Friday, January 18, 2013

14 जनवरी 2013


~Shanno Aggarwal~ 
कचरा बिखरा कितना सारा, 
तड़प उठा गंगा का किनारा.

~बलदाऊ गोस्वामी~
सहनशिलता की चादर ओढे,निर्मल लिऐ रुप।
नही रोकी अस्तित्व की धारा,कल्प गऐ कितने चुक।।
धरुँ मै जब विकराल रुप,टुटेगा अस्तित्व कीधारा।
करो न सीमालंघन,ओढलो नियमों की चादर।।
न जाने कितने कल्प बिताऊँ,तोडुँ न अस्तित्व की धारा।
सुनलो मेरी पुकार,हे मनुज के अवतार।।
सहनशिलता की चादर ओढे,निर्मल लिऐ रुप।

~Dinesh Nayal~
गंगा आज प्रदूषित है
इसको यूँ ना बेकार करो
गंगा कोई नदी नहीं
यह माता है ,
वेदों की यह साक्षी है
उद्गाता है ,
यही मुक्ति देती है
सबको श्मशान पर
वन में बहती गंगा
बहती चट्टानों में
देवों में भी पूजित -
पूजित इंसानों में ,
मगर आज संकट है
इसके आन -बान पर
गंगा आज प्रदूषित है
इसको यूँ ना बेकार करो,,,,

~Virendra Sinha Ajnabi~ .
अत्याचार ही अत्याचार, चारों और हाहाकार,
क्या प्रकृति क्या इंसान सभी हो रहे शिकार,
कहाँ जाकर रुकेगा ये असभ्यता का तांडव,
देखो जीवनदात्री नदियों का सार्वजनिक बलात्कार.

~बालकृष्ण डी ध्यानी~
देखो

मै असहय पड़ी हूँ
आस्था के नाम पर लुटी हूँ
गंगा कहते हैं सब
कोई माँ कहकर पुकारे मुझे
निर्मल धार थी कभी मै
पाप नाशनी थी कभी अब मै विषाक्त हूँ
जीवन धारा मै थी कल कल
बह रही हूँ अब मै बेकल
ये है मेरा आज ऐसा तो
ना जाने आने वाला कल होगा कैसा
एक नर ने इस धरती पर लाया
एक नर ने ही क्या कर दिया
बहुत ही सोच मे हूँ
आपने ही खोज मे हूँ
मै असहय पड़ी हूँ
आस्था के नाम पर लुटी हूँ

~भगवान सिंह जयाड़ा~
कौन है यह सब के लिए जिम्मेबार ?
हम आम लोग या हमारी सरकार ?
पहाड़ों से निकलती यह निर्मल धार,
आगे झेलती यह प्रदूषण की महा मार,
तन धोते हो इस में ,मन शुद्ध करते हो ,
क्यों इस तरह से, इसे मैली करते हो ,
इस तरह यह पर्दुषित होती जायेगी ,
फिर कहीं यह धरती में समा जायेगी ,
तब होगा चारों जगह हां हां कार ,
तब याद करोगे माँ को बार बार ,
कौन है यह सब के लिए जिम्मेबार ?
हम आम लोग या हमारी सरकार ?

~नैनी ग्रोवर~
मेरे तट पर बसने वालो, जाओ जाकर कहीं बहुत दूर बसो,
कीचड़ बना दिया मुझको, मुझे माँ कहने का तुमको हक नहीं

~सुनीता शर्मा~ -
वही पहचान सकता है ,माँ गंगा की निर्मलता
जिसे परखना आता है , उसके मन की कोमलता
यदि महसूस करना है ,उसकी पवित्रता की भावना ,
पूछो पावन करती जो ,तुम्हारे ह्रदय की कोमलता ,
हरेक पाप धोती है ,मिटाती सबके जीवन के संताप ,
उपेक्षित जीवन जीती है ,फिर भी बढाती जल की कोमलता ,
हर पल रोती है ,देख अपने स्नेह बलिदान की कीमत ,
जिसे पूजनीय रहना था ,गंदगी देख मिट रही कोमलता ,
हमको सिखाती है जो जीवन चक्र की निरन्तरता ,
निश्चल समझकर विषाक्त कर रहे उसकी धाराओं की कोमलता

~अलका गुप्ता~
गंगा माँ है माना !पावन माना !तारिणी माना !
फिर क्यूँ दिया मानव हे ! तूने गंदगी का खजाना |
आस्था में पाली संजोई थी सभ्यता संस्कृति तेरी ..
देख ! निर्बाध गति से अस्तित्व का अंतिम पैमाना ||

~किरण आर्य~
जीवनदायनी पाप हरिणी
कहलाती जो कभी
आज अपने वजूद के
मिटने की कगार पे है खड़ी
पाप हरते हरते ज़माने के
वो विषाक्त हो चली
उन्मुक्त अविरल बहने वाली
गंगा प्रदूषित क्यों हुई
कुछ महत्वकंशाये मानव की
कुछ जमाने का चलन
बन गया पीड़ ह्रदय की
चीत्कार कर रही जलन
अस्तित्व बिखरता सा उसका
हाहाकार उसका करता वमन
जो दिया हमने उसे
आज हमको लौटा रही वहीं
जीवनदायनी पाप हरिणी
कहलाती जो कभी
आज अपने वजूद के
मिटने की कगार पे है खड़ी

~जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु~
"मैं पवित्र गंगा"

आपकी नजर में भी,
फिर क्यों,
मैली करते हो मुझे?
जबकि मै मैली हो गई,
आपके तन के मैल,
और पापों को धोते धोते,
किसने कहा आपको,
मुझे अपवित्र करो,
क्या चाहते हो आप,
कि मैं ऐसा कहूँ,
करूणा करते करते,
मुझे अपवित्र मत करो,
मैं अगर रूठ गई,
कुपित होकर चली गई,
फिर एक भागीरथ को,
जन्म लेना होगा,
मुझे फिर धरती पर,
लाने के लिए,
मेरा विलुप्त होना,
अभिशाप होगा,
धरती पर मानव,
और प्रकृति के लिए,
ऐसा न हो,
मेरी पवित्रता का,
सम्मान करो,
"मैं पवित्र गंगा" हूँ

~प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल~
तुम में
आस्था व् विश्वास
कूट कूट कर भरा है
लेकिन
शायद जीवन में
स्वच्छता का ज्ञान नहीं
कहते हो अमृत
लेकिन करते त्रिस्कृत
निर्मल अमृत जल
अब हुआ विष
कहते हो गंगा माँ
गन्दगी से करते अपमान
घर को अपने संवारते
माँ का रूप बिगाड़ते
मैं धोती पाप तुम्हारे
पेय हो या सिंचाई
मैं घर तक आई
लेकिन तुम्हारे
सौतेले व्यवहार से
मैं खुद शरमाई
मैं जन्म जन्मांतर तक
साथ तुम्हारे रहूंगी
आने वाली पीढी को भी
प्रकृति की गोद में
मैं वही प्यार दूंगी
लेकिन
ये तभी कर पाउंगी
जब तुम मुझको जीने दोगे
गंदगी मुझसे दूर रखोगे,
गंदगी मुझसे दूर रखोगे


सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

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