Sunday, December 28, 2014

12 दिस्मबर 2014 का चित्र और भाव



भगवान सिंह जयाड़ा 
"शमा और परवाना "
-----------------------
शमा कहे परवाने से ,क्यों तुझे जलाऊँ ,
अपने अश्को से, कब तक तुझे भिगोऊँ ,
हम साथ रहे तो जिंदगी भर जलते रहेंगे ,
कब तक हम यह दुःख दर्द सहते रहेंगे ,
बस अँधेरे में ही देख कर अस्तित्वअपना ,
जैसे देखता है कोइ सोये में सुनहरा सपना ,
यह अजीब सी खामोसी एक अहसास अपना ,
पर न जलने की डर,न जल कर यूँ खपना,
बस सिर्फ अहसास सदा रोशनी का बना रहे,
साथ सदा तेरा मेरा बिना जले यूँ ही बना रहे ,
समा कहे परवाने से ,क्यों तुझे जलाऊँ ,
अपने अस्कों से, कब तक तुझे भिगोऊँ ,


बालकृष्ण डी ध्यानी
मोमबती

जली और बुझी मै
मोम थी पिघली मै

ले सहारा धागे का
उस तीली ने मुझे जलाया

रोशनी हुयी वैसे ही
सब भूले गये मुझे तब ऐसे ही

अंधेरे अगल बगल जलती रही
टीम टीम कर पिघलती रही

कभी सैकड़ों हाथों ने उठाया
सभी ने अकेले मुझे जलाया

सुख दुःख में यूँ जलती रही
अकेले रोती रही हंसती रही

एक हवा का झोंका आया
उसने मुझे फिर बुझाया

तब शायद
आप को होश आया

जली और बुझी मै
मोम थी पिघली मै



नैनी ग्रोवर
शमा

जलती रही ताउम्र,
रौशनी लूटाती रही,
ख़ामोशी से अपना वजूद,
कमबख्त मिटाती रही..

अंधेरो से लड़ना,
नसीब बन गया,
फिर भी नामुराद,
सदा मुस्कुराती रही..

हो राजा या रंक,
फर्क इसने ना किया,
धागे सा जिगर अपना,
हरदम जलाती रही..

ऐ "नैनी" सीखना है देना,
तो सीख शमा से,
ये पिघलती रही,
दुनियाँ जशन मनाती रही ..!!



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
मेरा अफसाना

मुझे जलाते हुए अपने हाथ जला न देना
रोशन होते जहाँ को अपने, बुझा न देना

जलती रहती हूँ मैं, रोशनी देने की चाह में
हरती रहती अँधेरा,जो होता तुम्हारी राह में

मोम का है बदन मेरा, सदा ये पिघलता रहा
लेकिन धागा कर्तव्य का, सदा ये जलता रहा

अँधेरे को रोशन करना ही, धर्म अपना माना
दूसरो के लिए जलना ही , कर्म अपना माना


दीपक अरोड़ा 
~ऐसी ही हूं मैं~

जलाकर मुझको
रोशन कर लो
जहान अपना
खुद जलकर
दूसरों को रोशनी देना
है काम अपना
सब जानते पहचानते हैं
अंधेरों में मुझको
फिर भी बता देते हैं
'मोमबत्ती' है नाम अपना


Negi Nandu 
"ख़ुशी के लिए"
कभी से कभी अँधेरे से जिसके लिए जलता हुआ लड़ता रहा रात भर,
सुबह की किरणों के संग बुझा दी उसने ही मेरी लो फूंक कर l
यक़ीनन मेरी रौशनी कम हे सूरज से,
पर ये भी यंकी हे तुझे फिर मेरी जरुरत होगी अँधेरा होने पर l
सोचता हूँ कई बार की फिर न जलूं तेरे लिए,
कि फिर ख्याल आता हे तेरे चहरे पर ख़ुशी आती हर मेरे जलने पर l
कभी हवा से कभी अँधेरे से जिसके लिए जलता हुआ लड़ता रहा रात भर,
सुबह की किरणों के संग बुझा दी उसने ही मेरी लो फूंक कर l


Pushpa Tripathi 
शाम इधर जब भी गुजरे --- तुम चले आना !!

शमा अंधरे में, बुझने न दीजिए
सुबह की लहर खोने न दीजिए .... l

जख्म अभी ताजा है, दर्द बहोत गहरा
मुहब्बत को दिल में छिपाए रखिए …।

कौन जाने फिर चले, रास्ते हम तन्हां
थोड़ी सी रात लौ, शमा जलाये रखिए …।

खुशियों से जब मिलें, पलकों पे आसूँ
ऐसे वक्त अरमां 'पुष्प ' सजाये रखिए …।


किरण आर्य 
..........मैं खड़ी रहूंगी............

विकृत मानसिकता बोली मुझसे
नहीं मिलने वाला इन्साफ यूँ
मोमबतियां जलाकर....

बुझा दो इन्हें
और मन में उपजे
अवसाद के गरल को पी जाओ....

यहीं है नियति तुम्हारी
जन्मों सहो प्रताड़ित होकर भी
ना आने दो शिकन चेहरे पर....

सहो सहो और सहते हुए ही
त्याग दो शरीर
वैसे भी उभारों से युक्त
शरीर से अधिक क्या है पहचान तुम्हारी ? ....

मैंने चिल्लाकर कहा
नहीं ये केवल मोमबत्ती नहीं
जिसे जला खड़ी हूँ मैं समक्ष तुम्हारे .....

ये है विश्वास की वो चिंगारी
जो मेरे मन से निकल हुई है रोशन
और जैसे जैसे पिघलेगा मोम ये
राह मिलेगी मेरे मन के अंगार को ....

आ खड़े होंगे कई हाथ साथ मेरे
मोमबत्ती लिए हाथों में
और रौशनी में उनकी
हो जाओगे भस्मीभूत तुम
मैं खड़ी रहूंगी उस पल
मुस्कुराते हुए आँखों में रौशनी सजाये
मोमबत्ती सी .................


कुसुम शर्मा 
~शमा जलती रही~

चाँद अपना सफ़र ख़त्म करता रहा
शमा जलती रही रात ढलती रही
ज़िन्दगी का सफ़र यूँ ही चलता रहा
ख़्वाब पलकों से गिर कर फ़ना हो गए
दो क़दम चल के तुम भी जुदा हो गए
होश आया तो दिल के टुकड़े दिखे
सुबह माँगी थी मन का अंधेरा मिला
इस तरह बदलाव आता रहा
कि दोस्त भी दुश्मन लगता रहा
मेरी हरी थकी आँखो में रात दिन
एक नदी आँसुओं की बहती रही
शमा जलती रही रात ढलती रही...!!


अलका गुप्ता 
~~~~अभिलाषा~~~~

अंघकार विराट...जब.. छा जाए |
मानव हे ! मन जब..घबरा जाए ||

प्रज्वलित शिखा मेरी तुम कर देना |
जलजल तन ये चाहें पिघल जाए ||

अभिलाषा उर में ...बस इतनी ही ..
हर तन-मन प्रकाशित सा दमकाए ||

हो विलग मनहूस अँधेरा ..भागे दूर ..
जीवन का हर क्षन रौशन हुलसाए ||

मैं शम्मा हूँ तन्हा ..ही जल जाऊँगी |
जीवन से जला हर तन्हाई जाऊँगी ||


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Friday, December 12, 2014

4 दिसम्बर 2014 का चित्र और भाव ...



किरण आर्य 
...... से 'अस्तित्व तक '

रोजमर्रा की आपधापी
अस्त व्यस्त सी जिन्दगी
चलती एक ढ़र्रे पर
आस निराश के साथ
चहलकदमी करती
थोड़ी सी धूल
थोड़े से थपेड़े
थोड़ी सी आशा
थोड़ा सा विश्वास
थोड़ी सी धूप
थोड़ी सी छाँव
थोड़ी सी चांदनी
थोड़े से सपने
थोड़ी सी किरचे
थोडा सा अवसाद
थोडा सा चिंतन
और ऐसे ही
थोडा थोडा करके
हो जाता जाने
कितना कुछ एकत्र
मन के घरौंदे में
इसी घिचपिच से
उपजते है विषाद
असमंजस और घृणा
जैसे अनगिनत भाव
बिखरने लगता है
बहुत कुछ और
घुटने लगते है प्राण
उखड़ने लगती है सांसे
मस्तिष्क में मचता है
तीव्र सा कोलाहल
और तब कानों को बंद कर
मन व्यग्र जो
चीख उठता है राह पाने को
बंद हो जाती आंखें स्वत ही
और यहीं जन्मता है मनन
आँखों के कोर भिगोता
जो सहेजता है
सारे बिखराव को सिरे से
और जो कुछ भी है
थोडा थोडा
उस सबको करता है प्रदान
पूर्णता
वैसे ही जैसे
गोधूली बेला में
उडती धूल में धुंधला जाता
पेड़ों का अक्स
सब होने लगता है धूमिल
और ऐसे में चन्द्र-किरण
धुंधलाते प्रतिबिम्ब को
अपनी रौशनी की चादर में
समेट करती प्रदान
अस्तित्व


नैनी ग्रोवर 
याद बहुत आता है

वो सर्द सुबह का आलम,
वो दर्ख्ख्तों का लहराना,
याद बहुत आता है..
ठंडी हवा में हाथ थामे,
तेरे साथ चलते जाना,
याद बहुत आता है..
दूर तक धुंधलके में,
चुपके से गुम हो जाना,
याद बहुत आता है..
मदहोश करती हुई ,
तेरी आँखों का मुस्कुराना,
याद बहुत आता है..!!



कुसुम शर्मा 
नए दिन की नई सुबह
*********************
खुले आसमान में दिख रहा सूरज का चेहरा
सूरज की किरणों के बीच हवाओ का बसेरा
नए दिन की नई सुबह का नया नया है अंदाज़
सारे दिन के लिए झोली में कुछ छुपे हुए हैं राज़
पंछियों का चहकना बिखेर रहा है संगीत आज
ख्यालो का यूं महकना , कुछ तो ख़ास है आज
तुझको मुझको हर किसी को मिलना है कुछ आज
तो आओ यारों ख़ुशी ख़ुशी कर लें दिन का आग़ाज़



K Shankar Soumya .
सवेरा

छँटा कुहासा हुआ सवेरा
नव आशा का नवल उजेरा
धूप धरा पर ज्यों ही आई
झटपट भागा दूर अँधेरा

नुतन दिवस के मृदुल दृश्य में
जागीं सब अलसाई आँखें
स्वप्न अधूरे पिरो रहे हैं
नवल चेतना वाले धागे

लगता जैसे वसुंधरा नें
नवयौवन को आज बिखेरा
धूप धरा पर ज्यों ही आई
झटपट भागा दूर अँधेरा



बालकृष्ण डी ध्यानी 
मौसम बदल रहा है

मौसम बदल रहा है
शाखों पर मचल रहा है
आने वाली सुबह कुछ कह रही है
ओस की बूंद अब जम रही है

एक नया आलम छाया
ना जाने कौन गा रहा है
झुरमुट पत्तों किरणों संग अठखेली है
सुबह ने तब आँखें खोली है

मन क्यों मचल रहा है
नग्मा बन पल पल उछल रहा है
सर्द सी तपन बड़ रही है
जाड़े की जो गर्मी चढ़ रही है

यौवन तन-मन गौते खा रहा है
कोहरा अपना मुंह छुपा रहा है
नवम्बर सितमबर का माह
कंबल में तुमको को बुला रहा है

मौसम बदल रहा है
शाखों पर मचल रहा है
आने वाली सुबह कुछ कह रही है
ओस की बूंद अब जम रही है



अलका गुप्ता 
~~~नव-प्रभात~~~

नई सुबह क्या आई कुहासा है देखो छंटता जाता |
गई निशा, हुई भोर उजाला चहुँदिश है बढ़ता जाता |
निशि का आँचल सरक रहा है वसुंधरा से धीरे धीरे ...
हर ओर चेतना के मंजर में अपनापन घुलता जाता ||

धुन पर मंगल गीतों की हर पंछी सुर अजमाता है |
मधुमय सुगंध पाकर मलयज भी हौले से मुस्काता है l
शाख़-शाख़ भी शीश हिला करती हो मानो अभिवादन...
अगवानी में नव-प्रभात की जग प्रहरी बन जाता है ||

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~सवेरा~

शंख ध्वनि का गूंजता मधुर घोष
प्रभा - रशिम हरती अंधकार दोष
नभ से बिखरता स्वर्णिम प्रकाश
वर - वधु से सजे धरती व् आकाश

पुण्य प्रभात से सजी हुई मधुर बेला
इन्द्रधनुषी किरणों सा रंग है फैला
शाखों पर लगा गहनों का सा मेला
रोमांचित मन झूले सावन सा झूला

सौम्य रूप लिए पूषण की शीतलता
सूर्य की प्रकृति से दिखे सन्निकटता
उदृत होजब क्षितिज पर रूप बदलता
'प्रतिबिम्बित' होती भानू की चंचलता



Pushpa Tripathi 
ठण्ड में गगन --- रहता है मगन

गगन है मगन --- है कोहरे में खोया
रात के बाद -- जो सुबह भी सोया
लगता है बेपरवाह --- कुछ ध्यान नहीं
धरती पर दिनचर्या का तनिक भान नहीं l

बहरूपिया है गगन ---- हर मौसम रूप दिखाए
पौष में छिपता ---- ठण्ड भर, धूप चुराए
बारिश में काला ---- नभ नीला रंग बदलता
गगन है मगन धरती को अपना रौब दिखाता

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Friday, December 5, 2014

25 सितम्बर 2014 का चित्र और भाव




रोहिणी एस नेगी 
जीवन-चक्र
"""""""""
जीवन का हर-एक 'पड़ाव',
कुछ न कुछ तो सिखलाता है,
संघर्षों से जूझ, अवस्था,
कितनी पार कर जाता है,
जन्मकाल से मरणासन्न तक,
चक्र एेसा चलवाता है,
उलझा रहे मनुष्य इसी में,
बाहर निकल न पाता है ।।



कुसुम शर्मा 
जीवन की सच्चाई
*****^***********
बचपन बिता आई जवानी
और बुडापा आयेगा
आख़री मंज़िल जब आयेगी
बता अब कहाँ जाएगा
तेरा मेरा अपना पराया सभी यहाँ रह जाएगा
क्या लाया जो साथ ले जाएगा
ख़ाली आया ख़ाली यहाँ से जाएगा
तू तू मैं मैं के चक्कर में क्यूँ फँसाये जान रे
माटी का है तन ये तेरा माटी में मिल जाएगा
बता अब तू क्या पायेगा
जैसा क्रम करेगा साथ वही ले जाएगा
कर ले तू कुछ ऐसा जो याद करें संसार रे
फिर देख मरने के बाद भी तू अमर हो जाएगा !!



अलका गुप्ता 

~~जीवन चक्र~~

जीवन चक्र !
आत्मा और जीव का !
जन्म मृत्यु का !

महाप्रयाण !
अंतहीन प्रवास !
अंतिम यात्रा !

भव-सागर !
महा माया जंजाल !
यात्रा कागार !

पुनर्जन्म है !
नव यात्रा आगाज !
मृत्यु विश्राम !


बालकृष्ण डी ध्यानी 
एक वो मौसम आया और चला गया

एक वो मौसम आया और चला गया
दे आवाज दे दूजे को कर दे खुद को अलविदा
एक वो मौसम आया और चला गया

देता रहा वो बस तू लेता रहा
संभला कितना उसने मुझे ,पर कुछ ना संभला सका
एक वो मौसम आया और चला गया

एक उम्र थी वो बस बहती रही
बहते बहते कहती रही समझा रही थी मै समझ ना सका
एक वो मौसम आया और चला गया

हर एक मोड़ा आया वो मोड़ती रही
हर छोर छोड़ने से पहले सोचती रही जो सोचना था सोच ना पाया
एक वो मौसम आया और चला गया

सपने जगाये कुछ तोड़े उसने कुछ पुरे किये
आस का दमन पकड़ा था जो आखिर गंगा में बहा
एक वो मौसम आया और चला गया

घूमता ही रहा उस घुमाव के संग संग
उस चक्कर को आखिर अंत तक साथ अपने ना ले पाया
एक वो मौसम आया और चला गया

एक वो मौसम आया और चला गया
दे आवाज दे दूजे को कर दे खुद को अलविदा
एक वो मौसम आया और चला गया


जगदीश पांडेय 
इंसान तेरी यही कहानी

बीत गया जो पल जीवन का
वापस फिर न कभी आयेगा
दुनियाँ में आनें वाला इंसान
एक दिन लौट तू जायेगा

लिया जन्म जब दुनियाँ में
खुशियाँ चारो ओर हुई
वक्त के साथ बदल गया तू
मन में माया की है शोर हुई
जीवन भर तू रहेगा भागता
साथ न कुछ तेरे जायेगा

बीत गया जो पल जीवन का
वापस फिर न कभी आयेगा


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25 अगस्त 2014 का चित्र और भाव



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~भाग जिन्दगी भाग ~
दौड़ती भागती जिन्दगी
फंसा जिन्दगी के चक्रव्यूह में
कब रोक पाया खुद को
जिन्दगी की हर जद्दोजहद से
पहिया जिन्दगी को घूमता रहा
अंत में खुद को पाया उसी जगह में


ममता जोशी 
~~भागम -भाग~~

असीमित इच्छाओं की त्वरित पूर्ति के लिए,
दिन-रात खपती ,भागती ,दौड़ती ये जिंदगी ,

भीड़ से आगे निकलने की हमेशा जल्दी रही ,
कामयाबी और नाकामी के बीच झूलती ये जिंदगी ,

कुछ सुख हैं कुछ दुःख थोडी हंसी थोड़े आंसू ,
रिश्ते नाते,प्यार दोस्ती कुल जमा यही है जिंदगी ...



दीपक अरोड़ा 
आओ प्यार बसा लें...

यूं ही न गुजर जाये ये जिंदगी
आओ हर पल को यादगार बना लें
कुछ ऐसा करें भागदौड़ कर कि
अपना नया इक हसीं संसार बना लें
कोशिश करें नफरत को दूर भगाने की
हर दिल में हम आओ प्यार बसा लें.. दीपक



कुसुम शर्मा 
क्या है़ ये ज़िन्दगी

मनुष्य जीवन की धारा का प्रवाह है ज़िन्दगी,
बूँद भर पानी की प्यास है ज़िन्दगी,
लाचार बेवस करहाती है ज़िन्दगी ,
इस प्रकृति की चेतना,
प्राणियों के प्राण की श्वास है ज़िन्दगी
जो कभी ख़त्म न हो संसार में
एसी आस है ज़िन्दगी,
क्षण क्षण हरक्षण दौड़ती भागती है ज़िन्दगी,
इस पर भी कुछ फ़ुरसत के पलों की
मोहताज है ज़िन्दगी,
मनुष्य की बदलती आकांक्षाओं में
ख़ुशी के लिए तरसती सिसकती है ज़िन्दगी,
मनुष्य के ह्रदय के कोने में दवी
ख़ुशी की आस है ज़िन्दगी,
आदि अंत को पलड़ों में तौलती है ज़िन्दगी,
अंधेरों में रोशनी की एक किरण है ज़िन्दगी,
वक़्त के पहियों के थपेड़ों को
आजमाती है ज़िन्दगी !!



बालकृष्ण डी ध्यानी 
भागता रहा

भागता रहा
यूँ मैं भागता रहा
ना जाने क्यों
किसके लिये यूँ
जागता रहा
भागता रहा
यूँ मैं भागता रहा

अपने घिरे घेरे में
मन के उस फेरे में
अपने को यूँ
हरपल बंधता रहा
भागता रहा
यूँ मैं भागता रहा

क्या छूट रहा है
क्या पाना चाहता है वो
अपने को इस समय साथ
क्यों ढलता रहा
भागता रहा
यूँ मैं भागता रहा

कैसी दौड़ा है
जाना किस ओर है
बिना सोचे समझे वो
उसकी दौड़ किस ओर है
भागता रहा
यूँ मैं भागता रहा

भागता रहा
यूँ मैं भागता रहा
ना जाने क्यों
किसके लिये यूँ
जागता रहा
भागता रहा
यूँ मैं भागता रहा


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1 जुलाई 2014 का चित्र और भाव



जगदीश पांडेय
------ कालेज का दौर -----

सुनसान इन गलियारों से
गुजर रहा है यादों का दौर

हर जगह था शोर शराबा
आनंद ही आनंद चारो ओर
सुनसान इन गलियारों से
गुजर रहा है यादों का दौर


कालेज में होना लेक्चर
लेक्चर में जाना पिक्चर
कैंटीन में लडकियों का
हमें कह देना फटीचर
जहाँ देखो सुनाई देता
हर जगह लेक्चर्स के शोर

सुनसान इन गलियारों से
गुजर रहा है यादों का दौर



बालकृष्ण डी ध्यानी 
मीनारों में दबे मेरे जवाब

हँसते हँसते रह गये
वो जजबात मेरे दिल में मचले हुये
उड़ना चाह मेरे परवाज
रह गयी चिला वो आवाज दब के
मेरे दिल में ही कंही

मीनारों में छुपे यंत्रों
में से देखे छूटे क़दमों के निशां
बेकल बेपरवाह भटकते भटकते
शीशे जा पूछे वो सवाल भूले हुये
मीनारों में दबे मेरे जवाब कंही

फिर क्यों शांत है चुपचाप
वो तूफ़ान उम्र के साथ ढलते ढलते
ताज के इस मकबरे में फंसी जान
आखरी पड़वा का वो इंतजार
डर रही सांस क्यों कर रही ऐसे

हँसते हँसते रह गये
वो जजबात मेरे दिल में मचले हुये
उड़ना चाह मेरे परवाज
रह गयी चिला वो आवाज दब के
मेरे दिल में ही कंही


नैनी ग्रोवर 
--इंतज़ार--

कांच की खिडकियों के
ना इस पार कोई,
ना उस पार कोई..
बस इक खामोशी है
जो चीखती है
चिल्लाती है
किसी के कदमों की
आहट को तरस जाती है..
ये मुंह उठाये तकती
पथ्थर की दीवारें
सरसर करती हवा से
लरज जाती हैं
गुमसुम खड़ी बेवा की तरह
ये तन्हाई सहम जाती है ..
यकबायक सीने में चुभन सी
तेरी रंगीन यादें
चारो और मानिंद खुशबु सी
बिखर जाती हैं
तब दूर कहीं से कोई
आवाज़ आती है
इंतज़ार और अभी और अभी !!



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~ खामोश गलियारे ~

खामोश गलियारे देते गवाही

इन पर चलते, भागते - दौड़ते
कदमो की
इन पर बुने सच्चे, टूटे - बिखरे
सपनो की
इन पर सुलझे, बनते - बिगड़ते
रिश्तो की
इन पर लिखी पूरी, आधी - अधूरी
कहानियो की

'प्रतिबिंब' फिर भी आज खामोश है
ये गलियारे


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23 मई 2014 का चित्र और भाव




Pushpa Tripathi 
- कोई ऊपर कोई नीचे --

कोई ऊपर .. कोई नीचे
पीछे ... अच्छे अच्छे
आपा धापी जीवन राह पर
सच्चे झूठे गिरे बेचारे !!
हार से जीत ... जीत के हारे
राजनीति का खेल ... वाह रे वाह रे ......

कठिन मुलायम ... हाथी से बन्दर
उजाला लालटेन ... अंधकार है अंदर
अबकी झोली कोई भर न पाया
एक से एक धुरंधर ...पलटा खाया ......

अबकी बार फूल पहनी है ताज
ऊपर उठकर बनी सरकार
नीचे गिरे महाबली बेचारे
हारे बिखरे 'आप ' हमारे ....

किसी के सर ताज .. किसी की हार
कोई हँसता ... कोई उदास ...

अबकी बार यह भी देंखें
भविष्य में आगे
कितना , बढ़ेगा देश ....!!!!


भगवान सिंह जयाड़ा 

-----ताज की शक्ति-----

जिस के सर पर सजता ताज ,
नहीं होता किसी का मोहताज,
बजन हो जाता उस का भारी ,
उछाले वह सब को पटखी मारी ,
ताज की रही सदा महिमा न्यारी ,
इसको पहिने कद हो जाता भारी,
बस सभी करें उस का गुणगान ,
जो पहनें ,वह कहलाये महान ,
बिकट परिस्थिति जो यह पहने ,
बस उस का तो क्या है कहने ,
सुधार गया तो बन गया हीरो ,
नहीं सुधरा तो फिर से ज़ीरो ,
जिस के सर पर सजता ताज ,
नहीं होता किसी का मोहताज,


बालकृष्ण डी ध्यानी 

~देख जिंदगी खेलती रहती~

देख जिंदगी खेलती रहती
पल पल खेल नया , हर पल खेल नया

कोई इस पल राजा कोई रंक यंहा
दूजे पल तोल देती है राज खोल देती है भेद नया

देख जिंदगी खेलती रहती
पल पल खेल नया , हर पल खेल नया

इस उठक पठक में झोंक देती है
उस चौराहे में अकेले छोड़ देती नही जंहा कौन वँहा

देख जिंदगी खेलती रहती
पल पल खेल नया , हर पल खेल नया

रखना ना भरोसा तोड़ देती है वो साथ तेरा वो पास तेरा
अपने वजूद पर बस तू रख वो हाथ तेरा

देख जिंदगी खेलती रहती
पल पल खेल नया , हर पल खेल नया


नैनी ग्रोवर -
~ क्यों उदास ~
ऊपर बैठा क्यूँ हुआ उदास
नीचे के सर पे आया ताज
ये समय का पहिया है भैया
इसके दामन में छुपे सब राज़ ..

जैसी करनी वैसी भरनी
कहावत ये है बिलकुल सही
कब तक बंद करे आँखे जनता
लों कह दिया अब तुझको नहीं
अब होगा भारत लाजवाब ...

छीन ली रोटी बच्चों से तुमने
हर घर में हाहाकार मचा
हो जवान ये किसान कोई
नहीं तुम्हारी महंगाई से बचा
देख दिया कितना करारा जवाब ...

समय का पहिया .........!


किरण आर्य 
~पलड़ा सुख दुःख का ~

दुःख है सिसके
आँखों में नीर लिए
अनजान राहों में
भटके है अज्ञानी मन
दुःख से पानी
उसे निजात
जीवन सत्य से परे
दुःख से हो विकल
मन है कलपता
जार जार है रोता
दुःख का घनेरा
बुझा देता आस का दीप
उसी क्षण हौसला मन का
दिखाता उम्मीद की रौशनी
दुःख अनायास ही लगता
क्षुद्र सूक्षम सरल सा
तब सतत प्रयास
और मन की आस
दिखाते है राह मन को
और खुशियाँ पहन
सर पे ताज
मुस्कुराती है
दुःख की तपिश में
बारिश की फुहार सी
मन के आंगन में बरस जाती है



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24 अप्रैल का चित्र और भाव



रोहिणी एस नेगी 
"समय की सीढ़ी"

समय की सुइयों के,
बढ़ते अंतराल पर,
छलाँग लगाने का प्रक्रम,
अभी जारी है,
उम्मीदों में क़दमों को,
अागे बढ़ाने की बारी है,

मंज़िल मिले न मिले,
स्वयम् को एहसास दिलाना है,
प्रिष्ठ-भूमि ऐसी न थी हमारी,
किधर जा रहा ये ज़माना है ?

निरंतर कर्मठता जीवन में,
अग्रसरता लाती है,
सिर्फ़ एक सकारात्मक सोच ही,
मनुष्य को आइना दिखाती है,

तू चलता चल,
अपनी राह बनाता चल,
कुरीतियों का नाश करके,
अग्रिम दिशा में बढ़ता चल,

मैं ये जानती हूँ............!!
छलाँग लगाना ही,
किसी कर्म का उद्देश्य नहीं,
फिर भी संभव है.........!!
पर.....समय के पहिये को,
सीढ़ी बनाकर,
दिशा-निर्देश देना,
बिल्कुल असम्भव है....!!



बालकृष्ण डी ध्यानी 
भागती दौड़ती

भागती दौड़ती रही
वो तो घड़ी ....... दिल की घड़ी
धक धक ....... दिल की घड़ी
भागती दौड़ती रही
वो तो घड़ी .......

कुछ अपने से
कुछ पराये से .... बेगाने धागे
कुछ पिरो कर कुछ दे कर
कुछ ले कर वो तो चली ....... दिल की घड़ी
धक धक ....... दिल की घड़ी
भागती दौड़ती रही
वो तो घड़ी .......

कुछ फलक पर
कुछ जमीन पर …… अरमानों दिये
कुछ जलाकर कुछ बुझकर
सब कुछ साथ लेकर वो तो चली
धक धक ....... दिल की घड़ी
भागती दौड़ती रही
वो तो घड़ी .......

भागती दौड़ती रही
वो तो घड़ी ....... दिल की घड़ी
धक धक ....... दिल की घड़ी
भागती दौड़ती रही
वो तो घड़ी .......


जगदीश पांडेय सादर 

********* समय के चलते ********

.
समय के चलते चलते
हालात बदलते बदलते
ये कहाँ आ गये हम

शाम यूँ ढलते ढलते
गई कुछ कहते कहते
छा गये कहाँ से इतनें गम

वक्त कल अजीब था
माना कि तू गरीब था
पर खुशियाँ न थी तेरे कम

.
वक्त जो छूट गया
कोई क्यूँ रूठ गया
हो गई क्यूँ आँखे आज नम
समय के चलते चलते
हालात बदलते बदलते
ये कहाँ आ गये हम


नैनी ग्रोवर 
----समय----

समय की तेज़ बहती धारा
और मेरे थके कदम
जिंदगी के आँचल से
मुँह निकालते कुछ वहम
बहकाते हैं मुझे --

पराई देहरी लगता है
अपना ही अब आँगन
जैसे के अधूरी अधूरी
दरवाज़े पे खड़ी सुहागन
रुलाते हैं मुझे --

थम थम के चल
ज़रा सांस तो आने दे
आप्खो के आंसूं
छलक तो जाने दे
जो बहलाते हैं मुझे --

क्या पता उसके हाथ
फिर से थाम ले दामन
महक उठे फिर से
उजड़ता हुआ चमन
यूँ ही दिल को मनाते हैं ---!!



Pushpa Tripathi 
----- भली भली सी ये ज़िंदगी ----

सुबह का पंछी
दौड़ लगाये
उड़ उड़ पंछी
थक मर जाये ....

हारे भटके
निज काम है करते
घड़ियाँ सुई
सब घूम फ़िर जाये …

समय से चलना
समय के साथ
समय के हाथ
दिन भर के काम …

दौड़े भागे
पैर चक्का लागे
टाई - कोट
सूटकेस है हाथ ....


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~सफर~
घड़ी की रुके न रफ़्तार
हर कोई इसमें गिरफ्तार
सूरज - चाँद बदलते वक्त
अच्छे का करते हम इंतजार
कही सवेरा, कही है अँधेरा
वक्त संग किस्मत का पहरा
कर्म यज्ञ चलता जाए निरंतर
कटता जाए जिन्दगी का सफ़र


Pushpa Tripathi
--- यही है कार्य ----

कर्मठ है जीवन
सतत चलना है काम
रुकना नहीं
यह उसूल है जीने का l

रात दिन का चक्र
दिनभर का वक्र
आलेख सा समय
घटते - बढ़ते शुक्र l

इतवार की छुट्टी
सोमवार कर मुटठी
हफ्तेभर भरमार
मंगल शनिच्चर की गठरी l


अलका गुप्ता
~~चल दौड़ लगा ले!~~
---------------------------
चल दौड़ लगा ले!
सूइयों से घड़ी की..
बंधा ये जीवन है |
पहियों बीच समय के...
दौड़ता हर पल है
कभी कुछ पया ...
कभी कुछ खोया ..
यही तो जीवन है |
कभी खुशी कभी गम है |
यही तो जीवन है |
जीते सब हैं जीवन अपना |
जिए जो औरों के लिए |
हर काल उन्हें पूजा जाता है |
समय उनके लिए बंध जाता है |
नहीं तो समय...यूँ ही
निर्थक बीत जाता है |
कोई आता है कोई जाता है |
समय का पहिया....
यूँ ही चलता जाता है |
चल दौड़ लगा ले !अब तो ..
नहीं तो .......
ये समय ..निकला जाता है |
कुछ सार्थक करके जाना |
हर लम्हा अपना करके जाना |
समय कम है ...
सत -कर्मों की दौड़ लगाना |
हर लम्हा अपना करके जाना ||

अलका गुप्ता 
समय तो जा रहा है

देखो घड़ी वो जा रहा है |
साथ घड़ी के जीवन भी...
ये ..तो सरका जा रहा है |
दौड़ता ये हर पल ...
कुछ पाता कुछ खोता है |
हर लम्हा कभी ख़ुशी ...
कभी ग़म का होता है |
सतत दौड़ते जाना है |
कुछ करके सार्थक जाना है |



किरण आर्य 
~समय का पहिया~

समय का पहिया
दौड़े है
दौडती जिन्दगी
हांफती सिसकती
गिरती संभलती
संग उसके
एक तलाश हो
मुकम्मल
चातक की प्यास सी
दिल में ये आरजू है लिए............


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

10 जून का चित्र आयर भाव



बालकृष्ण डी ध्यानी 

~देख तराजू में दिल तौला~

देख तराजू में दिल तौला
वो भी टूट गया ,वो भी टूट गया
क्या गुन्हा किया था मैंने मौला
तू भी रूठ गया , तू भी रूठ गया

इंसाफ झुक जो मेरी तरफ
उसको ना झुका सका
एक तरफा प्यार मेरा जीत कर भी
तू हार गया, तू हार गया

हर लह्मा गया मेरा जो
तेरी ओर बस तेरी ओर गया
वो किसी और का फैसला
क्यों ना मेरा हो सका ,क्यों ना मेरा हो सका

अब तो बस तन्हाई रुसवाई है
मीलों दूर उसकी सूरत नजर आयी है
वाह रबा क्या तेरी खुदाई
दुनिया जीत कर भी मै हार गया

देख तराजू में दिल तौला
वो भी टूट गया ,वो भी टूट गया
क्या गुन्हा किया था मैंने मौला
तू भी रूठ गया , तू भी रूठ गया



जगदीश पांडेय 
----------- दिल का पलडा --------------

टूटे हुवे दिल का भी पलडा भारी होता है
दिल तोडनें वाला रात को अक्सर रोता है

आह सुनाई देती है जब टूटे हुवे दिल की
नींद हो जाती है दूर रात जब वो सोता है

दीश दुनियाँ की हर खुशी अधूरी होती है
जब किसी का होके कोई किसी को खोता है


अलका गुप्ता 
~~~~~~ना तोलो तराजू पर ~~~~~~~

सैंया दिल है मेरा ना तोलो तराजू पर |
टूट गया दिल मेरा यह लो तराजू पर |
होते नहीं.. सस्ते...ये बंधन प्यार के ..
दिल सच्चा तोले कौन बोलो तराजू पर ||

माना सब कुछ आज बिक जाता यहाँ |
युग है बाज़ारू खरीदार ही आता यहाँ |
कौड़ियों में तुल जाते रिश्ते नाते सभी ..
बेदिल ही होगा रिश्तों को बेच पाता यहाँ ||



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3 मई २०१४ का चित्र और भाव



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
~मन~

मन...
चल उड़ चले
लेकर भावो की गठरी
सुबह और शाम
मन कर तू भी सवारी

अरे मन .....
कहाँ चला तू
जहाँ तुझे कोई जानता नही
क्यों भाग रहा तू
सत्य को अब भी पहचान सही

लौट आ मन ...
अब तुझसे वहां
किसी का वास्ता नही
जानते तो है सभी
लेकिन पहचानता कोई नहीं


बालकृष्ण डी ध्यानी

~बैठा हूँ परदेश में~

देखों जब भी तुझे गगन में उड़ते हुये
सोचों बस इतना कब बैठों कब पहुँचो अपने घर पे

पंख पसारे तू उड़ उड़ जाये
साथ अपने मुझे कल्पना के कौन से गगन ले जाये

नीले आकश सफेद बादलों बहतीे हवा संग उड़ता जाता
मेरे मन पटल चक्षु में कई सुखद भाव जगाता

हर एक उस प्यारे मिलन के अनुभूति दे जाता
ये उड़न खोटले तू इतना कर जाना
ये सुख अनुभूति मेरे अपनो को भी दिलाना

देखों जब भी तुझे गगन में उड़ते हुये
सोचों बस इतना कब बैठों कब पहुँचो अपने घर पे


भगवान सिंह जयाड़ा 

----मन की उड़ान ----

काश आज यह हवाई जहाज न होता ,
इन्शान किसी का बिछोह न सहता ,
इन्शान अपनों के आस पास होता ,
कभी भी बुछुड़न के आंशू न रोता ,
सदा अपनों से यह सदा दूर ले जाये ,
मिलन की आश में सदा तरसाये ,
दूर प्रदेश , गगन में जब नजर आये ,
अपनों से मिलने की आश जगाये ,
सोचता तब कभी यह मन दुखियारा,
लौट चल अब बतन तू, मन मतवारा,
मन की उलझन में फिर सोचता हूँ ,
मन ही मन में अपने को कोसता हूँ ,
इसकी बजह से दुनिया सिमट गयी ,
यह सारी दुनिया एक शहर हो गयी ,
पंख फैलाये सदा यूँ ही उड़ते रहना ,
अपनों से सदा हमको मिलाते रहना ,



अलका गुप्ता 
~~उड़ान ~~


ये आसमान तो...
इस धरती पर...
सबका ही है ||

छूने की हो...
तमन्ना ..
दिल में...
वही तो उड़ता है ||

पंखों से नहीं...
उड़ान तो ...
हौसलों से...
ही होती है ||

हों हौंसले...
बुलंद..जिसके...
मंजिल भी ...
उसी की होती हैं ||


जगदीश पांडेय 

~~~~~~~~ न जानें कहाँ ~~~~~~~~

न जानें कहाँ उड चला है
ये भावनाओं के गगन में
ख्वाबों के लेकर पंख ये
होकर अपनें मगन में
न जानें कहाँ उड चला है
ये भावनाओं के गगन में

न रास्तों का है ठिकाना
न हकीकत का पैमाना
पाकर रहुंगा मंजिल मैं
एक दिन इसनें है ठाना
खुशनुमा होगा वो पल
अपनें अमन के चमन में
न जानें कहाँ उड चला है

ये भावनाओं के गगन में


Pushpa Tripathi 
इस दिल का क्या कसूर

इच्छाएँ जब आती है
पंखो की तरह उड़ती है
सोच परेशानियों को
ऊंचाई तक उड़ा जाती है …

दिल क्या करता
दिल ही तो है
कसूर किसका दे
मन भी तो है
मन के आकाश में
विचरता दिल का विमान
कई बातों को साथ लेकर
दिनभर की यात्रा 'पुष्प ' विमान
मानव मन ,शरीर और ये दिल !



Pushpa Tripathi
मन उड़ता है .......

चाहत है आसमान छू लूँ
ऊंचाई पर झूला झूल लूँ
छोटे छोटे घर घनी आबादी
खिलौने सा शहर देख लूँ !!

अमीरों के तरह सवारी
एक बार चढ़कर सफर देख लूँ
रुपयों से आसमान का नगर
इन्द्र देव का महल देख लूँ …

कहते है रहते भगवान ऊपर
'पुष्प 'परियों का संसार ऊपर
मानव का उच्च शरीर लेकर
इच्छा है की भगववान देख लूँ !!


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13 अप्रैल 2014 का चित्र और भाव



बालकृष्ण डी ध्यानी 
मै

देखा जो
तस्वीर को गौर से
उभरा ये शब्द
इस मन के वजूद से

ना हारूँगा
ना जीतूंगा मै
कंक्रीट के जंगल में भी
ना दम तोड़ूंगा मै

हरयाली हूँ मै
हरा रंग अपना कैसे छोड़ूंगा
मृत शरीर में भी
मै अपने प्राण फूकूंगा

जीवन मेरा तेरे
साथ चलते यूँ चला
पथ तूने जो बनया है
उस पथ बड़ते रहा मै

देखा जो
तस्वीर को गौर से
उभरा ये शब्द
इस मन के वजूद से


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~सन्देश~
यूँ न छोड़ना मुझे
कि जिन्दा न रह सकूँ
अगर दे सको दे देना
अपना विश्वास और प्यार
समय को रहे ध्यान
मत करना तुम इंतजार
जी लूँगा कुछ और दिन
दे आऊंगा फिर से तुम्हे बहार


जगदीश पांडेय 
************ हसरते ***********

तमाम उमंगे तमाम हसरते लेकर जी रहा
हूँ मैं
जीनें की खातिर अपनें ही गमों को पी रहा
हू मैं

भले ही नही मैं हरा भरा और ना ही कुछ
है पास मेरे
कमजोर हुवे जडों को आसुवों से सींच रहा
हूँ मैं

साथ नही किसी का आज संग जिसके मैं
चल सकूँ
उम्मीद बहुत कम है कि बंजर में भी पल
मैं सकूँ

करतार मेरे मालिक क्यूँ भूल गया लिखना
मेरी तकदीर
कुछ तो ऐसा कर दीश अपनें कर्मों से मचल
मैं सकूँ


अलका गुप्ता 

~~वीरानियों में अकेला खड़ा मैं !~~

वीरानियों में अकेला खड़ा मैं !
हरियाली सा झाँकता हूँ |
तरसता हूँ मिट्टी की गंध को मैं !
तरसता हरित से संस्कार को मैं |
कोयल भी ...कूकती नहीं अब ...
गीत पंछी सुनना चाहता मैं !
सीमेंटी इन जंगलों बीच
सम्वेदनाएँ बांचता मैं !.
घटाओं में सावन की.. या ...
पुरवाइयों में झूमना चाहता मैं !
बदगुमानी में सींचता मुझे...
यह इंसान क्यूँ है ...
हे ! ईश ......बूंदों को..
स्नेह की ...तरसता मैं !
आज इन विकट हालातों में भी
एक मुस्कान बाँटता ..इन्हें...
तब भी ..हाँ ..खुश हूँ मैं !
भटक गया क्यूँ ...
इंसान ये पाषाण सा |
इनमे जड़ सम्वेदनाएँ बांचता मैं
गमला कहते हैं .. जिसे ये ...
जीवन इक ..तंगहाली मानता मैं !
वीरानियों में अकेला खड़ा मैं !
हरियाली सा झाँकता हूँ |


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25 मार्च 2014 का चित्र और भाव





बालकृष्ण डी ध्यानी 

~मै यंहा तुम वंह ~

मै यंहा तुम वंह
मै यंहा तुम वंह,रस्ते गुम कंहा
शाम गमगीन है , अब गुमसुम समा
मै यंहा तुम वंह
तुम बैठे ही रहे, हम रूठ कर चल दिये
देखा था मुड़ के हम ने, तुम सर झुकाये ही रहे
तुम वंह मै यंहा
बैठे रह गये राह ताकते ,तुम्हे निगाहों में भरते
खोये रहे हम बस तेरे ही ख्यालों के ख्यालों में
मै यंहा तुम वंह
सोच था तुम आवाज दोगे,हमें तुम रोक लोगे
बस सागर मचलता रहा, ये मन तड़पता रहा
तुम वंह मै यंहा
ना थी तेरी खता ,ना ही था मै बेवफा
मुकदर में कुछ और लिखा था हम हो गये जुदा
मै यंहा तुम वंह
शक मुझ मे पनपा था, इसकी मिली सजा
राहें एक थी अब तक, मंजिलें अब हुयी फना
तुम वंह मै यंहा
मै यंहा तुम वंह,रस्ते गुम कंहा
शाम गमगीन है , अब गुमसुम समा
मै यंहा तुम वंह


अतुल सती अक्स 

मोड़:

किस मोड़ मुड़ गयी ये ज़िन्दगी।
फिर बन गए हम तुम अजनबी।
ना तुम ही बेवफा,ना हम बेवफा।
इश्क ने रंजो-गम दिया सदा ही।
अश्कों में डूबा मिला हमें 'अक्स'।
जिसने भी की,इश्क़ की बन्दिगी।


जगदीश पांडेय 

------------ गले लगा जाना -------------
जिंदा लाश बना के शौक से चली जाना
जानें से पहले गले एक बार लगा जाना
.
गुमसुम सी जिंदगी मेरी शाम-ओ-सहर
इस कदर रुठ कर मुझपे न ढाओ कहर
कर न दे ये जमाना कहीं खाक-ए-सुपुर्द
राख होनें से पहले मेरी जाँ लौट आना
जानें से पहले गले एक बार लगा जाना
.
खामोश है फिजाएँ देखो आब-ओ-हवा
इन्हें अपनी चाहत का नज्म सुना जाना
मैं तो हूँ प्रतिबिंब सनम तेरी अदाओं का
दूर होनें से पहले ये सीसा तोड जाना
जानें से पहले गले एक बार लगा जाना
.
गर न आये जो लौट वादा है ये मेरा
टूट जायेगी साँस रहेगा इंतजार तेरा
बस दिल की तमन्ना एक पूरी कर जाना
'दीश' के आखिरी घर की नींव रख जाना
जानें से पहले गले एक बार लगा जाना



रोहिणी एस नेगी 

"काल-रात्रि"
रिश्ते सुलझे-अनसुलझे से,
दिखाई देते हैं.....
कच्चे धागों़ की तरह उलझे से,
दिखाई देते हैं.....
पीड़ होती है ये जानकर,
जब अपने-पराए से,
दिखाई देते हैं.....
कहने और करने में कितना,
फ़र्क़ लगता है.....
दिल रोता है उसमें जब,
दर्द उठता है.....
धूआँ आँसू बनकर,
भाप हो जाता है.....
सीने की जलन में ज़मीर
करवट बदलता है.....
वो काल-रात्रि बनकर,
जाने कहाँ से आती है,
मेरी संवेदनाओं को,
फिर जगा जाती है,
प्रतिदिन उसकी बाट,
जोहने में निकल जाती है,
वो है कि.........
रात के अँधेरें में,
फिर कहीं लुप्त हो जाती है...!!

नैनी ग्रोवर 

----------खामोश रहूँ ---------
यही है मेरी किस्मत, के यूँ ही खामोश रहूँ,
बस तेरी ही यादों में, मैं मदहोश रहूँ...
तन्हा दिल की क्यूँ सुनेगा, ये रंगीं ज़माना,
जब छोड़ दी महफ़िल तो, खानाबदोश रहूँ...
ख्वाब था के, हो मेरे हाथों में, हाथ तेरा,
गर नहीं, तो यूँ ही, वीरानों की आगोश रहूँ...
समझी नहीं मैं चालें तेरी, ऐ गमें जिंदगी,
चल "नैनी" अब मैं ही निर्दोषों में दोष रहूँ ...

नैनी ग्रोवर 

____ पत्थर चुनती हैं___
सहमी सहमी लग रहीं हैं हवाएं,
जैसे के इन्हें भी डर है,
मेरे सपनों के बिखर जाने का..
समुन्दर से मिलकर,
जाने क्या ताने बाने बुनती हैं,
मोती तो गुम हो चुके,
किस्मत पथ्थर चुनती है ...
क्या अब भी इंतज़ार है,
उनके कभी इधर आने का...
डूब रहा क्षितज का सूरज,
दूर कहीं बेगाने जहां में,
तू दूर कहीं मैं दूर कहीं,
प्रेम के उजियारे गाँव से,
मन में बसी जो प्रीत की बगिया,
डर है उस के, उजड़ जाने का...// नैनी

भगवान सिंह जयाड़ा

-----------तन्हाई जीवन की---------------
उम्मीदों के इस भंवर में मिले थे कुछ इस तरह ,
चाहत की ख्वाइसे संवारा था मैं कुछ इस तरह ,
सोचा न था कभी इस तरह मुंह मोड़ लोगी हमसे ,
हमने तो गिंदगी को संवारने की कोशिश की तुमसे ,
मगर दगा देकर छोड़ कर यूँ चली जावोगी हमको ,
चाहा था तुम को पहले जिंदगी में उसके बाद रब को,
खैर यही दिल लगी का फल है सायद मेरी जिंदगी में ,
बरना हम तन्हाँ ही खुश थे अपनी बिरान जिंदगी से ,
अभी भी कुछ चाहत है मेरे लिए तुम्हारे बेवफा मन में ,
तो लौट कर आ जावो सनम मेरे तड़फते इस मन में ,
मैं अभी भी इन्तजार कर रहा हूँ ,तुम्हारे बदलने का ,
एक बार दिल से समझने की कोशिश कर मेरे मन का ,
दिल्लगी को यूँ ठुकरा कर मेरी चली तुम जिस डगर ,
पस्तावोगी एक दिन तुम भी मेरी तरह कुछ इस कदर ,
बरना अभी भी समय है तुम लौट कर चली आवो ,
मेरी बिरान जिंदगी की सदा के लिए बहार बन जावो ,
----------------------------------------------------

जगदीश पांडेय 

------- तुम ही मेरी मौहब्बत हो -------
न जाओ मेरी जाँ मुझे इस कदर छोड कर
जोड के रिश्ता गम से दिल मेरा तोडकर
मैने अपनों हाथों की लकीरों को जला डाला
रब की दी अपनी तकदीरों को भुला डाला
.
क्या कमीं थी चाहत में जो जा रही हो
तडपानें के लिये मेरे ख्वाबों में आ रही हो
देखो कितनी उदास है शाम
और लहरों में तूफान है
इनके साथ ही जुडी हुई
तो हमारी दास्ताँन है
.
आज सूरज ढल गया तो क्या
वक्त बदल गया है तो क्या
भले अमावस की रात हो
बदनसीबी की बिसात हो
.
बस एक बार हाँ एक बार मुड के कह दो
कि हाँ मैं नही जी सकती तुम्हें छोड कर
जोड के रिश्ता गम से दिल तेरा तोडकर
और इस जहाँ में " दीश "केवल एक -
तुम ही मेरी मौहब्बत हो
तुम ही मेरी मौहब्बत हो
.

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

~ये दूरियाँ~

ये बेरुखी है
या दूर हुए दूरियों से
ये तन्हाई है
या फिर याद तेरी लाई है
ये वक्त रूठा है
या दिल किसी का टूटा है
ये बेवफाई है
या फिर वफ़ा का सबब है
ये कैसा मौसम है
यहाँ भी वहाँ भी बरस रहा है

सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 

ये दूरियाँ !!
दूरियाँ, मजबूरियां, क्यूँ बीच तेरे-मेरे,
बेरुखी, तन्हाईयाँ, क्यूँ बीच तेरे-मेरे |
आ पास आजा, कुछ पल तो ए जिंदगी,
पाबंदियां किस बात की, हैं बीच तेरे-मेरे |. दूरियाँ .....
कसमों सा, रस्मों सा, बेदाग़ दर्पण सा,
था सिलसिला तेरा-मेरा,
सपनों सा, अपनों सा, बेनाम अर्पण सा,
था सिलसिला तेरा-मेरा,
सरगोशियाँ गुम हो गईं कब, यूँ बीच तेरे-मेरे | दूरियाँ ...
सशेष.............


कुसुम शर्मा

 !! दूर जा कर भी हम दूर जा न सकेंगे !!


दूर जा कर भी हम दूर जा न सकेंगे,
चाह के भी कभी तुमको भुला न सकेंगे,
दर्द कितना हैं बता न सकेंगे,
ज़ख्म कितने हैं दिखा न सकेंगे,
आँखों से समझ सको तो समझो लो
आंसूं गिरे हैं कितने गिना न सकेंगे,
गम इसका नहीं कि आप मिल न सकेंगे,
दर्द इस बात का होगा कि
तेरा नाम इस दिल से मिटा न सकेंगे,
दूर जा कर भी हम दूर जा न सकेंगे,
चाह के भी कभी तुमको भुला न सकेंगे,

Pushpa Tripathi 

---- गुमसुम है चाँद ----
चुप है चाँद
रात भी गुमसुम
कारवां बना
कई हालात
दे रहा है समंदर
कुछ तो सहारा
मन का तूफ़ान
बस एक किनारा l
सोचाता हूँ जब
क्यूँ दर्द में घिरा
किसका असर मुझपर आया
दिल औ दिमाग गूंजता सवांद
बस ---- तू ही तू
बस ----- तू ही तू l


अलका गुप्ता 

................ तुम हमारे हो ..............
नदी से दो किनारे हैं
दोनों के ही साहारे हैं
हम यहाँ तुम वहाँ ...
उदास..बेसहारे हैं |
मिलते नहीं बेवसी में ...
हम ...वो किनारे हैं |
ख्वाब आँखों के ...
तुम हमारे हो ...सनम !
हम तुम्हारे हैं ||
तन्हाई का ये उदास आलम है |
तूफ़ान समुन्दर से उठते है.....
दिल में ...अरमान मचलते हैं |
हम क्यूँ नहीं फिर .. मिलते हैं |
या रब !कुछ मिलने की सूरत कर ..
ज्यूँ दरिया और समुंदर मिलते हैं !!


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Saturday, March 15, 2014

होली पर विशेष - मित्रो के भाव



दीपक अरोड़ा 
~रंग प्यार का~

आ तुझे रंग दूं
प्यार से
चुपके चुपके
लाड दुलार से
नजर न लग जाये
कहीं किसी की
छुपा लूं हर
बुरी ब्यार से


Pushpa Tripathi
~ होली में~

रंग गई गोरी
छिप गई गोरी
रंग गुलाल, होली में l

कान्हा पकड़े
फागुन मन होकर
सकुचाई राधा, होली में l

जोर नहीं
सखियाँ शरमाई
कर तैयारी, होली में l

श्यामल तन मन
सतरंगी बन सोहे
भीगा अबीर, होली में l


बालकृष्ण डी ध्यानी 
~होली है~

रंगों में ही रंग खिले हैं
होली में हम संग मिले हैं

लाल,पीला,नीला वो गुलाल
गालों पर ना हो उसका आज मलाल

राधा यंही कन्हा यंही है
गोकुल के गोपी ग्वाला यंही है

पिचकारी कि ना मारो बौछार
यूँ ना व्यर्थ बहा गंगा कि धार

सूखे रंगों में भी रखो ख़याल
कैमिकल रंगों का ना हो इस्तमाल

आओ मिलकर नाचो गाओ
खूब सब संग प्रेम रंग उड़ाओ

गाली भी गर निकले मुख से
बुरा ना मानो ये तो होली है

रंगों में ही रंग खिले हैं
होली में हम संग मिले हैं


ममता जोशी
~ रंगों का त्योहार ~

देखो रंगों का अम्बार ,
फागुन आ ही गया त्योहार ,
हरियाली , नव पल्लवित पत्ते,
धरती करे श्रृंगार,
झूमें ,नाचें, गाएँ सब जन ,
ख़ुशी में डूबे आँगन द्वार ,
मिलें गले हमजोली बन कर,
की ये है फाग का खुमार


सुनीता पुष्पराज पान्डेय
~मोरे कान्हा तुम आ जाना~

है मुस्कान अजब सी छायी रे
देखो आज होली आयी री आयी री आयी रे
रँग गुलाल उड़त है छटा आज खूब छायी रे छायी रे
भँग के रँग मे झूम रहे सब नर नारी आज सुध बुध बिसरायी रे/
गुझिया तोरे मन भावे कैसे तोहे खिलाऊ रे
मोरे कान्हा होली आयी रे आयी रे आयी रे



कुसुम शर्मा 
~होली रंगों की ~

सात रंगो से जुडी है होली
आओ खेले साथ हमजोली
पिचकारी कि धार है छोड़ी
भीगे चुनर भीगे चोली
आओ खेले साथ हमजोली

चारो ओर बहार है अपनों का प्यार है
फागुन का त्यौहार है मिठाई कि मिठास है
भेद भाव को भूल कर नाचे गए सब मिलजुलकर
होली है जी होली है ये रंगो की टोली है !!


Tanu Joshi 
~फागुन की मस्ती ~
फागुन आया, मस्ती लाया
मौसम हुआ गुलाल रे,
मनवा हमरा डोल रहा है,
रंग दो सबको गुलााल से,
मोहन की बाँसुरिया बाजे,
राधा हुई निहाल रे,
बाँध के घुँघरू राधा नाचे,
खूब रचाये रास रे,
मनवा डोले, जियरा हुआ गुलाल रे,
होली की मस्ती में झूमे,
ग्वालो के संग में गाँव रे..


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~रंग कौन सा~

फागुन में रंग फिर उभर आए है
तेरा मेरा, हर रंग मिलने आए है

लेकर तौहफा सखा घर आए है
चेहरे, प्रेम रंग से निखर आए है

कुछ रंगों से हकीकत छुपा आए है
कुछ मन - भेद के रंग धो आए है

'प्रतिबिंब' देख रहा क्या तुम लाए हो
हर रंग से मिलने हम नहा कर आए है


अलका गुप्ता 
~होली है !~

होली है !
मादकता उल्लास भी ।
रंग हैं सारे...
हास-परिहास भी ।
मिल जुल सब
ख़ुशी में, बह जाते ।
भिन्न भिन्न हैं रंग लगाते।
लाल रंग उल्लास का ...
हरा और पीला
हास परिहास का ।
नीला और गुलाबी
प्रेम सौहार्द का ।
होती है मादकता उल्लास भी ।
शोर भी ,धमाल भी ...
रंग सारे खिलते हैं ।
भेद भाव भूल के ।
होली है !
मादकता उल्लास भी ।।


भगवान सिंह जयाड़ा 
~होली मुबारक~
------------------
आया फिर रंगों का त्यौहार ,
रंग ,गुलाल लेकर सब तैयार ,
आवो मिल कर खेलें सब होली ,
दोस्तों की बनाकर हम टोली ,
रंग गुलाल में सब रंग जाएँ ,
गिले सिकवे हम सब बिसराएँ ,
आवो सब प्रीत का रंग लगाएं ,
भाई चारे की मिल अलख जगाएं ,
प्रीत का सब ऐसा रंग लगाएं ,
प्यार मोहब्बत मैं सब बंध जाएँ ,
आओ प्रीत से तन मन रंग लो ,
कभी न उतरे ऐसा रंग रंग लो ,
जाति धर्म को सब बिसरावो ,
आवो होली के रंग में रंग जावो,
आया फिर रंगों का त्यौहार ,
रंग ,गुलाल लेकर सब तैयार ,
आवो मिल कर खेलें सब होली ,
दोस्तों की बनाकर हम टोली.

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12 मार्च 2014 का चित्र और भाव



बालकृष्ण डी ध्यानी 
~तेरे नन्हे नन्हे हाथ~

ये तेरे नन्हे नन्हे हाथ
आ ...आज मेरी उँगलियों को थाम
ये तेरे नन्हे नन्हे हाथ

करना है बहुत कुछ काम बेटा
पकड़ ऊँगली चल दिखा दूँ तुझे वो राह
ये तेरे नन्हे नन्हे हाथ

मन का अहसास जगा दूँ तेरे
आज तुझे हाथों कि भाषा मैं पड़ा दूँ
ये तेरे नन्हे नन्हे हाथ

ना भटके कभी तेरे ये छूटे छूटे हाथ
तेरे लिये आजा ऐसी मंजिल मैं बना दूँ
ये तेरे नन्हे नन्हे हाथ

स्पर्श ममता का जागे तेरे मन
ऐसा अहसास इन हाथों संग मैं तुझ में जगा दूँ
ये तेरे नन्हे नन्हे हाथ

देख तेरे नन्हे नन्हे हाथ संग
इस दुनिया तुझे करना है बड़े बड़े कम
ले जा ले जा मेरा तू आशीर्वाद बेटा
ये तेरे नन्हे नन्हे हाथ


सुनीता पुष्पराज पान्डेय
~अंधी ममता ~

आँसू है क्या लिख दूँ पढ़ के समझोगे जग वालो
इस अँधी ममता का मौखोल तो तुम न उड़ाओगे
जब -जब पढ़ती हूँ इस देश की खातिर रण बाकुँरो का प्राण गवाना
बिलख -विलख मै जाती है
इस देश की खातिर मेरे लाल तेरी चाहत को सम्मान दिया
पर मेरी जीवन भर की थाती तू कही


सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 
~मेरे बच्चे !!!~

अंगुलियाँ थाम के चलना होगा,
दर कदम दर तुझे बढ़ना होगा,
मेरे बच्चे, ये राह जीवन की,
हर कदम सोच के रखना होगा | अंगुलियाँ थाम के ...

अपने पैरों तले तू रखना जमीं,
दिलो-जज़्बात में न रखना कमी,
आसमानी हो जैसे अब्दे-खुदा, (ईश्वर का दास)
हर करम वैसा ही करना होगा | अंगुलियाँ थाम के ...

हर कोई तुझसा है इंसान यहाँ,
एक रंग, एक से अहज़ान यहाँ,
होना लाज़िम नहीं जो जश्न कहीं,
गर कोई दर्द पुकारे, वहीँ जाना होगा | अंगुलियाँ थाम के .

हो अकीदत यही उसूल तेरा,
लोग तुझसे कहे कि तू है मेरा,
याद रखना न दगा करना कभी,
सामना रब का तुझे करना होगा |
अंगुलियाँ थाम के चलना होगा,
दर कदम दर तुझे बढ़ना होगा |.

{अकीदत–किसी धर्म की वह श्रेष्ट बात जिसे मान लेने पर वह उस धर्म को अपना लेता है, धार्मिक विश्वास.
अहज़ान – दुःख
लाज़िम – जरूरी}


नैनी ग्रोवर 
~ तेरी उंगलियां ~

हाँ मैं जानती हूँ, तेरी उँगलियों की भाषा,
मासूम आँखों में, सारा जग देखने की अभिलाषा

मगर डरती हूँ,
इस सरपट भागती जिंदगी में,
तेरा बचपन खो ना जाए,
तेरे प्यार भरे इस छोटे से मन में,
कोई नफ़रत बो ना जाए,
और फिर तेरी सुन्दर सी मुस्कान है देती दिलासा

इक सपना है देखा जागी आँखों से,
तुझको है पूरा करना,
देख बुराई, बुरा ना होना,
ना बुराई की राह पे चलना,
नेक इरादे रखना, यही तुझसे है मुझे आशा


Tanu Joshi 
~एक जननी, एक पुत्री~

जन्म तुझे दे के जननी, दुख: जन्मने का बिसरा दे, उसका तो तू ही संसार,

तेरे नन्हें हाथों के स्पर्श से मन के घावों को सहला ले,
क्या हुआ जो पुत्री जन्में, संसार को तू रचने वाली,
माँ तुझे जाने, बहन, बेटी, पत्नी भी,

ओ बेटों की दुनिया वालो मुझे जानो, मुझे पहचानो
बेटे की चाह में मुझे ना मारो,

जननी ही तेरी जब चाह की बलि चढ़ जाये
तेरी चाहत सिर्फ चाहत ना रह जाए.


किरण आर्य 
~कर्म~

थाम उँगलियाँ कर्मो की हर इंसा है चलता यहाँ
सत्कर्म और कुकर्म से बंध जीवन है पलता यहाँ
राह और नियति दोनों बेख़बर वक़्त के पैमानों से
बीज जो बोया मन धरती पर वहीँ है फलता यहाँ

समझा ना इस मर्म को मन वो हाथ है मलता यहाँ
जीवन राह लगे दुर्गम उसे जीना भी है खलता यहाँ
कुकर्मो की राह चले जो मन कम कहाँ वो शैतानो से
जीने की रवायत से मुर्दादिल सा मन है टलता यहाँ


कुसुम शर्मा 
~ऐसा क्यों होता है~
जिसने मुझे कभी धुप लगने न दी
अपने आँचल में छुपा कर किसी कि नज़र लगने न दी
हर बार रोने पर तू ही मुझे हंसाती थी
नींद न आने पर लोरियां देकर सुलाती थी
रो पड़ता है याद करके वो दिन
जब हाथो से आपने खाना खिलाती थी

तेरी आँगुली पकड़कर मैंने चलना सीखा
जब जब लड़खड़ाए मेरे कदम
तब तब तेरी बाहो का सहारा मिला

पर ऐसा क्यों हुआ
कि जिसने इतना प्यार दिया
एक ही पल में पराया किया
किसी ओरके हाथ में मेरा हाथ दे कर
मुझे अपने से दूर क्यों किया

पहले समझ न आया मुझे
जब बेटी कि माँ बनी तो पता चला
माँ के लिए बेटी कितनी प्यारी होती है
वो तो माँ के आँख का तारा होती है
अपने दिल के टुकड़े को कोई अपने से दूर करता है
वो तो हमेशा उसके पास होता है

अपनी बेटी में मैं अपने सपने सझौती हूँ
उसके साथ हर पल रहती हूँ
फिर मन ये सोच कर घबराता है
कि इसको भी एक दिन दूसरे के घर जाना होगा
ऐसा क्यों होता है कि अपने ही दिल का टुकड़ा
अपने से दूर होता है
ऐसा क्यों होता है !!

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16 फरवरी 2014 का चित्र और भाव




बालकृष्ण डी ध्यानी 
~प्रश्न ?~

प्रश्न खड़ा है ?
अपने उत्तर इंतजार में
हर मन के साथ खड़ा है वो
अब बीच बजार में

हर एक एक पल में
जन्मा एक नया प्रश्न ?
खड़े हैं हाथ यंहा क्या
करने वो उसे हल

प्रश्न ही प्रश्न
से अब प्रश्न पूछता है
उत्तर बस अब उस
प्रश्न का मुंह ताकता

बस फंसे है सब के सब
कैसा है ये उसका सबब
बंधे जाते हैं अपने आप में
मन जिसका हो बेसब्र

प्रश्न खड़ा है ?
अपने उत्तर इंतजार में
हर मन के साथ खड़ा है वो
अब बीच बजार में


अलका गुप्ता 
 मंजिलें -

बड़े धोखे हैं यहाँ..अपना..बता कौन है |
बहता दरिया प्यार का..डूबता कौन है ||

ढूढ़ती रही निगाहों में..तस्वीर सच्ची ..
धागा विशवास का यहाँ जोड़ता कौन है ||

प्रश्न चिन्ह से खड़े हैं देखो चारों ओर ही |
रहे मन में यकीन भी उत्तर देता कौन है ||

खड़े हैं मरुस्थलों में.. हम लाचार से आज |
दिखते हाथ बहुत से मगर थामता कौन है ||

इस कदर भीड़ है .... दौड़ती ..इधर-उधर ..
देखते रहे हम यूँ ही ..मंजिलें पाता कौन है ||


सुनीता पुष्पराज पान्डेय 
~प्रश्न ऐसे भी ~

प्रश्न थे बहुत पर उत्तर न मिले
ऐसा क्या था भइया मे जो मुझ मे नही
क्या मेरी इच्छा जानी मेरे अपनो ने मेरे जीवन के फैसले खुद कर डाले
जब भी खिलखिलाना चाहा जी भर लोगो को रास न आया
अनदेखी सी लक्ष्मण रेखा चारो ओर है दिखती
क्यो नही रास आता मेरे पंख पसार गगन मे उड़ पाना
गर मिले मेरे प्रश्नो के उत्तर दो जबाब देने तुम जरु आना


किरण आर्य 
~प्रश्नों के घनेरे~

प्रश्नों के घेरे
उहोपोह के अँधेरे
सब तरह है चीत्कार
मचा है हाहाकार
दीखते है हाथ कई
कौन गलत कौन सही
प्रश्नों के लगे है अंबार
दुःख का ना कोई पारावार
राह सूझने के नहीं असार
भटक रहे सब नर और नार
अंधी दौड़ में शामिल सब हाथ
भीड़ में भी अकेले कोई ना साथ
समझ नियति सब करे समर्पण
प्रयासों से दूर आस रहित मन


सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 
~बहुत मुश्किल है ~

बहुत मुश्किल है
धरातल पर खड़ा होना,
और जीवित सा लगना,
जब बेबसी और बंजरपन,
जकड़े हुए हों आपके पैरों को...

बहुत मुश्किल है
उन प्रश्नों के साथ खड़े रह पाना,
जिनकी न कोई दिशा हो, न ही कोई दशा,
हर किसी एक के आगे एक लिपटा हुआ है,
किसी पाश की तरह
और जाना कहाँ है कोई उत्तर भी नहीं..

बहुत मुश्किल है
इस सेहरा से पार जाना,
पर मुमकिन है भटक जाना,
और प्रश्नों के एक समूह को हमेशा
फिर अपने सामने खड़ा पाना....
बहुत मुमकिन है...
बहुत मुमकिन है...



Tanu Joshi 
~मैं एक उत्तर~

चित्र देख के उभरे मेरे मन मस्तिष्क में उभरे प्रश्न
संभाले होश तो सुना खुबसूरत है सब
अन्तर्मन विचार- मैं या दुनिया
उत्तर- दोनो
अगर दोनो तो ये विचार क्यों...
क्या, क्यों, कैसे, कहाँ को समझते- सीखते
दुनिया की रीत जानी, रोज नये प्रश्न डराते, आँखे दिखाते, कठोर राह बनाते
सिहर के घबरती मेरी आँखे, सहारे को उठे मेरे दो निरीह हाथ,
किसी ने समझा, किसी ने छीना, बिखरा हुआ समेट के फिर पकड़ी रफ्तार...
खुद सक्षम उत्तर देने में भी, प्रश्न करने में भी
मेरा अस्तित्व ही एक उत्तर- मैं एक उत्तर


जगदीश पांडेय 
~नया झमेला ~

अजब दिखाया खेल गजब दिखाया मेला
कदम दर कदम हमें नजर आया झमेला

कहीं किस्मत का जादू कहीं वक्त बेकाबू
खोजा एक जवाब मिला सवालों का रेला
कदम दर कदम हमें नजर आया झमेला

देख तंगी में हालत पोंछे जिनके आँसू
वही हाँथ उठा, कर रहे मुझसे ठेलम ठेला
कदम दर कदम हमें नजर आया झमेला

"दीश" न हो परेशान सवालों के घेरों में
तेरे कर्म से महक उठेगी शाम की हर बेला
कदम दर कदम हमें नजर आया झमेला


सुनीता शर्मा 
~चुनाव ~

चुनावी प्रतिस्पर्धा की दौड़ में ,
हर आँगन से एक उम्मीदवार है ,
जीवन की सच्ची राह चुनने में ,
आज अनिश्चिताओं का दौर है !

पार्टियों की नित नयी चतुराई में ,
हमेशा जनता ने मात खाई है ,
देश का सच्चा नायक चुनने में ,
आज फिर असमंजस का दौर है !

जाति साम्प्रदाय की बेड़ियों में ,
आज भी जन जीवन जकड़ा है ,
अपना अपना स्वार्थ भुनाने में ,
आज भी षड्यंत्रों का दौर है !

फिर चुनावी हलचलों के शोर में ,
आम आदमी बना आज खास है ,
बढ़ते प्रलोभनो की मृगतृष्णा में ,
चारों तरफ प्रश्नो का दौर है !


Pushpa Tripathi 
~क्या प्रश्न तुम करोगे~

उपजते सवाल
ख्यालों में घर किये
हर कहीं दिखती टीस
क्या अपनों ने जश्न किये ?

'पुष्प ' आदत है उनकी
प्रश्न के बीज बोते है
तनकर प्र्शन खड़े रह जाते है
दूसरों के आगे
खुद की बीन बजाते है
बाज नही आते है
यही सवाल .....
जो जवाब
नहीं दे पाते है
ऐसे है लोग दुनिया के
चुपचाप प्रश्न रह जाते है …!!!!


नैनी ग्रोवर
~जिंदगी का सवाल ~

जिधर देखूँ बस सवाल ही सवाल ,
इन सवालों ने, मचाया कितना बवाल ..

कभी दिन में जूझती, दो रोटी की जिंदगी,
कभी रातों में उठते कल के ख्याल ...

नींद में मुस्कुराते, खिलखिलाते हुए बच्चे,
जागे तो गली में, कीचड़ से हैं बेहाल ....

कल से अम्मा की दवाई हो गई ख़त्म है,
खाँस खाँस के बेचारी का, है बुरा हाल ...

लगी भूख कभी तो, पानी पी लिया,
वाह वाह री जिंदगी तेरा ये कमाल ....///


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Sunday, February 16, 2014

7 फरवरी 2014 का चित्र और भाव



अलका गुप्ता 
~बेचैन आँखें ~

साध वर्षा की !
ताकता आकाश वो !
बेचैन आँखे !

लाचार वह !
भूखा है परिवार !
सुनलो ईश !

चीखें दरारें !
बादलों को पुकारें !
धरती प्यासी !

जीवन भारी !
जल ही है जीवन !
वो है किसान !



बालकृष्ण डी ध्यानी
~खाली आसमान~

खाली आसमान
निहरे ये तन
मन प्यासा खड़ा
सब बंजर बंजर

लकड़ी कि टेक से
धरा के उखड़े उथल
देख रही निगाहें
बेबस भरा मंजर मंजर

विहीन जल धरा का
कैसे फूटे कोपल
एक नजर टिकी नभ में
दिख जाये नीर बादल बादल

हताश चेहरा आज
आस लगाये सोच रहा
कब बरसेगा अब तू
नयन से बस छ्ल छ्ल

खाली आसमान
उष्ण से जलता सूरज
शुष्क वो तन मन
रहा वो खाली खाली
*****************************

जगदीश पांडेय
~ आँसू सूख चले हैं ~

कब तक जमीं ये तपती रहेगी
निगाहें हमारी तरसती रहेगी

आँखों से सब के आँसू सूख चलें हैं
न जानें कहाँ बादलों के रुख चले हैं

अब न यूँ तरसा बरस जा रे बदरा
बिन पानी बह गया नैनों का कजरा

ये बूढी निगाहें अब देखें तेरी राहें
तपती हुई जमीं तुम्हें ही अब चाहें

फसल तेरे बिन झुलसती रहेगी
निगाहें हमारी तरसती रहेगी



प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~अरमानो की धरती~

तरसती आँखे और ये बंजर धरती
जैसे उजड़ गई हो मेरी सारी बस्ती
सपनो की उम्मीद बिक रही सस्ती
मन की आशा अब चीत्कार करती

प्रकृति हम से भी मजाक करने लगी
करे कोई और सज़ा हमे मिलने लगी
हरी भरी धरती अब आग उगलने लगी
हर जिंदगी अब खून के आँसू रोने लगी



Pushpa Tripathi 
~ सोचे किसान ~

सूखी धरती
मन व्याकुल क्षण
अग्नि बरसाए
प्रचंड प्रकोप l

देखता भूमिपुत्र
आसामान ऊपर
कुछ आस निराशा
पानी बिन भू l

बादल आते
घिर घिर चले जाते
बूँद बूँद पानी को
कितना तरसाते l

कैसा हो जीवन
क्या अर्जित धन
बिन खेती के 'पुष्प '
सोचे किसान l


भगवान सिंह जयाड़ा  
~मेघा आ~

मेघा रे मेघा क्यों तरसाए आजा ,
घटा घनघोर बन के ज़रा छा जा ,

तरसती नैनों को अब जादा न दुखा ,
खेतों को हमारे अब ऐसे ना सुखा ,

आश बिछाए देख रही है मेरी नैना ,
ऊपर वाले हम पर रहम कर देना ,

ऊपर वाले तुम्हारा होगा यह अहशान ,
सुन लो पालन हार हमारी भी फरमान ,

ऐसे ना रूठो किसान से हे भगवान ,
कर दे बारिष हे मेरे करुणा निधान ,

यह मेरी जिंदगी मौत का है सवाल ,
बरष जा मेघ अब हो गए हम बेहाल ,

मेघा रे मेघा क्यों तरसाए आजा ,
घटा घनघोर बन के ज़रा छा जा ,


किरण आर्य 
~प्राण पखेरू ~

आस का पंछी
है दम तोड़े
कुम्लाई सी आस है
नीर बहाती थी
जो अँखियाँ
सूखे उनके कोर है
जर्जर काया सूखी धरती
रोता मन का मोर है
टकटकी बांधे आस बिसूरती
बस क्रंदन है शोर है
पथरा गई है तकती अँखियाँ
अमावस्या पुरजोर है
प्राण पखेरू जीव छोड़ते
निराशा घनघोर है


नैनी ग्रोवर 
~दो बूँदें ~

सूनी सूनी अँखियाँ बाट तकत हैं, आजा,
ओ मेघ राजा जल बरसाजा..
कहर है टूटा, जीवन पे , अब तो दर्श दिखलाजा,
ओ मेघ राजा जल बरसाजा..

सूखे पड़े हैं खेत खलिहान सब,
फटने लगा धरती माँ का सीना,
क्या करें बूड़े हाथ पाँव अब,
मुशकिल हुआ है सब का जीना,
सुलगते तन पे, दो बूंदे, अपनी तू छिटका जा,
ओ मेघ राजा जल बरसाजा ..

माना के हम इंसानों ने ही,
उजाड़ा है सुन्दर सृष्टि को..
करेंगे कोशिश हम सब मिलके,
बस आस दिला, मायूस दृष्टि को,
फिर से लहलहाते खेतों की, एक झलक दिखलाजा,
ओ मेघ राजा जल बरसाजा...


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Thursday, February 6, 2014

25 जनवरी 2014 का चित्र और भाव



जगदीश पांडेय 
हिंद की अपनें आवाज तुम सुनों तो जरा
तिलक माटी का माथे लगा देखो तो जरा
न जानें कितनें चढ गये शूली प्यार से
बिछड गये वो माँ बाप से और यार से

आखिरी पल में उनके चेहरे चमकते रहे
देख शहादत की उमंग दुश्मन जलते रहे
याद कर शहीदों को आँसू बहा के देखो जरा
तिलक माटी का माथे लगा देखो तो जरा

हमें जान से है प्यारा तिरंगा
अपनी आन से प्यारा तिरंगा
शान से भी है प्यारा तिरंगा
सबसे न्यारा है हमारा तिरंगा

तिरंगा को दिल में बसा कर देखो तो जरा
तिलक माटी का माथे लगा देखो तो जरा
हर दिल में बसता ये लोकतंत्र हमारा है
दुनियाँ में मजबूत ये गणतंत्र हमारा है

हिंदी हैं हम वतन हिंदुस्तान हमारा है
सारे जहाँ से अच्छा गुलिस्ताँ हमारा है
इस बगिया को महका कर देखो तो जरा
तिलक माटी का माथे लगा देखो तो जरा


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
मेरा गणतंत्र मेरी पहचान ...

26 जनवरी 1950 को संविधान बना भारत की पहचान
तिरंगे में है मेरे भारत की आन, बान, शान और पहचान

गणतंत्र का ये तंत्र, मेरे हिन्दुस्थान की गौरव गाथा है
देश के लिए मर मिटने वाले शहीदों की अमर गाथा है

सैन्य-शक्ति से हम भरपूर, जोश में बस तिरंगा बसता है
मान-सम्मान का ये मेला राजपथ पर आज खूब सजता है

करता है सलाम हर भारतीय हमारे भारत की सेना को
आओ एक इमानदार नागरिक बन सहयोग दे सेना को



बालकृष्ण डी ध्यानी 
गणतंत्र दिवस

कविता मेरी
गणतंत्र दिवस कि
भारत माँ के
सविधान गठन कि

सब धर्मों को
एक सूत्र में बांधा
मेरे देश को
एक माला में पेरा

रोज नई अब
धरती श्रृंगार रचाती
धानी धोती पहन माँ
पूर्व दिशा से आती

जन खड़ा है आज
स्वागत करने
तिरंगा लहराकर माँ का
अभिवादन करने

बसंती रंग कि
महिमा अतिभारी
हृदय माथा चढ़े
दुश्मन डरे बारी बारी

प्रभुता अखंडता पर
तिलभर आंच न आने पाये
सब धर्म मिलजुल कर
देश को आगे बढ़ाएं

सक्षम युवा के हाथों में
सब कुछ अब है उन पर निर्भर
पुराने अनुभव साथ लेकर
भारत गणतंत्र संवारे

कविता मेरी
गणतंत्र दिवस कि
भारत माँ के
सविधान गठन कि


Pushpa Tripathi 
*~*~*~*~ ये देश हमारा *~*~*~*

भारत बना
संविधान बना
हम देश का
जिम्मेदार कानून बना l

भारत वासी
पहचान यही बस
तिरंगा झंडा
देश गौरव बना l

देश के लाल
जय वीर जवान
आम किसानों का
अधिकार बना l

जन्म भूमि
पग पग शीश नमाऊं
पावन दिवस
'पुष्प ' गणतंत्र बना l


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Tuesday, January 21, 2014

11 जनवरी 2014 का चित्र और भाव





बलदाऊ गोस्वामी 
।।आतशी शीशा।।
*********************
लो आतशी शीशा,गुण है अपार,
उपयोग करो इसे विविध प्रकार!
चिलचिलाती धूप में
बिन्दू फोकल मिलने पर
आग लगाता है,
किसी वस्तु के आकार को
दुगुना रुप में
दिखाता है,
लो आतशी शीशा,गुण है अपार,
उपयोग करो इसे विविध प्रकार!
\

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~ आज का डिटेक्टिव ~
हाथ आया जब 'मैग्नीफाइंग ग्लास'
फिर बढ़ गई अपनी भी कुछ 'क्लास'
रख कर असिस्टेंट अब हो गए हम 'बॉस'
खोजी हुई आँखे, लेने लगे अब कुछ 'चांस'
अंदाज हो गए अपने भी ख़ास, पीने लगा 'सिगार'
चढ़ा कर चस्मा आँखों पर, कहने लगा 'व्हाट फ़ॉर'
उधेड़ रहा बाल की खाल, करके 'इन्वेस्टीगेशन'
बन रहा अब राई का पहाड़, ऐसी हुई 'इमेजीनेशन'
संदेह करना हो गई आदत, शुरू हुआ शक का 'कालेज'
सीखा रिश्तो में आग लगाना, बढ रही अपनी भी 'नोलेज'


रोहिणी शैलेन्द्र नेगी
 "परख"
किसी ने कहा...
हम अपने हैं तुम्हारे,
किसी ने कहा...
हम उनके हैं सहारे,
जांचा- परखा तो जाना,
कौन अपना है,
और कौन बेगाना,
भेड़ कि खाल में,
भेड़ियों को पहचाना,
चेहरा झूठ था सबका,
मुखौटों से छिपा हुआ,
नज़र आया शीशे में,
इस कदर था बिका हुआ,
क्यों हमने ज़िंदगी,
ऐसों के नाम की,
दोगला बनकर जिन्होंने,
हस्तियां बदनाम की,
अच्छा है शीशे ने,
परख तो करवाई,
कौन - कैसा है,
ये रौशनी तो दिखाई,
वरना हम तो आज भी,
झांसे में रहते,
बस उनके ढोंग को ही,
अपनापन समझते ||



बालकृष्ण डी ध्यानी 
~भ्रष्ट मै~

लेकर यह यंत्र
ढूंढ़ने चला मै शुद्ध तंत्र
ढूंढ ना मिला कुछ भी
बस फैली थी यंह गंध
भ्रष्ट तंत्र भ्रष्ट यंत्र
और भ्रष्ट मै

थोडा और आगे गया
हौसला मेरा फुर हो गया
सब यंह फंसे मिले मुझको
दल में कंकड़ कि तरह पड़े मिले
भ्रष्ट तंत्र भ्रष्ट यंत्र
और भ्रष्ट मै

वंही मै दूर पड़ा था
वो यंत्र मेरे हाथ से सठा था
अचनाक मेरी आँखे पड़ी
आइने में मै कंही नही
भ्रष्ट तंत्र भ्रष्ट यंत्र
और भ्रष्ट मै

मै हिस्सा बन चुका था
वो यंत्र मेर हाथ से छूट चुका
अब ढूंढ मै अपने को कैसे
मै उसमे मिला पड़ा था
भ्रष्ट तंत्र भ्रष्ट यंत्र
और भ्रष्ट मै



Pushpa Tripathi 
~फर्क निरिक्षण ~

ये फर्क
आँखों का नहीं
चश्मे का नहीं
कम घटने का नहीं
और बढ़कर उतरने का भी नहीं
फर्क है .....
सूक्ष्म बिंदुओं का आपस में जुड़ने का
मानसिक बौद्धिकताओं का अध्यन करने का
मैग्नीफाइंग काँच के आरपार दिखने का
विलय .... विलयन … परमाणु के टकराने का
फर्क .....निरिक्षण ..... परिणाम
हल ढूँढ लाने का
अरे .... !!!
वही जो
वैज्ञानिक खोज लेते है
अपनी अनोखी .. निराली ...... अद्भुत
विज्ञान की यांत्रिक यंत्र ....'पुष्प ' बस एक काँच से ..... !!!!!


नैनी ग्रोवर 
~ कमाल का ये ग्लास  ~
वाह जी क्या कमाल की चीज़ है ,
दिल मेरा तो गया इसपे रीझ है,
बहुत दिनों से तड़प रही थी,
कुछ नज़र ना आता था,
फेसबुक पे भी आना,
मुझको ना भाता था,
आँखों ने ले रखी थी क्लास,
आपने दे दिया मैग्निफाइन ग्लास,
अब तो साफ़ नजर आने लगा है,
दिमागी अन्धेरा भी जाने लगा है,
आज तो हास्य लिखने का मन है,
कल से गहन लिखूंगी प्रण है,
आज तो मुझे बस इतना ही सह लो,
चंद पल मेरे शब्दों के साथ रह लो । :))


अलका गुप्ता 
~ पर्दा फास ~
करते होंगें कुछ भी प्रयोग
इस मैग्निफाईंग ग्लास का |
हमने तो सामने कर किरणों के
सूरज से जलाए हैं कागज खूब |
कभी-कभी बाबा जी का चश्मा भी
करके पार ..........किया है ...
मैग्निफाइंग सा ही प्रयोग |
वह था बचपन शैतान |
नई जानकारियों का करता था |
जम कर खूब जादुई प्रयोग |
और हद तो तब हुई जब ...
भाई के हाथ पर कर दिया
यही जादुई प्रयोग |
फिर क्या हुआ मित्रों !!
मेरा ...अब क्या बताऊँ ...
जो हुआ सो हुआ ...
मैं और भाई भूल गए उस दर्द को ..
लेकिन निशान दिला देता है ...
याद फिर ...वही प्रयोग |
आज दिला दिया है ...
याद फिर वही दिन |
मस्त शैतान बचपन का |
प्रतिबिम्ब ने तश्वीर के माध्यम से |
चलो इसी बहाने से हुआ|
राज एक ..पर्दा फास |
इस मैग्निफाईंग ग्लास का ||


जगदीश पांडेय 
-------- एक तलाश जीवन की -----------
काश मिल जाये मुझे भी ऐसा कुछ यंत्र
जिससे पढ सकूँ मैं खुशियों के सब मंत्र
सब की आँखों से मैं गमों को चुरा लूँ
लोगों के आँसू अपनी आँखों से गिरा लूँ
मुस्कुराहटों का काश जान पाता मैं तंत्र
काश मिल जाये मुझे भी ऐसा कुछ यंत्र

सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

Saturday, January 11, 2014

3 जनवरी 2014 का चित्र और भाव



दीपक अरोड़ा 
~साथ~
थामो ऐसे हाथ
छूटे ना कभी साथ
जन्मों तक मेरे रहो
कहनी है यही तुमसे बात
न जाना कभी छोड़कर
दिया जो हाथों में हाथ
न जाना कभी छोड़कर
दिया जो हाथों में हाथ


जगदीश पांडेय
~ स्पर्श ~

आज भी याद है मुझे वो
तुम्हारी उंगलियों का स्पर्श
जिसके लिये मैं तरसता रहा
मन ही मन मैं तडपता रहा
तन मन पुलकित हो उठा
मेरा जहाँ अलंकित हो उठा
मेरी संवेदनाओं को हुवा हर्ष
आज भी याद है मुझे वो
तुम्हारी उंगलियों का स्पर्श
.

बालकृष्ण डी ध्यानी 
~मधुर मिलन~

मधुर स्वर
के कल कल से
सुस्वर माधुर्य के
इस पल से

तेरा मेरा यूँ ही
हाथों में हाथ रहे
जन्म जन्म
तक ये साथ रहे

साथ अपना
एक स्वर से गूंजे
हाथ अपना
एक पल ना छूटे

साथी मेरे
वो मेरे हमदम
निकल जाये गर ये दम
ना टूटे आत्मा का बंधन

साथ यूँ ही रहना
मेरे वो प्यारे सनम
शरीर तो है ये नश्वर
ये आत्मा का मिलन


अलका गुप्ता 
~थाम लो~
लो थाम लो हाथ मेरा ...
अन्धेरा है घना |
आसान हो जाएंगी मंजिलें ...
जो हाथ में हाथ हो तेरा ||

हम चल पड़े साथ हैं ...
मन में लेकर विशवास |
होंगे पूर्ण ..सारे काज ...
लेके चलें ह्रदय में जो आस ||


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल  
~ ये छूती अंगुलियाँ ~

मेरा रोम रोम
तुम्हारे स्पर्श से
रोमांचित होने लगा है

प्रेम का संचार
विद्दुत गति सा
तन मन पर होने लगा है

कुछ अहसास
स्पर्श पटल से
मन में उभरने लगे है

ये छूती अंगुलियाँ
नरम गरम ख्याल
बीतते पल महकने लगे है


Pushpa Tripathi 
~ ये स्पर्श नहीं अब ~

ये छूटता हुआ समय
ये अधूरा सा साथ
अँधेरी दुनियाँ की रातें
नहीं, उजाले के पास ....!!!

स्पर्श अब भी
बीते समय के साथ
वो यादों की रातें
'पुष्प ' उजालो की बात ..... !!!

नींदें खोई थी
जादुई पलों में
गुम थे सुध बुध
तुम्हारे, ही पास ....!!!

इन बिछड़ते युगों में
युगल अलग अलग
हाथो की उँगलियाँ
परस्पर नहीं अब .... !!!


रोहिणी शैलेन्द्र नेगी 
~बिछोह~
छोड़ के हाथ मेरा ऐसे मोड़ पर,
जा तो रहा है तू,
पर ये सोच कि तेरा भी कुछ,
छूट तो न जायेगा.......??
अश्कों के बादल, सीने की चुभन,
दिल के जख्मो पे,
कौन तेरे जाने के बाद ,
मरहम लगा पायेगा.....??
हल्की सी खलिश सीने की मेरे,
चैन तो न देगी मुझे,
वफ़ा की आड़ में बेवफाई का दर्द,
जाने कौन अब मिटा पाएगा ||

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Thursday, January 2, 2014

12 दिसम्बर 2013 का चित्र और भाव



जगदीश पांडेय 
~आधुनिकता और संस्कृति ~

आधुनिकता का आया आज कैसा ये दौर है
युवा पीढी को अब न दिखता कुछ और है

वो शालीनता सभ्यता वो सृंस्कृति हमारा
पश्चिम सभ्यता के चलते न हुवा गुजारा

बचानें हेतु संस्कृति हमें करना अब गौर है
आधुनिकता का आया आज कैसा ये दौर है

कोई फर्क नही सामनें बुजुर्ग कोई खडा है
चंद पल की खुशी के लिये युवा वर्ग अडा है

बढ रही बेशर्मी अब चारो ओर घनघोर है.
आधुनिकता का आया आज कैसा ये दौर है

कहीं परदे के पीछे तो कहीं रिश्तों के नीचे
भूल कर के मर्यादा सब एक दूजे को खींचे

नहीं इनके उपर जमानें का कोई जोर है
आधुनिकता का " दीश " कैसा ये दौर है


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
~ लौट चले ~

उम्र का ये पड़ाव
देखी खुशिया और झेले है घाव
बीता पल याद आता है
फिर लौट चले दिल यही चाहता है

मिल कर भी अनजान बने
चाह छोड़ राह अपनी हम चले
खुशी देखी अपनों की
खुशी अपनी छोड़ हम लौट चले

हमारे अपनों के पास
मौज मस्ती के लिए वक्त बहुत है
'प्रतिबिंब' रफ़्तार हुई जिन्दगी
बस अपनो के लिए वक्त बहुत कम है


अलका गुप्ता 
~झूठी लाज ~

तन -मन भिगो रही आज
यादों की हरश्रंगारी महक ।
अल्हड उन बतियों की चहक ।
ढलकी - ढलकी चितवन ये ।
रूखे अधरों का कंपन ये ।
बिखर गई अलकों में ...
बीते दिनों की राख सी ...
सिमट गई लाली जो ...
झुर्रियों में अनायास ही ...
कसक बहुत रही है आज ।
जो तोड़ ना सके थे कायर हाथ ।
उन बीते दिनों के अनचाहे ...
बंधनों की झूठी लाज ।।


भगवान सिंह जयाड़ा 
~जिंदगी का आखिरी पड़ाव~

जिंदगी के इस पड़ाव में ,
यह क्या मुकाम आ गया ,
बदल गई आज राहें हमारी ,
आज हम सफ़र बदल गया ,

परछाइयों में दिखती है वह ,
बीते कल की वह रंगरेलियां ,
बस मुंह फेर लेते है यूँ उनसे ,
देख जवानी की परछाइयाँ ,

मंजिल भी बदल गई अब ,
जिस पर हम अकेले चल पड़े ,
नहीं कोई यहाँ अब हम सफ़र ,
बस यूँ ही हम तन्हा रह गए ,

दुनिया का है क्या यही दस्तूर ,
जो हम यूँ ,अजनबी हो गए,
जीने और मरने की वह कसम ,
आज क्यों सब बेकार हो गए ,

जिंदगी के इस पड़ाव में ,
यह क्या मुकाम आ गया ,
बदल गई आज राहें हमारी ,
आज हम सफ़र बदल गया ,


बालकृष्ण डी ध्यानी 
बस परछाई हूँ मै

मन झूमें तन झूमें
इस उम्र के इस मोड़ पर
दिल मेरा अब क्यों भूला
छूटा वो सावन किनार

सुखा पेड़ हूँ
थोड़ी सी बची जो छाया
हरयाली छूटी अभी अभी
मेरी ये बूढ़ी काया है

माना ये जिंदगी है
थोड़ी दुःखी,थोड़ी ख़ुशी है
सुखा पेड़ हूँ गिर जाऊँगा
बस पीछे परछाई पड़ी है


सुनीता शर्मा 
~मिला है क्या~

कभी परिवर्तन यहाँ
अधर्म जारी
सडके खूनी
हर श्वास हर दिन
इंसानियत घुट रही
संस्कार खो रहे
आधुनिक दीमक
चाट रही आज
अपनी संस्कृति को
चलचित्र के दीवाने हैं
भोग विलासिता के
अंध जाल में फंसे
बुजुर्गों का लिहाज भूले
कैसा ये दौर है ....
बुजुर्ग शर्मिन्दा
युवा बेशर्म बन
आचार विचार
सब बेपरदा कर
नाच रहे हैं
बन मस्त मलंग
सडकों को
अपनी धरोहर मान
नित्य नियमों का
हनन करने में
रहते मगन
और बेचारे बुजुर्ग
अपने स्तिथि समझ
सर झुकाए
परिवर्तन से हार कर
बिना कुछ बोले
बिना कुछ टोके
चल देते हैं
अपनी अपनी राह
जमाने के साथ
बदलो या शान्त रहो
इसी मे शायद..
अब समझदारी है !


नैनी ग्रोवर 
~परछाईयां~
बीते दिनों की परछाइयाँ,
उत्सव मनाने लगी है क्यूँ ,
बीती हुई गुलशने जिंदगी पे,
फिर से इतराने लगी हैं क्यूँ ...

आज तो तन्हा, राहों में,
अचानक मिल गए वो,
गुज़रे हुए वो चंद लम्हें,
फूलों से खिल गये क्यूँ ,
हर कली इस चमन की,
फिर से महकाने लगी है क्यूँ ...

बिसरे हुए वो वादे,
याद से आके रह गए,
दो आंसूं ढलक आये,
जब हम मुड़ के चल दिए,
आवाज़ तेरी हमारे पीछे ,
आ आके पुकारने लगी है क्यूँ ...नैनी


सुनीता पुष्पराज पान्डेय 
~कैसे बताऊँ~
मन मेरा झूम रहा , कैसे तुझे बताउं मै
आओ झूमे गाये ,मस्त मनंग हम बन जाये
तेरी बाँहो के हिडोले, मे मै झुलू झूला
साजन आओ बिते दिन याद करे
क्या खोया है क्या हमने पाया है
तुमने अपने हिस्से की सारी खुशियाँ हम पर वारी है
पर आज देखो कितनी सुन्दर अपनी फुल्वारी है
हमारी बगीया के फूलो ने अपनी खुशबू बिखेरी है


कुसुम शर्मा 
~याद ~
कई दिनो के बाद कुछ तस्वीरे फिर यूँ सामने मेरे आई
भूल गये थे जिन यादों को, देख उन्हे फिर आँखे भर आई
छूट गये थे कही वक़्त की दौड़ मे जो लम्हे हमसे पीछे
बातों ही बातों मे फिर उनकी यादे लौट कर चली आई
अब तो ये यादे ताज़ा हो भी गई तो क्या
वो कही पीछे छूट गए और ये ज़िन्दगी हमें नई राह पे ले आई !!



किरण आर्य
~ तेरी मेरी कहानी ~

उम्र के एक पड़ाव पर आकर
क्यों हुए दूर हम
हालातों से अपने क्यों
हुए मजबूर हम
कुछ वक़्त की रही कारस्तानी
कुछ दिल की रही नादानी
किये थे वादे करार तुझसे
ये साथ रहेगा सदा
सात जन्मों का है प्यार तुझसे
फिर क्यूकर हुई राह
अलग अनजानी
साथ रहे गए टूटे से कुछ ख्वाब
और राह की वीरानी
दिल चाहे आज भी दोहराना
वहीँ कहानी
जब तुम थे मेरे दिल के राजा
और मैं थी एहसासों की तेरे रानी
दिल ये चाहे लौट आये पतझड़ में
फूलो की फिर रवानी
वक़्त फिर से एक बार दोहराए
प्रेम की वहीँ कहानी



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