Wednesday, August 3, 2016

तकब खुला मंच #3



तकब खुला मंच #3
समूह का यह तीसरा खुला मंच है. माह के अंतिम सप्ताह में प्रतियोगिता नही होगी. यह एक खुला मंच होगा चर्चा, परिचर्चा, समीक्षा हेतु. इस खुले मंच में हम एक युवा प्रतिभावान रचनाकार को आमंत्रित करेंगे. उनकी कविता के साथ एक चित्र प्रस्तुत करेंगे [ चित्र हम प्रस्तुत करेंगे उनकी रचना पर]. परिचर्चा के दौरान वे ही आपकी रचनाओं की समीक्षा करेंगे - एडमिन किरण प्रतिबिम्ब
इस बार हम आमंत्रित कर रहे है मृदुल भाषी, होनहार, युवा लेखिका कवियत्री , साहित्य प्रेमी मीना प्रजापति जी को। वे अभी दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर कॉलेज से हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार पढ़ रही है। वे अभी तृतीय वर्ष की छात्रा हैं। कवितायेँ लिखने का शौक रखती है। इस मंच के लिए भी इन्होंने इस बार कविता भेजी थी मुझे सन्देश रूप में भेजी थी जिसे मैं न देख पाया न ही शामिल कर पाया। क्षमा के साथ उनकी एक अन्य कविता 'जूड़ा' यहाँ पेश कर रहा हूँ। प्रेषित चित्र केवल आपके लिए है। उनकी कविता पर यह चित्र केंद्रित नही है।
मीना जी को इस परिवार की ओर से हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएं।
- जूड़ा -
ऐसे लपेटती हूँ उसे
जैसे सारी झुंझलाहट
हाथो की उँगलियों में
लपेट ली हो
खूब कसकर
मसोस देती हूँ जुड़े को
जब खुल जाती हैं
काली स्याह गुस्से की लड़ियाँ
अमेंठती हूँ
समेटती हूँ
खुद को जूड़े की तरह
बार बार खुल जाता है
बिखर जाता है
फिर खुद को शांत कर
उसको समझाती हूँ
तुम हर भाव में
मेरे साथ हो
किलो में नहीं बिकते हो
भावनाओं में बह जाते हो
गुस्से में गुस्सा हो जाते हो
ख़ुशी में खिलखिलाकर
सिमट जाते हो
चिलमिलाती धूप में भी
जूड़ा शिकायत नहीं करता
तुम तो मनचले हो
इसलिये ही
उसे देखते ही
हवाओं मे उड़ जाते हो
मेरी किरकिरी, मिसमिसि
कशमकश, दुविधा
सब जुड़ जाती है
जूड़े के साथ
(आप सभी इस चित्र पर अपने भाव दस पंक्तियों एवं शीर्षक के साथ 1 अगस्त 2016 तक लिख सकते है। मीना जी समय पर उन रचनाओं पर अपनी राय या विचार रखेगी - धन्यवाद )



Kiran Srivastava 
इंतजार
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खत ना खबर...
बेबस सी नजर
ढूंढती है तुम्हें,
लौट आओगे,
फिर पास मेरे।
अपलक निहारती
आंखें राहों को...
खिचती चली आतीं हूं
रोज बेबस होकर,
तेरे इंतज़ार में....
मिलने का वादा
जो तुम कर गए
इन वादियों में...!!!
कैसे समझाएं
पागल दिल को....
जो बैठा है
आस लगाए,
कि शायद तुम
फिर आ जाओ,
इसी इंतजार में.....!!!!



डॉली अग्रवाल
इंतजार

इंतजार सिर्फ एक
कोशिश है
इस सच्चाई को
झुठलाने की
कि
वादा करके भी
तुम आओगे नही !
मेरे तुमहारे बीच
एक रौशनी का
फासला
तुमहारे पलट आने
से भी क्या
मिट पायेगा !
इंतजार खत्म नही होता
उम्र और वक्त गुजर जाता है
कोई अपना सा , रूठा सा
बस खो जाता है !!



नैनी ग्रोवर 
खाली वादियाँ

बिरह के पिंजरे में, कैद हुई,
जाने नहीं मेरी पीर कोई,
रिस्ता है लहू, मेरे सपनों का,
ज़रा देखे कलेजा चीर कोई..
पखेरू बन उड़े,
सारे सपने हवाओं में,
घुल गया कजरा,
इन उजरी घटाओं में,
चुभती है निगाहों को,
ये महकी हरियाली,
उतर जाए सीने में,
जैसे के तीर कोई..
खाली-खाली सी,
लगती हैं ये वादियाँ,
देखूँ जिधर भी,
तेरी यादों का ही घुआं,
सर्द मौसम भी,
तपने लगा आजकल,
रंग आसमान भी,
अपना रहा है बदल,
आजा के, आके बंधा जा,
मुझे अब धीर कोई,..!!




Prerna Mittal 
प्रकृति

एक आम, मामूली सी, पहाड़ी सी लड़की,
सीढ़ीनुमा खेतों में बेफ़िक्र घूमती सी लड़की,
देखकर जल जाए कोई, ख़ुशगवार सी लड़की,
पर कुछ ख़ास नहीं, क्यों? आकर्षक सी लड़की ।

हिमालय की वादियाँ ही जिसकी दुनिया,
यहीं पाती वह अपनी सारी ख़ुशियाँ ।
दिन भर माँ का हाथ बँटाती,
रात को उसी के आँचल में सो जाती ।
ना और कुछ चाहा रब से,
ना और कुछ माँगा उससे ।

आज कोई बाबू साहेब आए थे घर में,
दौड़ती खतिरदारी करती अतिथि की क्षण में ।
जाने के बाद उसके मन में कुछ खटक गया,
किसी आशंका से दिल उसका धड़क गया ।

फिर सुना उसने किवाड़ की आड़ से,
बाबा जो बता रहे थे अम्मा को उत्साह से ।
ये हैं दिल्ली में बड़े नामी व्यापारी,
लाडो राज करेगी अब, हमारी ।

दहेज लेना तो दूर वे हमारा क़र्ज़ भी उतारेंगे,
हमारी पल-पल डूबती नैया को पार उतारेंगे ।

उसके पैरों के नीचे से तो ज़मीन ही सरक गई ।
भागते हुए दूर तक पहुँची, आँखें छलक गईं ।
यहाँ फैली हरियाली और हिमाच्छादित पर्वत,
देते उसे असीम शांति, जब भी पड़ती ज़रूरत ।

बैठी ताकती वह चुपचाप अपने अनूठे जहान को,
नहीं चाहती छोड़कर जाना वह इस उद्यान को ।
क्या वह अपना हृदय किसी के समक्ष खोल पाएगी ?
या फिर पिता की आकांक्षाओं पर बलि चढ़ जाएगी ।




प्रभा मित्तल 
~~प्रतीक्षा ~~
~~~~~~~~~~
रोज सोचती हूँ ,पाती आएगी
कहे अनकहे दर्द समेट लाएगी

बैठी तकती हूँ होकर मौन......
बेज़ुबान मगर बोलती सी
हरी -भरी इन वादियों में,
ऊपर से नीचे जाती,
नीचे से ऊपर आती
ये पगडण्डियाँ...
मेरा भी ख़त लाएँगी
बहुत दिनों बाद मुरझाए मन में
मुसकानों की कलियाँ खिल जाएँगी

रोज सोचती हूँ ,पाती आएगी
कहे अनकहे दर्द समेट लाएगी।

इन दरख़्तों के झूमते तन से,
घटाओं के गरजते मन से,
हवा की साँय-साँय और
बरसते कुहासे की धुंध में
नहाई इन वादियों से
रोज पूछती हूँ
स्वप्नों की स्वर लहरी, क्या
सचमुच, आकर मुझे जगाएगी -
मान औ मनुहार की सौगंध खिलाएगी।

रोज सोचती हूँ ,पाती आएगी
कहे अनकहे दर्द समेट लाएगी।




प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
-इंतज़ार-

प्रेम का संसार बड़ा है मेरा
तुझ में ही बसा है जग सारा

रोम रोम पुकारता है जब तुम्हें
अहसासों में खो जाता तन मन मेरा

यह मेरा ख़्वाब ही सही
पर लगता है मेरे मन को प्यारा

रुठने मनाने का मौसम आया नहीं
और दूरियां बिगाड़ रही खेल सारा

हर पल मेरा गुजरे बाहों में तेरी
बस इंतज़ार है मुझे जब वक्त हो हमारा

[ मीना  जी आपका  हार्दिक  धन्यवाद  'तस्वीर क्या बोले'  समूह  परिवार  की  ओर  से, भविष्य  के  लिए  शुभकामनाएं ]

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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