Wednesday, August 24, 2016

#तकब११ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #11]







#तकब११ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #11]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए चित्रों में सामंजस्य के साथ कम से कम १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक 
सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. 
चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को
पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव 
के विषय में सोच को स्थान देना है. 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता २० अगस्त २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो 
तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो या 
उसकी विद्धिवत घोषणा न हो तथा ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस 
प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन 
सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
निर्णायक मंडल के लिए : 
1. अब एडमिन प्रतियोगिता से बाहर है, वे रचनाये लिख सकते है. लेकिन उन्हें चयन हेतु न 
शामिल किया जाए.
2. कृपया अशुद्धियों को नज़र अंदाज न किया जाए.



इस बार की विजेता है  सुश्री आभा अग्रवाल  - बधाई  एवं शुभकामनाएं 

Meena Prajapati 
~पृथ्वी के रंग~

मुझमें बहुत कम रंगत हैं
पर! मेरी दुनिया रंगीन है
यहाँ हरे, लाल, पीले
नीले, सतरंगी सभी जन हैं
ये मेरे अपने हैं इसलिए ही,
मुझे कुरेदते हैं, मसलते हैं
चढ़ते हैं, खोदते हैं
सभी रंग बहुत खुश हैं
अपने लाल आयतो में
मैंने तो इंसान बनाये थे
मन्दिर, मस्जिद, द्वारा नहीं
तुम समझदार व्यक्ति थे
बेज़ुबान को मारने
वाले हैवान नहीं
मुझे घेरो मत हाथों से
धर्म, जाति-पाति के
गहने ना पहनाओ
रंगत, खुशियाँ बांटो
फूल ,पाती,तलैया
मेरे हर अंग को
नोच खा लिया है
मेरा बलात्कार हुआ है
मुझे फाड़ दिया है
गाय और सूअर जैसे
नहीं सह पा रही हूँ
तेरा कुरेदना और फाड़ना
मेरा दम घुट रहा है
मैं पृथ्वी और मेरा
रंग ढल रहा है
हौले हौले।

टिपण्णी:- उपरोक्त पंक्तियाँ लिखते समय मुझे इस तस्वीर के रंगों ने बहुत प्रभावित किया और पृथ्वी को घेर कर खड़े लोग मुझे परेशान करने लगें। अपनी इसी परेशानी को मैंने अपनी कविता में लिखनी की कोशिश की है।





Prerna Mittal 
~वसुधैव कुटुंबकम~
~~~~~~~~~~

वसुधैव कुटुंबकम का आज तक, जिसका जैसे मन चाहा, उसने मतलब लगाया,
ज़ी टी.वी. ने भी इसे, अपना प्रचार वाक्य बनाकर ख़ूब नाम कमाया ।

महाउपनिषद में प्रथम उल्लेख, वसुधैव कुटुंबकम का,
ऊँच-नीच भेदभाव से ऊपर प्रयोजन था एकता का।
आर्यन थे इसके प्रवक्ता,
हमारी संस्कृति के निर्माता ।
धरती थी उस समय अभिशापित,
ऊँच-नीच जात-पात से कलुषित ।
बुद्ध, महावीर स्वामी ने सामंजस्य बिठाया,
सारे विश्व को समानता का पाठ पढ़ाया ।

ख़्वाब अखंड भारत का देखा चंद्रगुप्त मौर्य ने,
सिकंदर महान भी चला विश्व पर विजय करने ।
शायद यही था तात्पर्य इनके लिए वसुधैव कुटुंबकम का,
बनाएँ पूर्ण धरा को एक कुनबा करके साम्राज्य स्वयं का ।

चौदहवीं सदी में मंगोलों ने मचाई बहुत धूम,
साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाया घूम-घूम ।
पन्द्रहवीं सदी में कोलंबस ने ढूँढा अमेरिका,
परिवार को खोजना ही रहा होगा उद्देश्य उसका ।

बाद में मुग़लों ने सबको मुसलमान बनाया,
वसुधैव कुटुंबकम का नया मतलब समझाया ।
अंग्रेज़ों ने भी किया, सम्पूर्ण दुनिया पर राज,
पूरी वसुधा को क़ुटुंब बनाया, सर पर पहना ताज ।

आख़िरकार कम्प्यूटर-इंटरनेट ने किया स्वप्न पूरा पूर्वजों का,
कभी सोचा ना होगा ऐसा, करते समय सृजन वेदों का ।
पृथ्वी बन गई अब, क़ुटुंब सच में,
सिमट गई, हस्त में पकड़े मोबाइल में ।

सहकर्मी, मित्र और पड़ोसी अब परिचितों से आँखें चुराते हैं,
पोकीमोन की खोज में अजनबियों को दोस्त बनाते हैं ।
अब है आदमी को ख़बर, पूरे जगत की,
सुध ना है केवल, अपने घर के जन की ।

टिप्पणी: यह चित्र एकता और भाईचारे का संदेश दे रहा है । जिसे हमारी संस्कृति में हमेशा प्राथमिकता दी गई है । उसमें दिए गए वसुधैव कुटुंबकम के संदेश की मैंने इतिहास और आज के संदर्भ में अपने दृष्टिकोण से विवेचना करने की कोशिश की है ।




Sunita Pushpraj Pandey 
****दुनिया ****


दुनियाभर के लोग
अलग - अलग रूप, अलग - अलग रंग
जीतने को दुनिया कर रहे मानवता का खून
कहाँ रहे जीसस अब कहाँ गये संत रविदास
न रहे अब वैसे पीर फकीर
जो करते इंसानियत का गुणगान
सुख शांती कायम रखने को
कभी उठा करती थी तलवार
अब रक्त पिपासा बन
सत्ता के मद में मचा रही संहार।

टिप्पणी - बहुत कष्ट होता है मानवता का खून बहते




नैनी ग्रोवर
~ सोलह आने सच ~


दाता ने दी धरती,
और अम्बर नीला नीला,
चाँद सितारे बना के उसने,
दिखा दी अपनी लीला..
फिर बनाए आदम और हुव्वा,
दिया धरती पे भेज,
बसने लगी फिर ये दुनियाँ,
ज्यूँ सूरज का तेज...
बना लिए फिर मानव ने,
भिन्न भिन्न ये भेस,
दे दिए, नाम धरती को,
देश और विदेश..
कोई नही पराया जग में,
बात है सोलह आने सच,
इसलिए कहा सन्तों ने,
नफरत से तू बच...
पहरावा पहचान मात्र है,
ज्यूँ सूरत अलग अलग है,
पर खून है सबमे एक ही जैसा,
ज्यूँ जोत से ज्योति ना विलग है...
रंग बिरंगी इस दुनिया में,
प्यार ही प्यार बरसा दो,
ऐ नीली छतरी वाले,
मानव को ये बात ज़रा समझा दो...!!

टिप्पणी : इंसान से इंसान की बेरुखी, और जात पात का भेदभाव,





Kiran Srivastava
(हमारी पृथ्वी)
==================

रंग बिरंगे देश यहाँ पर
अलग -अलग सी भाषा है,
अलग-अलग है रंग रूप
पर एक ही परिभाषा है।

रीति रिवाज संस्कृति का
अगता अद्भुत मेला है,
सभी त्योहार दिलों में बसतें है
सभी रूप अलबेला है।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
मिल-जुल कर हमें रहना है,
इसकी रक्षा की खातिर
कुछ भी कर गुजरना है।

आओ मिलकर करें संकल्प
मिल-जुल करके रहेंगे अब,
आंच न आने देंगे इस पर
इसकी रक्षा करेंगे सब..!!!!

===================
टिप्पणी- ईश्वर प्रदत दुनियां बहुत खूबसूरत है।विभिन्नताओं के होते हुए भी इसकी कला ,संस्कृति रीति रिवाज मन को मोह लेतें हैं इन सभी धरोहरों की रक्षा के साथ साथ पृथ्वीकी रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है।




कुसुम शर्मा 
~इंसानियत भूल गया इंसान~
---------------------


छा रहा संसार में
आतंक का ज़ोर है ।
चारों ओर
त्राहि त्राहि का शोर है !
मानवता क्यो
भूल गया इंसान
उसके सर चढ़ा
जानवर का
क्या ख़ून है !

जो खेलते थे कभी
रंगो की होली
वही खेल रहे अब
ख़ूनों की होली
क्यो आपस मे
बड़ा ये बैर है
किसने चलाया
ये खेल है

कोई कहता है
हम हिन्दू
कोई कहता
मुस्लबान है
कोई सिख तो
कोई ईसाई
सभी लड़ रहे
धर्म के नाम पर
क्या बचा
यहाँ पर इन्सान है

कोई मज़हब या धर्म
नही सीखाता
आपस मे बैर रखना

छोड कर राह नफरत की
प्रेम से जीना सीख लो
ये धरती है हमारी
इसे प्रेम से सींच लो
जाति धर्म को छोड कर
इंसान होना सीख लो !!

टिप्पणी :- आजकल धर्म के नाम पर अतंक सारे संसार मे छाया हुआ है एक इन्सान दूसरे इन्सान को मार रहा है जैसे वह इंसान नही कोई जानवर हो । वह आपस मे धर्म के नाम पर लड़ते रहते है कोई भी धर्म हमे नफरत करवाना नही सिखाता न ही वह कहता है कि एक दूसरे को मारो ! ये संसार हमारा घर है इसे हमे प्रेम से सजाना चाहिए, हम किस जाति या धर्म के है यह बाद की बात है सबसे पहले हम इन्सान है इस बात ध्यान रखना चाहिए ।



Madan Mohan Thapliyal शैल
वसुधा औ मानव
************

जब मैं न था माते-
तेरा अकूत भंडार था -
न कोई सीमा न बन्धन -
मात्र विस्तार ही विस्तार था .
झरनों की रंगत -
पक्षियों का कलरव -
फल - फूलों से लदी डालियां -
अद्भुत अपूर्व तेरा श्रृंगार था .
मणि- माणिक , हीरे- जवाहरातों से सुसज्जित -
रंगोली सी सजी धरणी -
रंग- बिरंगी तितलियों की चपलता -
आलौकिक तेरा परिधान था .
वैभव की थी नहीं कमी -
सब कुछ था भरा - भरा -
स्नेह पूरित था सब -
न कहीं किसी का तिरस्कार था .
मैं आया परिभाषित करने -
इस भंडार को-
माया - मोह ने जकड़ा-
जगा दिया अहंकार को.
शक्ल सूरत को लगा पूजने -
दिशा भ्रमित होने लगा -
न मिला विस्तार कोई -
सीमाओं में बाँध के रख दिया अपने आप को .
संत, पैगंबरों को बाँटा -
ऋषि - मुनियों औ अवतारों को बाँटा -
मन्दिर, मस्जिद की दे दुहाई -
उलझा दिया अपने आप को .
तेरी ममता को लगा भूलने -
भौतिक सुविधाओं में लगा झूलने -
निज स्वार्थ को कर पोषित -
छिन्न - भिन्न कर दिया तेरे प्यार को .
कर सुधार भूल अपनी -
छोड़ ए सारा क्रंदन -
लगा माथे पर तिलक माटी का -
रंगोली ली सी सजी, धरा को कर नमन .....

टिप्पणी  - धरती और मनुष्य का जन्म जन्मों का संबन्ध है. भौतिक सुखों की होड़ छोड़कर हमें पृथ्वी के अस्तित्व को क़ायम रखने में मानवता का परिचय देना चाहिए..





कौशल उप्रेती
~लिखना~

दिल में जो आये वो पैगाम लिखना
हमने सहर लिखा.. तुम शाम लिखना

कुछ इस तरह से दिलों के रंज भुला
मेरे हिस्से कि धूप भी अपने नाम लिखना

कलम जमाने से रख के रूबरू
महके जो हर खिजां में वो बाम लिखना

मन को फैला के दुनियाँ से बड़ा
कभी काबा तो कभी चार-धाम लिखना

कौशल इस तरह अपनाना खुद को
दिल कि बात दिल से बे-लगाम लिखना

टिप्पणी : हम सब एक हैं चाहे किसी भी जात धर्म से हैं, धरती सबकी है और सब धरती के... वसुधैव कुटुम्बकम्...




प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ......
~विश्व शांति~

परम धरम श्रुति विदित अहिंसा।
पर निंदा सम अध न गरीसा।। [मानसकार ]

विश्व शांति के लिए हर राष्ट्र को
अहिंसा का सही अर्थ समझना होगा
तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से
किसी प्राणी को नुकसान न पहुँचाना होगा
यही तो हमारे संस्कार में समाहित है
'अहिंसा परमो धर्मं' को स्वीकारना होगा
साम्प्रदायिक और असाम्प्रदायिक के तर्क वितर्क से
बहार निकल सर्वधर्म संभाव को अपनाना होगा
राजनीति से नही कूटनीति का उपयोग कर
धर्मनिरपेक्ष शब्द को हमें अपनाना होगा
भारत मे परपरागत सब धर्मो का सम्मान है
यहे हमें मानना और विश्व को सिखाना होगा
'वसुधैव कुटुम्बकम' का देकर सबको विचार
शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का प्रयास करना होगा

टिप्पणी: विश्व शांति और सुरक्षा आज हर राष्ट्र का उत्तरदायित्व है और भारत इसमें प्रमुख भूमिका निभा सकता है।



Ajai Agarwal
Ajai Agarwal धरती माँ का पुनः संस्थापन
=================
स्वप्नाभिलाषी तुम कहो ,
मैं तो यही बस मानती हूँ ,
हाथ तुम हाथों में दे दो ,
कारवां बनना ; नियति है ,
प्यार के दो शब्द बोलो
गाँठ उर की खोल देंगे
ध्येय ; हो कल्याण सबका !
लक्ष्य ,ये लेकर चलेंगे ,
अहिंसा धर्म परम् है
इसी से, मानवता बचेगी
विश्व जीवन ज्योति जागे
सृष्टि को यौवन मिले
हर रंग हर बिम्ब की
सृष्टि को सौगात देदें
आज हम सौगन्ध ये लें
हाथ में ले हाथ सबका ,
छोड़ के धर्मों के पहरे ,
तोड़ के जाती के बन्धन
एक हो धरती को बचाएं
कुछ तुम त्यागो ,कुछ मैं छोडूं
सुविधाओं को कम करें अर
शस्यश्यामल धरती माँ का
हम करें पुनः संस्थापन -
हम करें पुनः संस्थापन

टिप्पणी ---सुविधाओं और लालच के जंजाल से ,हिंसा की जकड़ से ,देश धर्म जाती रंगों के बन्धन से मुक्ति पाएंगे तभी धरती को सजा पाएंगे उसका पुनः संस्थापन कर पाएंगे और इसके लिए केवल दिल में प्यार की आवश्यकता है ---

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Tuesday, August 9, 2016

‪#‎तकब१०‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #10]



‪#‎तकब१०‬ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #10]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए चित्र पर कम से कम १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव के विषय में सोच को स्थान देना है.
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए.
४. प्रतियोगिता ७ अगस्त २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो और उसकी विद्धिवत घोषणा न हो एवं ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
निर्णायक मंडल के लिए :
1. अब एडमिन प्रतियोगिता से बाहर है, वे रचनाये लिख सकते है. लेकिन उन्हें चयन हेतु न शामिल किया जाए.
2. कृपया अशुद्धियों को नज़र अंदाज न किया जाए.



इस तकब #10 की विजेता है  सुश्री अलका  गुप्ता जी - हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं 


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~ पापा ~

जीवन को आधार देता
आपका वर्चस्व
समर्पित परिवार के लिए
आपका सर्वस्व

आप के हाथों में
देकर अंगुली चलना मुझे आया
जीवन मार्ग को कर अग्रसित
आपने जीना मुझे सिखलाया
सुख दुःख को समेट कर
हार जीत का भेद समझाया
दायित्व निभा कर अपना
परिवार का महत्व बताया
देकर शिक्षा धर्म कर्म की
पाप पुण्य का रहस्य समझाया
बन कर कठोर कभी
मुझे कर्तव्य का बोध कराया
बन कर गुरु मेरे
गलत सही का अंतर बतलाया
सच झूठ के जाल में
नफा नुकसान मुझे दिखलाया
टूट कर, फिर खड़े होकर
हौसले से परिचय करवाया

आज साथ नही फिर भी
मेरे मार्गदर्शक बन
राह मुझे दिखलाते हो
बन आशीर्वाद आपका स्नेह
गमो से लड़ता, खुशी को जीता हूँ
याद नही साथ हो
पापा आप आज भी यहीं कहीं हो
आप सदा मेरे साथ हो


टिप्पणी: जीवन में पिता का स्थान माँ के समकक्ष ही होता है बस माँ की ममता दिख जाती है और पिता एक गुरु तुल्य जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है....पिता को समर्पित कुछ भाव



Kiran Srivastava 
"जीवन की डगर"
==================

अंगुली थामें
कदम बढ़ाना,
धीरे धीरे
चलते जाना,
चलते चलते
दौड़ लगाना,
अपने मंजिल
को है पाना...!!!

डगमगा जाए
अगर पांव तो,
असफल हो
जाए दांव तो,
मत घिरना
अवसाद से,
चिंता और
तनाव से,
राहों के ये
बाधक है,
जीवन के
अवरोधक हैं....,!!!!

धैर्य बनाए
रखना तुम,
और न पीछे
हटना तुम,
चलते रहना
बढ़ते रहना,
हिम्मत से
लेना तुम काम,
जीवन होगा
तभी आसान......!!!!!

==================
टिप्पणी: जीवन के राहों में बहुत सी मुश्किलें आती है। हमें बहुत ज्यादा हताश या निराश नहीं होना चाहिए।


Prerna Mittal
~परवरिश~

बच्चा रोते हुए इस संसार में आता,
अपने प्यारेपन से सबको लुभाता,
मात-पिता की आँखों का तारा बन जाता,
कभी नख़रे दिखाता और कभी रूठ जाता,
तो कभी लाड़ में आकर सिर पर चढ़ जाता,
और सबको अपनी उँगलियों पर नचाता ।
उसकी एक मुस्कराहट पर न्योछावर हो जाते,
नज़र उतारते, पैसे वारकर नौकरों में बाँटे जाते ।

उँगली पकड़ पिता की वह चलना सीखता,
लड़खड़ाते क़दमों को ज़मीं पर रखना सीखता ।
सब चाहते ऊँचाइयों को छुएँ, वाहवाही करे जमाना,
पर पिता होता ख़ुशी से अभिभूत, गर्व से तनता सीना ।
जब बेटा उसका, उससे ज़्यादा प्रसिद्धि पाता,
और पिता, पुत्र के नाम से पहचाना जाता ।

परवरिश बालक की होती नहीं आसान,
जुड़ा इससे हँसना, रोना, दुःख और मुस्कान,
कभी पड़ता बच्चों के साथ बच्चा बनना,
तो कभी कान पकड़, देना नैतिक ज्ञान ।
व्यावहारिकता के साथ दुनियादारी भी सिखाना,
अनुशासन, स्वास्थ्य और स्वच्छता का पाठ पढ़ाना ।

यह है एक ऐसा उत्तरदायित्व,
बनाना है एक महान व्यक्तित्व ।
जो अपने पैरों पर खड़ा हो सके,
सिर उठाकर अपना वह जी सके ।
ना हो हृदय में बैर, प्राणी के लिए संवेदना हो ।
शोषण का करे विरोध, स्वत्व से ना समझौता हो !

टिप्पणी: सही परवरिश ही बच्चे, परिवार, समाज व देश के भविष्य का आधार है । यह एक ऐसी ज़िम्मेदारी है जिसे निभाने में अपनी और बच्चे दोनों की ख़ुशी, उदासी, क्रोध, प्रेम तथा अनेक भावनाओं के बीच सामंजस्य बिठाते हुए सही निर्णय लेना पड़ता है । यह कभी-कभी अत्यंत कठिन होता है ।


Meena Prjapati 
~प्लास्टिक~

प्लास्टिक मजबूत होती है
इसका अंत नहीं होता
रिश्तों का बंधन भी
मजबूत होता है
जिसकी कसावट
टूटती नहीं हैं
प्लास्टिक हंस्ता,
खेलता, रोता
सब होता है
पापा की डांट
की तरह
जमाकर ऊँगली
खींचकर ले जाना
जैसे प्लास्टिक से
वस्तुएं खींची जाती हैं
उसमें तन्यता
अधातवर्धन्यता गुण होते हैं
रिश्ते बड़े वैज्ञानिक होते हैं
इनमें सभी रिएक्शन होते हैं

टिप्पणी: इस तस्वीर में दी गई गोटियां मेरे दिमाग में प्लास्टिक को दिखाती हैं। इसी वजह से मेरी कविता का नाम प्लास्टिक है और मेरे हिसाब से प्लास्टिक और रिश्तों का जोड़ मजबूत होता है जिसे मैने कविता के रूप में रखा है।



नैनी ग्रोवर
 ~ पगडंडी ~

जीवन की
जिस पगडंडी पर
तुमने,
मेरा हाथ थाम
चलना सिखाया
मेरे पाँव
उसी पे चलते रहे,
कभी उदास
कभी मुस्कुराते
लम्हों को संग लिए
कभी कांटे मिले
कभी फूल
कभी मजबूत बनी
कभी कर बैठी भूल,
परन्तु, फिर भी
निरन्तर चली
जाने कब
तुम हाथ छुड़ा गये
और बस,
एक तस्वीर में
समा गये,
ये पगडंडी,
फिर भी,
समाप्त ना हुई,
और मेरे
छाले पड़े पाँव
चलते ही जाते हैं
इसपर,
निरन्तर
निरन्तर ...!!

टिप्पणी: गोटियों को मैंने लम्हों के रूप में देखा । और जीवन की पगडंडी में शामिल किया


गोपेश दशोरा
~ पीढ़ी का अन्तर~


क्यूं नहीं समझते हो पापा,
मेरा भी अपना जीवन है।
मेरे भी तो कुछ सपने है
घर के बाहर कुछ अपने है।
इतना बड़ा हो गया हूं कि,
भला बुरा सब समझ सकूं।
माना थोड़ी सी मुश्किल है,
पर बिना मदद के सम्भल सकूं।
उंगली थामी थी बचपन में,
अब छोड़ नहीं क्यूं देते हो।
पिंजरे में बांध रखा हमको,
क्यूं ना तुम उड़ने देते हो।
यह पीढ़ी-पीढ़ी का अन्तर है,
कभी समझ नहीं तुम पाओंगे।
ना साथ हमारा अगर दिया,
तो तन्हा ही रह जाओगे।
सुन बेटे की यह बात सभी,
माँ-पापा, थोड़े घबराए।
क्या इसीलिए ही सींचा था,
अपने आंगन के पौधे को?
जो बड़ा हुआ तो छाह नहीं,
फल मिले, जो मानो शर्तों को।
काट के अपना पेट जिसे,
दो वख्त खिलाया करते थे।
वो बेटा आँख दिखता है,
जिसे हाथों में सुलाया करते थे।
तू भी कल बाप बनेगा तब,
क्या इस सब से बच पाएगा।
जितना हमने है सहा यहांँ,
तू तनिक नहीं सह पाएगा।
माना तेरे कुछ सपने है,
पर मेरा सपना तो तू ही है।
माना तेरे कुछ अपने है,
पर मेरा अपना तो तू ही है।
मेरे सपने बस टूट गये,
मेरे अपने भी छूट गये।
जिनकी खातिर खुद को झोंक दिया,
वो ही हमसे मुंह मोड गये।
फिर भी,
बेटा, बस तू खुश रहे सदा,
और चाह नहीं कुछ है हमको,
अब घर में रहे या वृद्धाश्रम,
और कितना जीना है हमको।

टिप्पणी: जब माता-पिता अपने बच्चे को उंगली पकड चलना सिखाते है तब एक ही बात मन में होती है कि जब कल वे वृद्ध हो जाएगें तो उनके बच्चे उनका सहारा बनेंगे। लेकिन समय का पासा क्या लेकर आता है यह कोई नहीं जानता।



डॉली अग्रवाल 
~पिता~

मुझे वो अपना नाम देता है
सुकूँ के सुबह शाम देता है
पिता है वो मेरा ...
मेरे साथ ही जन्म लेता है !
भगवान है वो जमी पर मेरा
हर ख़ुशी मेरे नाम करता है
ऊँगली पकड़ सम्भालता है
माथे पे दे प्यार का बोसा
रोज मुझे संवारता है ...
पिता है वो मेरा , मेरे साथ ही जन्म लेता है !

टिप्पणी :माँ और पिता को परिभाषित करना वश में नही मेरे ! एक छोटा सा प्रयास मात्र !


प्रभा मित्तल
~~ये गोटियाँ~~
~~~~~~~~~~~

ये केवल दो गोटियाँ नहीं
हैं जीवन के अनिवार्य अंग।
मात-पिता दुःख सहकर भी
भरते हैं खुशियों के रंग।

एक जब धमकाता है
दूजा गले लगाता है
दुलरा कर,बहलाकर
चलना भी सिखलाता है।

ये जीवन की सौगात हैं
व्यक्तित्व की पहचान हैं
इन से ही देह में रक्त है।
नहीं! तो मानव अशक्त है।

आशीष साथ हो जब इनका
पथरीली पगडण्डी भी
मखमल सी बन जाती है
संसार चक्र में पिसकर भी
हम ऊँचा उठते जाते हैं।

टिप्पणी: गोटियों  को गोटियाँ नहीं बल्कि माता-पिता का रूप देकर उन्हें जीवन का अनिवार्य अंग माना है।


अलका गुप्ता
~ तस्वीर के दो पहलू ~

हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं
सकारात्मक है तो... नकारात्मक भी है !
आज का शिशु...बालक
कल पिता बनेगा
जब कि चल रहें हैं दोनों ही
साथ होते हैं...फ़िर भी..
कोई बचपन देखता है...
और...कोई बुढ़ापा !
एक ही तस्वीर के हैं दो पहलू
यदि आज कोई मृत हुआ तो..
जन्म तो निश्चित ही हुआ होगा
किसी ने मृत्यु गाई तो...
किसी ने जीवन गाथा...
बस उसी तरह से...
जिस तरह से पासे मॆं
अंकित अंक...जो कभी
हर्ष का कारण बनते हैं...
और कभी विषाद का !
लेकिन जो तस्वीर हम देखना चाहते हैं....
वह नज़र वह इशारे तभी
हम देख सकते हैं जबकि
वह ईश हमें दिखलाये.
मतलब साफ है...
यहाँ एक तस्वीर के हम
बेशक ...
मोहताज हों मगर...
तस्वीर का प्रतिबिम्ब
हमारे भावों का मोहताज है
और हम उस ईश्वर की
बख्शी हुई नज़र के !!!

टिपण्णी: बस यूँ ही हाथ फोन पर चलते रहें तस्वीर कॊ देख कर भाव मचलते रहें...जो भी लिखाया उस खुदा ने लिखाया मेरा कोई कसूर नही....न ही कोई कारीगरी !


कुसुम शर्मा
~कुसुम शर्मा छूटते रिश्ते~
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हाथ पकड़ कर चलना सिखाया
अच्छे बुरे का भेद बताया
दुख मे जिसने सदा सम्भाला
मात पिता का रिश्ता निराला
जिनकी छाया मे बड़े हुये
हर ज़िद मे उनसे अंडे रहे
पूरी होने पर गले लगे
उनकी डाँट प्यार से बड़े हुए
अपनी कामयाबी के मद मे
आज क्यो उनको भूल गये
वृद्धाश्रम बनाकर
उनकी सेवा से मुक्त हुए
जिन्होंने हमारी खुशी के लिए
अपने हर सुख त्याग दिये
आज हमने वृद्ध अवस्था मे
उनको ही त्याग दिया
कल ये दिन फिर लौट के आयेगा
जो बनाये वृद्धाश्रम हमने
वो ही हमारा घर कहलायेगा !!

टिप्पणी 
पिता की अंगली पकड़ कर हम चलना सीखते है उनकी छाया मे बड़े होते है और बड़े होने पर हम जब उन्हे हमारी अवश्कता होती है तो हम उनको वृद्धाश्रम मे छोड आते है और ये भूल जाते है कि जो हम बो रहे है वही काटेंगे जिन्होंने हमारी खुशी के लिए दुख उठाये हम आज फिर अपनी झूठी खुशी के लिए फिर से उन्हे दुख दे रहे है !!




सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Wednesday, August 3, 2016

तकब खुला मंच #3



तकब खुला मंच #3
समूह का यह तीसरा खुला मंच है. माह के अंतिम सप्ताह में प्रतियोगिता नही होगी. यह एक खुला मंच होगा चर्चा, परिचर्चा, समीक्षा हेतु. इस खुले मंच में हम एक युवा प्रतिभावान रचनाकार को आमंत्रित करेंगे. उनकी कविता के साथ एक चित्र प्रस्तुत करेंगे [ चित्र हम प्रस्तुत करेंगे उनकी रचना पर]. परिचर्चा के दौरान वे ही आपकी रचनाओं की समीक्षा करेंगे - एडमिन किरण प्रतिबिम्ब
इस बार हम आमंत्रित कर रहे है मृदुल भाषी, होनहार, युवा लेखिका कवियत्री , साहित्य प्रेमी मीना प्रजापति जी को। वे अभी दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर कॉलेज से हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार पढ़ रही है। वे अभी तृतीय वर्ष की छात्रा हैं। कवितायेँ लिखने का शौक रखती है। इस मंच के लिए भी इन्होंने इस बार कविता भेजी थी मुझे सन्देश रूप में भेजी थी जिसे मैं न देख पाया न ही शामिल कर पाया। क्षमा के साथ उनकी एक अन्य कविता 'जूड़ा' यहाँ पेश कर रहा हूँ। प्रेषित चित्र केवल आपके लिए है। उनकी कविता पर यह चित्र केंद्रित नही है।
मीना जी को इस परिवार की ओर से हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएं।
- जूड़ा -
ऐसे लपेटती हूँ उसे
जैसे सारी झुंझलाहट
हाथो की उँगलियों में
लपेट ली हो
खूब कसकर
मसोस देती हूँ जुड़े को
जब खुल जाती हैं
काली स्याह गुस्से की लड़ियाँ
अमेंठती हूँ
समेटती हूँ
खुद को जूड़े की तरह
बार बार खुल जाता है
बिखर जाता है
फिर खुद को शांत कर
उसको समझाती हूँ
तुम हर भाव में
मेरे साथ हो
किलो में नहीं बिकते हो
भावनाओं में बह जाते हो
गुस्से में गुस्सा हो जाते हो
ख़ुशी में खिलखिलाकर
सिमट जाते हो
चिलमिलाती धूप में भी
जूड़ा शिकायत नहीं करता
तुम तो मनचले हो
इसलिये ही
उसे देखते ही
हवाओं मे उड़ जाते हो
मेरी किरकिरी, मिसमिसि
कशमकश, दुविधा
सब जुड़ जाती है
जूड़े के साथ
(आप सभी इस चित्र पर अपने भाव दस पंक्तियों एवं शीर्षक के साथ 1 अगस्त 2016 तक लिख सकते है। मीना जी समय पर उन रचनाओं पर अपनी राय या विचार रखेगी - धन्यवाद )



Kiran Srivastava 
इंतजार
===================
खत ना खबर...
बेबस सी नजर
ढूंढती है तुम्हें,
लौट आओगे,
फिर पास मेरे।
अपलक निहारती
आंखें राहों को...
खिचती चली आतीं हूं
रोज बेबस होकर,
तेरे इंतज़ार में....
मिलने का वादा
जो तुम कर गए
इन वादियों में...!!!
कैसे समझाएं
पागल दिल को....
जो बैठा है
आस लगाए,
कि शायद तुम
फिर आ जाओ,
इसी इंतजार में.....!!!!



डॉली अग्रवाल
इंतजार

इंतजार सिर्फ एक
कोशिश है
इस सच्चाई को
झुठलाने की
कि
वादा करके भी
तुम आओगे नही !
मेरे तुमहारे बीच
एक रौशनी का
फासला
तुमहारे पलट आने
से भी क्या
मिट पायेगा !
इंतजार खत्म नही होता
उम्र और वक्त गुजर जाता है
कोई अपना सा , रूठा सा
बस खो जाता है !!



नैनी ग्रोवर 
खाली वादियाँ

बिरह के पिंजरे में, कैद हुई,
जाने नहीं मेरी पीर कोई,
रिस्ता है लहू, मेरे सपनों का,
ज़रा देखे कलेजा चीर कोई..
पखेरू बन उड़े,
सारे सपने हवाओं में,
घुल गया कजरा,
इन उजरी घटाओं में,
चुभती है निगाहों को,
ये महकी हरियाली,
उतर जाए सीने में,
जैसे के तीर कोई..
खाली-खाली सी,
लगती हैं ये वादियाँ,
देखूँ जिधर भी,
तेरी यादों का ही घुआं,
सर्द मौसम भी,
तपने लगा आजकल,
रंग आसमान भी,
अपना रहा है बदल,
आजा के, आके बंधा जा,
मुझे अब धीर कोई,..!!




Prerna Mittal 
प्रकृति

एक आम, मामूली सी, पहाड़ी सी लड़की,
सीढ़ीनुमा खेतों में बेफ़िक्र घूमती सी लड़की,
देखकर जल जाए कोई, ख़ुशगवार सी लड़की,
पर कुछ ख़ास नहीं, क्यों? आकर्षक सी लड़की ।

हिमालय की वादियाँ ही जिसकी दुनिया,
यहीं पाती वह अपनी सारी ख़ुशियाँ ।
दिन भर माँ का हाथ बँटाती,
रात को उसी के आँचल में सो जाती ।
ना और कुछ चाहा रब से,
ना और कुछ माँगा उससे ।

आज कोई बाबू साहेब आए थे घर में,
दौड़ती खतिरदारी करती अतिथि की क्षण में ।
जाने के बाद उसके मन में कुछ खटक गया,
किसी आशंका से दिल उसका धड़क गया ।

फिर सुना उसने किवाड़ की आड़ से,
बाबा जो बता रहे थे अम्मा को उत्साह से ।
ये हैं दिल्ली में बड़े नामी व्यापारी,
लाडो राज करेगी अब, हमारी ।

दहेज लेना तो दूर वे हमारा क़र्ज़ भी उतारेंगे,
हमारी पल-पल डूबती नैया को पार उतारेंगे ।

उसके पैरों के नीचे से तो ज़मीन ही सरक गई ।
भागते हुए दूर तक पहुँची, आँखें छलक गईं ।
यहाँ फैली हरियाली और हिमाच्छादित पर्वत,
देते उसे असीम शांति, जब भी पड़ती ज़रूरत ।

बैठी ताकती वह चुपचाप अपने अनूठे जहान को,
नहीं चाहती छोड़कर जाना वह इस उद्यान को ।
क्या वह अपना हृदय किसी के समक्ष खोल पाएगी ?
या फिर पिता की आकांक्षाओं पर बलि चढ़ जाएगी ।




प्रभा मित्तल 
~~प्रतीक्षा ~~
~~~~~~~~~~
रोज सोचती हूँ ,पाती आएगी
कहे अनकहे दर्द समेट लाएगी

बैठी तकती हूँ होकर मौन......
बेज़ुबान मगर बोलती सी
हरी -भरी इन वादियों में,
ऊपर से नीचे जाती,
नीचे से ऊपर आती
ये पगडण्डियाँ...
मेरा भी ख़त लाएँगी
बहुत दिनों बाद मुरझाए मन में
मुसकानों की कलियाँ खिल जाएँगी

रोज सोचती हूँ ,पाती आएगी
कहे अनकहे दर्द समेट लाएगी।

इन दरख़्तों के झूमते तन से,
घटाओं के गरजते मन से,
हवा की साँय-साँय और
बरसते कुहासे की धुंध में
नहाई इन वादियों से
रोज पूछती हूँ
स्वप्नों की स्वर लहरी, क्या
सचमुच, आकर मुझे जगाएगी -
मान औ मनुहार की सौगंध खिलाएगी।

रोज सोचती हूँ ,पाती आएगी
कहे अनकहे दर्द समेट लाएगी।




प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
-इंतज़ार-

प्रेम का संसार बड़ा है मेरा
तुझ में ही बसा है जग सारा

रोम रोम पुकारता है जब तुम्हें
अहसासों में खो जाता तन मन मेरा

यह मेरा ख़्वाब ही सही
पर लगता है मेरे मन को प्यारा

रुठने मनाने का मौसम आया नहीं
और दूरियां बिगाड़ रही खेल सारा

हर पल मेरा गुजरे बाहों में तेरी
बस इंतज़ार है मुझे जब वक्त हो हमारा

[ मीना  जी आपका  हार्दिक  धन्यवाद  'तस्वीर क्या बोले'  समूह  परिवार  की  ओर  से, भविष्य  के  लिए  शुभकामनाएं ]

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