(29 जनवरी 2013 का चित्र और भाव )
Pushpa Tripathi
टेबल कुर्सी सजी हुई है
कप ग्लास की शान सजी है
होटल में बावर्ची की तांव
मालिकाना फरमाइश गडी हुई है
आज महंगाई का यह आलम
चारों ओर बदहाली का मौसम
पैसे ज्यादा खाने को गम
कम नोटों में परोसे कम
साहब के अब होश उडे है
मन हार अब सीमित ही पाया
मुर्गी मस्स्लम खाने की धुन में
आड़ी तिरछे नोट निकाले
पाकर स्वाद ख्याली पुलाव का
साहब ने फिर ऑडर मंगवाया
क्या खाएं, क्या ना खाएं, हाय मार गई महंगाई,
पड़ कर खाने की सूची, आने लगे चक्कर मेरे भाई..
खाने का नाम नहीं अब, रूपए की सूची देखें हैं हम
चलो पी लेते है एक ग्लास लस्सी, और खा लेते हैं गम
जेब टटोलें बार-बार, कहीं हों जाए ना जग हंसाई ..
डोसा, इडली, पिज्जा, टोस्ट, और पनीर बिरियानी,
अपने तो इस बजट में, हाय अब कभी नहीं है आनी,
तौबा-तौबा करते करते, हमने आखिर लस्सी मंगवाई
बालकृष्ण डी ध्यानी
महंगाई से प्यार है
महंगाई से प्यार है
पर्स में रुपयों का उधार है
चहकता है वो
देखकर लजीज पकवान है
बैठा पाता जब उस स्थान में
रेस्टोरंट का वो मकान में
टेबल गोल फैला सा होता है
कुर्सी पर मै मेजबान सा बैठा होता हूँ
बैरा हँसता हुआ आता है
अंदर से वो कुछ कहता है
ये तो कड़का है
ठंडी हवा से ही पेट इसका भरता है
ये क्या मंगायेगा
फिजूल में मेरा वो समय खराब कर जायेगा
बोनी में ही आज नुकशान हो जायेगा
प्रियता से मुस्कान साथ से
बैरा ने मुझसे पुछा
श्रीमान क्या खायेंगे आप
मैंने कहा मेनू दिखावो
उसने तुरंत पकड़ा दिया
कलम आर्डर पेज हाथ में लेकर
मेरा मुहं वो ताकने लगा
मैंने मेनू के पेज पलटाये
नजर गडी मेनू पर
दिल मेरा अब घबराये
देख हालत पर्स की
यूँ ही पेट मेर अब भर जाये
जंह पानी भी बिकता है
हवा सिर्फ मुफ्त में मिलता
अपना हक यंहा नही बनता है
मै जर सकुचाया
कुर्सी थोडा हिलाया
बैरे से बताया माफ़ करना मित्र
मै गलती से इधर गुजर आया
चुपचाप वंहा से मै निकल आया
अब वाकई में लगता है की
मुझे महंगाई से प्यार है
ले तो आए हैं हाय ! इसे इस महंगे होटल में |
ढीली है जेब अब छूटेंगे कितने के टोटल में |
पता नहीं हाय !क्या डिस मंगा कर खाएगा |
हे ! भगवान कोई तो जुगत डाल मेरे भेजे में||
किरण आर्य
ये साहब क्या मंगा रहे है
भेजे में क्या पका रहे है
ख्याली पुलाव बना रहे है
या तंदूरी चिकन उड़ा रहे है
देख इनकी ये भीनी मुस्कान
बैरे को भी चक्कर आ रहे है
जेहन में उसके प्रश्न चिन्ह
मक्खियों से भिनभिना रहे है
मेन्यु कार्ड को देख ये जनाब
बत्तीसी अपनी चमका रहे है
बैरे जी देख उनका ये रुआब
बंगले झांकते नज़र आ रहे है
वैसे महंगाई का जो है आलम
आम जन ख्याली पुलाव पका
जिदंगी का बोझ ढ़ोते जा रहे है
कुछ हतप्रभ खड़े कुछ दांतों तले
ऊँगली अपनी ही चबाये जा रहे है
साहब पहुंचे होटल ताज
जेब में फूटी लेकर पांच
ऑर्डर मंहगे देकर घाव
कम रूपये में डिसेस खास
वेटर मन हार उकसाया
दिल पर चोट सी मुस्काया
कहकर बोला मीठी ये बात
इतने में नहीं कोई आस
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
चलो कुछ खाना खिला दो
जो मांग रहा हूँ उसे ला दो
इतना विस्मय से देख रहे क्या
क्या हुआ? समझे नही क्या ?
जीवन में येसे दृष्टांत कई होते है
जो कहा उसे लोग समझते नही है
अपनी समझ से विवेचना कर लेते है
शब्दों की अलग व्याख्या कर देते है
कुछ स्पष्टीकरण तो बहुत सुन्दर देते है
कुछ शब्दों के जाल में हमें घेर लेते है
कुछ अनुवाद अलग से कर हमें लुभाते है
कुछ अपने ही बयानों में उलझ जाते है
भाषा जिसे आती नही उसे समझाना होगा
कुछ नही तो इशारो में ही उसे बताना होगा
यही समझ बूझ हर जगह दिखलानी होगी
जो कहना चाहे वो बात ही वहां पहुंचानी होगी
अरुणा सक्सेना
घर से निकले बङा था जोश ,
देखे दाम तो उङ गये होश ।
प्रभा मित्तल
आए तो थे साहब बड़े ताव से,
खाना भी चाहते हैं बड़े चाव से,
अच्छा सा लज्जतदार खाने को
मीनू में ढूँढ रहे हैं वो बड़ी देर से।
यह हिन्दी में ही लिखा है फारसी में नहीं,
सोच-सोच वेटर भी हैरान सा परेशान है,
दाम देख उनकी जान पर बन आई है,क्योंकि
साहब ने आज की स्पेशल डिश मँगवाई है।
सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/
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