Tuesday, March 5, 2013

04 फरवरी 2013 का चित्र और भाव




Dinesh Nayal 
फिर याद आ गया बचपन
का जमाना,
कंचो का वो खेल पुराना
हारना-जीतना वो कंचे लूटाना
वो कंचो को गठरी में बाँधे रखना,
वो मम्मी की डाँट
और पापा की फटकार...
कंचे खेलने में खाना भूल जाना
वो घर से दूर दोस्तों संग जाना
और दूसरों से कंचोँ की शर्त लगाना
पिल्ल-चोट की मार
वो दस-बीस का खेल,
याद आ रहा है मुझे वो
गुजरा जमाना!!


Yogesh Raj .
वो दुनियां बड़ी हसीन थी,
छोटीछोटी बातें रंगीन थीं,
सारा आकाश हमारा था,
हमारी ही सारी ज़मीन थी.

नैनी ग्रोवर 
ना परवाह, किसी उंच-नीच की, ना किसी से कोई अनबन,
कितना प्यारा, कितना हँसी था, हाय वो मेरा खेलता बचपन...

बस दुलार ही दुलार था हर दिल में, जहाँ देखूँ मैं जिधर जाऊं,
हर घर अपना घर लगता था, खेल लगता था मुझको सावन ...

कभी चुनु की माँ खिलाये पूरी, कभी मुनु की माँ हलवा खिलाती,
छुट्टी के दिन कंचे खेलते, लड़ते झगड़ते बीतता था सारा दिन ...

सोचती हूँ, कहाँ गए वो, आपस के मीठे-मीठे सुहाने से रिश्ते,
हर कोई बस भाग रहा है, भाता नहीं अब किसी को भी आँगन ...!!


किरण आर्य 
वो अठखेलियाँ करता बचपन मेरा
आज मुस्काता फिर खड़ा सामने मेरे
वो बचपन के खेल खिलंदर
वो संगी साथी वो छुपम छिपाई
कंचो संग खेलते धूल में सने..........

ना धूप की चिंता ना बारिश राह अड़े
कंचो का खजाना पास हो जिसके
वो शहंशाह सा गर्व खुद पर करे
बाकी सब गुलामो से हाथ बांधे
खुशामद करते उसकी थे खड़े............

आह वो बचपन जाने कहाँ खो गया
आज भी उसको सहलाने को
रूह देखो तड़प कर उड़ चले
स्वप्न नगर में आज फिर चलो
बचपन से मिलने हम चले .


बालकृष्ण डी ध्यानी 
वो कंचे मेरे

कंचों का खजाना, कंचों का मै दीवान
अब भी दिल में कंही बाँध रखी है मैंने
चुपके से अपने पास वो संभाल रखी है
वो कंचे मेरे ...................

पोटली वो कंचों की यांदे वो अपनों की
कीसी डिब्बे में बंद करके खुद से छुपा रखी है
यादों के समंदर के वो मेरे गोल गोल मोती
वो कंचे मेरे ...................

कंचों का मै बच्चा वो कंचों का मेरा बचपन
बंधे बंधे मेरे सपने बंधे बंधे वो मेरे अपने
टूट चुका है वो साथ पर वो अब भी मेरे पास
वो कंचे मेरे ...................

गोलाई आकारा का वो खेल था ऐसा मेरे मन
मस्ती अल्हड़ पंन का वो यूँ हुआ था ऐसा मेल
कंहा छुटी वो मेल कीस कोने खडी वो रेल
वो कंचे मेरे ...................

कंचों का खजाना, कंचों का मै दीवान
अब भी दिल में कंही बाँध रखी है मैंने
चुपके से अपने पास वो संभाल रखी है
वो कंचे मेरे ...................


अलका गुप्ता 
याद आते हैं वह प्यारे-प्यारे कांच के कंचे |
गली में खेलते थे बच्चे जब कांच के कंचे |
मचलता था मन मेरा भी खेलने को कांच के कंचे |
गोल-गोल कुछ तिलस्मी से दीखते थे वो कंचे |
मगर डर था बाबा का सडक पर जा नहीं सकती थी |
और जब आई ससुराल तो हुआ बहुत ही अचम्भा ....
उनके बचपन के जीते हुए वही सुन्दर कांच के कंचे |
ढेरों ........कंचे ........मेरे पति की थी अनमोल धरोहर |
जो आज भी वह संजो कर रखे हुए हैं ..........
बच्चों को देते हैं अगर तो ...पुनः खेलने के बाद सहेज कर रख देते हैं |
अब मगर वह कंचे मुझे बहुत बचकाने लगते हैं ...
इनके ये अंदाज भी बहुत बचकाने लगते हैं ...
हम इन्हें चिढाते हैं हँसते हुए ...
ये कंचे खानदानी लगते हैं ...पहले बाप...फिर बच्चे
इसके बाद है यकीन ...उनके भी बच्चे ...खेलेंगे ये कांच के कंचे |
वाकई तिलस्मी बहुत हैं..... ये कांच के कंचे !!!


किरण आर्य 

कंचे हाँ गोल गोल से रंग बिरंगे
पारदर्शी से मन समान ही
लुभाते मन को आज भी
जब आते है समक्ष
तो बचपन को लौटा लाते है
साथ अपने याद है आज भी
वो पिल बना कर कंचो पर
निशाना साधना और
सटीक बैठते निशाने संग
उल्लसित होता वो बाल मन
बिलकुल पारदर्शी उन कंचो सा ही
आज भी आता है याद वो बचपन
और वो कंचे मन से ही पारदर्शी से


डॉ. सरोज गुप्ता 
कंचा बनाम गोल्फ
~~~~~~~~~~

कंचा - खेला सस्तों का !
मौज-मस्ती ह्म-बस्तों का !!

कंचे -क्लब हर गली ,नुक्कड़ ,
चौराहे पर बिना दाम थे सुलभ !
चकाचौंध की दुनिया ने न माने,
कंचे खेल के थे कितने मायने !

कंचा- खेला सस्तों का !
मौज-मस्ती ह्म-बस्तों का !!

गोल्फ खेलने जाते क्लब,
लाखों खर्च करते हैं जब !
अमीर लोगों के हैं चोचले ,
मक्खियाँ मार जाते पब !!

कंचा - खेला सस्तों का !
मौज-मस्ती ह्म-बस्तों का !!

उंगुलियों का है कंचा खेल !
आँखों से रखता है यह मेल !!
कंचे खेल हो गए हैं सयाने !
समझे जैसे बिलियर्ड के नाने !!

कंचा - खेला सस्तों का !
मौज-मस्ती ह्म बस्तों का !!

गोल्फ गेंद जाती दूर होल में ,
गोल्फर अकड़ता अपने खोल में !
कंचे जाते जब अपनी पिल में ,
कंचर बनता पहलवान अपने मिल में !

कंचा - खेला सस्तों का !
मौज-मस्ती ह्म-बस्तों का !!

कंचा है गंजा और टकला ,
कंचा कांचा बना अग्निपथ में !
देख वक्र मुस्कान,सूजी आँखों में ,
डरा कंचा खिलाड़ी कांचा वेश से !

कंचा - खेला सस्तों का !
मौज-मस्ती ह्म बस्तों का !!


सुनीता शर्मा 
बचपन बीता कंचों संग
खेले खूब मित्रों के संग
छोटे बड़े का भेद भूल
ढेर लगाते जीत सब रंग

ये मारा अब मेरी बारी
करले तू बचने की तैयारी
अरे इनपर क्यूँ झपट रहा
मैंने न छीनी तेरी पारी

क्या अजब दिन थे
वाह गज़ब ढंग थे
दिन सारा खोने में
होड़ लगते देख सब दंग थे

निराले गोल मटोल लूटने बैठे
भूख प्यास सब भूले बैठे
घेर बनाकर गौर से ताकते
कहीं मुझसे ज्यादा न ऐंठ बैठे

एक से एक भरते झोली में
दुकानों पर गुहार लगाते मस्ती में
सबसे बड़ा हो या छोटा
होड़ लगाते बटोरने में

आज बच्चों को देखोगे
कंप्यूटर से कंचे कैसे खेलेंगे
प्रतिस्पर्धा ,परस्परता छोड़ो
ये भाईचारा कैसे सीखेंगे !


ममता जोशी 
बचपन में खेले थे खेल कितने निराले ,
आईस - पाईस , गिल्ली डंडा और कंचे प्यारे ,
चलो आज फिर से बचपन का कोई खेल खेलें .
बिना वजह हंसने की फिर कोई वजह दूंढें|


Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 
हर लम्हा ...
हर पल ..
याद आते।
मन के किसी कोने में बैठे ..
सुबकते बचपन को ..
सहला जाते ..
यादों में
बचपन के वो मित्र ।

रचे बसे थे ह्रदय ..
बन सुगन्धित ईत्र ..
महकाते अपनी२ बगिया ..
जाने कहाँ खो से गए ..
दुनियादारी के कुम्भ में ..
ह्रदय रचा बसा वही पुराने चित्र ..
लुभावने भोले मासूम ..
थोड़े से नटखट ..
मेरे बचपन के वो मित्र ..

कुछ खो चुके।
कुछ अचानक मिल जाते ..
ऋतुओं पर निर्भर कहाँ मित्रता ..
बरसों के मिलन पर ..
हर दिल ..
जैसे त्यौहार मनाते ।

वो छोटी सी केतली ..
वो छोटा सा दर्पण ..
वो घर घर का खेलना ..
वो सबका अपनापन ..
वो छुपना, वो छुपाना ।
वो रूठना, वो मनाना |
आज से भला था ..
वो बीता ज़माना ..


अरुणा सक्सेना 
मासूम ,शरारती ,नटखट से होते थे ये दिन
सूना सा लगता था संसार कभी इनके बिन
बाल सखाओं का जमघट बाहर लगता था
इन रंगीन गोली में जहां सारा दिखता था
लगा जिसका निशाना उस्ताद बन जाता था
कंचों का ढेर बड़ा उसका हो जाता था
ललचाते थे सभी बाल उन्हें देख-देख कर
उस्ताद रखता था उन्हें बड़ा ही संभाल कर
याद आ गए बचपन के वो अनमोल क्षण आज
इन कंचो के खेल पर कभी अपन भी करते थे राज



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

हाँ याद है
वों कंचो से
अपना प्रेम
दोस्तों संग
कंचे खेलना और
कंचे बटोरना
उनके साथ उनकी
अदला बदली करना
खेल का शौक
जितना था
उससे ज्यादा
उन कंचो से
अपना याराना था
उन्हें एकत्र करना
उन्हें नज़र भर देखना
जीवन उन्ही
रंग बिरंगे कंचो के
चारो ओर घूमता था
वक्त बेवक्त
पोटली खोल कर
उन्हें गिनना
शायद कल कुछ
और इसमें जुड़ जाये
इसी आस के साथ
फिर संभाल कर रखना

वो
यादे आज भी
सभाले हुए है
आज वो बचपन
अदृश्य हो गया है
वों
मिट्टी, कंचे, दोस्त
खो गए है



केदार जोशी एक भारतीय 
याद आ गया अपना बच्चपन आज ,
खलते थे कभी हम भी कंच्चे ,
न लगती थी भूख प्यास ,
बस कंच्चे ही कंच्चे की भूख थी पास ,

आज बच्चो को देखा तोह वोह दिन याद आ गए ,
अपने समय के थे कंच्चे के उस्ताद ,
आज भी कंच्चे है जमा किये मेरे पास ,
पर आज न रहा ये खेल हमारे पास ,
बढती दुनिया में खो गया हमारा कल ,


उषा रतूड़ी शर्मा 
जीवन की आपाधापी से दूर
कंचों की मस्ती में चूर
देख रही हूँ बालपन को
सपनों की उड़न तस्तरी पर
सवार देख रहे है जो लक्ष्य को दूर
एक कंचा पाने की चाह में
दूबे है अपनी आँखों के चश्मे नूर


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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