Wednesday, August 24, 2016

#तकब११ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #11]







#तकब११ [ तस्वीर क्या बोले प्रतियोगिता #11]
मित्रो लीजिये अगली प्रतियोगिता आपके सम्मुख है. नियम निम्नलिखित है 
१. दिए गए चित्रों में सामंजस्य के साथ कम से कम १० पंक्तियों की काव्य रचना शीर्षक 
सहित होनी अनिवार्य है [ हर प्रतियोगी को एक ही रचना लिखने की अनुमति है]. 
- यह हिन्दी को समर्पित मंच है तो हिन्दी के शब्दों का ही प्रयोग करिए जहाँ तक संभव हो. 
चयन में इसे महत्व दिया जाएगा.
[एक निवेदन- टाइपिंग के कारण शब्द गलत न पोस्ट हों यह ध्यान रखिये. अपनी रचना को
पोस्ट करने से पहले एक दो बार अवश्य पढ़े]
२. रचना के अंत में कम से कम दो पंक्तियाँ लिखनी है जिसमे आपने रचना में उदृत भाव 
के विषय में सोच को स्थान देना है. 
३. प्रतियोगिता में आपके भाव अपने और नए होने चाहिए. 
४. प्रतियोगिता २० अगस्त २०१६ की रात्रि को समाप्त होगी.
५. अन्य रचनाओं को पसंद कीजिये, कोई अन्य बात न लिखी जाए, हाँ कोई शंका/प्रश्न हो 
तो लिखिए जिसे समाधान होते ही हटा लीजियेगा.
६. आपकी रचित रचना को कहीं सांझा न कीजिये जब तक प्रतियोगिता समाप्त न हो या 
उसकी विद्धिवत घोषणा न हो तथा ब्लॉग में प्रकशित न हो.
विशेष : यह समूह सभी सदस्य हेतू है और जो निर्णायक दल के सदस्य है वे भी इस 
प्रतियोगिता में शामिल है हाँ वे अपनी रचना को नही चुन सकते लेकिन अन्य सदस्य चुन 
सकते है. सभी का चयन गोपनीय ही होगा जब तक एडमिन विजेता की घोषणा न कर ले.
निर्णायक मंडल के लिए : 
1. अब एडमिन प्रतियोगिता से बाहर है, वे रचनाये लिख सकते है. लेकिन उन्हें चयन हेतु न 
शामिल किया जाए.
2. कृपया अशुद्धियों को नज़र अंदाज न किया जाए.



इस बार की विजेता है  सुश्री आभा अग्रवाल  - बधाई  एवं शुभकामनाएं 

Meena Prajapati 
~पृथ्वी के रंग~

मुझमें बहुत कम रंगत हैं
पर! मेरी दुनिया रंगीन है
यहाँ हरे, लाल, पीले
नीले, सतरंगी सभी जन हैं
ये मेरे अपने हैं इसलिए ही,
मुझे कुरेदते हैं, मसलते हैं
चढ़ते हैं, खोदते हैं
सभी रंग बहुत खुश हैं
अपने लाल आयतो में
मैंने तो इंसान बनाये थे
मन्दिर, मस्जिद, द्वारा नहीं
तुम समझदार व्यक्ति थे
बेज़ुबान को मारने
वाले हैवान नहीं
मुझे घेरो मत हाथों से
धर्म, जाति-पाति के
गहने ना पहनाओ
रंगत, खुशियाँ बांटो
फूल ,पाती,तलैया
मेरे हर अंग को
नोच खा लिया है
मेरा बलात्कार हुआ है
मुझे फाड़ दिया है
गाय और सूअर जैसे
नहीं सह पा रही हूँ
तेरा कुरेदना और फाड़ना
मेरा दम घुट रहा है
मैं पृथ्वी और मेरा
रंग ढल रहा है
हौले हौले।

टिपण्णी:- उपरोक्त पंक्तियाँ लिखते समय मुझे इस तस्वीर के रंगों ने बहुत प्रभावित किया और पृथ्वी को घेर कर खड़े लोग मुझे परेशान करने लगें। अपनी इसी परेशानी को मैंने अपनी कविता में लिखनी की कोशिश की है।





Prerna Mittal 
~वसुधैव कुटुंबकम~
~~~~~~~~~~

वसुधैव कुटुंबकम का आज तक, जिसका जैसे मन चाहा, उसने मतलब लगाया,
ज़ी टी.वी. ने भी इसे, अपना प्रचार वाक्य बनाकर ख़ूब नाम कमाया ।

महाउपनिषद में प्रथम उल्लेख, वसुधैव कुटुंबकम का,
ऊँच-नीच भेदभाव से ऊपर प्रयोजन था एकता का।
आर्यन थे इसके प्रवक्ता,
हमारी संस्कृति के निर्माता ।
धरती थी उस समय अभिशापित,
ऊँच-नीच जात-पात से कलुषित ।
बुद्ध, महावीर स्वामी ने सामंजस्य बिठाया,
सारे विश्व को समानता का पाठ पढ़ाया ।

ख़्वाब अखंड भारत का देखा चंद्रगुप्त मौर्य ने,
सिकंदर महान भी चला विश्व पर विजय करने ।
शायद यही था तात्पर्य इनके लिए वसुधैव कुटुंबकम का,
बनाएँ पूर्ण धरा को एक कुनबा करके साम्राज्य स्वयं का ।

चौदहवीं सदी में मंगोलों ने मचाई बहुत धूम,
साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाया घूम-घूम ।
पन्द्रहवीं सदी में कोलंबस ने ढूँढा अमेरिका,
परिवार को खोजना ही रहा होगा उद्देश्य उसका ।

बाद में मुग़लों ने सबको मुसलमान बनाया,
वसुधैव कुटुंबकम का नया मतलब समझाया ।
अंग्रेज़ों ने भी किया, सम्पूर्ण दुनिया पर राज,
पूरी वसुधा को क़ुटुंब बनाया, सर पर पहना ताज ।

आख़िरकार कम्प्यूटर-इंटरनेट ने किया स्वप्न पूरा पूर्वजों का,
कभी सोचा ना होगा ऐसा, करते समय सृजन वेदों का ।
पृथ्वी बन गई अब, क़ुटुंब सच में,
सिमट गई, हस्त में पकड़े मोबाइल में ।

सहकर्मी, मित्र और पड़ोसी अब परिचितों से आँखें चुराते हैं,
पोकीमोन की खोज में अजनबियों को दोस्त बनाते हैं ।
अब है आदमी को ख़बर, पूरे जगत की,
सुध ना है केवल, अपने घर के जन की ।

टिप्पणी: यह चित्र एकता और भाईचारे का संदेश दे रहा है । जिसे हमारी संस्कृति में हमेशा प्राथमिकता दी गई है । उसमें दिए गए वसुधैव कुटुंबकम के संदेश की मैंने इतिहास और आज के संदर्भ में अपने दृष्टिकोण से विवेचना करने की कोशिश की है ।




Sunita Pushpraj Pandey 
****दुनिया ****


दुनियाभर के लोग
अलग - अलग रूप, अलग - अलग रंग
जीतने को दुनिया कर रहे मानवता का खून
कहाँ रहे जीसस अब कहाँ गये संत रविदास
न रहे अब वैसे पीर फकीर
जो करते इंसानियत का गुणगान
सुख शांती कायम रखने को
कभी उठा करती थी तलवार
अब रक्त पिपासा बन
सत्ता के मद में मचा रही संहार।

टिप्पणी - बहुत कष्ट होता है मानवता का खून बहते




नैनी ग्रोवर
~ सोलह आने सच ~


दाता ने दी धरती,
और अम्बर नीला नीला,
चाँद सितारे बना के उसने,
दिखा दी अपनी लीला..
फिर बनाए आदम और हुव्वा,
दिया धरती पे भेज,
बसने लगी फिर ये दुनियाँ,
ज्यूँ सूरज का तेज...
बना लिए फिर मानव ने,
भिन्न भिन्न ये भेस,
दे दिए, नाम धरती को,
देश और विदेश..
कोई नही पराया जग में,
बात है सोलह आने सच,
इसलिए कहा सन्तों ने,
नफरत से तू बच...
पहरावा पहचान मात्र है,
ज्यूँ सूरत अलग अलग है,
पर खून है सबमे एक ही जैसा,
ज्यूँ जोत से ज्योति ना विलग है...
रंग बिरंगी इस दुनिया में,
प्यार ही प्यार बरसा दो,
ऐ नीली छतरी वाले,
मानव को ये बात ज़रा समझा दो...!!

टिप्पणी : इंसान से इंसान की बेरुखी, और जात पात का भेदभाव,





Kiran Srivastava
(हमारी पृथ्वी)
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रंग बिरंगे देश यहाँ पर
अलग -अलग सी भाषा है,
अलग-अलग है रंग रूप
पर एक ही परिभाषा है।

रीति रिवाज संस्कृति का
अगता अद्भुत मेला है,
सभी त्योहार दिलों में बसतें है
सभी रूप अलबेला है।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई
मिल-जुल कर हमें रहना है,
इसकी रक्षा की खातिर
कुछ भी कर गुजरना है।

आओ मिलकर करें संकल्प
मिल-जुल करके रहेंगे अब,
आंच न आने देंगे इस पर
इसकी रक्षा करेंगे सब..!!!!

===================
टिप्पणी- ईश्वर प्रदत दुनियां बहुत खूबसूरत है।विभिन्नताओं के होते हुए भी इसकी कला ,संस्कृति रीति रिवाज मन को मोह लेतें हैं इन सभी धरोहरों की रक्षा के साथ साथ पृथ्वीकी रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है।




कुसुम शर्मा 
~इंसानियत भूल गया इंसान~
---------------------


छा रहा संसार में
आतंक का ज़ोर है ।
चारों ओर
त्राहि त्राहि का शोर है !
मानवता क्यो
भूल गया इंसान
उसके सर चढ़ा
जानवर का
क्या ख़ून है !

जो खेलते थे कभी
रंगो की होली
वही खेल रहे अब
ख़ूनों की होली
क्यो आपस मे
बड़ा ये बैर है
किसने चलाया
ये खेल है

कोई कहता है
हम हिन्दू
कोई कहता
मुस्लबान है
कोई सिख तो
कोई ईसाई
सभी लड़ रहे
धर्म के नाम पर
क्या बचा
यहाँ पर इन्सान है

कोई मज़हब या धर्म
नही सीखाता
आपस मे बैर रखना

छोड कर राह नफरत की
प्रेम से जीना सीख लो
ये धरती है हमारी
इसे प्रेम से सींच लो
जाति धर्म को छोड कर
इंसान होना सीख लो !!

टिप्पणी :- आजकल धर्म के नाम पर अतंक सारे संसार मे छाया हुआ है एक इन्सान दूसरे इन्सान को मार रहा है जैसे वह इंसान नही कोई जानवर हो । वह आपस मे धर्म के नाम पर लड़ते रहते है कोई भी धर्म हमे नफरत करवाना नही सिखाता न ही वह कहता है कि एक दूसरे को मारो ! ये संसार हमारा घर है इसे हमे प्रेम से सजाना चाहिए, हम किस जाति या धर्म के है यह बाद की बात है सबसे पहले हम इन्सान है इस बात ध्यान रखना चाहिए ।



Madan Mohan Thapliyal शैल
वसुधा औ मानव
************

जब मैं न था माते-
तेरा अकूत भंडार था -
न कोई सीमा न बन्धन -
मात्र विस्तार ही विस्तार था .
झरनों की रंगत -
पक्षियों का कलरव -
फल - फूलों से लदी डालियां -
अद्भुत अपूर्व तेरा श्रृंगार था .
मणि- माणिक , हीरे- जवाहरातों से सुसज्जित -
रंगोली सी सजी धरणी -
रंग- बिरंगी तितलियों की चपलता -
आलौकिक तेरा परिधान था .
वैभव की थी नहीं कमी -
सब कुछ था भरा - भरा -
स्नेह पूरित था सब -
न कहीं किसी का तिरस्कार था .
मैं आया परिभाषित करने -
इस भंडार को-
माया - मोह ने जकड़ा-
जगा दिया अहंकार को.
शक्ल सूरत को लगा पूजने -
दिशा भ्रमित होने लगा -
न मिला विस्तार कोई -
सीमाओं में बाँध के रख दिया अपने आप को .
संत, पैगंबरों को बाँटा -
ऋषि - मुनियों औ अवतारों को बाँटा -
मन्दिर, मस्जिद की दे दुहाई -
उलझा दिया अपने आप को .
तेरी ममता को लगा भूलने -
भौतिक सुविधाओं में लगा झूलने -
निज स्वार्थ को कर पोषित -
छिन्न - भिन्न कर दिया तेरे प्यार को .
कर सुधार भूल अपनी -
छोड़ ए सारा क्रंदन -
लगा माथे पर तिलक माटी का -
रंगोली ली सी सजी, धरा को कर नमन .....

टिप्पणी  - धरती और मनुष्य का जन्म जन्मों का संबन्ध है. भौतिक सुखों की होड़ छोड़कर हमें पृथ्वी के अस्तित्व को क़ायम रखने में मानवता का परिचय देना चाहिए..





कौशल उप्रेती
~लिखना~

दिल में जो आये वो पैगाम लिखना
हमने सहर लिखा.. तुम शाम लिखना

कुछ इस तरह से दिलों के रंज भुला
मेरे हिस्से कि धूप भी अपने नाम लिखना

कलम जमाने से रख के रूबरू
महके जो हर खिजां में वो बाम लिखना

मन को फैला के दुनियाँ से बड़ा
कभी काबा तो कभी चार-धाम लिखना

कौशल इस तरह अपनाना खुद को
दिल कि बात दिल से बे-लगाम लिखना

टिप्पणी : हम सब एक हैं चाहे किसी भी जात धर्म से हैं, धरती सबकी है और सब धरती के... वसुधैव कुटुम्बकम्...




प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल ......
~विश्व शांति~

परम धरम श्रुति विदित अहिंसा।
पर निंदा सम अध न गरीसा।। [मानसकार ]

विश्व शांति के लिए हर राष्ट्र को
अहिंसा का सही अर्थ समझना होगा
तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से
किसी प्राणी को नुकसान न पहुँचाना होगा
यही तो हमारे संस्कार में समाहित है
'अहिंसा परमो धर्मं' को स्वीकारना होगा
साम्प्रदायिक और असाम्प्रदायिक के तर्क वितर्क से
बहार निकल सर्वधर्म संभाव को अपनाना होगा
राजनीति से नही कूटनीति का उपयोग कर
धर्मनिरपेक्ष शब्द को हमें अपनाना होगा
भारत मे परपरागत सब धर्मो का सम्मान है
यहे हमें मानना और विश्व को सिखाना होगा
'वसुधैव कुटुम्बकम' का देकर सबको विचार
शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का प्रयास करना होगा

टिप्पणी: विश्व शांति और सुरक्षा आज हर राष्ट्र का उत्तरदायित्व है और भारत इसमें प्रमुख भूमिका निभा सकता है।



Ajai Agarwal
Ajai Agarwal धरती माँ का पुनः संस्थापन
=================
स्वप्नाभिलाषी तुम कहो ,
मैं तो यही बस मानती हूँ ,
हाथ तुम हाथों में दे दो ,
कारवां बनना ; नियति है ,
प्यार के दो शब्द बोलो
गाँठ उर की खोल देंगे
ध्येय ; हो कल्याण सबका !
लक्ष्य ,ये लेकर चलेंगे ,
अहिंसा धर्म परम् है
इसी से, मानवता बचेगी
विश्व जीवन ज्योति जागे
सृष्टि को यौवन मिले
हर रंग हर बिम्ब की
सृष्टि को सौगात देदें
आज हम सौगन्ध ये लें
हाथ में ले हाथ सबका ,
छोड़ के धर्मों के पहरे ,
तोड़ के जाती के बन्धन
एक हो धरती को बचाएं
कुछ तुम त्यागो ,कुछ मैं छोडूं
सुविधाओं को कम करें अर
शस्यश्यामल धरती माँ का
हम करें पुनः संस्थापन -
हम करें पुनः संस्थापन

टिप्पणी ---सुविधाओं और लालच के जंजाल से ,हिंसा की जकड़ से ,देश धर्म जाती रंगों के बन्धन से मुक्ति पाएंगे तभी धरती को सजा पाएंगे उसका पुनः संस्थापन कर पाएंगे और इसके लिए केवल दिल में प्यार की आवश्यकता है ---

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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