Monday, April 29, 2013

प्रतियोगिता चित्र - 26 अप्रैल 2013




26/04/2013 का ये चित्र एक प्रतियोगिता है. शर्त :
मित्र [महिला और पुरुष] इसमें स्वयं को विपरीत वर्ग में रख अपने भाव प्रस्तुत करंगे यानि महिला मित्र पुरुष के भावों को स्थान देंगे और पुरुष मित्र महिला के भावो को स्थान देंगे. 





Rohini Shailendra Negi .. 
काश मैं अपना भी रण-कौशल,
युद्ध-भूमि मे दिखलाता,
और विजयी होकर फिर अपना,
अंग-अंग मैं मुस्काता,
तब मैं नज़रों से कुछ ऐसे,
पल को खोज रहा होता,
मंत्र-मुग्ध हो जाये दिल,
ऐसे रस मे डूबा होता...!

Neelima Sharrma  [ पुरुष रूप में इस चित्र पर श्रेष्ठ भाव ]


एक ज़माना था यारो !
महारानी लक्ष्मी बाई का
मर्द बनकर लड़ गयी थी
पर नारी जैसे लज्जा भी थी

एक ज़माना था यारो
राजे रजवाडो की रानियों का
खूबसूरती/ सादगी कमाल की
शर्म-ओ-हया की लाली भी थी


एक ज़माना था यारो
मेरे गाँव में बसी ग्वालानो का
हाथ में हसिया दुसरे में पल्लू
पर कर्मठता गजब की थी

अब जमाना हैं यारो
सनी लिओन और मल्लिका का
न लज्जा हैं , न शर्म न कर्मठता
बस बेहूदगी बेहयाई बेहिसाब की हैं

कैसे कहदेते हो यारो अब
पुरुष बेइमान हो गये
माँ - बहन की तरह कैसे देखे
किस्सा कहानी भी अजब सी हैं

दीपक अरोड़ा 
हां, नारी हूं, मेरे रूप अनेक
पर दिल है मेरा हिन्दोस्तानी
जहां जरूरत पड़ी तो लडी खूब मर्दानी,
जरूरत पड़ी तो चूल्हे चोके में बिता दी जिंदगानी
जरूरी समझा तो घूंघट में रही छिप कर,
हुई मजबूरी तो उतरना पड़ा जन्मजात रूप लेकर
हां, नारी हूं, मेरे रूप अनेक
पर दिल है मेरा हिन्दोस्तानी...

नैनी ग्रोवर 
जिस राह तू चले नारी,
वह राह समाज की राह बने,
कभी बने, खुशियों की किलकारी,
कभी दुखों में, मेरी हमराह बने ..

तू झांसी की रानी बनके,
लड़ती है जब तूफानों से,
मन गद-गद मेरा हो जाता है,
भर जाता, तेरे एहसानों से,
लड़ते-लड़ते जब त्यागे प्राण,
हर सीने की कराह बने ..

जिस राह तू चले नारी,
वह राह समाज की राह बने ...

बनके ग्रहणी तूने जो प्रेम किया,
उससे जला मेरे वंश का दिया,
तुझे नमन बार-बार करता हूँ,
तूने बन मीरा, प्रेम ज़हर है पिया,
कभी थक जाऊं जो जीवन से मैं,
तू प्यारी सी एक सलाह बने ..

जिस राह तू चले नारी,
वह राह समाज की राह बने ...

मेरे काँधे से मिला कर कांधा,
हर पल साथ तूने दिया है मेरा,
कभी बनी कल्पना, कभी सुनीता,
हुआ और भी प्रेम गहरा मेरा,
कभी भटकूँ जो राहों से मैं,
तू भोली सी परवाह बने..

जिस राह तू चले नारी,
वह राह समाज की राह बने ...

तारों से आगे निकल चाहे,
छू ले सारा ब्रम्हांड तू,
बस भूलना मत इस जग के लिए,
करती रही कितने बलिदान तू,
कहीं ऐसा ना हो नई सभ्यता में,
ये मंदिर सा पावन तन तेरा,
चंद भेदियों की नज़र में,
इक मदभरी आह बने..

जिस राह तू चले नारी,
वह राह समाज की राह बने ...!!


Jagdish Pandey 
हम नारियों का अस्तित्व
कहाँ किसनें कब माना है

कभी समझा पैर की जूती
कभी शोभा सेज की जाना है
पलट के देखो स्वर्णिम पन्ने
इतिहास में भरी कहानी है
नारी ही थी रानी लक्ष्मीबाई
रँण में लडी खूब मर्दानी है
फिर भी -
हम नारियों का अस्तित्व
कहाँ किसनें कब माना है

माथे पे बिंदिया हाँथ में कंगना
सम्हाला हमनें घर और अंगना
हर हाल में बीते जीवन अपना
साथ न छोडा कभी तेरा सजना
फिर भी -
हम नारियों का अस्तित्व
कहाँ किसनें कब माना है

तारों का जहाँ भी अछूता हमसे रहा नही
सुनीता,कल्पना, नाम जग में है छुपा नही
मजबूरी में तन से कपडे कम करना पडा
मन की पीडा को कभी किसी से कहा नही
फिर भी -
हम नारियों का अस्तित्व
कहाँ किसनें कब माना है
कभी समझा पैर की जूती
कभी शोभा सेज की जाना है


बालकृष्ण डी ध्यानी 
नारी हूँ मै

कोमल कली हूँ मै
क्या नाजों से पली हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

बेटे की चाहत में
दूर कंही दूर खड़ी हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

किसी की माँ
किसी की बेटी, किसी की पत्नी हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

तीन रिश्तों में
तीन भागों में बराबर बांटी हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

तीन रंगों में हरदम
यूँ ही अकेले सजी हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

चारों तरफ हर तरफ
ऐसे ही टूट कर बिखरी हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

चूल्हे ने कभी
तो कभी अपनों से जली हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

फंदे में झुला दी गयी
अपनों के लिये अपने को भूल गयी
नारी हूँ मै ...........

पूछती हूँ खुद से
क्या नारी होना एक अपराद है
नारी हूँ मै ...........

फिर क्यों ऐसे
समाज के दोहरे मापदंडों मापी हूँ मै
नारी हूँ मै ...........

कोमल कली हूँ मै
क्या नाजों से पली हूँ मै
नारी हूँ मै ...........


भगवान सिंह जयाड़ा 
मुझे अबला मत समझना जग वालों ,
मैंने सबला हो कर जग को दिखाया है ,
बिरांगना लक्ष्मी बाई ने क्या लड़ी लड़ाई,
जिसने अंग्रेज सरकार की नीद उड़ाई ,
धैर्य और शाहस का रूप ,मै जोधा बाई ,
ऐसी कई बीरांगना है ,मुझ में समाई ,
गाँव की कर्मठ और हँसमुख मै ही हूँ ,
दिन रात मेहनत और मजदूरी करती हूँ ,
दुःख और तकलीफें भी सदा झेलती हूँ,
फिर भी सदा जीवन में खुश रहती हूँ ,
मैं प्यार और ममता की मूरत भी हूँ ,
इसी लिए जग में ,मैं माँ कहलाई ,
माँ ,बहिन ,बेटी ,पत्त्नी सब मेरे रूप ,
मै हूँ प्यार और ममता की सुहानी धूप ,
मैंने कंधे से कंधा पुरुषों संग मिलाया ,
हर छेत्र में दुनियाँ से ,लोहा मनवाया ,
रंग मंच आज मेरे बिन सब है अधूरा ,
दुनिया का कोई काम नहीं बिन मेरे पूरा ,
बस मेरे कुछ ऐसे रूपों से मै शरमाती हूँ ,
ऐसी काया से जब जग को भरमाती हूँ ,
बस मुझे इस रूप से आती है लज्जा ,
इस रूप की मिलनी चाहिए मुझे सजा ,
बस लाज और आबरू हो मेरा गहना ,
मुझे जुल्मो सितम अब नहीं है सहना ,
आज दुनिया के सब पुरुषों, मै कहती हूँ ,
अबला नहीं सबला हूँ ,जुल्म क्यों सहती हूँ ,
जब तक नारी का इस जग में नहीं सम्मान ,
तब तक समझो यह सारा, जग है अज्ञान ,


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल   [ महिला रूप में इस चित्र पर श्रेष्ठ भाव ]

~हमें दिखलाना है ~
अबला और सबला का, आओ अब ये खेल ख़त्म करे
लोगों के बहकावे में आकर, न हम खुद को नीलाम करे
हम ही है सावित्री, दुर्गा, सीता व लक्ष्मीबाई, ये याद करे
दिया हमने ही जन्म भगत सुभाष को, इतना ध्यान करे
हम ममता, शक्ति और त्याग की मूरत है, ये विश्वास करे
सामान नही आवाज़ है आओ मिलकर अब ये एलान करे

हर क्षेत्र में लग्न व् मेहनत से हमने लोहा मनवाया है
निभा जिम्मेदारी घर की, राज काज में हाथ बंटाया है
परिवर्तन संग हर परिस्थिति में भावों की बलि चढ़ाई है
जो था कभी असंभव उसमे भी पहचान अपनी बनाई है
पाकर प्रेम पिता व् भाई का, पति को प्रेम सिखलाया है
देकर जीवन साँसों का, माँ का ये रूप हमने ही पाया है

हाँ सच है, केवल नाम, पैसे और शौहरत की खातिर
कुछ लोगो ने आज लाज और शर्म भी बेच खाई है
आज़ादी के नाम पर हमारी सभ्यता से खेल जाते है
खुद को बेचकर येसे लोग हमें बदनाम कर जाते है
तन और मन की नग्नता का खुला प्रसार करते है
सच कहूँ येसे कृत्य हमें कई बार शर्मसार करते है

लज्जा हमारा गहना है, अपमान कोई न अब सहना है
नर और नारी का भेद मिटा, सबके साथ हमें चलना है
है कोई मतभेद हमारे बीच गर मिलकर उसे सुलझाना है
आधार शिला हम परिवार की, फिर से हमें दिखलाना है
कमजोर नहीं, लाचार नही हम, दरिंदो को ये बतलाना है
गंदी नज़र वालो और हैवानो को अब सबक सिखलाना है


Govind Prasad Bahuguna 
मै झांसी से आई लक्ष्मी बाई
लेकिन रानी नहीं हूँ बाई हूँ
अपनी मेहनत का कमाती-खाती हूँ
अबला नहीं हूँ,किसी का क्या खाती हूँ
छू कर तो देखो, मैं वही लक्ष्मीबाई हूँ II
देखो तो मैं कैसी लगती हूँ
अल्ल्हड़ की मुस्कान में मस्त लगती हूँ
हीरोइनें पानी भरती हैं मेरे सामने
देहाती कपडे पहनकर भी देहाती नहीं लगती II
क्या मैं तुमको राजकुमारी नहीं लगती ?
गोरी उजली शांत और संभ्रांत
अपने ही सुख- दुःख में कैद
जैसे फोटो फ्रेम के अन्दर जड़ी कोई अकेली एकांत II
कपडे नहीं, मै तो शरीर ओढती हूँ
शरीर भी एक वस्त्र है क्योंकि यह अब एक अस्त्र है
निर्मम प्रतियोगिता में जीने का,
कुटिलों और शोषकों की बुद्धि ठगने का
लेकिन परोपजीवी,शरीरजीवी, भोगजीवी नहीं
मै श्रमजीवी,आत्मजीवी और बुद्धिजीवी हूँ I I


सुनीता शर्मा 
नारी तुम मेरे जीवन संगिनी नही प्राण उर्जा हो ,
तुम्हारे हर अक्ष का मैं सदा ऋणी रहा और रहूँगा,
सीता, सावित्री,अहिल्या ,कुंती ,द्रोपदी,गांधारी या हो कोई व्भ्याचारिणी ,
सब रूपों को पाने का मैंने साहस दुस्साहस किया,
तुमने दया की सम्बल बन सदा मेरा सत्कार किया,
तुम सब रूपों में बनी भारतीय संस्कृति की परिचायक ,
मेरे मरने पर तुम कभी रणचंडी ,कभी सती कहलाई ,
मेरे हर जुल्म को तूने सहर्ष स्वीकार किया ,
मद मैं चूर मैंने तेरा कभी सम्मान कभी अपमान किया ,
मैंने तेरे तीन रूपों को सदा पूजा और पूजता रहूँगा ,
पर आज मै और मेरा अस्तित्व तेरी नजरों में क्यूँ गिर गया ?
अपने अस्तित्व की लडाई में तूने मेरा तिरस्कार किया ,
बसनो को कम करना, मर्यादा की सीमा लाँघना क्यूँ तूने सीख लिया ?
हम हैं महान अपनी सारी संस्कृति गौरवशाली है ,क्यूँ तूने इसे खंडित किया ?
पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर तूने माँ दुर्गा का अपमान किया ,
आज गाली स्वरूप लगती नारी जबसे तूने मदिरा पान किया ,
नग्नता की सीमा लांघकर तूने क्या गौरव शोहरत हासिल किया ,
तेरी इस भूल आज बन गयी अभिशाप हर माँ बहन बेटी पर ,
जैसा बोते वैसी फसल कटे कैसे तू इस मन्त्र को भूल गयी ,
मुझ पर आरोप लगा लगाकर तूने मुझे मजबूर किया ,
आज मुझे दुर्योधन बना गली गली क्यूँ अपमानित कर रही ,
देह श्रृंगार की तेरी पिपासा की मर्यादा तूने ही तो भंग किया ,
आज मैं और मेरा आचरण जाने क्यूँ विभस्त हुआ ,
आ चल बैठ पास मेरे ,अपने अपने मन की बात कहें
संस्कृति की मर्यादा को फिर से नव जीवन दान दें ,
जीवन सुख दुःख की गाडी नहीं चलती एकाकी ,
कुछ मैं बदलूँ ,कुछ तुम सुधरो ,जीवन नवीन करें ,
तुम मेरी धडकन ,तुम ही मेरा जीवन श्रृंगार हो ,
तुमारे लिए अब भी राँझा ,और तुम मेरी हीरी हो ,
राधा रुक्मणी स्वरूपा तुम सदैव मेरी अराध्य हो ,
तुमसे मेरा जीवन ,तुम धरा की अनमोल संगिनी ,
नए इतिहास निर्माण में त्यागकर अपना कलुषित व्यवहार ,
आओ मिलजुलकर भारतीय संस्कृति का नव निर्माण करें !


अलका गुप्ता 

डर गया हूँ मैं....... इस संस्कृति के ह्रास से |
निशदिन तेरी मर्यादा के इस महा विनाश से |
तेजस्वनी सी बन दुर्गा.. लक्ष्मी.. चंडी बन ...
कर उपचार तू ही हर शोषण का आत्मबल तेज से ||

मुझे पता है.......तेरा हर कर्मठ रूप सदा से |
माँ बेटी बहन प्रिया पत्नी आत्मीय रहे सदा से |
हर रूपों में तेरा .......हर अंदाज निराला है .....
इसी रूप में मिलजुल हमने हर रिश्तों को पाला है ||

हाय ! नजर यह कैसी .....लगी पाश्चात्य की |
संस्कार देवी !.....बच ना पाई इस आघात से |
बंधन से लगने लगे... अब जो ....संस्कार भी |
तन भी उघड़ने लगे अब विज्ञापन के बाजार में |

डर लगता है अब इन बहकी-बहकी हवाओं में |
आजा समेटकर सहेज लूँ लाडो तुझे आगोश में |
घूमते हैं भेडिए बाहर हमशक्ल नोचने को घात में |
भौतिकवादी युग है भरोषा भी बिक गया बाजार में ||


किरण आर्य .
हे नारी तू स्नेहमयी त्याग की प्रतिमूर्ति है तू
तुझसे पूरक जीवन तुझ बिन मैं अधूरा ही रहा
धेर्य लज्जा ममता प्रेम से सुसज्जित तू

तुझ बिन जीवन मेरा मझधार में बहती नैया सा
वक़्त बुरा जो आ जाए रणचंडी बन जाए तू
झाँसी की रानी हो या कित्तूर की रानी चेन्नमा

दुष्टों का संहार करने को उद्धत रहती सदैव तू
दुर्गा भी तू सीता भी तू है प्रेम की स्नेहमूर्ति तू
जीजाबाई सी माता बन शिवाजी को बनाये सिंह तू

घर में हो या बाहर करती कर्तव्य का निर्वाह तू
संस्कार और संस्कृति की है हमारे संवाहक तू
अबला कह तेरी ताक़त को नकारता आया ये जमाना
क्यों इसने तेरी ताक़त का सही मोल ना आँका हाय रामा

प्रगति की राह पे चलती निर्भय सजग सशक्त सी तू
आधुनिकता की आंधी हाय क्यों बहा ले गई विवेक तेरा
देह प्रदर्शन सस्ती लोकप्रियता रह गई देह मात्र सी तू
विकृत सी मानसिकता जिसने मन सुंदरता को ना जाना

बना भोग्या हाय तुझे वजूद मेरा कटघरे में किया खड़ा
टूटन तेरे अस्तित्व की तोड़ गई मुझे भी हाय कहीं
तेरी नज़रो का संशय भय से भरा क्यों लगता ना मुझे सही

मैं अलग कहाँ तेरा हिस्सा हूँ वजूद का तेरे किस्सा हूँ
माँ भी तू प्रिय भी तू बहन, सहचरी, सखी, बेटी भी है तू
अपने हिस्से का धेर्य हमें मिलजुलकर ही है फिर पाना
प्रतिद्वंदी नहीं एक दूजे के पूरक बन साथ है निभा जाना

अपने मन आक्रोश संताप को अपना अस्त्र है बनाना
तू बन सबल मैं साथ खड़ा ये वादा तुझसे है सखी मेरा
हे नारी तू स्नेहमयी त्याग की प्रतिमूर्ति है तू
तुझसे पूरक जीवन तुझ बिन मैं अधूरा ही रहा


डॉ. सरोज गुप्ता ......
नारी तुम्हारी सदा जय -जय -जय !
बदले यह रूप तुमने जय जय जय !!

लक्ष्मी बाई जैसी योग्य हो तुम
माँ सीता जैसी आरोग्य हो तुम
लता जैसी सुर सम्राज्ञी हो तुम
कल्पना से भरी हुई उड़ान हो तुम

नारी तुम्हारी सदा जय -जय -जय !
बदले यह रूप तुमने जय -जय -जय !!

इंदिरा गांधी जैसी चट्टान हो तुम
शिवाजी की माँ जीजाबाई हो तुम
तू हंस कर बनी मेरी भी भोग्या
मैंने ही किया तेरे रूप को स्याह -स्याह

नारी तुम्हारी सदा जय -जय -जय !
बदले यह रूप तुमने जय -जय -जय !!

मैं हूँ खड़ा तेरे सामने हाथ जोड़
मुझसे कभी न तू मुंह लेना मोड़
तू हैं ईस्वर का सबसे अनोखा वरदान
जान देकर भी बढ़ाऊंगा तेरा मैं मान !

नारी तुम्हारी सदा जय -जय -जय !
बदले यह रूप तुमने जय -जय -जय !!
12 hours ago · Edited · Unlike · 8


[ प्रतियोगिता समाप्ति के बाद आई रचना ]
Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 
सौम्य, पावन हृदया तू ....
पुरुष जीवन का मान सम्मान तू ..
कोमल तन आकाश सही .
कोमल मन सही ..
यम से हर ले प्राण तू।
उज्जवल रूप रंग ..
हाड मॉस का लोथड़ा भर नहीं तू ..
क्यूँ वहशी गिद्ध निगाह गाड़े खड़े ?.
लज्जा रहती है जिन नैनो में ..
उन नैनो मैं तेज़ाब भर तू ...
अब दौर नहीं घूंघट का ..
छोड़ दामन पनघट का ..
नीर बहुत बहा चुकी तू ..
कल्पना का आकाश, राह ताके तेरी ..
उन्मुक्त, स्वछंद उड़ान भर तू ...
बहेलिये खड़े जो, गर राह हो तेरी ..
जो समझे ना तेरी ह्रदय पीर ..
लोह भर ह्रदय, हाथों में उठा शमशीर ..
जीवन रणभूमि मान तू ..
अपनों में, गैरों में ..
दुश्मन को पहचान तू ....


परिणाम  

मित्रो सदस्यों २६ अप्रैल २०१३ की चित्र प्रतियोगिता में दोनों आदरणीय निर्णयाक श्री बहुगुणा जी एवं डॉ सरोज जी ने जो भाव चुने है उन्ही के शब्दों में उनको धन्यवाद देते हुए आपके समक्ष रख रहा हूँ :

Govind Prasad Bahuguna
तस्वीर क्या बोले -प्रतियोगिता परिणाम(केवल महिला प्रतिभागी )
प्रस्तुत प्रतियोगिता में नारी स्वरुप के ४ रंग- रूप दिए गए हैं जिसके अनुसार महिला प्रतिभागियों को पुरुष की भूमिका में स्वयम को रखते हुए अपनी प्रतिक्रिया कविता के माध्यम से अभिव्यक्त करनी थी I मेरी दृष्टि में चित्रों के अनुसार सटीक भाव संयोजन सुश्री नीलिमा शर्मा का रहा यद्यपि अन्य प्रतिभागी भी अपनी अभिव्यक्ति में किसी से कम नहीं हैं परन्तु कवि कर्म में भटकाव तो हो ही जाता है इसलिए उनकी रचनाएं अपनी जगह सराहनीय हैं I

नीलिमा शर्मा [ पुरुस्कृत ]
एक ज़माना था यारो !
महारानी लक्ष्मी बाई का
मर्द बनकर लड़ गयी थी
पर नारी जैसे लज्जा भी थी
एक ज़माना था यारो

निम्नलिखित प्रतिभागियों की कविता पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी किन्तु उनका सामंजस्य प्रश्नगत चित्रों से कुछ भटक गया था लेकिन इनकी भाव प्रस्तुति मनोहारी और प्रशंसनीय है, इन प्रतिभागियों की प्रविष्टियाँ अपना अलग स्थान रखती हैं, यहाँ जो क्रम दिया गया है उसे श्रेष्टता क्रम न माना जाय, केवल पढने के प्रयोजन से क्रमांक डाला गया है I
सुनीता शर्मा
1 "देह श्रृंगार की तेरी पिपासा की मर्यादा तूने ही तो भंग किया ,
आज मैं और मेरा आचरण जाने क्यूँ विभस्त हुआ ,
आ चल बैठ पास मेरे ,अपने अपने मन की बात कहें
संस्कृति की मर्यादा को फिर से नव जीवन दान दें ,

2 रोहिणी शैलेन्द्र नेगी
काश मैं अपना भी रण-कौशल,
युद्ध-भूमि मे दिखलाता,
और विजयी होकर फिर अपना,
अंग-अंग मैं मुस्काता,
तब मैं नज़रों से कुछ ऐसे,
पल को खोज रहा होता,
मंत्र-मुग्ध हो जाये दिल,
ऐसे रस मे डूबा होता...!
3 नैनी ग्रोवर
जिस राह तू चले नारी,
वह राह समाज की राह बने,
कभी बने, खुशियों की किलकारी,
कभी दुखों में, मेरी हमराह बने ..
4 अलका गुप्ता
डर गया हूँ मैं....... इस संस्कृति के ह्रास से |
निशदिन तेरी मर्यादा के इस महा विनाश से |
5 किरण आर्य
मैं अलग कहाँ तेरा हिस्सा हूँ वजूद का तेरे किस्सा हूँ
माँ भी तू प्रिय भी तू बहन, सहचरी, सखी, बेटी भी है तू
अपने हिस्से का धेर्य हमें मिलजुलकर ही है फिर पाना
प्रतिद्वंदी नहीं एक दूजे के पूरक बन साथ है निभा जाना
6 डॉ सरोज गुप्ता
नारी तुम्हारी सदा जय -जय -जय !
बदले यह रूप तुमने जय जय जय !!
___________________________
डॉ. सरोज गुप्ता
आदरणीय और प्रिय मित्रो !
सब रचनाएं काव्य -कौशल की दृष्टि से कमोबेश बहुत सटीक और सुंदर अहसास के साथ लिखी गयी हैं !सबका प्रयास स्तुत्य है !चित्र और कथ्य को मद्देनजर रखते हुए मन ,वचन से पूर्णता निष्पक्ष होकर प्रति जी की रचना को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर रही हूँ ,मुझे विशवास है कि आप मित्रगण भी मेरे निर्णय से सहमत होंगे !भाव -प्रवाह ,विचार -सौष्ठव ,शब्द -सयोंजन ,लयात्मकता और शिल्प की दृष्टि से प्रति जी रचना सब काव्य के गुणों पर सम्पूर्ण खरी उतरती है !
जगदीश पाण्डेय जी को मैं विशेष बधाई देती हूँ जिनकी रचना ने मुझे विशेष लुभाया है !
प्रति जी की रचना की एक खासियत यह भी है कि समस्या जो हमारे सम्मुख मुंह बाए खड़ी है ,उसे दिखाया ही नहीं ,उसका समाधान भी प्रस्तुत करती है ....

प्रतिबिम्ब बडथ्वाल [ पुरुस्कृत ]
अबला और सबला का, आओ अब ये खेल ख़त्म करे
लोगों के बहकावे में आकर, न हम खुद को नीलाम करे
एक बार फिर प्रति जी को बधाई देती हूँ !



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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