Friday, December 5, 2014

1 जुलाई 2014 का चित्र और भाव



जगदीश पांडेय
------ कालेज का दौर -----

सुनसान इन गलियारों से
गुजर रहा है यादों का दौर

हर जगह था शोर शराबा
आनंद ही आनंद चारो ओर
सुनसान इन गलियारों से
गुजर रहा है यादों का दौर


कालेज में होना लेक्चर
लेक्चर में जाना पिक्चर
कैंटीन में लडकियों का
हमें कह देना फटीचर
जहाँ देखो सुनाई देता
हर जगह लेक्चर्स के शोर

सुनसान इन गलियारों से
गुजर रहा है यादों का दौर



बालकृष्ण डी ध्यानी 
मीनारों में दबे मेरे जवाब

हँसते हँसते रह गये
वो जजबात मेरे दिल में मचले हुये
उड़ना चाह मेरे परवाज
रह गयी चिला वो आवाज दब के
मेरे दिल में ही कंही

मीनारों में छुपे यंत्रों
में से देखे छूटे क़दमों के निशां
बेकल बेपरवाह भटकते भटकते
शीशे जा पूछे वो सवाल भूले हुये
मीनारों में दबे मेरे जवाब कंही

फिर क्यों शांत है चुपचाप
वो तूफ़ान उम्र के साथ ढलते ढलते
ताज के इस मकबरे में फंसी जान
आखरी पड़वा का वो इंतजार
डर रही सांस क्यों कर रही ऐसे

हँसते हँसते रह गये
वो जजबात मेरे दिल में मचले हुये
उड़ना चाह मेरे परवाज
रह गयी चिला वो आवाज दब के
मेरे दिल में ही कंही


नैनी ग्रोवर 
--इंतज़ार--

कांच की खिडकियों के
ना इस पार कोई,
ना उस पार कोई..
बस इक खामोशी है
जो चीखती है
चिल्लाती है
किसी के कदमों की
आहट को तरस जाती है..
ये मुंह उठाये तकती
पथ्थर की दीवारें
सरसर करती हवा से
लरज जाती हैं
गुमसुम खड़ी बेवा की तरह
ये तन्हाई सहम जाती है ..
यकबायक सीने में चुभन सी
तेरी रंगीन यादें
चारो और मानिंद खुशबु सी
बिखर जाती हैं
तब दूर कहीं से कोई
आवाज़ आती है
इंतज़ार और अभी और अभी !!



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~ खामोश गलियारे ~

खामोश गलियारे देते गवाही

इन पर चलते, भागते - दौड़ते
कदमो की
इन पर बुने सच्चे, टूटे - बिखरे
सपनो की
इन पर सुलझे, बनते - बिगड़ते
रिश्तो की
इन पर लिखी पूरी, आधी - अधूरी
कहानियो की

'प्रतिबिंब' फिर भी आज खामोश है
ये गलियारे


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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