अशोक राठी
तुम्हें नग्न करने को उठे हाथ
तुम्हें ही काटने होंगें
कृष्ण नहीं आएगा इस बार मैं जानता हूँ
तुम दुर्गा हो, शक्ति हो , काली बन करो तांडव
होने दो प्रलय
आसुंओं से युद्ध नहीं जीते जाते
उठो अपने अस्तित्व की खातिर
उठो द्रोपदी
कृष्ण नहीं आयेगा इस बार
मैं जानता हूँ .........
Pushpa Tripathi
आज महिला दिवस .....
माता की ममता
पिता सी क्षमता
बहन का साथ
भाई का विश्वास
मै स्त्री हूँ ..........
भूख में भोजन
प्यास में आस
बच्चों की मिठास
घर की शोभा
मै स्त्री हूँ ...........
मर्यादा की आन
परिवार में शान
जीवन की पतवार
दिल की आवाज़
मै स्त्री हूँ ...........
रजत सा मन
सेवा का तन
पृथ्वी पर प्रमाण
विषम में प्रतिकूल
मै स्त्री हूँ .......
आठ मार्च का दिवस
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस
मनाएँ महिला सम्मान दिवस
न मनो सिर्फ देवी .. ये तो साक्षात है
मै स्त्री हूँ
नैनी ग्रोवर
क्यूँ मना रहे हो ये महिला दिवस ???
नहीं चाहिए मुझे कतार में पहला नंबर,
बहुत हिम्मत है मेरे अन्दर,
मेरे पैरों में बहुत बल है,
मेरा मन भी बड़ा सबल है,
क्यूँ करते हो मुझे, समानता से अलग ...
क्यूँ मना रहे हो ये महिला दिवस ???
अपनी पहचान तो मैं, स्वयं बना लूंगी,
जब हर जगह, बिना डर के जा सकूंगी,
मुझे भी दिया है दिल और दिमाग सृष्टि ने,
बस देखो मत नारी को, कुदृष्टि से,
नहीं हूँ किसी भी शय में, तुमसे विलग..
क्यूँ मना रहे हो ये महिला दिवस ...
एक दिन में, मेरा मान बड़ा कर देते हो,
फिर भेड़ बकरी की तरह खड़ा कर देते हो,
मुझे नहीं, देवी का कोई स्थान चाहिए ,
बस तुम्हारे बराबर का ही सम्मान चाहिए ..
कर सकते हो तो करो, अपनी आत्मा को सजग ...
क्यूँ मना रहे हो ये महिला दिवस ???
बालकृष्ण डी ध्यानी
एक दिन बस मेरे नाम पर
एक दिन बस मेरे नाम पर
उत्त्पत्ती होई उस स्थान पर
३६५ दिवस का ऐ साल पर
रखा था दिल से खयाल पर
एक दिन बस मेरे नाम पर ...................
माँ,बेटी,बहन,पत्नी साथ पर
झूली हर उस तान,मुस्कान पर
दिल में बसी उस ममता पर
अश्कों से जुडी उस गंगा पर
एक दिन बस मेरे नाम पर ...................
काँटों पड़ा मेरा हर पग पर
हँसता देखा तेरा वो चेहरा पर
भूल बैठी मै उस पल दर्द पर
उभरा था जो मेरी उस वेदना पर
एक दिन बस मेरे नाम पर ...................
फटी हुई वो मै लकड़ी पर
गीली लकड़ी थी मै उस साख पर
फुल खिले फल भी मिले पर
क्यों काटी जा रही हूँ किस ताल पर
एक दिन बस मेरे नाम पर ...................
आडंबर दिखावा झूठ फरेब पर
दिल स्त्री का हर समय नाम पर
आयेगा वो पल इस आस पर
जलती रही वो ज्योती रात पर
एक दिन बस मेरे नाम पर ...................
एक दिन बस मेरे नाम पर
उत्त्पत्ती होई उस स्थान पर
३६५ दिवस का ऐ साल पर
रखा था दिल से खयाल पर
एक दिन बस मेरे नाम पर ...................
ममता जोशी
माना बलिष्ठ है पुरूष,
स्त्री की उससे समानता नहीं है,
पर स्त्री पुरूष की दासी नहीं है ,
स्त्री को सुरक्षा भरा घेरा चाहिए,
पुरूष सुरक्षा देने से करता है इनकार,
उलटे करता है उसकी अस्मिता में प्रहार ,
क्यूँ??
महिला दिवस तब तक है बेकार,
जब तक महिलाओ पर होगा अत्याचार ...
भगवान सिंह जयाड़ा
कितने दुःख दर्द हैं मेरी जिंदगी में ,
फिर भी मैं सदा मुस्कराती रही ,
कोई न समझ सका दुःख दर्द मेरा ,
मैं यूँ ही मर मर कर जीती रही ,
गरीबी की आग में जलूगी कब तक ,
समाज के जुल्म सहूँगी कब तक ,
क्या इस दुनिया में सदा यूँ रहूंगी ,
भूख प्यास सदा यूँ ही सहती रहूंगी ,
क्या बजूद है दुनिया में मेरा यहाँ ,
मैं नहीं तो दुनिया में तुम सब कहाँ ,
आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवश है ,
सब मिल कर आज खावो कसम ,
महिलावों के उत्थान का दो बचन ,
समाज में सदा ऊंचा हो इनका दर्जा ,
मान सम्मान की इन की करो रक्षा ,
माँ, बहन यही हैं ,सब रिश्ते यही हैं ,
फिर क्यों आज औरत रो रही है ,
समाज के आडम्बरों को ढो रही है ,
कितने दुःख दर्द हैं मेरी जिंदगी में ,
फिर भी मैं सदा मुस्कराती रही ,
कोई न समझ सका दुःख दर्द मेरा ,
मैं यूँ ही मर मर कर जीती रही ,
किरण आर्य
आज महिला दिवस है चहुँ और ये ही झंकार
आज की सुबह भी मेरे लिए ना लाई पुष्प हार
वहीँ चाय की चुस्की के साथ दिन का कारोबार
ऑफिस की भाग दौड़ और दौड़ते वक़्त का बुखार
सुरसा सा फाड़े खड़ा है अखबारों में भ्रष्टाचार
और महंगाई पल पल रुलाती है उसकी मार
हर रोज़ चौराहे पे होती अस्मत कहीं बेजार
कहीं होते धरने कहीं आक्रोश करता सड़क का दीदार
पुलिस और नेताओं की बयानबाजी की उफ़ क्या धार
लीपी पुती संवेदनाये और मगरमछी आंसुओ की बाढ़
नारी नहीं सुरक्षित सहमी भावनाए उसकी घर या बाज़ार
चाहे मन उसका मुठ्ठी भर सुकूं और उन्मुक्त सी बयार
आज जो दशा उसकी उसके लिए है वो स्वयं भी जिम्मेदार
कहा अबला उसे तो नेमत समझ किया उसने अंगीकार
मान नियति इसे अपनी बहाए नीर आंसू उसके लाचार
होना होगा जागृत उसे स्व के लिए यहीं वक़्त की पुकार
दोषारोपण नहीं है हल संगठन ले सुद्रढ़ आकार
पाकर सम्मान जब स्वप्न मन के होंगे साकार
उस दिन ही हम होंगे सही मायनों में महिला दिवस मनाने के हकदार .
आनंद कुनियाल
आँचल में लपेटे ममता
पीठ पर लादे भविष्य
अपनी ही से बेखबर
जाने क्या खोजती नज़र
कभी ताकत कभी बेअसर
कभी थकती हूँ कभी तकती हूँ
तलाशती अपने वजूद को
कब से चली हूँ जाने किधर
हर बार हर दिन हर साल
यही उम्मीदें यही ख़याल
सबने बारी बारी दोहराईं
जो चाहो मेरी तरह आप
औ' ये सृष्टि मुस्काये तो
इतनी सी बिनती है भाई
जो सच में हो मेरे लिए
रखते एक मानुस की फ़िक्र
कुछ और न चाहूँ बस
दे दो मेरी निर्धन हंसी को
एक लम्बी खिलखिलाती उम्र
किरण आर्य
हाँ मैं नारी हूँ
चाह नहीं दीवालों में पुजना मेरी
चाह पैरो की जूती बनना भी नहीं
हाँ ममता के संग कर्तव्य निर्वाह
यहीं चाह है अटल साधना मेरी
कांधे पे बोझ परिवार व् नेह का
हंसकर करू वहन मैं हर पल
शिकवा ना शिकायत है लव पर
बस इक चाह बसी कस्तूरी सी
इक उन्मुक्त आकाश इक बेख़ौफ़ हंसी
प्रतिद्वंदी नहीं पूरक बन साथ रहूँ
इक चाह बस इतनी सी मन में बसी
सुनीता शर्मा
समाज को महिला दिवस की दरकार नहीं
एक दिवस से उसको कोई सरोकार नहीं
सुनियोजित करो अब पुरुष दिवस
महिलाओं को यूँ बरगलाने की जरूरत नही
हर जगह हर दिवस सम्मान कब दोंगे
किसी एक दिवस को ही क्यूँ पूजोगे
कोख से लेकर मृत्यु तक बहिस्कार
ऐसा अनर्थ कब तुम सब छोड़ोगे
एक दिवसीय सम्मान नही माँग रही
युगों से समाज से प्रश्न पूछ रही
अधिकारों की बड़ी बड़ी बातें छोडो
अपने हालातों से जो खुद ही जूझ रही
महिलाएं भी अपने कर्तव्य समझें
हक पाने के लिए कदम बढ़ाएं
अपने वर्ग के दर्द को समझें
अपने प्रति हो रहे दुर्व्यवहार को समझें
नारी अराध्य भी तो पतिता भी
उद्धारक , सवेदनशील व् क्रूर भी
लडको को सिर पर बैठाना
अत्याचारों की गुहार क्यूँ फिर भी
नारी तुम शील ,शालीनता व् धैर्य की धवल किरण बनो
पुरुष तुम नशा , घृणा व् हिंसा को त्याग सुदर्शन चरित्र बनो
पुरुष व् महिलाएं ..सम्मान एक दूजे का करो
सुंदर सुदृढ़ समाज की परिकल्पना साकार करो
Bahukhandi Nautiyal Rameshwari
कभी सजाया माथे।
कभी पैरो की धूल बना गिरा दिया गया ।
कभी रौंदी गयी ..
कभी बिकी अपनों के हाथ
मुझे वेश्यालय बैठा दिया गया ।
शक्ति स्वरुप माना कभी ...
कभी सरेआम उसकी आबरू को
रौंदा गया .....
कभी बनी प्रीत का हार ..
कभी झूठी शान को ...
दामन मेरा
सूली सजा दिया गया ..
कभी पूजयते सम तुलसी ...
कभी दहेज़ वेदी, मैं झुलसी ..
नारी तू
अबला जीवन ..
ना अंगीकार कर ..
जगा लुप्त ज्योतिपुंज ...
सृष्टी में हाहाकार कर ..
तू ही सृजनी, तू ही अर्धनारीश्वर ..
तू सबला जीवन स्वीकार कर।
स्नेहवर्षा करने वाली ..
कभी खुद से भी प्यार कर ।
डॉ. सरोज गुप्ता .....
मैं महिला फौलादी
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पुरुष -सत्ता की
कुचली ,मसली
औरत एक निवाला
मन आया तो खाया
वरना ठोकर खाने को
जंगलों में फिंकवाया !
फिर भी तू मतवाली
इसमें क्या राज है आली ?
मेरी बतीसी में
ढूंढना मत बेबसी !
मेरी टीस में
'वायलेंस ऑफ़ सायलेंस' का
दवा भरा इंजेक्शन लगा है !
स्त्री -देह को हिंसा के लिए अनुकूलन
बनाने की जोरम अजमाई है !
घर चलाने के काम को देकर
दोयम दर्जा ,
करना चाहते हो अपना
वर्चस्व कायम ,
मैं नहीं हूँ अहिल्या ,
मैं नहीं हूँ जड़/शून्य ,
मेरे मुड का भी है मूल्य ,
तेरे गुनाओं का करूंगी
अब शल्य -चिकित्सा !
मानूंगी नहीं अब
चाहे मांगे प्रेम की भिक्षा !
सोने को जब आग में
तपाया ,गलाया ,पीटा गया
तब बनी थी एक औरत
गृहस्थी का गहना !
जिसे दम्भी पुरुष के
बौने मस्तिष्क ने
नहीं चाहा स्वीकारना !
ओ निष्ठुर समाज
निकाल फेंको सोच कबाड़ी
पत्नी नहीं ठहरे पानी की बाबड़ी
यह गंगा ,यमुना ,सरस्वती की संगम
पवित्र ही जाते सब जड़-जंगम
औरत को दे दो
तलाक की मंजूरी
नहीं कराओ और जी-हजूरी !
मैं हूँ जीती जागती महिला !
जो मही को चाहे तो
अकेले ही दे हिला !
आर्थिक -निर्भरता के फैराऊँगी
मैं परचम !
अपने होने और जीने का
स्पेस रखूंगी हरदम !
पूछोगे नहीं -
मेरी पीठ पर तना
मिटटी से सना
किसने झूठे से मुझे छला !
न पूछो तो भला
यह है मेरा अंश
नहीं केवल तुम्हारा वंश
तुम्हारी हिंसा की कंडिशनिंग
का आदी मेरे शरीर को
जब भी नये -नये आरोपों ,
तानो ,चुप्पी ,घुन्नेपन ने
काटा/छीला
मेरे आंसुओं की नमी से
नयी कोपलें हुयीं वहीँ अंकुरित
लो सिगरेट के कश
उडाओ गुलछरें
मैं भारत की औलाद
आर्य देख जल्लादों ने
बना दिया
मेरा जिस्म फौलाद
अब अहिल्या बने रहने की
खत्म हुयी मियाद !
बड़ी देर भई बने जड़
अब अकेले ही तू सड़
नहीं देनी अब अग्नि परीक्षा
मुझे नहीं किसी राम का इन्तजार
जो करेगा मेरा उद्धार
पहले पर-पुरुष इंद्र से
छली गयी
फिर अपने पति
ऋषि गौतम महान से
श्रापित हुई !
बिना कसूर मैं ही
लांछित हुई
अब मैं ही उठा
सबको अपने कंधो पर
अहिल्या नहीं
ग्लानी क्षोभ नहीं
मन -मलिन नहीं
कोई चीत्कार -सीत्कार नहीं
महिला बनूंगी
मही से स्वर्गलोक तक
अकेले मैं ही लडूंगी !
अलका गुप्ता
क्या मिला जब देवी माना था तुमने |
जज्वात भी पत्थर से हीसमझे तुमने |
रहेगी बस हर वक्त सामान एक बन के |
ढोया है जनाजा अपनी आरजुओं का उसने |
करोगे हिसाब क्या खोया क्या पाया उसने |
मानवाता की आधी आवादी हूँ .....
देकर जन्म मैं ही तो पाली हूँ .....उसको |
दिवस केवल एक ही....नहीं पाना है हमको |
बस सुरक्षा हक़ न्याय हमारा दे दो हमको |
सच्चाई मानों...समझ लो दिल से हमको |
कर लो नीची अपनी इन धूरती निगाहों को |
भर लो उसमें आंच एक ..नारी सम्मान को |
सच्चे अर्थों में तब होगा महिला दिवस ..वो |
मिले महिला को सम्मान न्याय हक समान वो |
होगा कुछ ना बस एक दिवस घोषित हो जाने को ||
Neelima Sharma
लडकियों
तुमको सिर्फ परी कथाये ही
क्यों सुनाई जाती हैं
बचपन से
तुमको सिर्फ गुडिया/ चौके चूल्हे
का सामान ही मिलता हैं
खिलौनों में
क्यों तुमको राजकुमारी सरीखा कहा जाता हैं
कहानियो में
क्यों सफ़ेद घोड़े पर सवार
राजकुमार आता हैं लेने
सपनो में
जबकि हकीक़त जानती हो तुम
जिन्दगी परी कथा सी नही होती
कोई सफ़ेद घोड़े वाला राजकुमार नही आता
कोई रानी बनाकर नही रखता अपने महल में
जिन्दगी सिर्फ गुडिया जैसे नही होती
समझौता खुद से सबसे पहले करना होता हैं
फिर लोगो के मुताबिक़ ढलना होता हैं
एक अजनबी से रिश्ता जोड़ कर
उनके घर से , परिवार से
रीती-रिवाजों से उनके अपने समाजों से
खुद को जोड़ना होता हैं
इसलिए बचपन से तुमको बहलाया जाता हैं
हाथ में बन्दूक की जगह बेलन पकडाया जाता हैं
भगत सिंह की जगह सिंड्रेला का सपना देखाया जाता हैं ...
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
मेरे स्वजनों का प्रिय मंच जिसकी पंखुड़ी हैं हम सब और हमारी पुष्प वाटिका का मान गौरव हैं आदरणीय प्रतिबिम्ब बर्थवाल जी , जिनकी सादर प्रेरणा से सभी पखर लेखनी की डगर में हैं !
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