Sunday, April 7, 2013

05 अप्रैल 2013 का चित्र और भाव





बालकृष्ण डी ध्यानी 
आज का चित्र

आज का चित्र देखकर
उसने मुझे मजबूर किया
जो दूर थे अब तक
उनको अब दिल के पास किया

बैठे है सब गोलाकार सभी
पैर अपने अपने पसरे
क्या कहते हैं वो हमसे
मेरी सोच को सोच में डाले

पुकार रही है
उनके पैरों की गोलाई
क्या है वो चित्र
जिसमे में संकेत छुपा

जो तुम्हरे और हमारे
मन के भीतर उभरे
एक एक आवाज आये दिल से
कह रहे हो जैसे वो सारे

हम भी तो हैं
इस धरती के लाला
हम भी हैं तुम्हरे
आओ साथ मिलकर

विश्व को पर्यावरण से सजायें
उनकी सोच से नत हुआ मै
चलो साथ साथ अब चलें
हम मिलकर अब सारे

आज का चित्र देखकर
उसने मुझे मजबूर किया
जो दूर थे अब तक
उनको अब दिल के पास किया


Govind Prasad Bahuguna 
नंग धडंग और मस्त मलंग
मिलकर खेलें खेल यह संग I
हिलोर हंसी की छबि सुन्दरता की
अद्भुत तरंग ह्रदय निर्मलता की I I

अलका गुप्ता 
आओ साथियों !मिलकर खेलें खेल |
बनाएं तरह-तरह के ...अद्भुत मेल |
हसें खिलखिलाएं ये मानव शृंखलाएं ..
हाथ-पाँव कभी सिर से मिलाएं मेल ||


भगवान सिंह जयाड़ा 
दिखा रहे हैं यह मिल के दुनिया को ,
हमारी भी सुध लो दुनिया के लोगों ,
यह जो घेरा बनाया है हमने पांवों से ,
बस इतना सा अन्न से तुम भर दो ,
वाह री दुनिया तेरे अजीबो गरीब रंग ,
भूख और प्यास क्यों यहाँ इन्शान संग ,
भूख और प्यास से बिलखते यहाँ इन्शान ,
यह कैसा इंशाफ है, पालनहार भगवान् ,
करो दया इन पर भी हे दया निधान ,
यह सब भी तो है तुम्हारी ही संतान ,
जीवन दिया है तो,सब को रोटी देना ,
तुम से अर्ज है , इन की भी सुध लेना,
मुठ्ठी भर अनाज से कुछ न जाएगा ,
इन भूखे इन्शानों को खान मिल जाएगा ,


आनंद कुनियाल 
आओ अभी तो पावों में फूल खिलाएं..
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आओ अभी तो पावों में फूल खिलायें
ये बेफिक्री का आलम ये अनमोल पल-छिन
कोमल पैर सलोनी काया निश्छल हर मन
मुस्कुराती आँखें सौंधी माटी से सना तन
बंधुत्त्व से बंधा ये प्यारा अल्हड़ बचपन
देखते देखते न जाने कहाँ दुबक जाएं
कल की क्या खबर क्या रंग दिखाए
भटकते पैरों में होगी बिवाईयाँ
छल से लबलबाता कठोर मन
बदरंग आँखों में हडपने की लालसा
अपनी हवस में रंगा आदमखोर तन
जड़ता और विनाश पर अड़ा हर जन
कल की क्या खबर क्या रंग दिखाए
आओ अभी तो पावों में फूल खिलाएं


नैनी ग्रोवर 
मिल जुल कर संग बैठें, खेल नया हम खेले,
हमारी अपनी सल्तनत है, हमारे अपने मेले..

हम धरती की संताने हैं, माटी ही हमको भाए
हमको प्यारे, काले बादल, और अम्बर के साए,
नहीं पसंद शहरों के हमको, वो ऊँचे-ऊँचे झमेले..

हमारी अपनी सल्तनत है, हमारे अपने मेले....

जंगल हमारी रोज़ी-रोटी, जंगल है हमारा विधाता,
क्यूँ छीन रहा इंसान आज का, समझ में नहीं आता,
क्या इनको नहीं पता इसका, यह कुदरत के हैं ठेले..

हमारी अपनी सल्तनत है, हमारे अपने मेले....!!


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
हौसले और प्रेम भाव संग
बचपन बीता अपना खेल में
मिलकर सीखा धरती है गोल
जो पल बीते थे वो अनमोल

रंग रूप का भेद नहीं था
छोटे बड़े का खेल नहीं था
मिलते हाथ संग पैर भी थे
दिल से सब अपने लगते थे

बड़े हुए तो जीने की सोचने लगा
जिन्दगी की दौड़ में शामिल हो गया
बचपन का खेल अब हर कोई भूल गया
प्रेम भी अब स्वार्थ में देखो बदल गया



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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