Monday, April 22, 2013

21 अप्रैल 2013 का चित्र और भाव


(इस चित्र की पुनरावृति की है बस यह देखने के लिए या महसूस करने के लिए कि सोच में परिवर्तन लाया जा सकता है या आ सकता है )


Neelima Sharrma 
हौले हौले कदमो से चलती
मैं नन्ही चिड़िया
तेरे घोंसले की

उड़ना हैं मुझे
छूना हैं अनंत
आकाश की ऊँचाई को

मेरे नन्हे पंखो में
परवाज नही
हौसला हैं बुलंदी का

भयभीत हैं अंदरूनी कोन
आकाश भरा हुआ हैं
बड़े पंखो वाले पक्षियों से

सफ़ेद बगुले ही अक्सर
शिकार करते हैं
मूक रहकर

माँ मैं नन्ही चिरैया
कैसे ऊँचा उड़ पाऊंगी
इन भयंकर पक्षियों में

मैं कैसे पहचानू ?
यह उड़ा न के साथी
या दरिन्दे मेरी जात के

आसमा से कहो
थोडा ऊँचा हो जाये
मुझे उड़ना हैं अन्तरिक्ष तलक


बालकृष्ण डी ध्यानी 
उड़ता रहा मन
कभी पंछी बन
पंखों का ले सहारा
हवाओं ने उसे पुकारा

अब उड़ चला वो मन
उस दूर नील गगन
होकर वो अपने से मगन
उड़ा वो अपनो के संग

चिंता को तज कर
चल तू उस ओर चल
ना छुये कोई दर्द कभी
आ मेरे संग चल

उड़ता रहा मन
कभी पंछी बन
पंखों का ले सहारा
हवाओं ने उसे पुकारा


नैनी ग्रोवर 
किसी हरे-भरे गाँव में,
नीले गगन की छाँव में,
किसी घने पेड़ की डाल पे,
इक अपना घर बनायेंगे..

चुन-चुन कर लायेंगे तिनके,
अरमान करेंगे पूरे इस मनके,
कुछ तुम लाना कुछ हम लायेंगे,
प्यारा सा घर सजायेंगे..

मत थक ऐ साथी, हार मत,
माना के पंख हुए हैं पस्त,
नज़र आती नहीं मंजिल भले,
कोई राह तो पा ही जायेंगे ....!!



कवि बलदाऊ गोस्वामी 
पंछीयाँ,
मीठे तान सुनाकर,
सबके मन को भा कर,
उड रहीं पंछीयाँ।
नीले गगन में,
शान्त वायु मण्डल में,
पंख पसार,
उड रहीं पंछीयाँ।
मंदिर पर,मस्जिद पर,
गुरुद्वारा पर,चर्च पर,
बैठती,फिर उडती फिर बैठती और फिर उडती........
भेद-भाव त्याग कर,
खुले आकाश में,

उड रहीं पंछीयाँ।
उडने की,
चलने की,
चुगने की,
विचार करने की,
गति पाने से,
पंख पसार कर,
उड रहीं पंछीयाँ।
पवन के सग,
कवि की दिल मुग्ध कर,
उड रहीं पंछीयाँ।


किरण आर्य
दो मन अहसासों की उड़ान
आकाश में विचरते
एक दूजे संग .......

ना हो कम प्रीत का चलन
रूह से जुड़े अंतर्मन
एक दूजे संग .......

मुझमे रम बन धड़कन
वजूद पाए मन
एक दूजे संग ...........

ना हो अहम् बने जीवन
प्रीत का पंछी
एक दूजे संग ...........



अलका गुप्ता 
मैं हूँ .....मय का प्याला |
अहं है मद मस्त निराला |
डगर- मगर भटक रहा ...
विषय वासना दग्ध ज्वाला ||

उड़ता रहा चाहतों की उड़ाने पंछी बना |
मैं मन हूँ चंचल स्वार्थ का दावानल बना |
दौड़ता रहा मैं .....मृग-मरीचिका में ......
आशाओं का ...........कस्तूरी -मृग बना ||



सुनीता शर्मा 
प्रेम के हम सन्देश वाहक
धरती माँ के उन्मुक्त पंछी
अपनी विश्वाश की पूँजी
लेकर उड़ते नगर नगर
प्रेम औ विश्वाश की महिमा गाते
सुख दुःख में हमजोली बन जाते
गगन में थामे अहसासों की डोर
मानवीय विभस्ता से बेखबर
प्रेम के तिनको को जोड़कर
बुनते आशा औ विश्वाश का नीड
जिसमें समाएगा विश्व पीड
विशाल गगन सा विशाल अपना मन
रहेंगे एक दूजे के संग सदैव मगन


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  
~अस्तित्व~
हाँ आज भी जारी है
अस्तित्व की लड़ाई
धरती पर भी और
आसमान में भी
हर कोई अपना वर्चस्व
बनाये रखना चाहता है
क्या मैं और क्या तू
कहीं कुछ भी हो
लड़ते हम कर
तू - तू, मैं - मैं


डॉ. सरोज गुप्ता 
आ चल अब उड़ जाएँ दोनों ,
अब ये देश हुआ है बेगाना !

अब कहाँ रहा वो मेरे नाम का चबेना,
जो बुला-बुला खिलाती थी अम्मा सुजेना !
देख-देख रीझती थी अपने घर -अंगना ,
अच्छा लगता था जैसे राधा का बरसाना !

आ चल अब उड़ जाएँ दोनों .
अब ये देश हुआ है बेगाना !

बसायेंगे कहीं दूर अपना आशियाना ,
गायेंगे हम मिल प्रेम का सुरीला तराना !
करेंगे ऐसा यत्न जो सबको मिले अन्न ,
आयेंगे-आयेंगे यहीं तेरा रहा अगर संग न !

आ चल अब उड़ जाएँ दोनों ,
अब ये देश हुआ है बेगाना !

अब बंद करो न अपनी यह चोंच ,
सीने पर लगती है मेरे भारी मोच !
देख नहीं सकता तेरे जिस्म पर खरोंच,
गिद्द् खा न जाए तुझे कही नोंच !

आ चल अब उड़ जाएँ दोनों ,
अब ये देश हुआ है बेगाना !


अरुणा सक्सेना 
नभ नहीं बिलकुल धरती जैसा बहुत जगह है मेरे भाई
क्यों हम खड़े हैं दुश्मन बन कर क्यों लड़ने की नौबत आई
धरती पर तो भीड़ बहुत है रंग भेद और धर्म बहुत हैं
भाषा भी कभी उन्हें लड़ाए बात ज़रा हो वो भिड जाए
खाओ कसम हम नहीं लड़ेंगे मिल कर सब दुःख -सुख सहेंगे
गले मिले और बांटे प्यार सबको देंगे ये उपहार .........


Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 
आ ..
सुरमई बादलों को ..
चोंच से अपनी चीरते हैं ..
आ, तरसते कंठ सींचते हैं ..
अथाह नीर गर्भ रखे ..
जाने क्यूँ, किस और दौड़ते हैं ?
जाने किस पर ये खीजते हैं ..

आ ..
संग नृत्य करें ..
कोमल पंख फैलाएं ..
नीलाभ नभ में ..
अपूर्व दृश्य रचायें ..
इस स्वार्थी लोक से दूर ..
अपना नव त्रिदिव सजायें ..

आ ..
उड़ चले ..
उस दिशा की ओर ..
जिस ओर स्नेह दरिया बहे ...
ना स्वार्थी मानुष हो जहाँ ..
ना रक्त का दरिया बहे ..
आ ..क्षितिज तक उड़ान भर आयें ..
धरती आकाश मिले कैसे वहां ?
प्रेम का वो सबक पढ़ आयें ..



Jagdish Pandey 
उड चले प्रिये हम नील गगन में
धरा नही ये हमारे काबिल है ,
वहशी दरिंदे और शिकारी यहाँ
इंसानों की खाल में शामिल हैं ।

नित होते हैं अब शिकार यहाँ
पापियों का व्याभिचार जहाँ
कहाँ चुनें अब हम दानापानी
वातावरण भी यहाँ धुमिल है
उड चले प्रिये हम नील गगन में
धरा नही ये हमारे काबिल है

घबरा न जाना तुम मेरी प्रिये
सदा ही तुम देना साथ प्रिये,
प्रेम हमारा अमर रहेगा यहाँ
नही भाव जरा भी कुटिल है
उड चले प्रिये हम नील गगन में
धरा नही ये हमारे काबिल है ,




सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

2 comments:

  1. हार्दिक आभार गुरुजी

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    1. स्वागत है जगदीश जी

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शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!