संगीता संजय डबराल
मेरी नैया पार लगा दे मांझी ओ मांझी
भीच भवंर में अटक गयी
जीवन पथ से भटक गयी
ना इधर हिले न उधर डुले
भीच भंवर में लटक गयी
तूफानों में घिर न जाये
मुश्किल में कही पड़ न जाये.
ये जीवन है एक मझधार
तुझ बिन कैसे पाऊं पार
हाथ जोड़ विनिति करूं
मेरा बनकर साहिल ले चल पार.
इससे पहले आकर लहरें
मुझे डुबो दें, सागर गहरे,
हर धड़कन हर सांस पुकारे
कर क्षमा हर दोष हमारे
हे दयानिधे, दे दे सहारे
हाथ बढ़ा ले चल किनारे
ओ मेरे मांझी
नैनी ग्रोवर
ना कश्ती में है पतवार, ना तूफानों का खौफ़ है
ऐ दरिया ना आजमा, हमें डूब जाने का शौक है
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
हो मौसम कैसा भी कश्ती मंजिल की ओर चलती है
तूफान में भी कश्ती समुन्दर की लहरों में खेलती है
कश्ती मेरे शब्दों की, भावों के समुन्दर में तैरती है
खुशी हो या गम 'प्रतिबिम्ब' उन्हें कलम लिखती है
बालकृष्ण डी ध्यानी
कश्ती हूँ मै
आज मै चली लहरों पर
हिचकोले लेते पैरों पर
कश्ती हूँ मै
समंदर की मस्ती हूँ मै
हो ....अ ..कौन सा किनार छोड़ा
कौन से किनारे की ओर
हया हया हो हया .......
जान है बहुत दूर .............
मांझी रे जाना है बहुत दूर
सकुन है मौजों पर
रवानगी है मेरी पतवारों
छोड़ा चली बाबुल घर
ना जाने क्या होगा अब
हो ....अ ..कौन सा किनार छोड़ा
कौन से किनारे की ओर
हया हया हो हया .......
जान है बहुत दूर.............
मांझी रे जाना है बहुत दूर
दिल है बैचेन
मन खेले है खेल
नित नये रूप दिखाता
पल पल जीना सिखाता
हो ....अ ..कौन सा किनार छोड़ा
कौन से किनारे की ओर
हया हया हो हया .......
जान है बहुत दूर .............
मांझी रे जाना है बहुत दूर
आज मै चली लहरों पर
हिचकोले लेते पैरों पर
कश्ती हूँ मै
समंदर की मस्ती हूँ मै
बलदाऊ गोस्वामी
कितना सुन्दर ,कितना प्यार है।
भव सागर का बीच धारा है।।
बीच धारा में एक सहारा है।
मांझी मेंरा सबसे प्यारा है।।
भवसागर पार करना है।
तुझे ही पार ले जाना है।।
विपत्ती की लहर-लहरा रही है।
मझधार में मेरी नाव डगमगा रही है।।
बलदाऊ गोस्वामी देता तु मुझे एक सहारा।
हो जाता भवसागर का पार किनारा।।
कितना सुन्दर ,कितना प्यारा है।
भव सागर का बीच धारा है।।
अलका गुप्ता
पार लगा दे बेड़ा भवसागर से हे कृपानिधान !
डगमगाती नैय्या तुम्ही सम्भालो हे भगवान !
दूर है किनारा तेज है धारा मैं फंसगई मंझदार
हे माझी ! तुम इस जीवन का करो कुछ संधान !
प्रभा मित्तल
मैं जहाज पथिकों को लेकर चला नगर से
रस्ते में मौसम ने विकराल रूप से डरपाया,
सिर पर गगन भेदते बादलों का साया मँडराया,
सागर की उत्ताल तरंगों ने भी चेताया,
उमड़ - घुमड़ कर घनघोर घटा घिर आई,
घन-गर्जन कर नभ ने बिजली भी चमकाई,
सौ बार मुझे उद्दण्ड लहरों ने आकर घेरा,
पर मन तो मद-मस्त हुआ था मेरा....
अब डर काहे का...विश्वास अटल था अपना।
चल निकला हूँ,गर जीवन है तो मंज़िल तक जाऊँगा।
मुझ पर सवार हर राही को मंज़िल तक पहुँचाऊँगा।
तूफ़ानों से डर बीच भँवर में रुका अगर तो
बन काल का ग्रास कायर ही कहलाऊँगा।
मन में आशा ले,दृढ़ करे संकल्प अगर मानव तो
कोई भी उसको रोक न पाएगा,सच ही...
क्षितिज भी है कहीं तो वो भी कदमों में पाएगा।
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
बहुत ही सुन्दर भाव सभी मित्रों के ..आभारी हूँ प्रति जी :)
ReplyDeleteशुभ प्रभात गुरु सवेरे का वंदन गुरूजी .....सभी मित्रों से सुंदर आकलन किया और आपका आशीष हम पर सदा ऐसे ही बना रहे जय हो
ReplyDeleteशुभ प्रभात गुरु सवेरे का वंदन गुरूजी .....सभी मित्रों से सुंदर आकलन किया और आपका आशीष हम पर सदा ऐसे ही बना रहे जय हो
ReplyDeleteहार्दिक बधाई सभी मित्रों की सुन्दर उत्कृष्ट भाव अभिव्यक्ति के लिए एवं धन्यवाद प्रतिबिम्ब जी आपको... सभी को ...इतने सुन्दर प्रारूप में समेटने के लिए ....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव सभी मित्रों के
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव सभी मित्रों के
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