Friday, July 8, 2016

‪‎तकब७‬ - तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #7



‪#‎तकब७‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #7 ]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए चित्र पर कम से कम १० पंक्तियों की रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- इस बार आपको किन्ही पांच पुराने खेलो का जिक्र आपको अपनी रचना में जरुर करना है
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है. 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता ७ जुलाई २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.


इस बार की विजेता है  सुश्री  प्रभा  मित्तल  जी - हार्दिक  बधाई 

नैनी ग्रोवर 
~बचपन के खेल~

बड़े ही प्यारे, लगते थे,
बचपन के खेल न्यारे न्यारे..
कड़ी धूप में भी, हो जाते,
इक्ट्ठे मित्र जो सारे...
लेके पुराने साइकल के पहिया,
और मोड़ के लम्बी तार,
घुमाते फिरते, सारा मौहल्ला,
ज्यूँ हो वो फरारी कार..
बीच गली में बनाते चॉक से,
खानों वाला स्टापू,
होड़ लगती फिर सबमे के,
सब के सब मैं टापूं..
ढूंढ के लाते, सड़क किनारे से,
हम सब छ गीटे,
एक उछाल के, पांच पकड़ते,
सारा दिन यूँ ही बीते..
फॅसा के पैरों में पैर, होती थी ज़ोर आज़माइश,
जीत जाता जो वो करता, कोला की फरमाइश...
खो-खो में, आता था मज़ा, जो हारे, उसे होती थी सज़ा,
चिड़ाते उसे सारे के सारे, पीपनी और डब्बे बजा..
सुनसान पड़ी हैं, अब ये गलियाँ,
खिलती नहीं बचपन की, अब कलियाँ,
टीवी और मोबाइल ने छीने,
बारिशों के दिन भीने-भीने,
अब पहले सी, बचपन की मुस्कान कहाँ है ?
गलियों में पला, मेरा हिन्दुस्तान कहाँ है ?
ये जो एयरकंडीशन कमरे हैं,
ये कम्प्यूटर है मशीने हैं,
दिए इन्होंने इंजियर और डॉक्टर बहुत,
पर मेरे देश की सरहद से वीर छीने हैं..
विज्ञान से करो तरक्क़ी, सीखो और सिखाओ तुम,
पर खेलकूद के दिनों में अपने, पसीना तो बहाओ तुम..!!


टिप्पणी :- आज की नई पीढ़ी के खेल कमरो में ही सिमट कर रह गए हैं, ना उन्हें अब मौसम का मज़ा मालूम होता है, ना ही अब बच्चों के शरीर में वो फुर्ती है जो हमारे समय में हुआ करती थी..


अलका गुप्ता 
~~~भूल न पाए खेल~~~


समय का पहिया...ऐसा...घूमा...भइया |
घूमा न फिर बचपन का उल्टा पहिया ||

खेल खिलौने...धमा चौकड़ियाँ..छौने |
छुआ-छुम्बर..चोर-सिपाही ता-थइया ||

लगती...रहती...टेर..आने...खाने को...
हमें न...फुरसत होती..गुट्टों से...हइया ||

इक्कड़-दुक्कड..खेले..विष-अंबर..खूब |
साँप-सीढ़ी...शतरंज..अर..गुयम-गुइया ||

बूढ़े-बाढ़े... अब...दद्दू...बन गए..हम..
भूल न पाय खेल हम..वो..हाय दइया ||



टिप्पणी
न हम भूले वह बचपन के दिन 
न भूले हम वह खेल पुराने जो 
अधिकतर अब...नहीं दीखते |


\
Kiran Srivastava 
"यादें"
========================

पीछे छूट गया जो सपना
वो भी क्या था बचपन अपना,
अपनें भी कुछ जज्बे थे
जब हम छोटे बच्चे थे,
होती थी बच्चों की टोली
हर दिन लगे दिवाली -होली
इक्कड-दुक्कड में धूम मचाये
कोई डग्गा खूब दौड़ाये
चोपट और गोट्टी का खेल
चार लोग खेले संमेल
उछल कूद और भागम-भाग
सीलो-सालो..करे कमाल
झट से रूठे झट मान जाते
फिर हम जोली भी बन जाते
सारे सबक याद कर जाते
खूब प्यार अपनापन पातें
कोई नहीं पैमाना था
वो भी क्या जमाना था...!!!!

टिप्पणी-
पुराने खेल -खिलौने अब खो से गये है ,जिनसे मन और शरीर स्वस्थ रहता था ।इसका स्थान टीवी और मोबाइल ले लिया है । जो बच्चों को बीमार बना रहा है।


Prerna Mittal 
~समय का खेल~

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और
आवश्यकता आविष्कार की जननी है ।
रटे ये जुमले ना जाने कितनी बार तथा
लिखे रेखांकित कर-करके इम्तिहान में
बिना समझे मतलब, केवल एक ही टेक ।
परीक्षा में लाकर अंक, बनना है नम्बर एक ।

पढ़ाई में अव्वल रहना, ख़ूब खेलना,
स्कूल से आते ही खेलने के लिए बाहर भागना,
सपोलिया, छुपन-छुपाई, लँगड़ी टाँग, पोशमपा, गुट्टे,
ख़ूब जमकर धमाचौकड़ी मचाना,
बचपन बीत गया पलक झपकते जाना अनजाना ।

अब समझ में आया, उन उक्तियों का असली अर्थ,
जब भागती दुनिया के साथ चलने में हुए असमर्थ ।
परिवर्तन की तीव्र गति से मस्तिष्क है चकराता,
कहीं पीछे ना रह जाएँ, यह सोच मन घबराता !
आजकल के खेल सारे मोबाइल, टैब और कम्प्यूटर पर
ना जाने की कहीं ज़रूरत, सब बैठे अपने बिस्तर पर

वक़्त का काँटा एक ही दिशा में अपनी गति से है घूमता,
तुम कितना रोको, आवाज़ दो, यह किसी की नहीं ना सुनता ।

प्राचीन काल में हुआ करती थी आविष्कार की जननी आवश्यकता ।
आवश्यकता की जगह अब ले ली जिसने, वह है, महत्वकांक्षा ।
मेरे विचार में अपरिहार्य ये परिवर्तन है,
क्योंकि यह तो प्रकृति का नियम है ।


टिप्पणी : समय और उसके साथ होने वाले बदलाव अटल हैं । यह परिवर्तन हमें पसंद या नापसंद हो सकता है । कई बार नागवार भी गुज़रता है । पर इस पर बस किसी का नहीं चलता।


गोपेश दशोरा 
~मेरा बचपन~

गाँव भी छोटा लगता था, जब पांव कुलाँचें भरते थे।
मिट्टी के घरों में रहकर भी, हम राज दिलों पर करते थे।
मैदान खेल का कहीं नहीं, ना कोई बल्ला, हाॅकी थी,
खेल हमारे अजब गजब, क्या अजब हमारी झांकी थी।
छोटे-मोटे कंकर लेकर, घंटों तक खेला करते थे,
पहिया मिल जाए अगर कही, तो खूब चौकड़ी भरते थे।
क्या छिपनी, क्या पकड़ा-पकड़ी, क्या लंगड़ी खेला करते थे।
जब थक जाते तो आम तले, झूलों पर झूला करते थे।
गुलैल हाथ में लेकर, फिरते रहते थे खेतों में,
चोरी करते थे आम सभी, पर सच्चाई थी बातों में।
ना कोई था अनजान वहाँ, ना हमें किसी ने रोका था,
भूख लगे तो फिकर नहीं, घर-घर में हमारा चैका था।
ना गली, मोहल्ला, काॅलानी, पूरा ही गाँव हमारा था।
जब शहर गये तो क्या देखा, अपना ही नाम सहारा था।

टिप्पणीः आज जिन्दगी की इस भागादौडी में अगर पीछे मुड़कर देखें तो सिर्फ बचपन के ही दिन याद आते है। जब किसी चीज की फिक्र नहीं थी, कुछ भी नहीं था पास फिर भी बहुत कुछ था, जो आज नहीं है।


Ajai Agarwal  आभा अग्रवाल
खेल -खेल में सीखें थीं
==============--

आज याद जब भी आती है ,बचपन की दुनिया अपनी
रोम -रोम में थिरकन होती, ख़्वाबों में खो जाती हूँ ,
कितनी छोटी, सहज ,सुरीली ,दुनियाँ थी वो बचपन की
ख़ुशी आस -पास तिरती थी ,छोटी छोटी बातों में ,
पल -पल जोश ,उमंग भरा था ,खेल -खेल में सीखें थीं ,
महंगे -महंगे खेल खिलौने ,इनकी हमको चाह न थी .
ढूंढ़ -ढांड कर गिट्टू आंगन से ,आंगन में ही खेल जमा
उछाल हवा में पाँचों गिट्टू इक्की दुक्की ,झपकू ,पंजा
बुद्धि नजर हाथ का संतुलन शायद हम यहीं पे सीखे |
पत्थर के टुकड़ों को चुन कर ,पिट्ठू -गरम बना लेते थे
गेंद नही तो क्या , कपड़ा ऊन सुई धागा लेकर
सब बच्चों ने मिलजुल कर ,सतरंगी इक गेंद बना ली
जुगाड़ और काम चलाना ,कम खर्च बाला नशीं
फुर्ती ,शक्ति और संतुलन ,कितनी सीखें थी इस सब में |
आइस -पाइस छुपम छुपाई ,आस -पास ही भागम -भगाई
विष अमृत , -टिप्पी टॉप खेलते ,रंगों में हम रंग जाते थे
आसपास की हर हरकत पे ; ध्यान लगाना ;चौकन्ना रहना ,
शायद जासूसी के कुछ गुर अवश्य ही इन खेलों से आये |
एक पहिया साइकिल का ,एक डाल से लकड़ी तोड़ी ,
सड़कों पे पहिया चल पड़ता ,वो पल गर्वीली ख़ुशी के होते
पहिये के नीचे तार या लकड़ी ,और सडक पर भागम- भाग
क्या अनोखा संतुलन ,नजर न भटके सीखी बात
जीवन की गाड़ी के पहिए आज भी यूँ ही चलते -
आधार आज भी जीवन को अनुभव के तारों से देते |
चिड़िया उड़ ,तोता उड़ ,रोटी उड़ पे कौन उड़ बोला !
ताली बजी आउट हुआ ,ध्येय पे ध्यान ये हमने सीखा
अर्जुन सी हो नजर ध्यान लक्ष्य पे रहे हमेशा
कभी नही फिर वाणी फिसलेगी ,बुद्धि ध्येय पे ही टिकेगी |
टप -टप टप ,स्टेपू पे यादों के बादल बरस रहे हैं ,
संतुलन हम यही से सीखे ! एक टांग से टपना हो या
दोनों से लेनी हों छलांग ,लाइन पे न पड़े पैर ,
एक से सात घरों को टपना और अपना अधिकार बनाना
मेहनत से कुछ मिलने की ख़ुशी को ,सबसे पहले यहीं पे जाना |
और चौपड़ की बिसात पे ,बड़ों को भी खेलते देखा ,
कौड़ी -कौड़ी माया जोड़ी ,कौड़ी का भी मोल है समझा
ऊँची कूद भी हाथ पाँव को जोड़-जाड के कूद गये
पाला --लगे लम्बी व् ऊँची कूद ,बस नजर लक्ष्य पर रखनी होगी
अपनी परीक्षा आप ही लेके ,बारम्बार कोशिशे करनी
कभी गिरे कभी कूद गए पर सीखेंगे ये जिद न छोड़ी |
कभी न मांगे हमने माँ से, महंगे -महंगे खेल खिलौने ,
अलमस्त बचपन में हम सब ,सखियों संग ,झूला झूले
पढ़ना ,लिखना ,सीना बुनना और पिरोना, पाक कला औ -
अतिथि स्वागत , खेल खेल में पढ़ गये जीवन के ये पाठ सुहाने |
संवेदनाएं जीवनकी ,समरसता में जीना क्या है?
साथ निभाना संकल्पित होना ,बाधाओं में डट कर टिकना ,
खेलों में हमने सीखा ,हार जीत पे संतुलित होना
सबको साथ लेके चलना ,प्रीत प्यार से हिलमिल रहना |
समय घड़ी की रेत रिस रही , समय लगा के पंख उड़ चला ,
पर आज उलट इस समय घड़ी को ,मैं फिर बचपन में घूमी ,
ख़्वाबों के जंगल में बचपन संग , फिर से सारे खेली खेल
बचपन की गलबहियां डाले -अपने -पाले तेरे पाले
कविता के दर्पण में आज हुआ फिर , बचपन से मेल |
अब बचपन पूरा बदल गया है ,बच्चों को तो बैट बॉल चाहिए ,
बैड -मिन्टन ,फुटबॉल ,बेस और बास्केट बाल चाहिए ,
मोबाइल ,और लैपटॉप ,साथ में कम्पयूटर गेम्स चाहियें ,
रफ़्तार यदि सीखनी हो तो ,सायकिल-स्कूटर बाइक चाहिए .
और भागने दौड़ने को ,ट्रेड -मिल या रन फार एनी कॉज चाहिए ,
यह सब मिल जाने पर भी ,अब बचपन उतना शांत नहीं है .
भोला और निष्पाप नहीं है ,सुविधाओं में गुम गया कहीं है
अपने को साबित करने के बोझ तले , गुम गया आज बचपन कहीं पे |
बचपन को फिर से गढ़ना ,संवेदनशील बनाना ,
बचपन को बचपन देना ,भोला और सरल बनाना
खोगया कहीं जो हाई -टेक होकर ,,मोबाइल गेम्स से वापस लाकर ,
प्रकृति से मिलवाना , क्या हो सकता है ये फिर से ?
यक्ष प्रश्न ये पर !
कुछ तो जुगत भिडाना होगा ,बचपन को बचपन से मिलवाना होगा
तब ही शायद लौटेगा सच्चा बचपन भोला बचपन-|||आभा||

टिप्पणी----बचपन के खेल भूले नही जाते ,समय की रेत पे निशां नहीं समुद्र से टकराके चट्टानों पे बने निशानों की भांति पक्के वाले निशांछोड़ जाते हैं ,जरासा पन्ना पलटो जीवंत हो उठती हैं स्मृतियाँ--------



Madan Mohan Thapliyal शैल  
~खेल जिन्दगी के~

बचपन के खेल अद्भुत और निराले,
रो पड़तीं आंखें, जब ससुराल जाती कपड़ों की गुड़िया,
गुड्डा-गुड़िया के खेल में,
छलक पड़ते मधुरस के प्याले--
पुराने खेल अद्भुत और निराले. *****

अकड़ बकड़, लंगड़ी टाँग-- खेल प्यारे,
पसीने से तर-बतर हो गए सारे,
चले मतवाले, भार इक दूजे पे डाले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

आसमां में देखो, बादलों के छौने हैं मन भावन,
रंग-बिरंगी पतंग झूमती, घिर आया है सावन,
कोई खेले कंचे, कोई साफ करे मकड़ी के जाले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

कभी लूडो साँप सीढ़ी, कभी चौसर सज़ा डाली,
मन किया हॉकी का, चीथड़ों से गेंद बना डाली,
खेल के शौक़ीन सारे, चले गले में बाँहें डाले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

टीले पर चढ़ कोई विक्रमादित्य बनता,
ध्यान से हर किसी की फ़रियाद सुनता,
इक ग्वाले का सुन फ़ैसला, हर्ष से गुनगुना ले,
बचपन के खेल अद्भुत और निराले. *****

गोमती किनारे शतरंज की बिसात बिछती ,
डरपोक नवाबों की ताकत शतरंज में दिखती,
घर लुटें चिन्ता नहीं, वजीर पहले बचाले,
पुराने खेल अद्भुत और निराले. *****

कर दूं जि़क्र महाभारत का, ज्ञात है सभी को,
जुआ खेलने बुलाया पांडवों में महाबली को,
कर दी धर्मराज ने ताकत जुए के हवाले,
पुराने कुछ खेल नैया डुबोने वाले *****

खेल खेलो तन मन से खेलो,
देश का नाम हो रोशन, ऐसा खेल खेलो,
कबड्डी, पिट्ठू हैं बुद्धि वर्धक ज्ञान बिन्दु सारे,
एकता की दे मिसाल सबको अपना बना ले ****

कभी झुरमुटों की संधि से झाँकते,
लुकाछिपी के खेल में बुद्धि कौशल आँकते,
पोटली में चबेना था जो मां का दिया,
लगायी हाँक साथी को, आ थोड़ा तू भी चबा ले
बचपन के खेल, शैल- अद्भुत और निराले  ******

****
टिप्पणी - खेल चाहे पुराने हों अथवा नए, सभी शारीरिक क्षमता, ज्ञान और भाईचारा बढ़ाते हैं. शारीरिक विकास के लिए खेल ज़रूरी हैं. खेलों को तन मन से खेलना चाहिए. विकृत मानसिकता वाले खेलों का बहिष्कार करना चाहिए.


डॉली अग्रवाल 
~मासूम बचपन~

आहा ! मेरा बचपन सुहाना
कितना मासूम कितना प्यारा
नही भूली बाबुल की वो गालिया
जहाँ आँख मिचौली सा बीता जीवन
छोटी छोटी जरूरते थी
बिना किसी उलझन रोटी बाटी थी
तीली से धनुष बना , सीको से बाण सजाया था ---
हर मोहल्ले में राजा बन मन भरमाया था
हुर्र , कबड्डी ,आइस पाइस
चार आने में सजती थी नुमाईश
विष अमृत में जी जाना
हॉफ हॉफ कर दौड़ लगाना
वो गिली डंडा खेलना
कंचे चुरा कर भागना
सखियो संग गीटे खेलना
हार जाने पर मुँह फुलाना
अगले पल को मान चुनोती
फिर से गेंद आकाश में उछालना
ना पढ़ाई की फिक्र
ना समय की बंदिश थी
हर रात परीयो की कहानी थी
सूखी रोटी से भी पेट भरता था
तलैया के पानी से भी मन भरता था
खो गया कहि वो मेरा मासूम बचपन

टिप्पणी 
आज को देख कर --- अब हवा में वो जहर है की बचपन बेमौत मर रहा है !!




कुसुम शर्मा 
~बदले समय ने खेल भी बदल दिये~
-----------------------

मेरी बिटिया पूछ रही थी
माँ तुम भी बचपन मे
विडियो गेम खेला करती थी
तो नानी क्या ?
तुम को एेसे ही
बार बार टोका करती थी
मैने बड़े प्यार से
अपनी बिटिया को समझाया
पहले ये फ़ोन और विडियो गेम नही थे !
न ही आँखे ख़राब का डर
मै घर पर रहकर
नानी के संग
केरम खेला करती थी
लाल डिब्बी को लेने के लिए
बार बार कोशिश करती थी
हार जाती तो फिर रोती
साँप सीडी ले कर आती
बड़े मज़े का था ये खेल
साँप के काटने से नीचे आते
देख सीडी को चढ़ जाते
सौ अंक का है ये खेल
गोटी रानी ही है मैन
जितने नम्बर आयेंगे
उतनी चाल चलोगे
साँप से बचो
और सीडी से चढ़ो
जो इस गेम मे मज़ा
विडियो गेम मे कहाँ

बड़े प्यार से फिर उसने पूछा
क्या माँ
गरमी की छुट्टियों मे
तुम दिन भर घर पर रहती थी
या तुम भी बाहर घूमने जाती थी
मै बोली
जब हम छोटे थे रानी
हम शाम को बाहर जाते थे
अपने दोस्तों के साथ मिलकर
दो टीमों मे बट जाते थे
कभी छुपन-छुपाई या
पिट्ठू खेला करते थे
बड़ा मज़ा आता था इनमें
मन भर जाये तो फिर
आँख मिचौली ,लग्डी टाँग ,
खो-खो खेला करते थे
बड़े मज़े के थे वो दिन
लेकिन अब वो दिन नही है
जो पहले हुआ करते थे

बदलते समय ने
सब कुछ बदल दिया
माहौल और खेल बदल दिया
अब न बच्चे गलियों मे आकर
शोर मचाते है
न ही खेल जमाते है
सारे दिन भर बस
फ़ोनों या कम्प्यूटर पर चिपके रहते है
बहार के नाम पर गलियों मे घूमा करते है
पहले की बात कुछ ओर थी रानी
अब सब कुछ बदल गया
सोच बदली विचार बदले
रहने का ढंग और संग बदल गया

किसी के पास समय नही !
पहले का प्यार और प्रेम नही !!

टिप्पणी :- जो खेल पहले हुआ करते थे वो अब धीरे धीरे समाप्त हो रहे है ! दौड़ती भागती इस दुनिया मे ,किसी के पास समय नही ,बच्चे छोटे से ही फ़ोन और कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे है जो अच्छा भी है तो बुरा भी वह किसी के साथ न खेल कर दिन भर फ़ोन और कम्प्यूटर पर खेलते रहते है जो उनकी आँखो के लिए अच्छी बात नही एक जगह बैठ बैठ के आलसी हो गये है उनके शरीर मे फुर्ती और शक्ति नही



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~बीता बचपन~


समय का चक्र
ऐसा घूमा
खो गए सारे
बचपन के खेल
न वक्त रहा
न रहा वो मेल

सुन कर जब
संगी साथियो की टेर
तब निकल पड़ते
झट से न लगती देर
मौसम की
न होती किसी को परवाह
बारी मिले
बस इतनी केवल होती थी चाह
मिट्टी से थी तब दोस्ती
न दिन का होश न खबर

कहाँ भूले है हम
अक्कड़ -बक्कड़ बम्बे बो...
पौसम्म पा भई पौस्म्म पा....
कोडा जमालशाही पीछे देखे मार खाई...
हर समन्दर गोपी चन्दर ...
हर खेल में थे प्रकृति से जुड़े बाते
न जाने
कहाँ गम हुई वो यादें वो बाते

छुपम छुपाई
का खेल था आइस पाइस
कबड्डी खो खो
से होती थी एक्सरसाइज़
लट्टू, गुल्ली डंडा, पिट्ठू
थे सच में बचपन के अभिप्राय
कंचो से भरी जेब
आधे खरीदे आधे जीते
गिन कर सोते उठ कर फिर गिनते
अपनी अमीरी का अहसास होता
विष अमृत कहते कहते
अपनों को हर बार जीवन देते
गुलेल का साध निशाना
अमरुद और आम गिराना
जिसका बल्ला उसके बैटिंग
अपने नियम अपनी सैटिंग

अब न गलियों में वो शोर है
पार्क में नहीं, घरो में बंद बच्चे
टीवी और वीडियो गेम
कम्प्युटर या इन्टरनेट
बस यही वक्त ने दिया है ....


टिप्पणी: वक्त ने अपनी मिट्टी से बचपन को अलग कर दिया है जो अधिकतर कैद से हुए  है घर में ...


प्रभा मित्तल 
~~बचपन के दिन ~~
~~~~~~~~~~~~~~~

बचपन की तो थी बात निराली,
जैसे हर दिन होली,रात दिवाली।
सखियों संग बैठ खूब गिट्टे खेले,
सब समय लगते थे खेलों के मेले।

कुल्हड़ तोड़ा खूब पिट्ठू गरम बनाए,
टूटी मंजिल जो जोड़े, उस पर धाए।
खेलें आँख-मिचौली, छुपम-छुपाई,
खोजते-खोजते चोर की शामत आई।

चिड़ियाँ-तोते उड़ाते-उड़ाते
चूहे-बिल्ली भी उड़ जाते थे।
हँसते-हँसते दोहरे होकर हम
खेल से ही निकाले जाते थे।

हम जब घर पर पढ़ने बैठते ,
मेज पर रखते रेत का टाईमर।
रेत गिरने से पहले ही दिखा देते,
जल्दी-जल्दी प्रश्नों को हल कर।

घमंड नहीं था किसी बात का,
दुःख भी सुख सा लगता था।
नाराज़ बड़ों को मनवाने में,
बस प्यार ही काफी होता था।

गर्मियों की दोपहर बाग में,
घने पेड़ों पर झूला झूलते थे।
आम चुराने जाते जब हम,
माली दौड़-दौड़ पीछे आते थे।

अपना पहिया देकर, भइया
मेरी नई गाड़ी खेलने ले जाता था।
छोटी थी मैं पर 'मेरी बड़ी बहन है'
कहकर, खूब काम करवाता था।

जाने क्या था उसके शब्दों में
उस पर मैं फूली नहीं समाती थी।
मूढ़मति ही ठहरी, जो घंटों बैठी,
उसका होमवर्क भी निपटाती थी।

पिता भी हम बच्चों के संग,
हमारे बाल सखा बन जाते थे।
तकिेए में रख कागज के नोट,
डाक व बैंक का काम सिखाते थे।

बीत गए वो बचपन के दिन,
अब तो सब सपना लगता है।
बच्चे भी अब कहाँ गए सब,
गली-मौहल्ला सूना दिखता है।

सारे खेल सिकुड़कर रह गए,
फोन,टी.वी.और कम्प्यूटर में।
बच्चों का बचपन छीज रहा,
इस महानगर के ऊँचे घर में।

प्रगति कभी बुरी नहीं होती,
हर हाल में अति बुरी होती है।
खेल-कूद कर पूरी करें नींद, तो-
बच्चों की सेहत भी अच्छी होती है।

बच्चे मिलकर करें धमा-चौकड़ी
गर बड़े भी साथ बच्चे बन जाएँ
प्यार से रहें सब मिल-जुलकर
बच्चे अपना बचपन जी जाएँ।


टिप्पणी :
(आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ एक ओर प्रगति हुई है ,वहीं दूसरी ओर बच्चों का बाल मन तमाम प्रतियोगिताओं से बँधकर रह गया है..उन्हें ज़रूरत है..स्वतंत्रता की..स्वच्छंदता  की..ताकि उनके व्यक्तित्व का चहुँ ओर सम्पूर्ण विकास हो सके।)



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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