#तकब९ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #9]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है
१. दिए गए चित्र पर कम से कम १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है].
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है.
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए.
४. प्रतियोगिता २३ जुलाई २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
निर्णायक मंडल के लिए :
1. अब एडमिन प्रतियोगिता से बाहर है, वे रचनाये लिख सकते है. लेकिन उन्हें चयन हेतु न शामिल किया जाए.
2. कृपया अशुद्धियों को नज़र अंदाज न किया जाए.
इस बार विजेता रही "सुश्री प्रेरणा मित्तल जी" - बधाई एवं शुभकामनाएं
अलका गुप्ता
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~~~जीवन चक्र~~~
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था पड़ा फर्श पर
उठा प्रयास कर
हुआ फिर..अग्रसर
खड़ा हुआ...तन कर
कर्म...अधीन हो
झुकने लगा सर
हो कर जर-जर
गिर गया वह सर
फिर धरा पर...
बना राख..और..
जल कर ...
माटी का था
माटी में मिला
वह त्रिण सा
तन का..तिनका
चोला वह आत्मा का
आत्मा अजर अविनाशी |
रहेगा..घूमता
पुनः पुनः ..इस ..
सृष्टि में ...
चक्र सा वह...
घूम कर ||
टिप्पणी: जीवन चक्र..का वर्णन समझा रही हैं चित्र की तीलियाँ उसी परआधारित मेरी यह पंक्तियाँ लिखने का प्रयास रहा है |
Kiran Srivastava
"जीवन चरण"
===================
धरती पर मानव आता है
अक्षम अपनें को पाता है,
कोशिश करके धीरे-धीरे
फिर घुटनों पर चल पाताहै ,
और जीवन चलता जाता है...।
फिर बारी चलने की आती
हर कदम सहारे की पड़ती,
गिर-गिर कर फिर जीवन में
वो सम्भलना सीख जाता है,
और जीवन चलता जाता है...।
अब बारी दौड़ लगानें की
शिक्षा संस्कार अपनानें की,
पढ़लिख कर जीवन में फिर
वो अपने मुकाम को पाता है,
और जीवन चलता जाता है....।
कमर तोड़ मेहनत करके
फिर मानव थकता जाता है,
लड़ते लड़ते वह जीवन से
अपना हर फर्ज निभाता है,
और जीवन चलता जाता है...।
जीवन का अंतिम पड़ाव
जर-जर शरीर कांपता पांव,
मिट्टी से बना शरीर एक दिन
पंचतत्व विलीन हो जाता है,
और जीवन चलता जाता है...।
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टिप्पणी- जन्म के बाद मनुष्य विभिन्न अवस्थाओं को पार करते हुए पुन:मृत्यु को प्राप्त करता है। चित्र में तीलियों के माध्यम से भी यही दर्शाया गया है।यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।
गोपेश दशोरा
~अमूल्य जीवन~
मानव जीवन तूने पाया,
पाकर भी तू क्या कर पाया?
जन्म लिया और बड़ा हुआ,
अपने पैरा पर खड़ा हुआ,
चला गया एक रोज बस,
औरों के कन्धे चढ़ा हुआ।
इस जीवन का क्या मतलब है,
तू समझ नहीं पाया इसको,
किसकी खातिर तू जिया यहाँ
क्यूं याद करे कोई तुझको।
अपनों के लिए सब जीते है,
सपनों के लिए सब जीते है,
औरों के लिए जो जीते है,
जीवन को वो ही जीते है।
कुछ कर्म यहां तू कर ऐसा,
मानव जीवन बदनाम ना हो,
आए, भोगे और चले गये,
पशु तुल्य सा काम ना हो।
यह तिनके सा मानव जीवन,
एक दिन ऐसे ढह जाएगा,
जिस पर तुझको अभिमान बहुत,
सब यहीं धरा रह जाएगा।
ऐ मनुज! जीवन बस इतना है,
हर चीज पे तू अधिकार ना कर
एक तीली कर देगी राख तुझे,
इस देह पे तू अभिमान ना कर।
टिप्पणीः जन्म से मृत्यु तक का सफर इन तीलियों में नजर आता है। पर क्या यह सफर ही जीवन की सच्चाई है? क्या इसीलिए विधाता ने हमें धरती पर भेजा है? इन्हीं भावों को शब्दों का रूप दिया है।
नैनी ग्रोवर
~जीवन का सार~
सारे जीवन सार,
इक ही तस्वीर में कह गए,
थरथरा उठी कलम,
और हम भौंचके रह गए...
जन्म से मरण तक,
घूमा समय का पहिया,
जैसे आए, वैसे गए,
किया कुछ भी नही भैया,
लूटते रहे एक दूजे को,
यूँ बनके उच्चके रह गए..
कुछ ऐसे फंसे माया में,
के ठगनी ने ठग लिया,
बेच दी उसको अच्छाइयां,
और झूठा जग लिया,
कर्मों की दुकानदारी में,
हम तो बड़े कच्चे रह गए..
याद आया कभी मोक्ष तो,
भागे आश्रमों में,
बन्द कर आँखे, ज्ञान पाने,
इंसान के कदमों में,
बहल गये, जिसने बहलाया,
बस बनके बच्चे रह गए...
थरथरा उठी कलम,
और हम भौंचके रह गये..!!
टिप्पणी;, जन्म से मृत्यु तक का सफर सब जानते ही हैं परंतु आखिरी तीली ( अंजाम ) देख कर दिल फिर भी काँप जाता है, और जीवन भर कर किये कर्म याद आने लगते हैं ।
बालकृष्ण डी ध्यानी
~बस राख हो जाना और कुछ नहीं~
बस राख हो जाना और कुछ नहीं
जीवन है बस ये (और कुछ नहीं) ..... ३
किस का बस चला है
कौन यंहा पर रहा है
चलते हैं मिटने को सब
एक के बाद एक (ये सब को पता है) ..... २
लड़ते हैं फिर भी सब हैं झगड़ते
ना जाने किस बात पर सब क्यूं अकड़ते
ना जाने क्या खोया है यंहा पर क्या है खोजते
अब तक ना इस को ( कोई समझा है) ... २
जीवन चक्र है ये बस चलता रहा
रुकने का मतलब बस यंहा पर अलविदा है
कहानी है बस ये सबको सुनानी
आती जाती है ये बस (साँसों की रवानगी ) .... २
बस राख हो जाना और कुछ नहीं। ...........
टिप्पणी : जीवन के भेद को अब तक ना कोई समझ पाया है ना जान पाया है फिर भी लगे रहते ना जाने किस के लिये और क्यों सब के सब
Prerna Mittal
~आवर्तन~
प्रभात से रात तक की यात्रा के विभिन्न चरण ।
देते जीवन की अवस्थाओं का विस्तृत विवरण ।
रात्रि के अंक से भोर की तरह जन्म लेता है लाल
लालिमा देखकर, माँ उसकी हो जाती है निहाल ।
घर भर में उसकी किलकारियाँ ऐसे गूँजती
प्रातः कलरव करती हों, चिड़ियाँ जैसे कूकतीं ।
उषा जिस तरह समाँ गई सुबह के पसरे आँचल में
बालक बढ़ रहा, घुटलियों चलता, रेंगता आँगन में ।
सवेरे ने करवाया स्फूर्ति व ताज़गी का अहसास
मासूम अठखेलियाँ उसकी, हृदय में भरती मिठास ।
आकाशचोटी पर अब सूर्य है चमक रहा
किशोरवय बालक का चेहरा है दमक रहा ।
रवि की सतरंगी रश्मियाँ जैसे ख़ुशी से झूम रहीं
नई आकांक्षाएँ, उमंगे उसके मन में भी झूल रहीं ।
दोपहर की कड़ी धूप है चारों दिशाओं में फैली,
अब दायित्वों से परिपूर्ण है उसकी भारी झोली ।
उष्णता के आवेश से जग है समस्त जल रहा ।
संघर्षों के बीच में से है पथ उसका निकल रहा ।
इस सुहावनी शाम की चहल-पहल में एक अजीब सी शांति है ।
खट्टे-मीठे अनुभवों की सौग़ात, परिपक्वता की कांति है ।
संध्या पहरा देती चौखट पर, लेकिन प्रविष्टि की चाहत में अंधकार है मँडरा रहा ।
पल-पल झुकती कमर के साथ हर पाप-पुण्य का लेखा-जोखा है याद आ रहा ।
निशा की धुँध चहुँओर, पसरी हुई है नीरवता।
चिरनिद्रा द्वारा, सांसारिक बंधनों से स्वच्छंदता
आरंभ ही दबी ज़ुबान में, अंजाम तय कर देता है ।
सुनता है हर शख़्स पर समझने से इंकार करता है ।
टिप्पणी : रात और दिन के चक्र से जीवन चक्र की समानता बताने की कोशिश की है । जिस तरह हर रात की सुबह निश्चित है और सुबह का अंत भी तय है । उसी प्रकार जन्म के बाद मृत्यु और फिर पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है ।
डॉली अग्रवाल
~मन कस्तूरी~
तृष्णाओं की इस नगरी में
जिसका ओर ना कोई छोर
उम्र की चौखट पे
गिर के उठा , उठ के गिरा
ये तेरा --- ये मेरा
दुनिया दो दिन का रैन बसेरा
मिट्टी का तन था
सोने का मन था
मिट्टी में मिलता गया
फिर हाथ मलता तू रह गया
मुठ्ठी बांधे आया जग में
हाथ पसारे चल दिया
तेरे मेरे के खेल में
खुद को गवा कर चल दिया !!
टिपणी --- मिट्टी की काया फिर भी इंसान भरमाया
कुसुम शर्मा
~नफ़रत~
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कपट वो करता रहा
इर्ष्या की अग्न मे जलता रहा
बन कर अपना
अपनो को छलता रहा
नफ़रत का बारूद
हर किसी को वो
छल से देता रहा
जता कर झूठा प्रेम
प्रेम को छलता रहा
भर दिया उसने
एक दूसरे के
मन मे बैर
सुलगा कर
नफरत की तिल्ली
तमाशा वो देखने लगा
भस्म करके भाई चारा
कपट मुस्कान भरने लगा
जला कर घर प्रेम का
नफ़रत का बोया बीज
धर्म और जाति की
खींच दी लकीर !
क्या मिला उसको
जो उसने किया
जला कर
एक माचिस की तिल्ली
भस्म घर प्रेम का किया !!
टिप्पणी :- नफरत की आग लगा कर धर्म और जाति के ठेकेदार अपने स्वार्थ की सिद्धी करते है लोगो के मन मे एक दूसरे के प्रति भेदभाव भर कर अपना उल्लू सीधा करते है लोग इनके चक्कर मे आ कर एक दूसरे से लड़ने लगते है नफरत रूपी माचिस की तिल्ली सब कुछ जला कर राख कर देती है और ये अपने कार्य मे सफल हो जाते है !!
Madan Mohan Thapliyal शैल
~मैं ( मानव )~
ए मैं ही तो हूँ -
ए मेरे ही अलग - अलग रूप हैं -
पंचतत्वों से निर्मित -
शैशव से जरा तक, यों कहूँ जन्म से मृत्यु तक-
जिन्दगी को हथेली पर लेकर घूम रहा हूँ -
एक जलते दिए की तरह-
जो कभी फड़फड़ाता है -
कभी अँधेरे को चीरता है -
कभी हौसला और हिम्मत बढ़ाता है -
उम्र बढ़ रही है, तेल सूख रहा है -
मैं अपने में ही खोया हूँ, भविष्य से अंजान -
शैशव - हर सुख का भंडार -
बालपन - अंतर्ज्ञान से भ्रमित -
युवा - भौतिक सुखों की चाह -
प्रौढ़ माया का पुतला, अंधी दौड़ -
जोड़ - तोड़ में, सर्वस्व न्योछावर -
सत्य से बे खबर -
यहाँ सब कुछ उधार का है -
चुकता तो करना ही पड़ेगा -
खाली हाथ आया था, खाली हाथ जाना पड़ेगा -
सूरज अस्ताचल की ओर गतिमान -
सारे सुख वैभव आँखों से ओझल -
सब तिरोहित , यहां तक कि रिश्ते नाते भी -
जब झुकना था, झुका नहीं, रुकना था रुका नहीं -
समय बलवान है -
उसके आगे कहाँ किसकी चलती है -
झुकना ही पड़ा, मर्जी से नहीं, अपने कर्म से -
इन्द्रियों ने खुद को समेट लिया -
सब कुछ घट रहा है, घिसटना जारी है -
बचपन में भी घुटनों के बल घिसटता था -
तब और आज में बड़ा अन्तर है -
तब ऊपर उठने की चाह थी -
अब ऊपर जाने की -
ए शोर कैसा -
शरीर धीरे - धीरे शिथिल हो रहा है -
भास्कर भी अपने तेज को समेट रहा है -
सब निश्चल खड़े हैं -
माया मोह सब शांत -
धर्म, तीर्थ, श्री, ऐश्वर्य ,जाति, रुतबा -
सब शरीर का साथ छोड़ रहे हैं -
सब यहीं रह जाएगा -
ज्ञान का उदय और अस्त एक साथ -
मैं किंकर्तव्य- विमूढ़ -
शायद बुलावा आ गया -
सब चलेंगे श्मशान तक -
आगे का रास्ता 'आत्मा' को तय करना है -
एक हिचकी और सब खत्म -
देह पंचतत्व में विलीन -
शेष यादें ---
अलविदा .
नोट - समस्त जीवों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो चैतन्य होकर काफी हद तक जीवन की परिभाषा से परिचित है लेकिन माया से वशीभूत वह अपने कल से अपरिचित हो जाता है, फलस्वरूप वह अपने कर्तव्य का निर्वाह ठीक से नहीं कर पाता. मृत्यु शाश्वत सत्य है या यों कहें कि अगले जीवन की तैयारी है इसलिए मृत्यु की विदाई भी सुखद होनी चाहिए.
Ajai Agarwal
''रुदन में आनंद के क्षण ''
===================
अलि ; है मुझे अहसास इसका -
जन्म-जन्मांतर से सदा ही -
तू रहा है साथ मेरे !
रुदन में आनन्द के क्षण
मूक से फिर मुखर होना
बालपन की रुनझुनों में
ममता बना था , साथ मेरे ,
तू रहा है साथ मेरे !
अनुराग हर वय का है अपना
स्वप्न का व्यवसाय जीवन
उन्नति , गती जब , हो गयी
पिता सा संबल बना ,
तू रहा तब साथ मेरे !
शत-शत कामनाओं के अंधड़
आपाधापी , कलरव लगे जब
हर लक्ष्य हर ध्येय में भी
तू ही तो था साथ मेरे !
कंटकों का रूप लेकर
गन्तव्य के वो पथ जो आये
पग ने मंजिल ढूंढ ही ली ,
तू सदा था साथ मेरे !
पूछती अब मैं स्वयं से -
चिर-पिपासित हृदय क्यूँ ये ?
क्या यही पाथेय मेरा ?
क्यों तुझे न जान पायी ?
क्यों नहीं पहचान पायी
तू तो सदा था साथ मेरे !
गोधूलि की बेला सुहानी -
लाल सुनहरे रंगों से सज्जित
आँचल , दिशाओं ने है ओढ़ा
कज्जल निशा के आगमन का
है यही संदेश मुझको
तू अभी भी साथ मेरे !
अलि ! यूँ ही रहना साथ मेरे !
जब चढ़ूँ मैं ज्वाल रथ पे
वह्नि हो प्रचण्ड जाये ,
चिंगारियों से सेज जगमग ।
ज्यूँ ; बादलों के बीच बिजली
अलि ! बादलों से झांकना तू ;
मेघ के अश्रु में ढलकर
चिर -पिपासित हृदय को तू
मिलन का उत्सव बनना !
अलि! तू मेरे ही साथ रहना !
तू रहा है साथ मेरे !
पितुमात , प्रियतम और बच्चे
अन्य सारे रिश्ते नाते ;
प्रवृत्तियां - दायित्व -जीवन
बस एक कम्पन एक थिरकन
सांस बनके मिट्टी के तन में
तू रहा है साथ मेरे ,
क्यूँ जांनने में देर करदी ?
क्यों मैं न तुझे , पहचान पायी ?
गर तुझे पहचान जाती
संगीत हो जीवन ये जाता
मैं जरा कुछ संवर जाती
प्यार की मूरत हो जाती
अलि ; अब तुझे मैं जानती हूँ
तू सदा था साथ मेरे
मेरी साँसों में छिपा था !
जीवन मेरा तुझको समर्पित
ध्येय ये ; तुझको मैं जानूं।। आभा।। ......
टिप्पणी........ जन्म के रुदन के आनंद से लेकर मृत्यु के संगीत तक ---इस चित्र में जीवन की हर अवस्था को दिखाया गया है --काश हम भी इस सत्य को समझें जीवन चंद सालों का ही मेला है --अंतिम लक्ष्य उस परमात्मा को पाना ही है जो हमारे साथ ही है हर पल सांस के रूप में ---साधना अभ्यास ,विवेक ,हित -अनहित ,शक्ति , साधक ,साधना विक्षेप ,स्वानुभूति ,प्रकाश आह्लाद सब कुछ ईश्वर को अर्पण कर दें तो '' त्येन त्यक्तेन भुञ्जिथ :'' की आनन्दानुभूति होगी और ''मा गृध:'' का अर्थ बोध होगा --लोभ लालच आसक्ति मिटेगी जिंदगी प्यार का गीत बन जायेगी -----जन्म और ज्वालरथ के सजने ,यानि मृत्यु के रुदन में आनन्दानुभूति ही होगी --''नवानिगृह्णातिनरोपराणी '' की मानिंद ।
Sunita Pushpraj Pandey
~जीवन यात्रा~
लिखना है मंथन कर रही हूँ खुद का
परिभाषित करना है जीवन का सारांश
यू तो कह दूँ चंद शब्दों में
कि बचपन खेल में खोया,
जवानी चैन से सोया,
बुढ़ापा देख कर रोया!
पर कहना आसान है जीवन की गाथा
सबके लिए जीये ताउम्र
जब हसरत से देखा किसी को
लोगों ने मुहँ फेर लिए परीक्षाएं देते रहे
पास होते रहे न वजीफा मिला न कोई इनाम
बस दूसरों की मुस्कान को ही अपनी संतुष्टि मान
खुश हो लिये।
टिप्पणी - जीवन का वृतांत लिखना था पर जो उम्र भर दूसरों के हिसाब से चला हो वो क्या लिखेगा
प्रभा मित्तल
--जीवन-संघर्ष--
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क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर,
पञ्च तत्व से मिलकर बना शरीर।
अद्भुत है प्रकृति
नटी का क्रम भी।
सींचा मन से
अंगुल-अंगुल कर पाला
कर पूरी रखवाली।
घर-आँगन अब
गूँज रही किलकारी।
अपनी क्रीड़ाओं से
जग को हौले से महकाता
मोह पाश में बाँध
शिशु शैशव से
आगे बढ़ता जाता।
सपनों को पूरा करने में
एड़ी से चोटी तक जोर लगाता।
आशा और निराशा के झूले में
अकसर हिचकोले खाता।
यहीं से होता शुरु
जीवन का खेला
आगे बढ़ने की खातिर
संघर्षों का मेला।
मैंने देखा है बहुत करीब से
ढोती साँसों को
बदहवास और अकेला।
आज नहीं लिख पा रही मेैं
जीवन-चक्र की कथा
जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत।
जरूरी नहीं जी जाए मानव
सारी अवस्थाएँ,जीवन की
क्योंकि, उसका तो
हो जाता है...कभी भी अंत।
टिप्पणी : (जीवन आजीवन एक संघर्ष ही है ।)
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
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शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!