं था किसी बात का,
दुःख भी सुख सा लगता था।
नाराज़ बड़ों को मनवाने में,
बस प्यार ही काफी होता था।

गर्मियों की दोपहर बाग में,
घने पेड़ों पर झूला झूलते थे।
आम चुराने जाते जब हम,
माली दौड़-दौड़ पीछे आते थे।

अपना पहिया देकर, भइया
मेरी नई गाड़ी खेलने ले जाता था।
छोटी थी मैं पर 'मेरी बड़ी बहन है'
कहकर, खूब काम करवाता था।

जाने क्या था उसके शब्दों में
उस पर मैं फूली नहीं समाती थी।
मूढ़मति ही ठहरी, जो घंटों बैठी,
उसका होमवर्क भी निपटाती थी।

पिता भी हम बच्चों के संग,
हमारे बाल सखा बन जाते थे।
तकिेए में रख कागज के नोट,
डाक व बैंक का काम सिखाते थे।

बीत गए वो बचपन के दिन,
अब तो सब सपना लगता है।
बच्चे भी अब कहाँ गए सब,
गली-मौहल्ला सूना दिखता है।

सारे खेल सिकुड़कर रह गए,
फोन,टी.वी.और कम्प्यूटर में।
बच्चों का बचपन छीज रहा,
इस महानगर के ऊँचे घर में।

प्रगति कभी बुरी नहीं होती,
हर हाल में अति बुरी होती है।
खेल-कूद कर पूरी करें नींद, तो-
बच्चों की सेहत भी अच्छी होती है।

बच्चे मिलकर करें धमा-चौकड़ी
गर बड़े भी साथ बच्चे बन जाएँ
प्यार से रहें सब मिल-जुलकर
बच्चे अपना बचपन जी जाएँ।


टिप्पणी :
(आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ एक ओर प्रगति हुई है ,वहीं दूसरी ओर बच्चों का बाल मन तमाम प्रतियोगिताओं से बँधकर रह गया है..उन्हें ज़रूरत है..स्वतंत्रता की..स्वच्छंदता  की..ताकि उनके व्यक्तित्व का चहुँ ओर सम्पूर्ण विकास हो सके।)



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Sunday, July 3, 2016

तकब खुला मंच #2



तकब खुला मंच #2
समूह का यह दूसरा खुला मंच है. माह के अंतिम सप्ताह में प्रतियोगिता नही होगी. यह एक खुला मंच होगा चर्चा, परिचर्चा, समीक्षा हेतु. इस खुले मंच में हम एक युवा प्रतिभावान रचनाकार को आमंत्रित करेंगे. उनकी कविता के साथ एक चित्र प्रस्तुत करेंगे [ चित्र हम प्रस्तुत करेंगे उनकी रचना पर]. परिचर्चा के दौरान वे ही आपकी रचनाओं की समीक्षा करेंगे - एडमिन किरण प्रतिबिम्ब
इस बार हम आमंत्रित कर रहे है होनहार, युवा, समाजसेवी, साहित्य प्रेमी एवं“काका साहब कालेलकर पुरस्कार 2015” से सम्मानित प्रिय Lal Bahadur Pushkar Meerapore जी को. एम फिल के पश्चात इस वक्त वे जेएनयू से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध में अपनी पीएचडी कर रहे है. अभी वे आई ए एस चुने गए है। इस परिवार की ओर से उन्हें हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएं। आशा है वे हिन्दी प्रेम के इस यज्ञ में अपना समय दे पायेंगे.
1. इस बार आप को दिए गए चित्र पर अपने भाव कम से कम दस पंक्तियों में लिखने है शीर्षक के साथ [ मीरापोर जी की रचना केवल उनकी एक रचना के रूप में है उसे आधार न माना जाए अपनी रचना के लिए]
2. ब्लॉग में प्रकाशित होने के बाद ही अपनी रचनाये अपनी दीवार पर चस्पा करे
3. 1 जुलाई २०१६ तक इस चित्र पर आप अपनी रचना लिख सकते है.
उनकी रचना
तुम्हारे सम्भ्रांत बनने की जिद ने 
अक्सर उसूलों से समझौता करना सिखाया 
अपने कुटिल चालों से 
तुम खेलते रहे खेल बराबर
सब कुछ अच्छा कर देने का वादा करके
तुम बनते रहे निर्दयी और प्रमादी
लोगों के दुःख दर्द को अनदेखा करके
तुम्हारा सहृदय बनना
कोई वैधानिक मजबूरी नहीं
तुम्हारे अपने चयन ने किया है 
खुद का एक एजेंडा तैयार
जिसके लिए तुम जी तोड़ मेहनत करते हो 
उस टेंडर को पाने के लिए 
जिसकी निविदा निकलती है हर पाँचवें बरस
तुम्हारी आस्था बदलती रहती है 
पुराने कपड़े की तरह 
और बनाते रहते हो समीकरण हर पैमाने पर 
जिसमे जाति, धर्म, क्षेत्र आदि की प्रबलता हो 
तुम्हारे राजनीति की नियति 
तुम्हें निर्दयी बनाती है कि
मत ध्यान दो उनके दुःख दर्द पर
जिनकी आस्था तुम्हारे इर्द-गिर्द ही ठहरती है
क्योंकि तुम्हारा ध्यान देना साबित हो सकता है घातक
गर उन्हें ये समझ में आये कि
तुम्हारा गरीब प्रेम महज़ एक छलावा है 
यदि उन्हें राजनीति की दोगली परिभाषा की
समझ विकसित हुयी कि
तुम निकाल फेंक दिए जाओगे उनके दिलों से

प्रिय मित्र Lal Bahadur Pushkar Meerapore जी... आपने टिप्पणियों के माध्यम से बहुत सी जानकारी इस पटल पर रखी जो इतिहास और राजनीति पर आपकी पकड़ को दर्शाता है. साहित्य में, सामाजिक क्षेत्र में, प्रतिभा में आप एक महत्वपूर्ण स्थान रखते है. और नाम के अनुसार आपने उसका परिचय दिया है. आपने समय दिया हमारे इस प्रयास में, उसकेलिए आपका हार्दिक धन्यवाद तथा आपके लिए हमारे इस परिवार की ओर से प्रेमसहित असीम शुभकामनाएं.

नैनी ग्रोवर
~ नारा ~

लगाते हो नारा,
गरीबी हटाओ,
साफ़ क्यूँ नही कहते,
गरीबों को मिटाओ..
बेच देते हो,
भारत की तुम,
मिट्टी, हवा तक,
गद्दार हैं भरे,
पूरब से, पश्चिम तक,
पाने को कुर्सी,
कहते हो गरीबी हटाओ..
साफ़ क्यों नही कहते,
गरीबों को मिटाओ..
अब किसकी सुने कोई,
कौन किससे कहे,
ना गांधी जी रहे अब,
ना नेहरू जी रहे,
रही तमन्ना जिनकी,
गरीबी हटाओ,
तुम,
साफ़ क्यूँ नही कहते,
गरीबों को मिटाओ...!!





Prerna Mittal 
~जरा सोचिये ~

सबको एक ही लाठी से हाँका जा नहीं सकता ।
हर कोई गांधी या शास्त्री हो नहीं सकता ।
अगर होते भ्रष्ट सभी
तो देश का बेड़ा गर्क हो गया होता ।
आज आम आदमी का जीना
दूभर हो गया होता ।

हैं कुछ, जो जोड़ते हाथ
बाद में पुरज़ोर आँखें दिखाते हैं ।
कुछ करना चाहते जनता के लिए कार्य
पर हा! सिस्टम की मार खाते हैं ।
अगर होते भ्रष्ट सभी
तो देश का बेड़ा गर्क हो गया होता...

सभी बुरों से जगत का कारोबार नहीं चलता
बात बस इतनी है, अच्छों की कोई बात नहीं करता।
सबको चाहिए कुछ चटपटा, कुछ वाद - विवाद
जिससे लगा सकें कुछ नमक- मिर्च और करें प्रतिवाद
अगर होते भ्रष्ट सभी
तो देश का बेड़ा गर्क हो गया होता....

सोचो ज़रा भ्रष्ट को भ्रष्ट बनाने वाला कौन है ?
उनके झूठे वादों पर अंधा बन भरोसा करने वाला कौन है ?
वोट के लिए घूस देने और लेने वाला कौन है?
हम सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नहीं, तो कौन हैं ?
अगर होते भ्रष्ट सभी
तो देश का बेड़ा गर्क हो गया होता....

बड़ा ही आसान है उँगली उठाना
मुश्किल है, तो वो है, विकल्प बताना ।
ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती,
दूध में धुलकर कभी अदालत नहीं सजती ।
अगर होते भ्रष्ट सभी
तो देश का बेड़ा गर्क हो गया होता.....

आज भी विश्व में भारत का दबदबा है ।
अर्थात् कहीं किसी का ज़मीर अब भी खड़ा है ।





गोपेश दशोरा
~बापू की रो रही आत्मा!~


स्वर्ग में मच गई खलबली, सुन यम का आदेश।
जा सकता है कोई भी, अपने-अपने देश।
एक दिवस का टूर ये होगा, जाओ अपनों के पास।
कैसा था? क्या छोड़ आए? और कितना हुआ विकास?
ना कोई तुमको देखेगा, ना ही तुम कुछ कह पाओगे।
एक दिवस पर्यन्त सभी, लौट पुनः तुम आओगे।
बापू का मन हरषाया, भीगे उनके नैन,
मेरा भारत कैसा होगा? हृदय हुआ बैचेन।
बापू आए धरती पर, लेकर मन में आस।
देखा जो हाल यहां का तो, टूट गया विश्वास।
भाई-भाई का दुश्मन था, ना कहीं बचा था नेह।
आत्मा सबकी मर चुकी, बस घूम रही थी देह।
सफेद पोश नेताओं की, जब देखी तिरछी चाल।
आँखों में अश्रु भर आए, और बुरा हो गया हाल।
भूखमरी, चोरी, हत्या का चहुँओर बस नाम सुना,
फिर भी हर व्यक्ति के मुख पर, मेरा भारत महान सुना।
इतनी हिंसा, इतना आतंक, कभी ना पहले देखा था।
टूट गया उन वीरों का, जो सपना सबने देखा था।
तस्वीर लगा दीवारों पर, बस फूल चढ़ाए जाते हैं।
मेनें जो भी कुछ बोला था, वो सब बिसराए जाते हैं।
हरा-भरा भारत मेरा, वीरान नजर अब आता है।
भारतवासी बचे कहां, हिन्दु-मुसलमान नजर अब आता है।
बापू की रो रही आत्मा, देख ये अजब कहानी,
मन ही मन वो सोच रहे, हाय! व्यर्थ गयी कुरबानी।



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~बापू खुश हो ?~


फोटो में
बापू तुम खुश नज़र आते हो
नोटों में
बापू आज भी तुम ही छाये हो
देख राजनीति
आजकल तुम क्या सोच रहे हो
अंदर से
क्या बापू तुम रो तो नही रहे हो

यहाँ राजनीति
महज खिलौना बन कर रह गई
चाटुकारिता अब
नेता बनने की पहचान रह गई
राजनीति अब
पांच साल में सिमट कर रह गई
कीचड़ उछालना
अब नेतागिरी का आधार हो गई
देश भक्ति
अब, एक सोच की जागीर हो गई
देश हित
कहाँ, अब पार्टी हित की बात हो गई
भ्रष्ट तंत्र
अमीरी गरीबी की खाई चौड़ी हो गई
संसद अब
विचार नही जंग का मैदान हो गई

सच कहना
अन्दर से बापू तुम रो तो नहीं रहे ?



किरण आर्य 
~राजनीति~

आज नेता बने
अभिनेता और
अभिनेता अपने
बन गए नेता
दुनिया के रंगमंच पर
सबकी हिस्सेदारी
है अपना पार्ट

नाम बेच
सबको आगे जाना है
स्वार्थ की रोटियां
सेंकना और खाना है
साम दाम दंड भेद
नीतियों को आजमाना है
करके कुछ भी भैया
डंका अपना
बजाना है

गांधी के आदर्श
तस्वीर,
किताबो तक रह गए
नोट में छपे गांधी
हाय अब बिकने लगे
गाँधी गांधी करके
उल्लू अपना सीधा कर जाना है
पांच साल की नौकरी में
पचास साल का कमाना है

राजनीति महज
अब नेताओ का
बन गया गोरख धंधा है
ऊपर से साफ़ दिखता
अंदर से सब
गंदा ही गंदा है
सफेद कपड़ों में
काले काम सब कर जाना है
राजनीति को हांजी हाँ
व्यवसाय अब बनाना है ..................




Madan Mohan Thapliyal
~रिवाज ~

जब तक जिन्दा है,
परहेज में जीता है आदमी ,
कोई भी गुनगुना ले,
भला,बुरा गीत है आदमी.
ए देश की रीति है,
या है कोई रिवाज,जाति धर्म,
मजहब में,
उलझकर रह गया है आदमी.
चाटुकारों ने अपनी चाटुकारिता के,
खंबे गाड़ लिए हैं हर तरफ,
उन्हीं खंबों का ले सहारा,
बैनर बन लटक गया है आदमी.
जब तक रहे मुंह फेर कर रहे,
अनगिनत घाव देश को दिए,
आज वही लोग हैं पैरवी पर,
अपने ही जनाजे में शरीक है आदमी.
सफेद पोशाक को छोड़ किसी के,
दाग हैं हर तरफ,
किसका देश,कौन प्रजा,
साहूकारों की मंडी का
सौदा बन गया है आदमी.
हाथ जोड़ कर रहे हैं विनती,
गांधी को कर दरकिनार,
कई बार राजघाट हो के आए,
गांधी से आज भी अनजान है आदमी.
एक ही विनय है सबसे,
मत खड़े हों बाजार में
अपनी बोली लगाने के लिए,
इस रिवाज को छोड़ दो 'शैल',
देश चाहता है देखना तुम्हें आदमी..........




Ajai Agarwal 
 '' बापू से निवेदन ''
======================
हम सबके थे प्यारे बापू
कठिन साधना के प्रतीक थे
ग्रामात्मा वो ग्रामप्राण थे
लाठी जिनका आलम्बन थी
अहिंसा हथियार थी
गली चौराहे मूरत उसकी
आज भी करिश्माई नजर आती है
बापू --
नोटों में तुम ,मूरत में तुम
नेता के भाषण में हो तुम
कठिन साधना के , तुम ! प्रतीक थे
आज ; नेता होने का, पर्याय हो
जिस छोटे भाई की सनक को
बापू तूने मान दिया ,
उसकी सनक की खातिर
भारत माँ को कुर्बान किया ,
टुकड़े जिसने माँ के करवाए
आज वो तेरा लाडला बच्चा -
अहिंसा को भूल भाल के
हिंसाओं की राह चला .
लोकतंत्र की चौपड़ में
भाँती -भांति के खद्दरधारी
चलते फिरते ब्रैंडेड गांधी
मत दो मत दो ,हाथ जोड़ के
मत जनता से लेते हैं
चकाचक धोती की लीरें
भांति -भांति की टोपी ले घूमें
स्वयं भी पहनें ,जनता को पहनाएं
टोपी पहने पेट फुलाये
कुछ नेता बरगद बन जाते
बाकी कुछ पिछलग्गू होते
जैनरिक खेती की भाँती
काम देश के कभी न आते
स्वयं को देखें ,स्वयं ही खाएं
जात-पांत और मजहब खेलें
जनता को भी ये बहकाएं
बापू मुझको तो लगता है
स्वातन्त्र्य की बरखा में
भारत भूमी की माटी में
नेता के कुछ बीज थे बिखरे
राष्ट्रप्रेम वाले ,सब काने निकले
गाँव-गाँव अर गली शहर की
क्यारियों में जो हुई रुपाई
भ्रष्टाचारियों ,लुटेरों की
फसल हर जगह उग आई .
नेता जनता का रिश्ता अब
खुले नाले सा बदरंग हो गया
क्यूँ लाचारी है ? इस रिश्ते को ढोने की !
जनता भ्रमित ,समझ न पाए
बापू तेरा चरखा ,तेरी तकली
म्यूजियम की शान बढ़ाती
मेरे बच्चे उसे देख कर
हाथ जोड़ते ,बस नमन हैं करते
आज देश को आस तुम्हारी
एक बार फिर आ जाना
अपने संग -संग बापू तुम
आजाद -भगतसिंग को भी लाना
तुम्हें मिलें यदि ,अर्जुन भीम
उनको भी संग लेते आना --
मुहं में राम बगल में छुरी
ऐसे नेताओं से ,देश को मुक्त करना है ,
कटती हुई गाय बकरी को भी
उसका हक दिलवाना है





कुसुम शर्मा 
जनता को ठगना इनका काम
फिर कहते ये भारत महान
---------------------

हमारे नेताओं की बात निराली
सर पर टोपी चाल मतवाली
कुर्सी की है इन्हें बिमारी
कोई नही है इनकी साली

मीठी मीठी बाते करते
हर दम जनता को ये ठगते
झूठे वादों का आश्वासन देकर
बोटो का पिटारा भरते

झूट कपट और बेमानी
इनकी यही है कहानी
गांधी जी के बन्दर तीन
आज बजा रहे वो बीन

नही बची है इमानदारी
घोटालों की इन्हें बिमारी
देश से करते ग़द्दारी
शान से ज़्यादा जान है प्यारी

गांधी जी की याद है प्यारी
नोट के अन्दर तस्वीर है भारी
कांग्रेस थी इनको प्यारी
वीजेपी अब कांग्रेस पर भारी !!

भाई को भाई से लड़वाते
धर्म जाती का भेद बताते
भ्रष्टाचार का ये है पिटारा
हिन्दू मुस्लिम इनका नारा

आरक्षण इनका हथियार
जात पात है इनकी मार
जनता को इनमें उलझाते
हर दम रोटी सेक के खाते

नेताओं का यही है काम
जनता को ठगना इनका काम
जब तक जनता सोयेगी
ऐसे ही वो रोयेगी
जाग गई तो नेता पे भारी
तभी ख़त्म होगी ये बिमारी !!





प्रभा मित्तल
~~ बापू क्या देख रहे हो ! ~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

बापू क्या देख - देख मुस्काते हो
या यह सोच मन ही मन हर्षाते हो? -
"आज भी जग में है तुम्हारा नाम,
इसीलिए तो है मेरा देश महान।"

जिस सत्य अंहिसा के बल पर
तुमने था देश आज़ाद कराया
सादा जीवन और उच्च आदर्श
अपनाकर परहित का पाठ पढ़ाया,
ख़ुद अपने तन पे लँगोटी पहनी
और निर्धन का तन ढकवाया।

अब नहीं रहा कुछ ऐसा, बापू !
यहाँ जो तुम छोड़ गए थे।
अंग्रेजों से मुक्ति दिलाकर
ग़ुलामी की जंजीरें तोड़ गए थे।

अब तो नोट-वोट की माया है
इन सफेदपोश नेताओं ने
बस्ती-बस्ती हाथ जोड़कर
ग़रीब का मन भरमाया है

हलवा -पूरी और नोट बाँटकर
अपना ईमान बेच खाया है।
सत्ता के गलियारों पर भी
अपना ही हक जमाया है।

ग़रीबी हटाओ का नारा लगाकर
"ग़रीब हटाओ" सा काम हुआ है
भोली जनता का खून चूस
पूँजीपति मालामाल हुआ है।

ये कैसी मुस्कान है बापू तुम
नोटों पर भी मुस्काते हो।
जमाखोरी और घोटालों के
हर रुपए में पाए जाते हो।
रिश्वत ऐसी विधा बनी है
वहाँ भी काम में आते हो।

देश की आज़ादी से लेकर
हर जगह ही तुमको कैश किया।
कूटनीति की कुत्सित चालों से
इन सेठों और नेताओं ने
तुम्हारे सपनों के भारत को
भ्रष्ट राष्ट्र में बदल दिया।
जनसेवा का झूठा वादा करके
राजनीति को बदनाम किया।

गर तुम सा कोई आ जाए,
तो अब भी देश सँभल जाए....
ऐसी बात नहीं है बापू!
कुछ निष्कपट दिलों में बसे
अब भी गाँधी पाए जाते हैं ।
राजघाट में नित समाधि पर
अाज भी फूल चढ़ाए जाते हैं।



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