Monday, June 6, 2022

तकब 09/22 रचनाएँ, परिणाम व समीक्षा


तकब 09/22 रचनाएँ, परिणाम व समीक्षा

 


रचनाएँ


रोशन बलूनी

मजदूर

(विधा-गेय काव्य)

 

हर दिन मैं जूझता हूँ,दो कौडी मिलेगी,

नित-रोज सोचता हूँ,बगिया ये महकेगी,

कि इस आस में कभी तो दिवाली मनेगी,

कि बहुरेंगे दिन हमारे,होली भी तो होगी।।1।।

 

मजबूरी में भी जीना है,जीना तो पडेगा,

दो जून की रोटी के लिए,जाना तो पडेगा,

हाथों पे फफोले पडे,सहना तो पडेगा,

#मजदूर_हूँ_मजबूत_तो_बनना_ही_पडेगा।।2।।

 

हर बूँद पसीने की,ज़ज्बात जानती है,

ये मुफ़लिसी ही मेरी,संताप जानती है,

बिन खाये दिन गुजा़रे,आत्मा ये जानती है,

उपवास कैसा हो?ये ज़बान जानती है।।3।।

 

मैं अभागा आज भी,दर-दर भटक रहा,

फुटपाथों पे सदा यूँ,याचक बना रहा,

मैं कर्मनिष्ठ होकर,साधक बना रहा,

कि मेरे लिए विधाता,दण्डक बना रहा।।4।।

 

मजबूरी है गरीबी,मैं जीता जा रहा हूँ,

शोषक के बातों से मैं,हर बार छला हूँ,

कि हैं जो नियामक,मैं उनसे ही हारा हूँ,

सिसक-सिसक के यूँ मैं,थक-हार गया हूँ।।5।।

 

टिप्पणी: मजदूर और मजदूरी एक दूसरे के सम्पूरक हैं।मजदूर दिवस अभी हमने 01 मई को मनाया...परन्तु क्या हम सच में सोचते हैं कि जिस आलीशान कोठी,बंगले या बंगलो में और शानदार बहुमंजिला अट्टालिकाओं में हम शान से रहते हैं उस रनिवास पर उसी मजदूर का रग-रग में रक्तकणों और पसीने का ही प्रतिफल है हालांकि उन प्रासादों में बानवाने वालों की अथक परिश्रम की कमाई लगती है लेकिन बेचारा मजदूर पूरी मेहनत के बाद भी वही रोजमर्रा की जिंदगी में आपाधापी में ही रहने को मजबूर होता है।इसलिए मानवता और मानवीय मूल्यों को आत्मसात् करते हुए हमें मजदूरों की मजदूरी के साथ खिलवाड़ नही करना चाहिए,उसे भी होली दिवाली और अन्यान्य संस्कारों को धूमधाम से करने की स्वतंत्रता है,कहीं हम अनजाने में उसके हितों की अनदेखी तो नही कर रहे हैं,यह सोच रखनी चाहिए तभी मजदूर दिवस की असली प्रासंगिकता होगी।

 

 

 

 

 


 

ब्रह्माणी वीणा हिन्दी साहित्यकार

श्रमिक

[विधाता छंद में,,,( 1222 1222 1222 1222 मापनी)]

 

श्रमिक को हर व्यथा अपनी,सहन करते सदा देखा !

तुम्हारे हाथ से निर्मित,,,,,,,,महल बनते सदा देखा !!

*

गरम लू के थपेडों में,,,,चले तुम! काम करने को,

नमन है साहसी तन को,,,,,,,,तुम्हें सहते सदा देखा !!

*

गरीबी है बड़ी जालिम,,,,,,,,नहीं सोंचा अमीरों नें,

जिन्होंने छत दिया सबको ,,उन्हें झुकते सदा देखा !!

*

ज़रा सोंचो ! ,,किसानों की ग़रीबी वा व्यथाओं को,

अनाजों को बिका कर,फिर चना चुगते सदा देखा !!

*

सभी का घर चले तुमसे,,,,,,,यही सब भूल जाते हैं,

सियासत कर रहे नेता,,,,,,कृषक मरते सदा देखा !!

*

फटी धोती,फटा कुर्ता,,,,,,,पहनकर जिंदगी कटती,

उधारी पर चले जीवन,,,,,,,,उन्हें घुटते सदा देखा !!

*

महल पापी लगें हमको,,,,,जहाँ ऐय्याशियाँ चलतीं,

हृदय-"वीणा " बहुत रोती,,श्रमिक तपते सदा देखा !!

 

 

टिप्पणी: मज़दूरों पर लिखने वाले लेखक कवि बहुत मिलेंगे,किन्तु उनकी व्यथा कथा सिर्फ़ वही समझ सकते हैं जिन्होंने उनके जीवन को काफ़ी नज़दीक से देखा है,,,,मैंने अपने निजी ग्राम में इस सच्चाई का जीता जागता व्यथित,त्रसित,जीवन देखा है कृषक ,मज़दूर,व श्रमिक सभी की बहुत दयनीय हालत है,,,मुझे सुख के नर्तन में दुखी थके दीन मलीन चेहरे नज़र आते हैं जबकि सच पूछो,,वो हमारे सुखदाता व विधाता है,,,,इन्हीं सच्चाइयों को कविता के माध्यम से प्रस्तुत किया है,,,, जय श्री कृष्णा

 

 

 


 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

(प्रोत्साहन हेतु )

 

 

वो मजदूर है, वो मजबूर है

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

वो तोड़ता पत्थर, भरता है पेट

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

वो ढ़ोता है बोझा, पालता है परिवार

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

श्रम का उसको, समय से नहीं भुगतान

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

वो कर मजदूरी, जीने की राह बनाता

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

निष्ठा कर्म में, जूझता उसका शरीर

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

उसकी आस का आकाश, करता वज्रपात

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

आशियाना किसी का, वो पसीना बहाता

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

शहर-शहर, गाँव-गाँव, इधर-उधर भटकता

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

कंगाली और आटा गीला, त्यौहार नीरस

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

गीली लकड़ी, सूखे आंसू उसका अभिमान

चलो मजदूर दिवस मनाया जाए

 

टिप्पणी: मजदूर मजबूर है. मेहनत व निष्ठा उसका कर्म - धर्म है फिर भी उसे मिलता क्या है ....मजदूर की दशा को शब्द देने का प्रयास है

 

 

 


 

डा भारती गुप्ता

श्रमिक के अरमानों का बोझ

 

जब धरती आग उगलती है

पानी भी शोला बन जाता है

तब अरमानों की बात करें क्या

तब तेरा तन पत्थर बन जाता है

जिंदगी तुझसे तो समझौता ही करना है

शौक तो जीने का है पर मर मर कर जीना है

अरमानों और जज्बात की बात करें क्या

हमने सपनों को पाला और कुचला है

जीवन में चांदनी का इन्तजार है

कब सूरज चमकेगा आशा के आकाश में

कब मुश्किलों से दामन छूटेगा

कब कोई अपना मिलेगा

मेरा अपना कहने को जीवन में

तब तेरा तन पत्थर बन जाता हैं समझौता करने को

 

टिप्पणी: मजदूर है मजबूर ... इसी पर अपनी रचना आधारित की है

 

 

 

 


 

बिमला रावत

श्रमिक बेचारा

(मुक्तक छन्द)

 

घाम से जल रहा सारा भुवन

पसीने से तरबतर सारा बदन

उदरपूर्ति की खातिर श्रम करते

मात-पिता संग नन्हें कोमल तन ॥

 

श्रमिक का संघर्षमय जीवन

सदियों से कर रहा है क्रन्दन

परिवर्तन प्रकृति का नियम

परिवर्तन को तरसे श्रमिक नयन ॥

 

जाति -धर्म के भेदभाव से दूर

उद्यम से करता जगति का श्रंगार

शत -शत नमन , वन्दन , प्रणाम

' कर्म ही पूजा' जिनका आधार ॥

 

कभी कभी आता है मन में ख्याल

ये अशिक्षा का या नियति का फल

श्रम कर जो स्वेद बहाता दिन -रात

जीवन क्यों नहीं इनका खुशहाल ॥

 

देह तोड़ संघर्षी जीवन जीता

रोटी कपड़े मकान को तरसता

कथित सभ्य -शिक्षित समाज में

श्रमिक ' बेचारा 'से पुकारा जाता ॥

 

 

टिप्पणी: श्रमिक दिन-रात कठिन श्रम करता है फिर भी दो वक्त की रोटी , तन के लिये कपड़े और छत के लिये आजीवन तरसता है, खुले आकाश के शामियाने तले ही उसका जीवन पीढी़ दर पीढी़ चलता रहता है । मेहनती होने पर भी समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है और ' बेचारा ' शब्द से परिभाषित होता है । उसके लिये सम्मान का भाव तथाकथित समाज में देखने को नहीं मिलता ।

मेरी कविता में इन्हीं भावों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है ।

 

 

 

 


 

आभा अजय अग्रवाल

मज़दूर

(प्रोत्साहन हेतु)

 

 

 

म ..ओष्ठ्य

ज .. तालव्य

द ..दंत्य

ऊ ..कंठस्थ

र .. मूरधन्य

जिव्हा ,तालू ,मूर्द्धा , कंठ ,दंत,ओष्ठ

स्वर -व्यंजन का संयोग

व्यष्टि ,समष्टि दोनो समाहित

संज्ञा भी सर्वनाम भी विशेषण भी

क्या इस विशेषण में

है इतनी विशेषता ?

रोशनी - खुशियों की आहटों को ,

टीन की दीवारों फटी धोती के पर्दों के पीछे ,

कान लगा के सुनते अँधेरे |

सामने बनते मल्टीप्लैक्स का बिखरा मलबा ,

कई मंजिल इमारतों को बनाते -बनाते ,

खुद ही ईंट -गारा -पत्थर बन गये ये लोग |

रेत की ढूह पे खेलते बच्चे इनके ,

बारिश के पानी से भरे गड्ढे हैं ,

स्विमिंग पूल जिनके |

मजदूरी पे गये माँ बाप ,छोड़ गये हैं पीछे ये आवारा बच्चे ,

रुको ! क्यूँ कहें आवारा इनको ?

समय बिताने का है कोई सामा इनके पास !

न इनका स्कूल ,न इनका क्रेच ,न पार्क न खिलौने ,

बड़े -बड़े मकान ,सडकें ,पुल बनाते इनके माँ बाप ,

बस ! जुटा पाते हैं दो जून की रोटी ,तन ढकने को कपड़ा |

सीमेंट में रेतऔर घटिया सरिया लगाता ठेकेदार ,

बड़ी गाड़ी में आता है -बड़ी सी तोंद लिए |

बनवा दिए हैं टिन-शेड लेबर के लिये,

न रसोई न बाथरूम न शौचालय ,

ये नहीं हैं इंसान मालिक की नजर में ,

होते है ये भी सामान मकान बनाने का |

क्यूँ पढ़ाया जाय इनके बच्चों को ?

क्यूँ सोचा जाय इन सब के लिए ?

पढने लगे और साफ रहने लगे तो ,

सोचेंगे अपने और परिवेश के बारे में |

चेतना जागेगी ,समझेंगे इन्सान अपनेको ,

महसूस करेंगे दिल का धड़कना |

प्यार होने लगेगा अपने से ,अपने परिवेश से ,

और अपने बच्चों के भविष्य से |

फिर ! फिर ,मकान कौन बनाएगा ,

बिल्डर क्या करेगा ? कहाँ जायेगा ?

और जो इनमे सोचने की शक्ति आ गयी तो !

इनका भी जमीर जाग गया तो !

ये अल्लम-गल्लम ,भ्रष्टाचार को,

महसूस करने लगे तो !

तो क्या इन्कलाब ही न आ जाएगा |

एक हल्की सी जिन्दगी की सुगबुगाहट ,

एक धीमी सी रेख रोशनी की ,

पर्दे के पीछे से सुन देख लेते हैं अंधेरे इस बस्ती में ,

और दौड़ के जाते है चुगली करने साहब से ,

फिर रची जाती हैं साजिशें ,

पहले डराया -धमकाया जाता है ,

न माने तो सौगातों के नाम पे भीख बांटी जाती है ,

और फिर भी बात न बनी तो ! तो फिर क्या ?

आ जायेगी एक नयी लेबर >>

गरीबों की कमी थोड़े ही है ;

दो जून की रोटी और सर पे छत तो चाहिए ही |

जहाँ भी जायेंगे ये ही मिलेगा ,

फिर ! यहाँ ही अच्छे है ,टिके तो है |

अंधेरों की साजिशें यूँ ही चली हैं ,

यूँ ही चलेंगी ! ये बस्ती यूँ ही गुलजार रहेगी ,

विकास और समाज को चिढाती हुई |...............

 

टिप्पणी: May day (मज़दूर दिवस ) पे मज़दूर की विवेचना आवश्यक लगी तो चीरफाड़ के साथ सामने बनने वाले मल्टीप्लैक्स के मज़दूरों की हालत को जस का तस लिख दिया

 

 

 

 


 

अलका गुप्ता 'भारती'

रुको नहीं

(विधा- प्रमाणिका छंद)

मात्रा- १२ १२ १२ १२, वर्ण - ८, मात्रा_ १२

 

 

रुको नहीं सदा चलो।

बढ़े चलो..बढ़े चलो ॥

टले नहीं..मुकाम ही ।

करो सदा सुकाम ही॥

 

अधीरता ..रुके जहाँ ।

मशान सा दिखे वहाँ ॥

रुका मरा समान हो ।

न कामचोर नाम हो ॥

 

यदा कदा विश्राम लो ।

करें विकास ठान लो ॥

सही सुधर्म..ज्ञान लो ।

सुनाम कृष्ण राम लो॥

 

बढ़े चलो ..बढ़े चलो।

विकास मार्ग ही चलो॥

रुको नहीं ..डटो वहीं।

नयी मिले दिशा वहीं॥

 

भरो मिठास कर्म से।

करो तमाम गर्व से॥

पुकारती..धरा हमें ।

दिशा ऋतंभरा हमें॥

 

टिप्पणी: जीवन में कर्म की प्रधानता को हमें समझना ही चाहिए।यही जीवन की पहचान है। हमें अपने महापुरुषों से शिक्षा लेकर सदा कर्म शील रहकर देश के विकास को तत्पर रहना चाहिए।

 

 

 

किरण श्रीवास्तव

बाल श्रमिक

 

 

बाल श्रम एक है अपराध,

इन्हें काम पर ना रखें

खुशियों पर इनका अधिकार,

फूलों सा कोमल तन इनका

खिलने से पहले मुरझाते,

शिक्षा में देकर सहयोग

बच्चों को अब पढ़ने दें

इनको आगे बढ़ने दें...!

वजह एक गरीबी है

मात-पिता भी बेबस हैं

दो जून की रोटी भी

मुश्किल से मिल पाता है

जितने हाथ उतने काम

इस ध्येय को अपनाते हैं,

बच्चों की लाइन लगाकर

विवशता को गले लगातें है...!!

कोमल कच्चे हाथों से ये

आशाओं को ढ़ोते है,

पर कुछ भी ना हासिल होता

शिक्षा ,बचपन को खोतें हैं

अज्ञानता से सही गलत का

फर्क नहीं कर पातें है,

अनचाहे में ही ये गुनाहगार

भी बन जातें हैं.....!!!

 

टिप्पणी: इस तस्वीर में मुझे माँ-बाप के साथ बच्चे काम करते हुए दिख रहें हैं! कमाई का जरिया सीमित और परिवार बड़ा ...,तो माँ बाप बच्चों से काम करवाने लगतें है बच्चों का कोमल तन और मन होता है उन्हें जिस सांचे में ढ़ाला जाता है वैसा ही आकार लेते हैं ! वैसे तो बाल श्रम अधिनियम कानून बनें है पर उसका पालन कहीं-कहीं ही दिखता है! बच्चे घरों दुकानों खेतों में मजदूरी करते आज भी दिख जातें है! 12 जून को विश्व बालश्रम निषेध दिवस है यदि हमारे पास परिवेश में काम करते कोई बच्चा दिखे तो उनके माँ-बाप को समझायें शिक्षा के महत्व को बताये ..और यदि सक्षम हैं तो यथा शक्ति सहयोग भी करें और दूसरों को भी भागीदार बनायें

 

 

 

 


 

डॉ॰ पुष्पलता भट्ट पुष्प

मुझे कलम चाहिए

विधा - मुक्त छन्द

 

माँ मुझको भी ,कलम चाहिए

मैं भी पढ़ने जाऊँगा ।

मत पकड़ा , तसला-कुदाल तू

विद्यालय, मुझको जाने दे।

सरस्वती की , चरण धूलि

माथे पर मुझे , लगाने दे।

सैनिक बनकर, सीमा पर

मैं भी , लड़ने जाऊँगा ।

मातृभूमि की बलि वेदी पर

अपना ,शीश चढ़ाऊँगा ।

या बनकर अध्यापक ,मैं

शिक्षा की जोत ,जलाऊँगा ।

अज्ञान मिटाऊँगा ,जड़ से

आलोक ,ज्ञान का फैलाऊँगा ।

छीन न मेरा , बचपन मुझसे

अब कुदाल , मत पकड़ाना।

दे दे पुस्तक ,हाथ में मेरे

विद्यालय , मुझको जाना।

पढ़ लिखकर माँ, मैं भी अपना

उज्ज्वल भविष्य, बनाऊँगा ।

 

टिप्पणी: चित्र में मजदूर पुरुष एवं स्त्री के साथ कुछ बच्चे भी मजदूरी के लिए आते हुए दिखलाई दे रहे हैं । बाल मज़दूरी बच्चे का शौक नहीं, विवशता होती है

 

 

 

शिव मोहन

श्रम का ऋण

 

जिसके हाथों की मेहनत से , मिले आपको छाँव।

उसको तू ना विसारिये , ये ही है प्रकृति का दाँव।।

 

जलती गर्मी में खून पसीना , किये एक हर दम।

मजदूरी ही मजबूरी है , करता रहता है परिश्रम।।

 

खून पसीना जब मिल जाए, तब बने है तेरा महल।

उसको तू ना विसारिये ,जिसका लगा है मेहनत बल।।

 

उसके बच्चे श्रम करते हैं , परिवार के पालनहार।

अपना भाग्य धरा पर रखते , देख प्रकृति की मार।।

 

उनका सपना सच हो जाए , है यही देव से आशा।

छोड़े कुदाल ले हाथ कलम, बदले जीवन की भाषा।।

 

शिक्षा दे दें यदि बदले में , जो कुछ बदले जीवन भी।

फिर भी थोड़ा पड़ जायेगा , मेहनत पर उनके कम ही।।

 

मजदूर दिवस पर अब आयें , प्रण ले उनको देने का।

हो उनका दिन भी मंगलमय , जो मंगल करते सबका।।

 

टिप्पणी: मजदूर दिवस पर मजदूर द्वारा किये गए श्रम को कैसे लौटाया जाए इस पर सोचा गया है। श्रमिक ने हमें सर पर छाया देकर हमें उपकृत किया है और बदले में यदि हम श्रमिकों की अगली पीढ़ी को शिक्षा देने का प्रबंध कर सकें तो इस से बड़ा श्रम का उऋण नहीं हो सकता।

 

 

अंजना कण्डवाल 'नैना'

बाल मज़दूर

 

निश्छल हँसी चेहरे पर लिए मैंने देखा हँसता बचपन।

और देखा मैंने चन्द निवालों के लिए तरसता बचपन।

 

कचरे के डिब्बों से कचरा बीनते एक दूसरे से छीनते,

बाज़ारों में बेज़ार सड़कों में लावारिस बिखरता बचपन।

 

उघड़े तन को चीथड़ों में छुपाने की नाकाम कोशिश,

भूखे अधनंगे घूरती निगाहों से छुपता छुपाता बचपन।

 

हाथ बढ़कर दुआएँ देता लोगों की दुत्कार सहता,

कुछ पा लेने की आशा में दर-ब-दर होता बचपन।

 

सड़कों के किनारे पत्थर तोड़ते गड्ढे खोदते हुए,

ढाबों की आग में जलकर खाक होता बचपन।

 

मन्दिरों की चौखटों और सीढ़ियों पर बैठ भीख मांगता

और आलीशान कोठियों के अहाते में चीखता बचपन।

 

किसी गैराज में किसी ट्रक के नीचे या सड़क पर,

बन कर बाल मजदूर सड़कों पर गुज़रता बचपन।

 

टिप्पणी: प्रस्तुत चित्र में मज़दूरी करते हुए लोग और कुछ बच्चे दिखाई दे रहे हैं। इन बच्चों का बचपन हँसता खेलता हो सकता था लेकिन इनका बचपन विभिन्न कारणों और कार्य करते हुये मरने लगता दम तोड़ देता है सड़कों पर और बन जाते हैं ये बाल मजदूर।

 

 

 

 

 

डॉ सी कामेश्वरी

दिवा स्वप्न हुआ पूर्ण

 

हर्षित पुलकित मन

हाथ बँटाने आ जाती संतान

उनसे श्रम न कराने का लिया प्रण

अनगिनत सपने संजोकर, पूर्ण करने

प्रयासरत निकल पडे सदन

कमर तोड मेहनत करते रहे

दो जून रोटी के लिए नत मस्तक हो चले

अवगत थे बूँद-बूँद से सागर बनता

किस्मत ने दिया साथ, चमका सौभाग्य

नासमझ बन संतानों की झडी लगाई

पढा-लिखाकर उज्ज्वल भविष्य बनाया

तन भर कपडा, पेट भर भात

निश्चिन्त जीवन का सपना हुआ सारोकार

चाँदनी कुछ इस तरह खिली कि

संतान हुए लायक

मिसाल हमारी बनी समाज

अकेला चना क्या भाड फोड सकता है

सिद्ध किया हमने गगन चुंबी ईमारतें बनाकर

पैर जमीन पर गाढकर वक्त के थपेडों को सहकर

आसमान से तारे तोड लाए |

 

टिप्पणी: चित्र देखकर सहज भाव जो मेरे मन में आए : श्रम करने वाले मजदूर यह कभी नहीं चाहते कि उनकी संतान उनकी तरह कष्ट सहे | वे अनपढ होते हैं परन्तु अज्ञानी नहीं | संतान नियंत्रण करना न भी आता हो परन्तु अथक परिश्रम कर, दिन दुनी रात चौगुनी मेहनत कर उन्हें पढा-लिखा बनाकर समाज में एक मिसाल बन सकते हैं | दृढ निश्चय कर वे अपनी संतान को पढा-लिखा लेते हैं और एक नया इतिहास रच देते हैं | असम्भव भी सम्भव कर दिखा देते हैं |

 

 

 

मदनमोहन थपलियाल

श्रमजीवी

(प्रोत्साहन हेतु)

*******

न मजदूर न मजबूर -

अपने ही शाप से शापित !

जिसने जैसी बजाई डुगडुगी -

हर ताल पर नाचने का हुनर !

संपूर्ण देह का समर्पण -

निमित औरौं की खुशी !

सदा से रहा खंडित, जिंदगी का आईना -

पूर्ण होने की रुत कभी आई नहीं !

दुत्कार, अपमान रहा अलंकरण -

सदियां गुज़र गईं, मात्र देह का क्षरण ।

विवेक खुद का कभी जगा नहीं ?

पैर अपने हैं, चल रहे हैं उनके पैरों -

राह सूझी नहीं, अपवाद हैं ढेरों !

पूछ , खुद से, मेरी परिभाषा क्या है -

अपने अरमानों को मरते देखा -

उफ़ तक नहीं की -

तप है, सहिष्णुता है या कायरता !

इसी मक्कड़ जाल में घिर कर रह गया ।

सारी खीझ अबोध परिवारजनों पर -

ताड़ना, गाली- गलौज से स्वागत !

यही है इनकी पटकथा -

जो सदियों पहले बुद्धिजीवी लिख गए ?

 

टिप्पणी: : श्रमजीवी या श्रमिक पैदा नहीं हुए, बना दिए गए हैं। शरीर का शोषण और बुद्धि भ्रमित करने की शिक्षा जो श्रमिकों को जागरूक नहीं होने देती।

 

 

 

प्रभा मित्तल

श्रमिक

(प्रोत्साहन हेतु)

 

स्वेद से शृंगार कर

श्रम का अक्षय अस्त्र थामे

जगत का पहिया जो चलाए

वही तो श्रमिक कहलाए।

 

न घर-द्वार न बसेरा

संग चलता है परिवार तेरा

ले कुदाली चले औ तसला उठाए

थकन पर भी जिसकी शिकन न आए

तभी तो वो श्रमिक कहलाए।

 

बहुमंजिले भवन बनाकर

रहता है झुग्गियों में

मालिक की चाकरी कर

शयन टाट पर हो जाए

वही तो श्रमिक कहलाए।

 

तोड़ता है पत्थरों को

पर्वतों को डोलता,

खोदता है कंदराएँ

कहीं पथ,कहीं नहरें बनाए

तभी वो श्रमिक कहलाए।

 

दो जून रोटी की चाहत में

अंतिम श्वाँस तक करता है काम,

श्रमसीकर औ श्रम से करे यारी,

विकास का पहिया जो घुमाए

वही तो श्रमिक कहलाए।।

 

जो मिट्टी से सोना उगाए,

वही तो श्रमिक कहलाए।।

 

टिप्पणी: मजदूरों की कोई जाति नहीं होती,मजदूर जन्म नहीं लेते...परिस्थितियाँ उन्हें मजदूर बना देती हैं।मेहनतकश मजदूर रोजी रोटी के जुगाड़ में ही सारी उम्र गुज़ार देते हैं,वे हमारे लिए काम करते हैं लेकिन कुछ हमारे समाज के दुर्व्यवहार के कारण भी दुर्भाग्यवश ग़रीबी उनका साथ नहीं छोड़ती,वे पनप नहीं पाते।

 

तकब ०९/२२ का परिणाम 

नमस्कार मित्रो

तकब #९/२२ का चित्र मजदूर दिवस को ध्यान में रखते हुए दिया गया था. कल लाइव आयोजन में आपको विजेता का ज्ञात हो ही गया है लेकिन पोस्ट के रूप में इसका परिणाम व् समीक्षा जिसे सुश्री अंजना कंडवाल जी ने लिखी है उसे आपके समक्ष रख रहा हूँ सम्मान पत्र के साथ

प्रथम स्थान के लिए प्राप्त वोट

बिमला रावत 1+1+1 = 3

अल्का गुप्ता भारती 1 = 1

डाक्टर पुष्पलता भट्ट 1 =1

 

द्वितीय स्थान के लिए प्राप्त वोट

ब्राह्मणी वीणा हिंदी साहित्यकार 1+1= 2

शिव मोहन 1+1 = 2

बिमला रावत 1 = 1

 

परिणाम

बिमला रावत  3+ 1 = 4 ( प्रथम )

शिव मोहन  1+1 =2 ( द्वितीय )

ब्रह्माणी वीणा  2 = 2 ( द्वितीय )




( हार्दिक बधाई व शुभकामनायें )

"तबक" 9/22 समीक्षा -  सुश्री अंजना कंडवाल

 

प्रथम पायदान पर आद0 रोशन बलूनी जी की कविता "मजदूर" एक गेय काव्य के रूप में पटल पर आई है। आप ने अपनी कविता में एक मजदूर की व्यथा को सुन्दर शब्द संयोजन के साथ प्रस्तुत किया है। एक मजदूर मजदूरी करते हुए क्या सोचता है उसके मन मे उपजे आशा विस्वास और आने वाले सुखमय समय के लिये उसको कठिन परिश्रम करने के लिये मजबूर  की बात कही है लेकिन वे आगे कहते हैं कि उसकी इस कठिन परिश्रम के बदले न तो ईश्वर का दिल पिघला और न ही समाज का। वो हर वक़्त छला गया। फिर भी वो दो जून की रोटी पाने के लिए शारीरिक रूप से कमजोर होते हुए भी मानसिक रूप से बहुत मजबूत है। बहुत सुन्दर रचना बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

दूसरे पायदान पर आद0 ब्राह्मणी वीणा जी ने बहुत सुन्दर गीतिका "श्रमिक" शीर्षक दे कर विधाता छंद में प्रस्तुत की है इस गीतिका में उन्होंने कृषकों और मज़दूरों को उनके कार्यों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनको नमन करती हैं और कहती हैं कि तुम्हारे ही कारण हम इतने सुख भोग रहे हैं तुम ही हमारे सच्चे सुखदाता व विधाता हो। साथ ही उनके दुःखो, कष्टों और उनकी दैनिक जीवन की व्यथाओं को अपनी रचना के माध्यम से व्यक्त करती हैं। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

तीसरे पायदान पर आद0 प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी एक व्यंगात्मक रचना शीर्षक ''चलो मज़दूर दिवस मनाया जाय"  लेकर प्रस्तुत हुए हैं। जो कि उन्होंने प्रोत्साहन हेतु लिखी है। कविता में एक मजदूर जो मजबूर है उसे भरपेट भोजन नहीं मिल पाता दिन भर बोझा ढोता है समय पर उसे उसकी मजदूरी नहीं मिल पाती वो अनेका अनेक कष्टों को सहन करके जीवन जीता है और ये समाज उसके इन कष्टों परेशानियों को नहीं देखता उसे दूर करने की कोशिश नहीं करता। समाज का मजदूरों के प्रति सहानुभूति एक मात्र ढकोसला है समाज के कुछ कुलीन वर्ग मंचों से बड़ी बड़ी बातें करते हैं मजदूर दिवस मनाते हैं लेकिन उनके विषय मे तनिक भी नहीं सोचते। बहुत सुन्दर और सोचनीय पहलू। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

चौथे पायदान पर आद0 डॉ0 भारती गुप्ता जी अपनी मुक्तछन्द रचना लेकर प्रस्तुत हुई हैं। अपनी रचना में  वह एक मज़दूर की मजबूरी कहें या उसका अडिग साहस कहें कि जब जब उसको विषम परिस्थिति का सामना करना पड़ता है उसका तन पत्थर का हो जाता है और प्रकृति प्रदत्त कष्टों का बड़ी ही आसानी से सामना करता है। वे हमेशा जीवन से, अपने अरमानों से, जज्बातों से, सपनों से समझौता करते हुए आने वाले सुखमय जीवन की आशा करते हुए जीवन जीता है। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

पांचवें पायदान पर आद0 विमला रावत जी कविता शीर्षक "श्रमिक बेचारा" लेकर प्रस्तुत हुई हैं। अपनी रचना में वे श्रमिक परिवार के संघर्षों के वर्णन किया  वे कहती हैं कि श्रमिक के साथ साथ उनके बच्चे भी संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। वे दिन-रात कठिन परिश्रम करता है फिर भी दो वक्त की रोटी , तन के लिये कपड़े और छत के लिये आजीवन तरसता है, खुले आकाश के तले ही उसका जीवन पीढी़ दर पीढी़ चलता  रहता है । मेहनती होने पर भी समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है  उसके लिये शायद ही किसी मे मन में सम्मान का भाव हो। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

छठवें पायदान पर प्रोत्साहन हेतु आद0 आभा अजय अग्रवाल जी  हमेशा की तरह एक गहन चिन्तन के साथ अनवरत सरिता सी बहती रचना "मजदूर" लेकर आई हैं। जिसमें श्रमिकों के जीवन उनके बच्चों के रहन सहन मिट्टी में मिट्टी से होना आता है वे सहजता से अपनी खुशियों को प्रकृति में ढूंढ लेते हैं उनको हर हाल में खुश रहना आता है। साथ ही वे समाज के उच्च कुलीन वर्ग का उनके प्रति रवैया उनको बहलाना फुसलाना और उनको जीवन जीने मात्र साधन दे कर अपने साधन के रूप में प्रयोग करने को भी बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त किया गया है। वे इस रचना के माध्यम से समाज के ढोंगियों को भी बेनकाब करती नज़र आती हैं कि कैसे वे उनको लोभ लालच दे कर डरा धमकाकर अँधेरों में रहने को मजबूर कर देते हैं बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

सातवें पायदान पर आद0 अलका गुप्ता 'भारती' जी ने "रुको नहीं" शीर्षक के माध्यम से छन्द बद्ध कविता  प्रमाणिका छंद में लिखी है। अपनी रचना के माध्यम से वे श्रमिक के जीवन को अपनी प्रेरणा स्रोत मानते हुए जीवन में कर्म की प्रधानता का महत्व समझा रही हैं वे कहती हैं हमें कर्म को हमेशा श्रेष्ठ समझना  चाहिए। यही जीवन की पहचान है। हमें अपने महापुरुषों से शिक्षा लेकर सदा कर्म शील रहकर देश के विकास को तत्पर रहना चाहिए। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

आठवें पायदान पर आद0 किरण श्रीवास्तव जी छंदमुक्त रचना "बाल श्रमिक" प्राप्त हुई है। जिसमें वे बाल अधिकार  के बारे समझाने का प्रयत्न कर रही हैं वे समाज की चेतना को जगाने के लिए उनको शिक्षा देने व आगे बढ़ने के अवसर प्रदान करने के लिये कहती हैं । उनका मानना है कि बच्चों का तन ओर मन दोनों कोमल हैं उनके बचपन श्रम की आग में जलकर नष्ट होने के लिए नहीं है। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

नवें पायदान पर आद0 डॉ0 पुष्पलता भट्ट 'पुष्प' जी की मुक्तछन्द कविता "मुझे कलम चाहिए" शीर्षक के साथ  श्रमिकों के बच्चों द्वारा अपने सपनों को साकार करने का अनुनय अपने माता पिता से किया गया है। वे उनकी तरह मजदूरी नही करना चाहते वे कुदाल-फावड़ा के स्थान पर कागज-कलम पकड़ कर एक बेहतर जीवन की अपेक्षा रखते हैं और अपने देश के लिये अपना जीवन समर्पित करना करना चाहते हैं। बहुत सुंदर रचना। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

दसवें पायदान पर आद0 शिव मोहन जी की रचना "श्रम का ऋण" प्राप्त हुई है जिसमें समाज से श्रमिकों की मेहनत उसके कृत को याद रखने और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर रहे हैं वे कहते हैं कि एक श्रमिक अपना खून पसीना बहाकर दिन रात परिश्रम करके इस संसार को मानव के आराम के योग्य बनाता है उसके नन्हें बच्चे भी उसके कार्य मे उसका साथ देते हैं। वे ईश्वर से और समाज से उनकी रक्षा करने की विनती करते हैं और उनके बच्चों को कलम पकड़ा कर शिक्षित करने और उनकी दशा को एक नई दिशा देने को कहते हैं। बहुत सुन्दर रचना। बहुत बहुत बधाई आपको।🙏

 

ग्यारहवें पायदान पर स्वंय मेरी अंजना कण्डवाल ‘नैना’ की "रचना बाल मजदूर" प्रस्तुत हुई। जैसे कि बच्चे हमेशा खुश रहते हैं और उनको रहना भी चाहिए।वैसे ही सभी बच्चों के चेहरों और उनकी निश्छल हंसी दिखती है। लेकिन जो बच्चे मजदूरी करते हैं वे छोटी छोटी जरूरतों के लिये तरसते नज़र आते हैं। बच्चे अनेक प्रकार के कार्य अपने दो वक़्त के निवाले  के लिए करते हैं और इसी के बीच वे असभ्य और कभी कभी अपराधिक प्रवृत्ति के भी हो जाते हैं। उनका बचपन जो खेलते कूदते बीतना चाहिए था वे मजदूरी करते बिताता है।

 

बारहवें पायदान पर आद0 डॉ0 सी कामेश्वरी जी द्वारा रचित कविता शीर्षक "दिवा-स्वप्न" प्राप्त हुई। कविता में वे विचार कर रहे हैं, सोचते हैं आज के श्रमिकों की जागृत चेतना और उनके सपनों  के बारे लिखा है वे कहती हैं कि आज का श्रमिक जाग गया है वे अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिये प्रयास रत है वे उनके लिए कड़ी मेहनत कर आवश्यक सामग्री का प्रबंध करता है ताकि अपने पाल्यों को एक सुरक्षित और बेहतर भविष्य दे सके। वे यह कभी नहीं चाहते कि उनकी संतान उनकी तरह कष्ट सहे, अनपढ रहे वे दिन दुनी रात चौगुनी मेहनत कर उन्हें पढा-लिखा बनाकर समाज में एक मिसाल बन सकते हैं। दृढ निश्चय कर वे अपनी संतान को पढा-लिखा लेते हैं और एक नया इतिहास रच देते हैं।  असम्भव भी सम्भव कर दिखा देते हैं। आशा करते हैं उनके यह सपने साकार ही जो हो भी रहे हैं लेकिन अभी नाकाफ़ी हैं। बहुत सुंदर, बहुत बहुत बधाई आपको।🙏🏻

 

तरहवें पायदान पर प्रोत्साहन हेतु और मनन चिंतन के लिए आद0 मदन मोहन थपलियाल जी की मुक्तछन्द रचना "श्रमजीवी" प्रस्तुत हुई। कविता  में वे प्रश्न करते हैं कि एक न मजदूर न मजबूर। आखिर वे मजदूर क्यों  बने उसका कारण क्या है जबकि वे अपना सारा शरीर सारा जीवन दूसरों की खुशी के लिए समर्पित कर दिया अपनी बुद्धि विवेक से कार्य नहीं किया सारा जीवन टुकड़ो में जिया। वे बाहर जो दुत्कार अपमान सहता है उसकी खीज अपने परिजनों पर उतारता है। और पीढ़ी दर पीढ़ी साल दर साल सदियों से ये ऐसा ही चला आ रहा है। सुन्दर विचारणीय प्रश्न आपने समूह के सम्मुख रखा है। बहुत बहुत बधाई आपको। 🙏🏻

 

अंतिम पायदान पर प्रोत्साहन हेतु आद0 प्रभा मित्तल जी की रचना शीर्षक "श्रमिक" में  अपनी रचना के माध्यम से उपस्थित हुई हैं। आपकी रचना स्वेद को ही श्रमिक का श्रृंगार मानती हैं। श्रमिक की अथक मेहनत से मिट्टी भी सोना उगलने लगती है संसार के सभी प्राणियों को घर मिलता है और उनकी ही मेहनत है कि आज मानव जमीं से आसमान को छू रहा है। विकास का पहिया उनके ही दम पर घूम रहा है, इतने परिश्रम के पश्चात भी कभी उनके माथे पर शिकन नहीं आई और आज भी वे टाट के बिछौने पर चैन की नींद सो जाता है। रोजी रोटी के जुगाड़ में सारी उम्र गुज़ार देता है। बहुत सुन्दर रचना। बहुत बहुत बधाई धन्यवाद आपको।🙏��

इस प्रकार 'तबक' /२२ में कुल चौदह रचना प्राप्त हुई हैं।

जिसमें चार रचनाएँ प्रोत्साहन हेतु लिखी गयी हैं और दस रचना प्रतियोगिता हेतु प्राप्त हुई हैं। सभी प्रतिभागियों और रचनाकारों को बहुत बहुत बधाइयां

अंजना कंडवाल


( हार्दिक आभार अंजना जी समीक्षा हेतु )


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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