Thursday, January 31, 2013

31 जनवरी 2013 के चित्र और भाव




नैनी ग्रोवर
भटकते रहे, ऐ मालिक हम हर सवेर हर सांझ
नहीं मिली फिर भी हमको, तेरे स्नेह की छाँव
देख ले तेरी दुनिया में, किस कदर ज़िंदा हैं हम,
ना है तन पे कपड़ा, ना ही बचे काँटों से हमारे पाँव


बालकृष्ण डी ध्यानी 
चाह

अपने मन की चाह
को कैसे हम मनाते हैं

हौंसलों की पतंग को
खुले आकाश में उड़ते हैं

पैरों की रक्षा हम
फेंकें बोतल पिचका करते हैं

उसको प्रयोग में लाकर
चपल जैसा उपयोग में लाते हैं

आकांक्षा उड़ना में
हम भी दूर दूर तक जाते हैं

कल्पनाओं के रंग में
हम भी किसी तरह रंग जाते हैं

माया का मोह है हमे भी
माया से दूर ही आपने को पाते हैं

थोड़े में भी हम ऐसे ही
ढेरों आनंद का लुफ्त उठाते हैं

अपने मन की चाह
को कैसे हम मनाते हैं

हौंसलों की पतंग को
खुले आकाश में उड़ते हैं


उदय ममगाईं राठी 
जेब में पैसा नहीं तो क्या हुआ थोड़ी अक्ल तो है
रेलक्सो जैसा नहीं तो क्या हुआ थोड़ी शक्ल तो है
हम इसी में खुश हैं कांटे भी हमारी राह से बच के चलते हैं
न असर होता जख्मों का, आप खरोच पर भी मरहम मलते हैं


किरण आर्य 
ख़ुशी ये ख़ुशी क्या ये पैसे में बसती है
या इसकी अपनी ही जुदा कोई हस्ती है

जहाँ हो अमन ओ चैन ये वहीँ हंसती है
महलो में ये रातो में करवटे बदलती है

तन फक्कड़ जो उसके चेहरे पे सजती है
तन ढके नहीं कपड़ा फिर भी अलमस्त सी है

कहीं सोने के सिहासन तले भी बिसूरती है
कहीं पैरो में बोतल की चप्पलों में भी दिखती है

खुशियाँ हाँ बिखरी हर शह में जीवन की है
फिर क्यों मन में भटकन ये चातक की सी है

ख़ुशी वो भाव अहसास जो रूह चमन में खिलती है
मिले तो फकीर की फकीरी में मिल जाए जिंदगी सी
ना मिले तो मृगतृष्णा की भटकन ये इजाद करती है

अमीर के महलो को भी वीरान करने का हुनर ये रखती है
हाँ ख़ुशी ये गरीब की आँखों में छिपी हंसी में छलकती है


अलका गुप्ता 
गरीबी में छिपा है तमाम ये हुनर हमारा|
मेरे आविष्कार की जननी है आवश्यकता ||

रोकर दौलत के लिए समय यूँ ही खोते नहीं |
भरोषा मेहनत का हम जाया करते नहीं ||

अपनी मेहनत के बल पे दुनिया सजा दी |
ना मिला फिर भी दो रोटी सिवा कुछ भी ||

हौसले बुलंद हों तो मुश्किल कुछ भी नहीं |
नीला आकाश तो अपना है पूरी धरती नहीं ||

हाँ हम खुश हैं सडकों पर यूँ ही जीकर |
पन्नी और टाट की झुग्गियों में रहकर ||

तुम जैसी हमें दौलत की मारामारी नहीं |
हम खुश हैं यूँ ही हमें इतनी मुश्किल नहीं ||



डॉ. सरोज गुप्ता 
मेरे मेहनतकश भाई ,
पैरों में चुभे न कंकड़ ,
लगे ऐसे जैसे लकड़ ,
पहन कर बोतल की चप्पल ,
हटा रहा दुनिया के कंकड़ ,
तू है कबीरा वाला फक्कड़ ,
जो जला सके है अपना मक्कड़
वो ही बना सके है
अम्बानी के घर धाक्कड़ !

मेरे मेहनतकश भाई
तू मेहनत कर ,
रोटी की चिंता मत कर ,
मत कर ,मत कर !
तेरी ही दरिद्रता हटाने को ,
साहित्य -मेले लगे हए ,
गोष्टियाँ हो रही
नुक्कड़ -नुक्कड़ !
काजू ,बादाम खा रहे बीच बीच में ,
हार्ड ड्रिंक पी रहे जुहू बीच में,
ग्रन्थ पर ग्रन्थ छाप रहे ,
तेरी गरीबी पर !

मेरे मेहनतकश भाई ,
तेरी ये चप्पले दिलाएंगी -
साहित्यिक सम्मान ,
अकादमी पुरूस्कार ,
किसी -किसी को तो
उम्मीद तूने बाँध दी है ,
चप्पलों के आशीर्वाद से,
पद्मश्री ,पद्मविभूषण पा लेंगे !
उच्च श्रेणी के प्रकाशन संस्थान से
छपवाकर ,
बड़े नेता से रिबन कटवाकर ,
किसी स्वर्ण को बुलवाकर
दलित को गुस्सा दिलवाकर ,
दुनिया की मैगजीन में जगह पायेगा ,
पुरूस्कार कमेटी तुम्हे पाकर धनी हो जायेगी !
नन्दी ने तुम्हे देख लिया ,
बोतलों से चप्पल बनाने के जुर्म में ,
भ्रष्टाचारी घोषित कर ,
खबरें सुर्खियाँ नयी बटोरेगा !


Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 
संघर्ष का मेरे, पहचान हैं ये ।
दिल की अमीरी का प्रमाण हैं ये ।
फेंका था किसी रईस ने, इन्हें रात में ।
साथ देती अब मेरा यही, हर राह में ।
रईस की आवारगी का सुबूत हैं ये ।
अब यही, इस गरीब की आवारगी में, बूट हैं ये ।
हाँ, हाँ इनमे वो लचक वो चमक ना सही ।
इनमे मेरा पसीना चमकता है ।
गरीब का चेहरा तो ..
इन्हें पाकर भी दमकता है


भगवान सिंह जयाड़ा 
ऐ मालिक तेरी दुनिया के हम भी हैं इन्शान ,
कुछ को सब कुछ दिया और यह क्या भगवान;
कोई पहने रिबॉक ,किसी को चप्पल नसीब नहीं ,
कोई पहने सूट बूट ,किसी के पास लंगोट नहीं ,
कोई सोचता कौन खाए ,कोई सोचे क्या खाएं ,
खाली है पेट किसी का ,कोई पेट फाड़ कर खाए ,
जीवन तो कैसे भी जी लेता है यहाँ हर इन्शान ,
लेकिन गरीबी क्या होती है ,तू देख मुझे भगवान,
गरीब न इतना कभी किसी को बनाना भगवान,
हर इन्शान को देना जग में रोटी कपड़ा और मकान ,


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु 
"नसीब"

मेरा यही है हंसोगे आप,
मेरी तरह कई इंसान जीते हैं,
तुम्हे क्या मतलब,
हमारी जिंदगी से,
हम अपने अंदाज में,
जिंदगी जीते हैं,
नहीं ख्वाइस हमें कोई,
जुगाड़ करके जिंदगी,
इस तरह जीते हैं,
दर्द दिख रहा होगा,
आपको हमारी जिंदगी में,
"नसीब" के सहारे जीते हैं


Pushpa Tripathi 
जेब है खाली
दिल है खाली
आखों में बसते
देह है खाली
सपने अब खाली
तन पे है चिथड़ा
पैरों में न चप्पल
खाली है जमीन
सूखे से हालात
पानी नहीं बरसा
खेती नहीं उपजी
चिलचिलाती धूप
हाल है बेहाल
खाली बोतल से
पग छाँव मै सेंकू
यही सुकून है
भर आकाश निहारूं
हे प्रभु वर्षा
अब जल्दी से कर
बंजर जमीं
हरी हो जाय
तन पे कपडा
पाँव में चप्पल
खाली नैनों में
मै सपने पाऊं
कर उपकार
कुछ चमत्कार
हो जाए
हे प्रभु ..... कुछ करो उपाय


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
नसीब अपना - अपना
आप हकीकत हम सपना
आपके माई बाप, हम अनाथ
आपके महल, हमारा फुटपाथ

न भूख सहने को रोटी है
न तन ढकने को वस्त्र है
न कोई सुध हमारी लेता है
न कोई अब हमें अपनाता है

मिल जाये खाने को तो खा लेते है
न मिले तो कहीं भूखे पेट सो लेते है
मेरे सपनो को बस आँख मूँद देख लेता हूँ
रहने को जमी और छत आसमा बन जाता है

मैं चर्चा का विषय हर मंच पर बन जाता हूँ
तस्वीरे दिखाते आप मैं सहानूभूति बन जाता हूँ
क्या नेता, अब तो जनता भी हमें भुनाना जानती है
हकीकत से दूर लेखो तस्वीरो में वाह वाह लूट ले जाते है

आप तो पीते बोतल का पानी, हम गंदा पी, जी लेते है
आपकी फेंकी बोतल से भी चप्पल का जुगाड़ कर लेते है
महंगे रेस्टोरेंट में खाकर आप, 'टिप्स' खूब वहाँ दे कर आते है
हमने फैलाये हाथ तो कर्म करने की आप नसीहत हमे दे जाते है


Pushpa Tripathi 
तू ही बता ऐ परवर दिगार
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम
क्यूँ ऐसे हमारे करम
धरती पर चले
और पैर है छिले
नहीं कोई हमारा जतन
जब खाली हो कोई बोतल
नजर आती है कोई शकल
वो फेंके बड़े ... निष्काम है पड़े
ले लेते है हम ही खड़े
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम
क्यूँ ऐसे हमारे करम


Neelima Sharma 
अडिदास , लोटो, वुडलैंड
न जाने कितने जूते देखे
कुछ भी नया नही था
शू डिजायनर के पास
देख कर गरीब की जूती
उसको पेटेंट करा लिया
अब पानी की बोतल में
बंधे धागे मॉल में बिकेंगे
और एक बार फिर गरीब
तलाश में हैं नए अविष्कार की
सुनो !
उसको भी सर्दी , गर्मी लगी हैं पैर में
उसको भी कांटे पत्थर चुभते हैं अक्सर .


Dinesh Nayal 
इंसान हैं हम अक्ल तो दौड़ा लेंगे
चाहे आए कितनी ही मुसीबतेँ
पार तो हम लगा ही लेंगे,

तन पर ढ़कने को न हो कपड़े
तो क्या पत्तों से तन को ढका लेंगे,
पैरों में न हो पहनने को चप्पल
तो क्या प्लास्टीक की बोतल से
काम चला लेंगे,
इंसान है हम अक्ल तो दौड़ा लेंगे...

महँगाई चाहे सरकार बढ़ाती जाए
हम हार नहीं मानेंगे,
इसी तरह अक्ल दौड़ा के
अंधी सरकार को हम जगा देंगे,
इंसान हैं हम अक्ल तो....




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Wednesday, January 30, 2013

30 जनवरी 2013 का चित्र और भाव

(30 जनवरी 2013 का चित्र और भाव )


Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 

प्यार के व्यापार में, देखिये हमारा हाल ।
तन पर ना खाल रही, रहे सर पर ना बाल ।
उनकी ही गलियों में भटक रहे अब देखिये ।
कितना खूबसूरत, मोहक ये उनका रूप जाल ।
ना आकाश रहा अपना, ना डूबने को पाताल ।
त्रिशंकु सा लटक रहा, हँस रहा मुझ पर हर डाल ।
गर तन पर खाल है आपकी जनाब, सर पर हैं बाल ।
दौडिए इस गली से, काट रूप जाल, बचे बाल बाल ।।।


भगवान सिंह जयाड़ा 

मैं एक बदनशीब मानव कंकाल हूँ ,
जिसे पञ्च तत्व नशीब न हो सके ,
न दफनाया गया न जलाया गया ,
बस प्रयोगशाला में लटगाया गया ;
हरदिन लगाती है नुमाइस मेरी ,
मुझे हर दिन जोड़ा तोडा गया ,
कभी सोचता हूँ, खुशकिस्मत हूँ ,
मर के भी लोगों के काम आ रहा हूँ ,


Pushpa Tripathi 

सोच सोचकर क्या मिला
मिला मात्र चिन्तित मन
मन कंगाल ... सब माया जाल
रे मानुष तन कुछ तो संभल
क्या लाया था साथ तू लेकर
क्या जाएगा साथ तेरे
मन भिखारी सब मांगता
तन से करता अधम अपराध
कुछ नहीं इस अभिमानी देह में
बस गांठों का है बंधन जाल
नश्वर तन .. कंकाल खड़ा है
सुन गीता का ज्ञान जरा
अब न समझे .. तो फिर मत कहना
जब चिड़िया चुग जाए खेत ये सारा
प्राण पखेरुं उड़ जाएंगे
तन का चोला छूट जाएगा
रह जायेंगी तुम्हारी अमानत
धरे पड़े सब गाडी बंगला
हाथ पसारे चलना होगा
दो गज जमीन ओढ़ने को कफ़न
यही तुम्हारे साथ रहेगा
रे मानुष तन, अभिमान न कर
करता चल उत्तम काम
फल की चिन्ता मत कर बन्दे
"राह अपनी सोच विचार के "
बढ़ता चल ................बस बढ़ता चल
चलता चल ..........तू चलता चल


बालकृष्ण डी ध्यानी 

कंकाल या मानव

पहले मै ऐंठ हुआ
अब मै छंटा हुआ
पहले था मै बांटा हुआ
अब हूँ मै लटका हुआ
मानव कंकाल हूँ मै
कभी मानव मै भी था

ढांचा मेरा
अस्थि - पंजर सा
सजा हुआ हूँ अंजर पंजर सा
सारांश मेरा इतना
जीवन मरण का अंतर जितना है
कभी मानव मै भी था

रूप -रेख से विहीन
ठाट मेरा अब भी अभिन्न
बदन है ना धड़
देह बिना ये टंगा जिस्म है
टंगा टंगा से कहता हूँ
कभी मानव मै भी था

अब भी कुछ सिखा जात हूँ
मानव को मानव से मिलता हूँ
अब भी इस बात पर इतराता हूँ
अब भी काम किसी के आता हूँ
मानव होने का अहसास दिलाता हूँ
कविता अंत में कहता हूँ
मै भी मानव हूँ


Dinesh Nayal 

आप की याद में इस कदर गिर गये,
तन खाली हो गया
बचा ना कुछ अब बिकने को,
कुछ इस कदर चढ़ा प्यार का बुखार
हो गये कंगाल और बन गये कंकाल!!


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु 
"जानना चाहोगे"

किसने किया मेरा ये हाल,
कैसे हुआ मैं कंकाल,
धरती पर था मैं एक इंसान,
करता था मतदान,
बनती थी उनकी सरकार,
पेट मेरा भरा नहीं,
मजदूरी करता था,
स्वयं मैं मरा नहीं,
मुझे मार दिया उन्होने,
अपने पेट की आग,
बुझाने के लिए,
मंहगाई बढ़ा बढ़ा कर,
क्या करूँ,
आज हूँ मैं एक कंकाल


अरुणा सक्सेना 

मानव की पहचान हूँ में .......
हर तन का आधार हूँ में .....
सब हैं मुझसे , हूँ अरूप
लेकिन मुझसे ही ,सुदर स्वरूप
नहीं कल्पना हूँ सच्चाई
समझ आप भी आज ले भाई .........



अलका गुप्ता 

नर था मैं यह कंकाल मेरा |
वह कल था यह आज मेरा |
जीवन भर जो रहा समझता|
क्षण भंगुर सा बीत गया वह |
माया का विकट जंजाल था |
भटकता रहा नर कंकाल था |
पहचानता जो आत्मा को कभी |
जान पाता परमात्मा को तभी |
भौतिक चमक-दमक में सोया|
चाम-दाम को पाने में सब खोया|
जीवन हीन हुआ अब मैं कंकाल हूँ |
व्यर्थ ही यूँ बीत गया इतिहास हूँ |
स्वार्थ में जीवन व्यर्थ तुम यूँ ना गंवाना |
मतलब जीवन का मानव भूल ना जाना||



किरण आर्य 

माटी से निर्मित तन तेरा
इसपर क्यों इतराए मानुष
आज जिस चमड़ी पे घमंड करे
पलभर में कंकाल बन जाए
हतप्रभ खड़ा तू देखता रह जाए
समझे फिर भी ना मन नासमझ
स्वार्थ में लिप्त ये निज में समाय
नियति जब खेल अपने रच दिखाय
जो बटोरा सब यहीं धरा रह जाय
खाली हाथ आये खाली ही रह जाय
सत्कर्म की पूंजी ही संग अपने जाय
जिसकी समझ आये बात ये गूढ़
वो तन ही तर जाय बाकी सब जीवन
मृगतृष्णा में भटकते आजीवन रह जाय


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

दिल और दिमाग के चलते इंसान हूँ
इसी इन्सान में छिपा एक हैवान हूँ
मनमानी अपनी अब करता जाता हूँ
प्रकृति और दिलो से खेलता जाता हूँ

जिंदगी तेरे सामने अब मिसाल हूँ
हाड़ मांस का केवल एक पुतला हूँ
बस एक आख़िरी सांस तक जिंदा हूँ
इंसान था कल आज बना कंकाल हूँ


डॉ. सरोज गुप्ता

यह मेरा कंकाल है
कैसे मान लूँ
खिलाया मैंने इसे माल
चल भेड चाल
उतारी सबकी खाल
तब किया था ऊंचा
कहीं जाकर अपना भाल !

यह मेरा नहीं कंकाल
पिटो कितने गाल
नहीं गलेगी दाल
यह तुम्हारी बेढम चाल
नहीं निकलेगा कोई सुर
लगा लो कितने गुरु -गुर
मिट जाएगा एक दिन
यह खड़ा कंकाल !

प्रभा मित्तल 

क्या कहें इस नर-कंकाल को
ये तो हर मानव में बसता है
जिस रूप पर कल इतराया था
हुआ उसी का आज ये हाल है।
अमीर हो या ग़रीब यही है
सच्चाई हर तन की
जो समझ ले मानव यह भेद,
भोग-विलास-लिप्सा औ स्वार्थ
सबको तज,मन रमाए
सेवा में परहित की ।
सुख से जीवन जी जाए और
दोनों ही लोक सुधर जाएँ।

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Tuesday, January 29, 2013

29 जनवरी 2013 का चित्र और भाव


(29 जनवरी 2013 का चित्र और भाव )

Pushpa Tripathi 

टेबल कुर्सी सजी हुई है 
कप ग्लास की शान सजी है 
होटल में बावर्ची की तांव 
मालिकाना फरमाइश गडी हुई है 
आज महंगाई का यह आलम 
चारों ओर बदहाली का मौसम 
पैसे ज्यादा खाने को गम 
कम नोटों में परोसे कम 
साहब के अब होश उडे है 
मन हार अब सीमित ही पाया 
मुर्गी मस्स्लम खाने की धुन में 
आड़ी तिरछे नोट निकाले 
पाकर स्वाद ख्याली पुलाव का 
साहब ने फिर ऑडर मंगवाया 

नैनी ग्रोवर 

क्या खाएं, क्या ना खाएं, हाय मार गई महंगाई,
पड़ कर खाने की सूची, आने लगे चक्कर मेरे भाई..

खाने का नाम नहीं अब, रूपए की सूची देखें हैं हम
चलो पी लेते है एक ग्लास लस्सी, और खा लेते हैं गम
जेब टटोलें बार-बार, कहीं हों जाए ना जग हंसाई ..

डोसा, इडली, पिज्जा, टोस्ट, और पनीर बिरियानी,
अपने तो इस बजट में, हाय अब कभी नहीं है आनी,
तौबा-तौबा करते करते, हमने आखिर लस्सी मंगवाई

बालकृष्ण डी ध्यानी 

महंगाई से प्यार है 

महंगाई से प्यार है 
पर्स में रुपयों का उधार है 
चहकता है वो 
देखकर लजीज पकवान है 
बैठा पाता जब उस स्थान में 
रेस्टोरंट का वो मकान में 
टेबल गोल फैला सा होता है 
कुर्सी पर मै मेजबान सा बैठा होता हूँ 
बैरा हँसता हुआ आता है 
अंदर से वो कुछ कहता है 
ये तो कड़का है 
ठंडी हवा से ही पेट इसका भरता है 
ये क्या मंगायेगा
फिजूल में मेरा वो समय खराब कर जायेगा 
बोनी में ही आज नुकशान हो जायेगा 
प्रियता से मुस्कान साथ से 
बैरा ने मुझसे पुछा 
श्रीमान क्या खायेंगे आप
मैंने कहा मेनू दिखावो
उसने तुरंत पकड़ा दिया 
कलम आर्डर पेज हाथ में लेकर 
मेरा मुहं वो ताकने लगा 
मैंने मेनू के पेज पलटाये 
नजर गडी मेनू पर 
दिल मेरा अब घबराये
देख हालत पर्स की 
यूँ ही पेट मेर अब भर जाये 
जंह पानी भी बिकता है 
हवा सिर्फ मुफ्त में मिलता 
अपना हक यंहा नही बनता है 
मै जर सकुचाया 
कुर्सी थोडा हिलाया 
बैरे से बताया माफ़ करना मित्र 
मै गलती से इधर गुजर आया 
चुपचाप वंहा से मै निकल आया 
अब वाकई में लगता है की 
मुझे महंगाई से प्यार है 

अलका गुप्ता 

ले तो आए हैं हाय ! इसे इस महंगे होटल में |
ढीली है जेब अब छूटेंगे कितने के टोटल में |
पता नहीं हाय !क्या डिस मंगा कर खाएगा |
हे ! भगवान कोई तो जुगत डाल मेरे भेजे में||

किरण आर्य 

ये साहब क्या मंगा रहे है 
भेजे में क्या पका रहे है 
ख्याली पुलाव बना रहे है 
या तंदूरी चिकन उड़ा रहे है 

देख इनकी ये भीनी मुस्कान 
बैरे को भी चक्कर आ रहे है 
जेहन में उसके प्रश्न चिन्ह 
मक्खियों से भिनभिना रहे है 

मेन्यु कार्ड को देख ये जनाब 
बत्तीसी अपनी चमका रहे है 
बैरे जी देख उनका ये रुआब 
बंगले झांकते नज़र आ रहे है 

वैसे महंगाई का जो है आलम 
आम जन ख्याली पुलाव पका 
जिदंगी का बोझ ढ़ोते जा रहे है 
कुछ हतप्रभ खड़े कुछ दांतों तले 
ऊँगली अपनी ही चबाये जा रहे है

Pushpa Tripathi 

साहब पहुंचे होटल ताज
जेब में फूटी लेकर पांच
ऑर्डर मंहगे देकर घाव
कम रूपये में डिसेस खास
वेटर मन हार उकसाया
दिल पर चोट सी मुस्काया
कहकर बोला मीठी ये बात
इतने में नहीं कोई आस

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

चलो कुछ खाना खिला दो 
जो मांग रहा हूँ उसे ला दो 
इतना विस्मय से देख रहे क्या 
क्या हुआ? समझे नही क्या ?

जीवन में येसे दृष्टांत कई होते है 
जो कहा उसे लोग समझते नही है 
अपनी समझ से विवेचना कर लेते है 
शब्दों की अलग व्याख्या कर देते है 

कुछ स्पष्टीकरण तो बहुत सुन्दर देते है 
कुछ शब्दों के जाल में हमें घेर लेते है 
कुछ अनुवाद अलग से कर हमें लुभाते है 
कुछ अपने ही बयानों में उलझ जाते है 

भाषा जिसे आती नही उसे समझाना होगा 
कुछ नही तो इशारो में ही उसे बताना होगा 
यही समझ बूझ हर जगह दिखलानी होगी 
जो कहना चाहे वो बात ही वहां पहुंचानी होगी 


अरुणा सक्सेना 

घर से निकले बङा था जोश ,
देखे दाम तो उङ गये होश ।


प्रभा मित्तल 

आए तो थे साहब बड़े ताव से,
खाना भी चाहते हैं बड़े चाव से,
अच्छा सा लज्जतदार खाने को
मीनू में ढूँढ रहे हैं वो बड़ी देर से।

यह हिन्दी में ही लिखा है फारसी में नहीं,
सोच-सोच वेटर भी हैरान सा परेशान है,
दाम देख उनकी जान पर बन आई है,क्योंकि
साहब ने आज की स्पेशल डिश मँगवाई है।



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Monday, January 28, 2013

28 जनवरी 2013 का चित्र और भाव





नैनी ग्रोवर 

तुझसे मिले छाँव मुझे, तू ही बरखा से है बचाए, 
और कभी कभी तू बूड़े दादा की, लाठी बन जाए ..

हाथ में हो गर छतरी, तो बड़े काम ये आती है, 
राह में चलती नाज़ुक नार, वीरांगना बन जाती है 
इसके साए में बैठ के प्रेमी, गीत प्रेम के हैं गाएँ.


बालकृष्ण डी ध्यानी ...

छाता मेरा

छाता मेरा
या मै छाते का
दोनों घुमे
संग संग झूमे
छाता मेरा

गोल गोल है
देखो ये चक्रधारी
जैसे वो दिखे
लगे मेरे मुरारी
छाता मेरा

धुप बरखा
का वो रक्षक
तन मेरा मन मेरा
रहे अब सुरक्षीत
छाता मेरा

छाता मेरा
मुझे सीखता
अपने पराये
को मीत बनता
छाता मेरा

छाता मेरा
या मै छाते का
दोनों घुमे
संग संग झूमे
छाता मेरा


किरण आर्य 

छाता हाँ छाता ये 
जगा गया उन 
अहसासों को फिर 
जब पहली बारिश में 
भीगे हम तुम .............

वो मौसम की नमी 
महसूस हुई फिर 
वो थाम हाथ मेरा 
मुस्कुराना तेरा 
और अल्हड़ सी 
हंसी सजोये आँखों में 
भीगना और चलना संग तेरे ......

वो बारिश देखो 
आज फिर भिगो गई 
सुप्त अहसासों को 
जो उस प्रथम मिलन 
के साझी थे तब भी 
और आज भी .........

आज फिर रूह 
महक उठी फिर 
सौंधी मिटटी की 
महक से 
जो रच बस गई थी 
मन में 
और छाता वो 
मुस्कुरा रहा था 
उस मिलन पर रूह से रूह के 


ममता जोशी 

नीली छतरी ,पीली छतरी,
देखो रंग बिरंगी छतरी ,
वर्षा हो या धुप घनेरी ,
सुख और दुःख की साथी मेरी,
हर मौसम में साथ निभाती ,
आसमान सी सर पर छतरी...


डॉ. सरोज गुप्ता 

मेरे छतरी वाले रे 
दिलों पर आकर राज किया !

जब जब उड़ी सावन की फुहारे 
लहराई जब केश राशि 
भीगने लगा मेरा आंचल 
शीत से कम्पित हुआ गात 
तू भागा चला आया 
ले छतरी अपने हाथ !

मेरे छतरी वाले रे 
दिलों पर आकर राज किया !

रात के अंक में 
भोर की आस में 
डूब गए जब मेरे 
रुपहले सृजन 
उदास हुयी सूरज की लाली 
तूने ही गले लगाया 
ओ आकाश की छतरी नीली !

मेरे छतरी वाले रे 
दिलों पर आकर राज किया !

देखा मैंने ओ छतरी 
जब तुझे पकड़े
चल रहे थे संतरी 
पापो की गठरी लिये 
आगे -आगे भाग रहे थे मंत्री 
उतर जायेगी सारी ऐंठ 
जब होगी नीली छतरी वाले से भेंट 
नहीं है यह कोई मामूली टेंट 
यह है विमान जंबो जेट 
जब उड़ जाएगा 
अभिशापों से 
भीग जाएगा पोर -पोर !

मेरे छतरी वाले रे 
दिलों पर आकर राज किया !


Vinay Mehta 

नीले नीले अम्बर पे जब भी कुछ छाए
मेरी रंगीन छतरी झट से फिसल हाथों से
टपक सर पे आ जाये मौसम को चिडाये
काश सरमाया हो ठीक एसा ही, मेरे खुदा
जब बदली दुःख गगन सर चढ़ के आये
तेरी रहमत छतरी सब पे यु ही आ जाये !!


अलका गुप्ता 

देख कर छतरी याद आ गई 
हे ! उपर वाले तेरी छतरी |
जिसकी छाया में जीता हर प्राणी |
ये छतरी मेरी कितनी सीमित |
केवल स्वार्थी तन मन को है बचाती 
धूप और बरसात की छीटों से
पर हे ! उपर वाले तेरी छतरी !
कभी नही हटती ...किसी बेचारे से !
कभी नही करती भेद-भाव |
पल-पल बदले रूप निराले |
कभी नीले से लाल....
कभी काले सफेद बदरी वाले |
कभी सूरज चाँद कभी टंके सितारे |
कभी घोर कालिमा वाली हो जाती 
कितना सुंदर कभी इंद्र धनुष बनाती||


भगवान सिंह जयाड़ा 

वाह रे छतरी तेरी माया न्यारी ,
धूप हो या बारिस सदा तैयारी ,
हर मौसम में है तेरी जरूरत ,
विन तेरे यात्रा सब की अधूरी ,
रंग बिरंगी तेरी यह सूरत ,
भाये हम सब को न्यारी ,
सबके हाथों में तुम लगाती प्यारी ,
वाह रे छतरी तेरी माया न्यारी ,
धूप हो या बारिस सदा तैयारी,

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

मैं हूँ छतरी 
धूप हो या बरखा करते सब मेरा प्रयोग 
कभी हथियार कभी सहारा बनाते लोग 
राजा महाराजो की शान मुझसे बढ़ती थी 
बाकी लोगो के हाथो में काली दिखती थी 
प्रेमियो के भाव मेरे तले साँस लेते थे 
गीतों भी में मुझसे अभिनय कराते थे
आज बदल गया मेरा रुप और आकार 
अब विभिन्न रंगों में आती हूँ मैं नज़र 
वों मेरा विशाल रूप अब कहीं खो गया है 
अब तो तोड़ मोड़ कर पर्स में आ जाती हूँ 
अब मेरे नये रूप को तुमने अपनाया होगा 
शायद पुरानी यादो में तुमने संजोया होगा




Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 

मैं नीली पीली छतरी ।
मैं भीगी2 सी छतरी ।
कितने ही प्रेमी युगलों की तसवीरें ।
मेरी छाया तले उतरी ।
कितने ही रूमानी गीतों की प्रेरणा हूँ । ।
प्रेम मिलन की गवाह हूँ मैं ।
ज़माने से बेपरवाह हूँ मैं ।
रंग बिरंगी वेशभूषा मेरी ।
बालपन की उमंग हूँ मैं ।
ताप की दवा हूँ मैं ।
धूप से लड़ी हूँ मैं ।
मैं भी रूप हूँ माँ का ।
प्रेम का आँचल दूं, मैं ।
*********

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Sunday, January 27, 2013

26 जनवरी 2013 का चित्र और भाव


26 जनवरी 2013 के इस चित्र मित्रो को भाव निम्नलिखित दो पंक्तियों के आधार पर लिखने थे 
भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
( मित्रो के भावो को प्रवर्तित किया है कुछ जगह आशा है उन्हें पसंद आएंगे )


सोया जनतंत्र जगाने को, अपना गणतंत्र बचाने को 
जन -जन में विश्वास जगाएं, मिलकर ऐसा कर जाएँ 
होकर निर्भय, आओ तिरंगा हम सब गर्व से लहराएँ
छू कर मिट्टी भारत की, आओ हम माथे पर लगाएँ 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                     (ममता जोशी)
अनगिनत गिले - शिकवे हैं हमें अपने शासकों से,
अनेक हैं चाहे मतभेद हमें देश के राजनीतिज्ञों से,
कुर्बानी कैसे होती है आओ सीखे हम अपने शहीदों से 
तिरंगे की अस्मिता पर, कुर्बानी देंगे हम पहले सबसे.

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                   (Yogesh Raj)
यहाँ हर दिल में ख़ास रौशनी होती है.
प्रेम - मोहब्बत भरे जज्बात सबके है.
मंदिर - मस्जिद- गिरजाघर भी बोले,
एक ही मिट्टी से मुलाक़ात हमारी है.

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

जाति - जमात में जो बांटे हम सब को,
कह दो हमारी एक हिन्दुस्तानी जात है.
भ्रष्टाचार मिटाने को लड़ रहे हैं हम सब,
पर हम पर ये हो रहा कैसा आघात है ?

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

अब उठो जागो ऐ मेरे वतन के लोगों,
जम्हूरियत की अब तो निकली बरात है
साथ मिल के अब आगे ही आगे जाना 
हर हाथ तिरंगा वतने हमारा आज़ाद है 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                 Vinay Mehta 
गरम, नरम और शांति का हम लेकर रंग
सदा रहेंगे हम मिलकर, एक दूजे के संग
बस यह एक सन्देश दुनिया को हमारा है
हम सहनशील हैं हद तक, अभी इतना जानों

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

धैर्य को कमजोरी तुम हमारी न मानों 
सुभाष भगत आज़ाद को भी तुम जानों 
आँख उठाने की हिम्मत न तुम कर देना 
उठ गए हाथ गर तो पडेगा तुमको पछताना 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे

एक गाल पर पड़े तो दूजा आगे कर देते है
पर तीजे की इन्तजार कभी नहीं हम करते है,
फिर तुम समझ लेना क्या से क्या हो जायेगा 
हम से टकराने वाला बस फूट फूट कर रोयेगा 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे
                                                                                             भगवान सिंह जयाड़ा 
मना रहे है गणतंत्र दिवस आज हम 
केवल इस दिन गौराविंत होते है हम 
जरुरी है गणतंत्र का मतलब समझे 
देश की खातिर अपना कर्तव्य समझे 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे

समाज, देश के प्रति जिम्मेदारी निभाएँ
जन जन के प्रति हम अपना प्रेम दिखाएँ 
तिरंगे हर दिल अजीज बने ये समझाएँ
शत्रु को दे जबाब भारत का गौरव समझाएँ 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे
                                                                                           प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
बहुत डाल चुके मजहबी फूट भाई भाई में ।
अब राष्ट्रधर्म को अपना मजहब हम बनायेंगे ।
खींच रहा है कौन, लहू का रंग इस तिरंगे में ।
ओढ़नी केसरिया की माथे उसके लहरायेंगे 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

भारत के हम बाशिंदे, भारतीय हम कहलायेंगे ।
छोड़ लफ्ज़ इंडिया, हर दिल स्वाभिमान जगायेंगे ।।
भारत हमारी जननी है, इसको मान हम दिलाएंगे 
जय हिन्द और वन्दे मातरम का भाव हम जगायेंगे 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                Nautiyal Rameshwari 

भारत सिर्फ देश नहीं मान है हमारा 
जिसपर न्योछावर तन मन हमारा 
संस्कारों संस्कृति से निर्मित जीवन 
फिर क्यों हो गरिमा इसकी धूमिल 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

गाते है शान से झंडा ऊंचा रहे हमारा 
फिर क्यों इसके तले नफरत पनपती 
मजहब के नाम पर क्यों होता बंटवारा 
जब एक है हम और एक है राष्ट्र हमारा 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

फिर एक अलख हर दिल में जगायेंगे 
आक्रोश को लड़ने का अस्त्र अपना बनायेंगे 
कुरीतियों विकृतियों से निजात हम पायेंगे 
है ठाना फिर देश का गौरव उसे दिलाएंगे 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे
                                                                              किरण आर्य 
गर्व अपने तिरंगे पर गर्व अपने गणतंत्र पर
आँच इस पर आने देंगे न इसको झुकने देंगें,
तिरंगा प्रतीक है शांति, शौर्य और खुशहाली का 
कटवा देगें सर इसकी आन, बान और शान पर,

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

इस तिरंगे की खातिर, वीरों ने है जान गवाई
लहराया झंडा हर जंग में, जब थोपी गई लड़ाई
याद दिलाता हमें तिरंगा, आजादी की लड़ाई का
करे इसे नमन, लेकर प्रण इसे गौरव दिलाने का 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                     Dinesh Nayal 
हवाएं दरिया पहाड़ जंगल गूंजे शूरवीरों की गाथाओं से |
बच्चा-बच्चा लहराए तिरंगा अपना, गर्व और शान से |
हे ! सरजमीं पर मिट जाने वाले अम्रर शहीद जवानों!
तुम जैसे छलकें भाव देशप्रेम के, हर ह्रदय हर आँख से ||

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                   अलका गुप्ता 
भगत सिंग, सुखदेव, राजगुरु जैसे तेरे बेटे हैं, 
आज भी सरहद पर, कफ़न बाँध कर जो बैठे हैं ..
थामे हाथो में बन्दूक, जुनून मर मिटने का है 
तेरी लाज बचाने को माँ, जननी को भूले बैठे हैं!! 

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                              नैनी ग्रोवर 
तिरंगा !! हमें जान से भी प्यारा है !
यह गर्व हमारा ! मान भी हमारा है !!
बाँटने की साजिश ना कर ...दुश्मन !
जीना इसके लिए तो मरना भी गवारा है !!

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

हम हैं हिन्दुस्तानी नारा यही हमारा है !
मजहब का नहीं बंटवारा कोई हमारा है !!
बदल देंगे नीतियों से जगा कर अलख 
विश्व में रूप न्यारा ये वादा हमारा है !!

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।

जीना है शान से ....हर भारत वासी को 
करें पालन कर्तव्यों का तो अधिकार हमारा है 
लहराया है परचम तिरंगे का विश्व में 'हमने'
बार-बार बढ़ता आत्म-विशवास हमारा है !!

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                अलका गुप्ता 
कर्म न करे येसा कि शर्म से सिर झुके हमारा।
दुआ है आन-बान-शान से लहराए तिरंगा प्यारा।।
हम भारत के वासी, इस पर आँच न आने देंगे,
एकता की बन मिसाल, दुश्मन से लोहा हम लेंगे।

भारत की गरिमा को हम कुछ न होने देंगे
तिरंगे की खातिर हम सब कुछ कर जायेंगे।
                                                                                प्रभा मित्तल 

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निम्नलिखित मित्रो के भाव नही ढाल पाया ... उन्हें उसी रूप में पेश कर रहा हूँ 

बालकृष्ण डी ध्यानी 

मेरा भारत 

देख एक गांधी की जरुरत है 
देख फिर एक आंधी की जरुरत है 

हम में समाये हैं वो सब 
बस साथ साथ आने की जरुरत है 

देख एक भगत की जरुरत है 
एक खाली फंदे की जरुरत है 

साथ आना कुछ नही अब 
एक साथ गरजने की जरुरत है 

देखा एक सुभाष की जरुरत है 
उसे अब भी खून की जरुरत है 

आजादी मिली पर आजादी कंहा
अपनों में वो सीमित रह गयी है 

देख एक भारती की जरुरत है 
हर मुख गरजे वन्दे मातरम् इस भारत की जरुरत है 

वन्दे मातरम् वन्दे मातरम् वन्दे मातरम् ....जय हिन्द जय भारत 


कल्पना बहुगुणा 

मिलता एक दिन का सम्मान जिसे 
फिर तो साल भर अपमान ही सहना है जिसे 
ऐसे तिरंगे को फेहराने से क्या
फेहराता था कभी ऐसा तिरंगा
नाज होता था फेह्राने वालों पर 
और दिल से आवाज़ उठती थी 
हम सब भारतीय है एक है! हम एक है !!!!!

केदार जोशी एक भारतीय 

कुछ बाहरी देश के लूट पाट से, कुछ अपने देश के गदार से ,
कुछ कमीनो के अत्याचार से , कुछ नेताओ के चुंगल से 
हे तुजे बचाना, मेरे तिरंगे ,

कुछ सेनाओ के बलिदान से , तोह कुछ अपने ही लाल खून से ..
हे तुजे बचाना मेरे तिरंगे , हे तुजे बचाना मेरे तिरंगे


उदय ममगाईं राठी 

सौंपी है बागडोर जिनके हाथों में उनको पहरेदार चाहिए 
भारत भूमि की रक्षा के लिए न ऐसा अब गद्दार चाहिए
एक तमगा देकर ये फिर हर एक को ढांढस बंधायेंगे 
तिरंगे की खातिर हर दिन हम इक लाल को कुर्बान कर जायेंगे




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Friday, January 25, 2013

24 जनवरी 2013 का चित्र और भाव


(२४ जनवरी के चित्र पर मित्रो / सदस्यों के भाव )


नूतन डिमरी गैरोला 

बचपन गुमसुम तन्हा उदास
मम्मा गयी है ओफिस
पप्पा दौरे पर ख़ास
बचपन गुमसुम तन्हा उदास

Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 

दो नन्ही हथेलियाँ ..
नसीब अपना खोज रही हैं ..
किसे कहूँ माँ ?
इक धरा, एक जननी ..
दुविधा में नन्ही जां ..
नन्ही सी हथेलियाँ ..
धरा से दुबुल नोच रहीं हैं ..
माँ को तरसता बचपन ..
नम निगाहें, होठों पर कम्पन ..
धरा माँ, आंसू शोख रही है 

Pushpa Tripathi 

मै बचपन ..... छोटा हूँ बचपन
नन्हे है पाँव , नन्हे से हाथ
मुट्ठी भर जमीन, सिमटा आसमान
बेफिक्र सा हर पल
मै बचपन ........

छोटी सी आशा भोला सा मन
मासूम सा चेहरा, मीठे है बोल
मिटटी पर कुरेदता जाने क्या भ्रम
समझता नहीं कुछ
मै बचपन .............

चिन्ता नहीं कोई मुझको, मै निडर अज्ञान
नहीं नफरत दिल में कोई
रहता हर मस्त अपना हाल
धुन में रहता शरारत बहुत
मै बचपन ............

मम्मी मेरी बड़ी महान
पापा मेरे कितने दिलदार
जो भी मांगो मिल जाता है
रो गाकर सब हो जाता है
मै बचपन .........

खेलना कूदना अपना है काम
कार्टून में मै रमता जी जान
नखरे मेरे बहुत ही बड़े
अकड़ है मेरी नहीं किसी से कम
मै बचपन ..............

Yogesh Raj 

मै यहाँ बैठा कुछ बना रहा हूँ,
बचपन की जागीर बना रहा हूँ,
जिन्हें मै बाद में याद करूँगा,
उन लम्हों का लुत्फ़ उठा रहा हूँ.

बालकृष्ण डी ध्यानी

अवाज लगाई थी ...

अपने ही लगी हुयी हूँ 
क्या चुनो ये सोच रही हूँ 

कण कण खोजों रही हूँ 
पल पल वो बीन रही हूँ 

श्रण दिख जाये कंही पर 
आकर हंस जाये यंही पर 

जो में सोच रही हूँ 
अपनों को खोज रही हूँ 

धुंधली सी छाया है वो 
यंहा से दूर खडी साया है वो 

पिता कहा इतना माँ ने 
फिर भी तस्वीर से निकला ना वो 

अपने ही लगी हुयी हूँ 
क्या चुनो ये सोच रही हूँ 

जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु 

"बिखर रहा बचपन"

तन मन मेरा नन्हा,
बिखर रहा बचपन माटी में,
मुझे पता नहीं है,
निश्चिंत हो माटी के संग,
खेल रहा हूँ,
ऐसा है बचपन मेरा,
बीतने पर नहीं लौटेगा,
मुझे पता नहीं है,
मैं तो मस्त हो माटी में,
एक अलख जगा रहा हूँ,
बीता होगा बचपन आपका,
माँ और माटी के संग,
याद दिला रहा हूँ।


किरण आर्य 

आह बचपन जो मेरा आहुति चढ़ा
आधुनिकता व् मह्त्वकंशाओ की
उसे आज ढूंढें मन मेरा मिटटी तले

हाँ उदास हूँ और व्यथित भी थोडा
स्वछंद उड़ने को विकल मन मोरा
सपने सुनहरे फिर बोने मैं चला
धरती के आंचल को भिगोने चला

क्या बचपन के सपनो का वृक्ष
फलेगा फूलेगा फिर से चहकेगा
मुर्झाया नितांत अकेला बचपन मेरा

हाँ अब है साध यहीं मिले राह
पंखो को जो कर रहे उड़ने का हौसला
और मिल पाऊं मैं उस बचपन से
जो मिटटी तले जाने कब गुम सा गया

अरुणा सक्सेना 
बचपन की मासूम निगाहें ,स्वप्न मन का करे साकार 
आड़ी -तिरछी खींच लकीरें ,शायद कोई बने आकार ............


नैनी ग्रोवर 

हर जगह तुझे ढूँढ-ढूँढ कर, माँ हार गए मेरे नन्हें पाँव 
तेरे सिवा, कोई ना ले गोद में, लगता पराया सारा गाँव ..

कहाँ गई तू छोड़ के मुझको, नज़र मुझे क्यूँ नहीं आती है,
कौन करेगा, कड़ी धूप में मुझपर, माँ अपने पल्लु की छाँव!!


संगीता संजय डबराल

क्यूँ छीन लिया बचपन,
इन नन्हें क़दमों ने,
अभी ठीक से चलना भी न सीखा,
और तुमने मेरा कर दिया "एडमिशन"
क्यूँ छीन लिया बचपन,
गिल्ली डंडा, लट्टू कैरम,
छुपन छुपाई, पिठू, कन्चे
कितने थे वो दिन अच्छे,
कंप्यूटर टी.वी की दुनिया
नए नए सब "एनिमिनेशन"
क्यूँ छीन लिया बचपन,
छूट गये सब बाग़ बगीचे,
कोमल कन्धों पर भारी बस्ते,
मौज मस्ती, हुल्लड़ बाजी,
खुशियाँ सारी पिछड़ गईं,
पास करो बस "कम्पटीशन"
क्यूँ छीन लिया बचपन,
वो भोलापन और मासूमियत
सबकी लगती है कीमत
पहले दिन भर रहते मस्त,
अब दिन भर हम व्यस्त,
दिन प्रतिदिन एक नया "एक्शन"
क्यूँ छीन लिया बचपन,
खुरच रहा हूँ,नाखूनों से,
शायद मिल जाए मुझको,
वो खुशहाल बेखौफ बचपन"

बलदाऊ गोस्वामी 

बच्चपन का एक जमाना था।
खुशियों का खजाना था।।
चाहत चाँद को पाने की थी।
दिल खेल का दिवाना था।।
दादी माँ की कहानी थी।
बडी ही प्यारी थी।।
मन में अनबूझी पहेली थी।
मिट्टी पर सुलझाने बैठी थी।।
आडी-तिरछी की लकिरें थी।
जीवन में एक नई मोड आनी थी।।
बच्चपन............

अलका गुप्ता 
मैं राही.....एक बचपन का |
निश्चिन्त मासूम सा बच्चा हूँ |
मम्मा पापा ने दुलराया भी|
प्यार से खूब सहलाया भी||

आज मैं नारज कुछ हूँ |
जिद में मचला बहुत हूँ |
तंग करने का इरादा है |
यहाँ एकांत में आया हूँ ||

ढूंढेगे जब परेशान होकर |
होगी माँगपूरी कुर्बान होकर
मैं क्यूँ करूँ चिंता बच्चा हूँ !
करूँ क्या मन का सच्चा हूँ !!

अलका गुप्ता 

मैं बचपन ! अनजान निश्चिन्त राह का पथिक एक |
मैं ढलता ! हसरतों की सीढियाँ चढ़ता हर पल अनेक |
रूठता मचलता झिझकता हंसता चहकता अबोध सा |
जैसे मिटटी हो कुम्हार की निराकार गीला लौंदा एक ||


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Wednesday, January 23, 2013

23 जनवरी 2013 का चित्र व् भाव





प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

पानी जीवन है
जल बिन जीवन कैसा होगा
सोच लेना तुम
जल बिन मछली जैसा होगा

पानी को बचाना
प्रकृति से प्रेम करना भी होगा
पानी का उचित प्रयोग
हर पीढी को जीवन देना होगा

पानी के प्रति
सजग हमें हर पल रहना होगा
पानी से प्रेम
पर्यावरण की खातिर करना होगा


डॉ. सरोज गुप्ता ......

जल को न यूँ बहाओ 
जीवन मछली को न सताओ 
जीवन ठहर जाएगा 
गीत रुक जायेंगे !

जल को न यूँ बहाओ 
स्वप्न टूट जायेंगे 
कल्पना बिखर जायेगी 
रेगिस्तान में फूल कैसे खिलेंगे 
कांटें बन तुम्हें चुभेंगे !

जल को न यूँ बहाओ 
जल से ही नई कोपलें 
जीवन -लतिका में फूटेंगी 
रेत के घरौंदे फिर से 
जीवंत हो उठेंगे 
मधुर -संगीत से 
जीवन -मछली 
खिलखिला उठेगी !


अरुणा सक्सेना 

बूंद -बूंद से सागर भरता 
जल ही सबकी रक्षा करता
मेरा तो जल ही है जीवन 
और इसके बिन कोई न बचता 
बूंद -बूंद को चलो बचाएं 
आओ हम सब कसम उठायें 

Yogesh Raj 

स्त्रोत हैं समापन की ओर,
संचय हो रहे नष्ट धीरे-धीरे,
जीवन बढ़ रहा संशय की ओर,
प्रकृति-प्रदत्त सौख्य न रहेंगे,
जीवों का कल्लोल न दिखेगा,
यदि प्रकृति से की खिलवाड और.

नैनी ग्रोवर 

अब भी संभल जाएँ, अब भी समझ जाएँ, 
कहीं ऐसा ना हो, बूँद-बूँद जल को तरस जाएँ 
कर चुके बहुत बर्बादी, कितना सहेगी ये धरती 
खोलो आँखे, गौर से देखो, शायद आँखें बरस जाएँ ..!!


Pushpa Tripathi ... 

जल बिन कछु नाही ...
जल बिन मछरी जैसे तरसे 
तैसे मानव भी बिन नीर 
इक इक बूंद है जीवन आधारा 
हर बूंद में अनंत देह समाय ............

संचय जैसे निधि करत सब 
जीवन भविष्य बने आसान 
तैसे ही तुम करो संरक्षण 
नीर बिन जीवन नाही ....................

खालो कितने ही मिसरी मिठाई 
पानी बिन न मिलत, कंही चैन 
ये तो जीवन अमूल्य रस है 
इसमे मन तृप्ति अघाय .............

मानव पशु पक्षी सब वृक्ष संसार 
निर्भर बूंद बूंद प्यास सब ही प्राण 
तनिक तो सोचो ज्ञानी ध्यानी 
जल बिन कैसे देह ............

भर गागर में अमृत रस यह 
जीवन का मुख्य आधार 
नष्ट न करो .... व्यर्थ न करो 
यह रस घटत ही जाय 

बालकृष्ण डी ध्यानी 

पानी बिना मै

पानी का कोई रंग
पानी का कोई अंग नही
बहती जाती है अथाह
कोई छोर कोई संग नही
पानी का कोई रंग

आती है आकाश से
झिर झिर ऐ धरा पर
लेती है वो कई रूप
उसका कोई अवरोह नही

बूंद बूंद विस्मित है
पर वो भी तो सीमित है
पहाड़ पेड़ का हनन
वो अवैध खनन

विकास की दौड़ मै
वो रासयनिक का चलन
कितनी ही गंगा माँ
हो रही आज विषाक्त

ठहरो सम्भाल जाओ
देख कर चित्र वो सबल
जल बिन मछाली सा
तडपत है अब मौरा मन ..३


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु 

"बहुमूल्य बूँद बूँद जल"

जल बिन जीवन,
कैसे सकता है चल,
बहुमूल्य हैं बूँद बूँद,
भविष्य के लिए,
अभी बचाओ जल,
नहीं तो दर्द भरा,
होगा हमारा कल,
बिन जल घोर अमंगल,
इंसान के लिए,
अति आवश्यक है,
जल और जंगल,
बहुमूल्य बूँद बूँद जल

अलका गुप्ता 

जब प्यास थी एक घूंट पानी की । 
क्यूँ बहाए दरिया अंजान होकर । 
भुगतेगी संतान तेरी ऐय्याशियां । 
जल संकट विकटये दुश्वार होकर ।


किरण आर्य 

पानी हर बूँद है जीवन स्त्रोत 
पानी का रंग रूप ना क़ोई 
जिसमे मिले वैसा हो जाय 
जीवन जीने का सुंदर सन्देश
पानी हाँ पानी हमें देता जाय 

ऐसे ना व्यर्थ करो जीवन तुम 
हर पल बूँद सम उपयोगी बनाय 
बिन पानी जिया ना जाए 
मछली सम जीव तडपत हाय 

जब हो पास तो खूब है बहाय 
ना हो तो जीव नीर है टपकाय
समय रहते समझो महत्व इसका 
ऐसे ही पानी जीवन ना कहलाय .

भगवान सिंह जयाड़ा 

धरती का पानी समा रहा है ,
नित गहराई में जा रहा है ,
करो सदा इस का सदपयोग,
इतना न दोहन करो इस का ,
करो न इस का दुरपयोग ,
हम सब मछली है इस जग की ,
पानी नहीं तो सब जीवन सून ,
ब्यर्थ न इस को यूँ बहावो ,
समझो अभी भी बक्त्त है,
घड़ा अभी भी आधा भरा है ,
नहीं तो जैसे जल बिन मीन ,


प्रभा मित्तल 

देखो कैसी है माया कुदरत की
जल से ही जिसका जीवन है
वही मीन जल में रहती प्यासी।
बूँद-बूँद कर बह जाएगा गर यह,
सूखा तो ले लेगा जान मछली की।
सो जल से जीवन है यह गौर करो।

जल ही जीवन है, यह गौर करो
नदी-सरोवर,ताल-तलैया सूख न जाए
इसे संभालो वर्षा से भी एकत्र करो
किसान की है जान इसमें भूखे की आस भी
इसे ना यूँ बहने दो ना व्यर्थ करो।
जल ही जीवन है यह गौर करो।।




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Tuesday, January 22, 2013

22 जनवरी का चित्र और भाव

( 22 जनवरी का चित्र और मित्रो / सदस्यों के  भाव )


किरण आर्य 

उम्मीद की किरणे लो आई
मुस्काती सी आँगन में
फैला उजियारा चहुँ और
मन की आशायें महकी है
क्षुब्द मन आक्रोशित बैठा
कुंठित अँधेरे के कोटर में
और काली रात की स्याही
उसे लील लेने को आतुर
अब उस मन को मिल जायेगी
राह इक सुनहरी सी
बस हौसला जो छोड़ गया
राह में अकेला कहीं
उसको थाम रखना है साथ
और चलना है बेखौफ
उम्मीद के रौशन दीये की
रौशनी संग लड़ते हुए
ये किरणे यहीं प्यारा सा
सन्देश दिए जाती है
और हमें गिरकर संभलने
निरंतर चलने का
पैगाम हाँ पैग़ाम दिए जाती है

जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु 

"पसरा हुआ पथ"
प्रकृति के रंग रूप,
सर्वत्र फैली हुई धूप,
सतरंगी इंद्र धनुष,
छटा बिखेरता धरा पर,
निहारता है इंसान जब,
हर्षित हो उठता है मन,
किधर जा रहा है पथ,
न जाने किस शहर की ओर,
धरती पर हो रही है भोर,
पसरा हुआ है पथ,
न जाने किसकी इंतज़ार में,


बालकृष्ण डी ध्यानी 

चल

चल लौट चल घर को
देख देश बोला रहा है तेरा
राहें सजी है चमक रहा देश तेरा
२१ सदी को बढ़ रहा देश तेरा
चल लौट चल घर को

आस लगाये एक पेड़ खड़ा
बाँट जो रहा वो कौन तेरा
बुढी आंखें कमजोर होई
ऐनक टूटी अब दरस दिखा
चल लौट चल घर को

पर्वतों का दमका माथा
आकाश से उतर कर आ जरा
सुनले धरती की ये पुकार
आज अब तो ना कर इनकार
चल लौट चल घर को

चल लौट चल घर को
देख देश बोला रहा है तेरा
राहें सजी है चमक रहा देश तेरा
२१ सदी को बढ़ रहा देश तेरा
चल लौट चल घर को



सूर्यदीप अंकित त्रिपाठी 

हुआ मेघ सघन, बरसा झर-झर,
पत-पत डाली का डोल उठा,
हुई तृप्त धरा, ऱज कण महका,
खग कलरव वन-घन बोल उठा !!
ले सातों रंग गंगन अंचल,
लहराता हुआ इतराता है,
इस दिशा से दूजे छोर तलक,
इन्द्रधनुष दिखलाता है,
ताज़ी किरणों से छन-छन कर,
ये तेज धरा पर ढोल उठा !!
हुआ मेघ सघन, बरसा झर-झर,
पत-पत डाली का डोल उठा !!


संगीता संजय डबराल 

लौटने को आतुर घरोंदे पर
पश्चिम का पथिक
अग्रसर पथ पर,
श्यामल, सांवल मोहक बड़ा
आसमां से मिलन की कामना पर
पश्चिम का पथिक
अग्रसर पथ पर,
दूर क्षितिज के मोड़ पर
सदैव ही प्रतीक्षारत
स्वर्ण अश्व,इन्द्रधनुषी रथ पर,
पश्चिम का पथिक
अग्रसर पथ पर,
सुबह है या शाम का मंजर
मन भर्मित विस्मित,
मृग तृष्णा सा हर एक पद,
पश्चिम का पथिक
अग्रसर पथ पर,
स्याह लाल, नीला अम्बर
अनजान सी डगर, बिन हमसफ़र
कब चढ़ गया शिखर पर?
पश्चिम का पथिक
अग्रसर पथ पर,


नैनी ग्रोवर 

ये सुबह का उजाला, ये कुदरत के हसीं नजारे,
ये पंछियों की चहक, रंगीं मौसम के सुहाने इशारे ..
कह रहे हैं हमसे, उठो जिंदगी जंग है, लड़नी है
वरना पीछे रह जायेंगे, सारे ख्व़ाब तुम्हारे हमारे!


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल . 

राह अभी पकड़ी है
दूर मंजिल खडी है
एक रोशनी उम्मीद की
देखो क्षितिज पर उभरी है

उजाला फैला नभ पर
हौसला देता पेड़ खड़ा
राह दिखाती प्रकाश रेखा है
देखो सतरंगी छटा उभरी है

अँधेरा कुछ पल का मेहमां
चाँद थोड़ी सी राहत देता है
विश्वास खुद का बढा देता है
देखो काले बादल हटने लगे है

चल अब चले कर्म पथ पर
चल अब चले धर्म पालन करे
छिपे हुए रहस्य जिन्दगी के
देखो स्वयं सामने आने लगे है


ममता जोशी 

लिखने की कोशिश में कलम टूट गया,
बोलना जो चाहा गला सूख गया....
संवेदना से भरा दिल अब शून्य हो गया,
सूर्योदय की तलाश में जब सूर्यास्त हो गया



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Monday, January 21, 2013

21 जनवरी 2013 का चित्र और भाव



Dinesh Nayal 

फैला दिए आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे,
फैले थे जो हाथ कल तक
भगवान के आगे,

आशा यही उम्मीद थी
मिल जाएगा
सब कुछ बिन माँगे,
फैला दिए आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे...

हाँ मजबूर मैं हूँ आज
हाँ आज मैं खाली हूँ
जैब से भी, प्यार से भी
यारों से भी
जो फैला रहा हूँ हाथ
इस कदर दुनियां के आगे,
कोई मिला दे वापस मुझे
मेरे प्यार से मेरे यार से
कोई दिला दे वो पल सुनहरे
बिती यादों के,

फैला दिये आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे.....

एक दिन ऐसा आएगा 'दिनू'
ये लोग ही रोयेंगे तेरे आगे,
खुशी देख ना पायेँगे
और जल जायेँगे तेरे आगे,

फैला दिए आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे........

:

केदार जोशी एक भारतीय 

कितना लाचार है इन्सान 
हाथो की लकीरों पे विश्वास करता है ,
कितना बेबस है इंसान, 
जो खुद को नहीं पहचान सकता है ,
दोस्तों हाथो की लिकारो में विश्वास करोगे 
तो अंधेरो में ही रहोगे ..
कुछ करने की हिम्मत रखते हो 
तो खुद पर ऐतबार और हाथो पर आत्मविश्वास रखो ...


बालकृष्ण डी ध्यानी 

मन का चिंतन

मन का अवलोकन
ध्यान का सम्मोहन
दो हाथों से जुडी ध्यान की ये मुद्रा
परिकल्पना है वो विचारों का चिंतन

मनन और जुगल का योग वो
हाथो की रेखा राशि का योग और जोड़ वो सारांश है
रक़म समुदाय का है वो परिणाम मीज़ान
मात्रा योग समाया भाव हर रास के

एकता संगति समानता मिलाप एकरूपता है योग
इन हथेली की रेखाओं से मिली शरीर की हर रेखा का जोड़
मन विचार बुद्धि मानस मत है वो लक्ष्य का
ध्यान ही है एक ही एक सच्चा निचोड़ा

बुद्धि टोप मन शिरस्राण का निर्धारण है मन
इच्छा वासना और आकांक्षा चाह की अभिलाषा है वो लालसा
इच्छाशक्ति उच्चांक है इरादा उस ध्यान का
झुकाव है उस हस्त के बस आवेदन का

मन का अवलोकन
ध्यान का सम्मोहन
दो हाथों से जुडी ध्यान की ये मुद्रा
परिकल्पना है वो विचारों का चिंतन


भगवान सिंह जयाड़ा 

हे ईश्वर तेरी इबादत में सदा ,
यूँ ही फैले रहें मेरे यह हाथ ,
कर कल्याण तू जगत का ,
कभी न छोड़ना हमारा साथ ,
हाथ न फैलें किसी के आगे ,
लाचार न किसी को करना ,
बस दो बक्त की रोटी सदा ,
मेरी मेहनत की मुझे देना ,
हाथ की लकीरों पर बिश्वाश ,
कभी मैंने किया नहीं प्रभो ,
बस कर्म पर बिश्वाश किया ,
सदा तुम को सुमिरन किया ,


किरण आर्य 

चिंतन हाँ आत्म चिंतन है जरुरी बहुत हे मन
ईश्वर जिसे ढूंढें मानुष जगत की चैतन्यता में
बैठ मुस्कुराये हौले हौले तेरे ही तो अंतर्मन में
बस करनी पहचान और करना है कायम रिश्ता
उस अलौकिक से लौकिक जगत की सीमा में
रूह को करना है रौशन हो ध्यान मग्न पाना है
जिसे पाने को भटकता मानुष ताउम्र मृग सा
कस्तूरी की सुंगंध से आतुर फिरे मारा मारा
और कस्तूरी रूपी ईश् विराजे उसके हृदय में
ध्यान मनन से कायम होगा इक रिश्ता अटूट
मन का उस परब्रह्म से निस्वार्थ चिरायु जन्म जन्मांतर का .

नैनी ग्रोवर 

हाथ पर हाथ रख हम तो देख रहे थे, खेल इस दुनियाँ के,
किसी ने साधू बता दिया हमें, किसी ने भिखारी बना दिया !! 

अलका गुप्ता 

सुन लो प्रार्थना मेरी हे भगवान् !
देना सबको उत्तम स्वास्थ्य !
निर्विघ्न करना सबके काज !
सत्कर्मो में ही हो सबका विशवास !
फैलें तेरे ही आगे हम सबके हाथ !
सबका सब विधि हो कल्यान !
होवे दुखिया ना कोई सृष्टि में प्राणधारी !
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो दुखी !
सब हों निरोग धन धान्य के भंडारी !|
भेद भाव भूल के पावें प्रसाद हर देहधारी !
आत्म चिंतन का गहन मंथन हो !
हो काँधे पर मेहनत का भरोसा !
तोड़ ना देना आत्म-बल किसी का !
जब परीक्षा का समय कठिन हो !!

डॉ. सरोज गुप्ता 

इसकी खुरदुरी हथेलियाँ 
बताती है कि
यह एक कामगार है !
कामगार सृजनहार होता है 
इसकी हथेली में कैद हैं 
चमकीली सीपियाँ 
कही यह रचनाकार तो नहीं ?

रोज -रोज गढ़ता है नया 
फिर उसे मिटाता है !
मिट्टी को मिटटी में मिलाता है 
कही यह कुम्हार तो नहीं ?

इसकी हथेली की 
मोटी -मोटी लकीरें 
लोहे की छड जैसी 
हो गयी हैं 
लोहा लोहे को काटता है 
यह भी काटेगा 
सदियों से जकड़ी जंजीरें 
कही यह लुहार तो नहीं ?

रुखी-सूखी हथेलियों से 
उठायी बोझों की टोकरियाँ 
भूख की आग से जल रही हैं 
पेट की आंतडियां 
सिकुड़ कर हो गयी 
जैसे गली संकरी 
चराते हुए बकरियां 
दीमक ने खा ली है पसलियाँ 
कही यह इंसान तो नहीं ?

संगीता संजय डबराल 

हसरत लिए बैठी थी में
कि कुछ मांगू,
तकदीर से लड़ रही हूँ,
तुझसे तकदीर मांगू,
हसरत थी उठाकर हाथ
तेरे सजदे में जब बैठू
चमक जाये मेरी किस्मत,
कुछ सितारे मांगू,
पतझड़ सा बे-रंग जीवन
कुछ नई बहारें मांगू,
छंट जाएँ उदासियों के बादल
एक सूरज नया मांगू,
रात भी अंधियारी ना लगे,
ऐसी चांदनी मांगू,
खुशियों से भरी रहे झोली,
आसमान सा आँचल मांगू,
पर मेरे "खुदा" मेरी ये दुआ
तब करना पूरी, जब ये सभी खुशियाँ
मैं सबके लिए मांगू,


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
हाथ खाली है 
लेकिन 
मन में 
मस्तिष्क में 
ईश्वर का ध्यान 

हाथो की लकीरों से 
अब कोई शिकायत नही 
जो करना था किया 
खुद के लिए 
अपनों के लिए 
कभी चाह कर 
कभी बेबसी से 
कभी किसी के कहने से 
कभी किसी के बोलने से 

कभी बंद की मुठ्ठी
कभी खोल दी मुठ्ठी 
आज बैठा हूँ 
हथेली खोल खोलकर 
अब लकीरे 
गहरी हो गई है 
ये तो 
मेरे कर्मो की छाप है 
आँखे मूँद बैठा हूँ 
अंतर्मन से 
बात कर रहा हूँ

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