Wednesday, January 30, 2013

30 जनवरी 2013 का चित्र और भाव

(30 जनवरी 2013 का चित्र और भाव )


Bahukhandi Nautiyal Rameshwari 

प्यार के व्यापार में, देखिये हमारा हाल ।
तन पर ना खाल रही, रहे सर पर ना बाल ।
उनकी ही गलियों में भटक रहे अब देखिये ।
कितना खूबसूरत, मोहक ये उनका रूप जाल ।
ना आकाश रहा अपना, ना डूबने को पाताल ।
त्रिशंकु सा लटक रहा, हँस रहा मुझ पर हर डाल ।
गर तन पर खाल है आपकी जनाब, सर पर हैं बाल ।
दौडिए इस गली से, काट रूप जाल, बचे बाल बाल ।।।


भगवान सिंह जयाड़ा 

मैं एक बदनशीब मानव कंकाल हूँ ,
जिसे पञ्च तत्व नशीब न हो सके ,
न दफनाया गया न जलाया गया ,
बस प्रयोगशाला में लटगाया गया ;
हरदिन लगाती है नुमाइस मेरी ,
मुझे हर दिन जोड़ा तोडा गया ,
कभी सोचता हूँ, खुशकिस्मत हूँ ,
मर के भी लोगों के काम आ रहा हूँ ,


Pushpa Tripathi 

सोच सोचकर क्या मिला
मिला मात्र चिन्तित मन
मन कंगाल ... सब माया जाल
रे मानुष तन कुछ तो संभल
क्या लाया था साथ तू लेकर
क्या जाएगा साथ तेरे
मन भिखारी सब मांगता
तन से करता अधम अपराध
कुछ नहीं इस अभिमानी देह में
बस गांठों का है बंधन जाल
नश्वर तन .. कंकाल खड़ा है
सुन गीता का ज्ञान जरा
अब न समझे .. तो फिर मत कहना
जब चिड़िया चुग जाए खेत ये सारा
प्राण पखेरुं उड़ जाएंगे
तन का चोला छूट जाएगा
रह जायेंगी तुम्हारी अमानत
धरे पड़े सब गाडी बंगला
हाथ पसारे चलना होगा
दो गज जमीन ओढ़ने को कफ़न
यही तुम्हारे साथ रहेगा
रे मानुष तन, अभिमान न कर
करता चल उत्तम काम
फल की चिन्ता मत कर बन्दे
"राह अपनी सोच विचार के "
बढ़ता चल ................बस बढ़ता चल
चलता चल ..........तू चलता चल


बालकृष्ण डी ध्यानी 

कंकाल या मानव

पहले मै ऐंठ हुआ
अब मै छंटा हुआ
पहले था मै बांटा हुआ
अब हूँ मै लटका हुआ
मानव कंकाल हूँ मै
कभी मानव मै भी था

ढांचा मेरा
अस्थि - पंजर सा
सजा हुआ हूँ अंजर पंजर सा
सारांश मेरा इतना
जीवन मरण का अंतर जितना है
कभी मानव मै भी था

रूप -रेख से विहीन
ठाट मेरा अब भी अभिन्न
बदन है ना धड़
देह बिना ये टंगा जिस्म है
टंगा टंगा से कहता हूँ
कभी मानव मै भी था

अब भी कुछ सिखा जात हूँ
मानव को मानव से मिलता हूँ
अब भी इस बात पर इतराता हूँ
अब भी काम किसी के आता हूँ
मानव होने का अहसास दिलाता हूँ
कविता अंत में कहता हूँ
मै भी मानव हूँ


Dinesh Nayal 

आप की याद में इस कदर गिर गये,
तन खाली हो गया
बचा ना कुछ अब बिकने को,
कुछ इस कदर चढ़ा प्यार का बुखार
हो गये कंगाल और बन गये कंकाल!!


जगमोहन सिंह जयाड़ा जिज्ञासु 
"जानना चाहोगे"

किसने किया मेरा ये हाल,
कैसे हुआ मैं कंकाल,
धरती पर था मैं एक इंसान,
करता था मतदान,
बनती थी उनकी सरकार,
पेट मेरा भरा नहीं,
मजदूरी करता था,
स्वयं मैं मरा नहीं,
मुझे मार दिया उन्होने,
अपने पेट की आग,
बुझाने के लिए,
मंहगाई बढ़ा बढ़ा कर,
क्या करूँ,
आज हूँ मैं एक कंकाल


अरुणा सक्सेना 

मानव की पहचान हूँ में .......
हर तन का आधार हूँ में .....
सब हैं मुझसे , हूँ अरूप
लेकिन मुझसे ही ,सुदर स्वरूप
नहीं कल्पना हूँ सच्चाई
समझ आप भी आज ले भाई .........



अलका गुप्ता 

नर था मैं यह कंकाल मेरा |
वह कल था यह आज मेरा |
जीवन भर जो रहा समझता|
क्षण भंगुर सा बीत गया वह |
माया का विकट जंजाल था |
भटकता रहा नर कंकाल था |
पहचानता जो आत्मा को कभी |
जान पाता परमात्मा को तभी |
भौतिक चमक-दमक में सोया|
चाम-दाम को पाने में सब खोया|
जीवन हीन हुआ अब मैं कंकाल हूँ |
व्यर्थ ही यूँ बीत गया इतिहास हूँ |
स्वार्थ में जीवन व्यर्थ तुम यूँ ना गंवाना |
मतलब जीवन का मानव भूल ना जाना||



किरण आर्य 

माटी से निर्मित तन तेरा
इसपर क्यों इतराए मानुष
आज जिस चमड़ी पे घमंड करे
पलभर में कंकाल बन जाए
हतप्रभ खड़ा तू देखता रह जाए
समझे फिर भी ना मन नासमझ
स्वार्थ में लिप्त ये निज में समाय
नियति जब खेल अपने रच दिखाय
जो बटोरा सब यहीं धरा रह जाय
खाली हाथ आये खाली ही रह जाय
सत्कर्म की पूंजी ही संग अपने जाय
जिसकी समझ आये बात ये गूढ़
वो तन ही तर जाय बाकी सब जीवन
मृगतृष्णा में भटकते आजीवन रह जाय


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

दिल और दिमाग के चलते इंसान हूँ
इसी इन्सान में छिपा एक हैवान हूँ
मनमानी अपनी अब करता जाता हूँ
प्रकृति और दिलो से खेलता जाता हूँ

जिंदगी तेरे सामने अब मिसाल हूँ
हाड़ मांस का केवल एक पुतला हूँ
बस एक आख़िरी सांस तक जिंदा हूँ
इंसान था कल आज बना कंकाल हूँ


डॉ. सरोज गुप्ता

यह मेरा कंकाल है
कैसे मान लूँ
खिलाया मैंने इसे माल
चल भेड चाल
उतारी सबकी खाल
तब किया था ऊंचा
कहीं जाकर अपना भाल !

यह मेरा नहीं कंकाल
पिटो कितने गाल
नहीं गलेगी दाल
यह तुम्हारी बेढम चाल
नहीं निकलेगा कोई सुर
लगा लो कितने गुरु -गुर
मिट जाएगा एक दिन
यह खड़ा कंकाल !

प्रभा मित्तल 

क्या कहें इस नर-कंकाल को
ये तो हर मानव में बसता है
जिस रूप पर कल इतराया था
हुआ उसी का आज ये हाल है।
अमीर हो या ग़रीब यही है
सच्चाई हर तन की
जो समझ ले मानव यह भेद,
भोग-विलास-लिप्सा औ स्वार्थ
सबको तज,मन रमाए
सेवा में परहित की ।
सुख से जीवन जी जाए और
दोनों ही लोक सुधर जाएँ।

**********



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

1 comment:

शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!