भगवान सिंह जयाड़ा
भाव भीनी श्रदांजलि हमारी उन सब को ,
सदा के लिए छोड़ कर चले गए जो हम को,
जो कभी न लौट सकेंगे वापस अब यहाँ ,
आपदा में छोड़ चले गए है जो यह जहाँ ,
दुःखी और रोते बिलखते परिजन उनके ,
सदा के लिए बिछुड़ गए ,अपने जिनके ,
आत्म शान्ति की ,उनकी दुवा करते है ,
परिजनों को धैर्य दे,प्रभु से दुवा करते है
जला के कैंडल ,श्रदांजलि अर्पण करते है ,
मिर्तकों की आत्मशान्ति की दुवा करते है ,
प्रभो अब न कभी ,इस तरह तांडव करना ,
हाथ जोड़ बिनती हमारी ,अब ध्यान धरना ,
विनाश का यह खेल अब कभी न खेलना ,
जो भूल हुई हो इन्शान से ,वो माफ़ करना ,
भाव भीनी श्रदांजलि हमारी उन सब को ,
सदा के लिए छोड़ कर चले गए जो हम को,
Chander Mohan Singla
आओ ! दीप से दीप जलाएं ,
अंधियारों को दूर भगाएं |
पीड़ित ,शोषित दुखियारी के ,
दु:खों पर मरहम लगायें ||
भरत शर्मा
श्रद्धांजली स्वीकार करो
है शूर-विर बलवानो .. ,
'भरत' करे सलाम तुम्हेँ
मेरे भारत के रखवालों .. !!
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
...... बहुत जला ली मोमबत्ती ---
हम हर घटना पर
मोमबतिया जला
सडको पर उतर आते है
लेकिन, दोषी फिर भी बैखोफ
मुस्कराते नज़र आते है
कुटिल हंसी उनकी
खुद को शाबासी देती है
जानते है जनता का मिज़ाज
दो दिन है करती शोर
फिर गुम कहीं हो जाती है
सच है मोमबतिया जला
अपना फर्ज पूरा समझते है
फिर घर बैठ खर्राटे भरते है
दूसरी घटना के लिए फिर
हम खुद को तैयार पाते है
कोस कर सरकार को
नारों से अलंकृत करते है
आती जब बदलने की बारी
वोट देते नही छुट्टी का मज़ा लेते है
बहुत जला ली मोमबती
जला दो अब उस सोच को
आप बदलाव है अब दिखा दो
पहचानो लो वोट की शक्ति को
भ्रष्टाचार या हो अत्याचार
आओ सबक सिखाये
इसके जिम्मेदारो को
बालकृष्ण डी ध्यानी
मोमबतीयाँ बुझा दो..
फिर जला और
वो बुझ गई
जागा था वो
फिर सो गया
फिर जला और
वो बुझ गई .......
उठी थी आवाज कंही
अब कंही दब गयी
चले थे कदम साथ साथ
अब अलग से वो हो गये
फिर जला और
वो बुझ गई .......
इंसाफ इंसाफ
पुकार था वंहा सब ने
वो डगर अब वंहा पर
चुप और शांत हो गई
फिर जला और
वो बुझ गई .......
जली थी वंहा वो मोमबती
पिघली थी वंहा वो मोमबती
बस कुछ देर कुछ पल
सिसक सिसक कर
वो बुझ गई......वो बुझ गई.....वो बुझ गई
कुसुम शर्मा
मोमबत्तियां जला कर हम श्रधांजलि तो देते हैं
पर क्या उनके घरो को उजालो से भर पाते हैं
जो सपने कभी देखे थे उनके माँ बाप ने
क्या हम उन्हें वो सपने दे पाते है
रोज लुटती है आबरू किसी न किसी की
किसी न किसी रूप में
क्या हम उन्हें बचा पाते है
सच्ची श्रधांजलि तो तब होगी
जब होगा उनके घर में उजाला
जब मिल कर हम लेगे ये प्रण
न लुटने देगे किसी को हम
मिलेगा उनका अधिकार
चाहे ज्यादा हो या कम
वन्देमातरम
Janak M Desai .
लो, आज मैं ऐसा दीप जलाऊं
जिसे बाहर से भीतर ले जाऊं
जो अंधियारा छाया है मुझ में
वो अंधियारे कि आग जलाऊं
बारबार हम सब ने है जलाई
मोमबत्ती, जो सड़क तक आई
दो पल हमने जो दो आंसू बहाए
उन आदतों को भस्म कर पाऊं
लो, आज मैं ऐसा दीप जलाऊं
जिसे बाहर से भीतर ले जाऊं
Pushpa Tripathi
..... हम मोमबत्तियां जलाते है .....
धरा की ऊँची ऊँची रेखा पर
पर्वतों के ऊपर
लहरों से उठ उठकर
टंकार मचाते ... चितकार धमनियों से
बहते चपल वेग में
ये कौन निकलता है ?
मौत को ग्रास बनाने
नैसर्गिग स्वर्ग विनाश करने
आपदा दंड .. कष्ट उड़ेलने
विपदा के हलाहल में
भूमि पर बाढ़ l
बह निकले कई ऐसे लोग
जो दर्शन हेतु आये थे
नहीं बचा उनका भी संसार
जो रहिवाशी रह जाते थे
श्रद्धांजलि कई ऐसे अपनों को
हम याद उनको करते
बेकसूर कई जानों पर
हम मोमबत्तियां जलाते है
शांत आत्मा को समर्पित
दीप हम जलाते है
रौशनी हो उनके रूहों में
हम मोमबत्तियां जलाते
हम मोमबत्तियां जलाते है ...!!!
अलका गुप्ता
जलती है जब साथ मिलकर
मोमबत्तियाँ ये ज्वालाओं सी |
एक साथ प्रज्वलित होती हैं ...
सीनों में जैसे ज्वालाएँ सबके ...
आघातों से प्रतिघातों की ...
वेदनाओं से संवेदनाओं की....
मिलकर रोती हैं पिघल-पिघल |
बढ़ते हैं हाथ थामने को विकल |
परिवार एक ही है ..ये इंसान |
कुचल देंगे समाज का हर हैवान |
भूल न जाना बस ये आगाज |
आग लगी है जो सीने में आज |
मिटा देंगे कालिमा ये समाज की |
तत्परता से ...अब पुरुषार्थ की |
हर मन में जागा हो विशवास |
अँधेरा दूर.. करेंगे मिल प्रकाश |
डॉ. सरोज गुप्ता
एक काम करोगे
~~~~~~~~~`
मुझ पर थोड़ा-सा रहम करोगे !
मुझे कोसना कुछ कम करोगे !!
नन्ही चींटी ने किया हाथी को बेदम !
अपने टेसुए बहाने कुछ कम करोगे !!
अंधेरो से लडनी है उजालो ने जंग !
तारों की गिनती गिननी न कम करोगे !!
कुछ तो पतंगे गिरेंगे उनके भी घर !
मुझे जलाना देखो न कम करोगे !!
एक चिंगारी ही बन जाती है अंगार !
अपने हौंसलों को देखो न कम करोगे !!
रोंदी हुई मिटटी से बनती है मीनार !
मेरी कीमत आंकनी कैसे कम करोगे !!
जगदीश पांडेय
बहुत निकाली जुलुस हमनें
निकाला न हमनें मन का बैर
आओ चलें इक राह पर
हम भूल कर मन का बैर
यहाँ वहाँ न जाइये
न रोशनीं जलाइये
कर सको तो इतना करो
नफरत को भगाइये
किरण आर्य
जब आक्रोश दिल का देता है रुला
मोमबतियां जला लेते है
कुछ इस तरह ग़म को अपने
आँखों में पनाह देते है
आक्रोश जब ना पाए राह
शब्दों में बसा लेते है
उतरकर सडको पे निकल घर से
दुःख को अपने नशा देते है
रुदन जो हलक में फंस गया कहीं
इस तरह उसको सहला देते है
संगठित हो निकलेगा कोई हल जरुर
आस का एक दीया जला देते है
ठोकरें खा मिलता नहीं मुकाम कोई
रोकर दिल को बहला लेते है
जब आक्रोश दिल का देता है रुला
मोमबतियां जला लेते है
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
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